मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: असहाय समाज वर्ग जम्मू

  • श्रेणी:, ,

    सद्गुण संस्कार और हमारा दायित्व

    आलेख - मानव जीवन दर्शन असहाय समाज वर्ग जनवरी जून 1996 
    ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्मांड बड़ा विचित्र है l सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल के मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का का द्योतक है कि समस्त ब्रह्मांड में जो भी अमुक वस्तु विद्यमान है, वह अपने किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है l 
    बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मयूर का मस्त होकर नाचना और भोर के समय पक्षियों का चहचहाना किसी शुभ समाचार की ओर इंगित करता है l अगर ऐसा है तो प्राणियों में सर्व श्रेष्ठ, विवेकशील मनुष्य का जीवन नीरस और अंधकारमय कदाचित हो नहीं सकता l जब उसका जन्म होता है जो उसके जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य भी होता है l बिना उद्देश्य के उसे जन्म नहीं मिल सकता है l यह प्रकृति का नियम है l गुण और संस्कारों का जीवन के साथ जन्म-जन्मों का संबंध रहता है l जीवन उद्देश का उसने अपने इसी जीवन में पूरा अवश्य करना है जिसके लिए वह संघर्षरत है l ध्यान और सूक्षम दृष्टि से उसका अध्ययन करने की आवश्यकता रहती है l उसके भीतर लावा समान दबा और छुपा हुआ भंडार दिव्य गुण और संस्कारों के रूप में उसके जीवन का उद्देश्य पूरा करने में पर्याप्त होते हैं l वह समय पर बड़े और कठिन से कठिन भी कार्य कर सकने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं l आवश्यकता मात्र है तो नवयुवाओं को गुण और संस्कारों के आधार पर सुसंगठित करने की l उन्हें उचित दिशा निर्देशन की, सहयोग की और उनका उत्साह वर्धन करने की l
    युवा बहन-भाइयों को उनके जीवन के महान उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण – संस्कार जीवन उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं l प्रतिकूल गुणों से किसी भी महान जीवन उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है l बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है l जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात् उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण–संस्कार युक्त बहन-भाइयों के कर्मों की छाप भी संपूर्ण जनमानस पटल पर अवश्य अंकित होती है जो युग-युगान्तरों तक उसके द्वारा भुलाये नहीं भुलाई जाती है l अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है l यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति से संबंधित है l
    बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए l उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना l जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लग्न, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराशकर उसे मनचाही एक सुंदर आकृति और आकर्षक मूर्ति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार किसी भी प्रयत्नशील बहन-भाई को स्वयं में छुपी हुई किसी प्रभावी विद्या, कला तथा दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो l उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी l देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुकूल देश - कार्य क्षेत्र, काल - समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्ग दर्शक अवश्य मिल जाते हैं l उनसे उनका काम सहज होना निश्चित हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है l
    प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक है जितना फूलों में सुगंध होना l फूलों में सुगंध से मुग्ध होकर फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण का अनुसरण करने के लिए उनके अनुयायी ही बनते हैं l उनके साथ रहकर अच्छा बनने के लिए वह अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं l
    उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है l वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है l एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान समझता है, दुराचार के कार्य करता है l इसलिए दोनों की प्रकृतियाँ आपस में कभी एक समान हो नहीं सकती l वह एक दिशा सूचक यंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा में रहती हैं l उन दोनों में द्वंद्व भी होते हैं l कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार, सदाचार को असहनीय कष्ट और पीड़ा ही पहुंचाता है l जब यह दोनों प्रकृतियाँ सुसंगठित होकर किन्हीं बड़े-बड़े संगठनों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद्व न रहकर युद्ध ही होते हैं जिनमें उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह अपने प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है l
    समर्थ तरुणाई वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थ्या, शक्ति रखती है l तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक है l वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं l इसलिए तरुण–शक्ति जन शक्ति के रूप में लोक शक्ति बन जाती है l अतः कहा जा सकता है कि
    लोक शक्ति का मूल आधार,
    जन-जन के उच्च गुण संस्कार l
    जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोककर बांध बना लिया जाता है, युवाओं में कुछ कर सकने की जो तीव्र इच्छा-शक्ति होती है, उसे अवरुद्ध करना अति आवश्यक है l आवश्यकता पड़ने पर जलाशय के जल को कम या अधिक मात्र में नहरों के माध्यम द्वारा दूर खेत, खालिहान, गाँव-शहर तक पहुंचाया जाता है, उनसे खेती-बागवानी, साग-सब्जी की फसल में पानी लगाया जाता है और उससे अन्य आवश्यकताएं भी पूरी की जाती हैं - ठीक उसी प्रकार युवाओं की अद्भुत कार्य क्षमता को उनकी अभिरुचि अनुसार छोटी-बड़ी टोलियों में सुसंगठित करके उनसे लोक विकास संबंधी कार्य करवाए जा सकते हैं l युवा बहन–भाइयों की तरुण शक्ति को नई दिशा मिल सकती है l उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं l किसी परिवार, गाँव, तहसील, जिला, और राज्य से लेकर राष्ट्र तक का भी विकास किया जा सकता है l तरुण–शक्ति का मार्गदर्शन अवश्य किया जाना चाहिए l क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? यह हमारा दायित्व नहीं है क्या ?


    चेतन कौशल “नूरपुरी”

  • श्रेणी:, ,

    लोक विकास – समस्या और समाधान

    आलेख - असहाय समाज वर्ग जनवरी जून 1996 
    इस सृष्टि की संरचना कब हुई ? कहना कठिन है l सृष्टि के रचयिता ने जहाँ प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए आहार की व्यवस्था की है, वहां मनुष्य के जीवन से संबंधित हर पक्ष के साथ एक विपरीत पहलू भी जोड़ा है l जहाँ सुख है, वहां दुःख भी है l रात है तो दिन भी है l इसी प्रकार सृष्टि में उत्थान और पतन की अपनी-अपनी कार्य शैलियाँ हैं l उत्थान की सीढ़ी चढ़कर मनुष्य आकाश की ऊँचाइयां छूने लगता तो पतन की ढलान से फिसलकर वह इतना नीचे भी गिर जाता है कि एक दिन उसे अपने आप से लज्जा आने लगती है l मनुष्य विवेकशील, धैर्यवान और प्रयत्नशील प्राणी होने के कारण अपना प्रयत्न जारी रखता है l वह गिरता अवश्य है परन्तु कड़ी मेहनत करके वह पुनः पूर्वत स्थान की प्राप्ति भी कर लेता है l कई बार वह उससे भी आगे निकल जाता है l यह उसकी अपनी लग्न और मेहनत पर निर्भर करता है l 
    विकास प्रायः दो प्रकार के होते हैं – अध्यात्मिक तथा भौतिकी l जब वेद पथ प्रेमी साधक आंतरिक विकास करता है तो सत्य ही का विकास होता है – वह विकास जिसका कभी नाश नहीं होता है l शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा मरती नहीं है l अभ्यास और वैराग्य को आधार मानकर निरंतर साधना करके, साधक मायावी संसारिक बन्धनों से मुक्त अवश्य हो जाता है l
    साधक भली प्रकार जानता है कि देहांत के पश्चात् उसके द्वारा संग्रहित भौतिक सम्पदा का तो धीरे-धीरे परिवर्तन होने वाला है परन्तु अपरिवर्तनशील आत्मा अपनी अमरता के कारण, अपना पूर्वत अस्तित्व बनाये रखती है l नश्वर शरीर क्षणिक मात्र है जबकि आत्मा अनश्वर, अपरिवर्तनशील और चिरस्थाई है l
    जीवन यापन करने के लिए भौतिक विकास तो जरुरी है पर मानसिक प्रगति उस जीवन को आनंदमयी बनाने के लिए कहीं उससे भी ज्यादा जरुरी है l घर में सर्व सुख-सुविधाएँ विद्यमान हों पर मन अशांत हो तो वह भौतिक सुख-सुविधाएँ किस काम की ? मानसिक अप्रसन्नता के कारण ही संसार अशांति का घर दिखता है l
    भौतिक विकास में साधक जन, धन, जीव-जन्तु, बल, बुद्धि, विद्या, अन्न, पेड़-पौधे, जंगल, मकान, कल-कारखाने और मिल आदि की संरचना, उत्पादन और उनको वृद्धि करते हैं जो पूर्णतया नश्वर हैं l इनकी उत्पति धरती से होती है l धरती से उत्पन्न और धरती पर विद्यमान कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, परिवर्तनशील है l जो स्थिर नहीं है, वह सत्य कहाँ ? अस्थिर या असत्य वस्तु को साधक अपना कैसे कह सकता है ? उसका तो अपना वही है जो सत्य है, स्थिर है, अपरिवर्तनशील है, अमर है और कभी मिटता नहीं है l वह तो मात्र आत्मा है
    सृष्टि में भौतिक विकास, मानसिक कामनाओं की देन है l उसमें निर्मित कोई भी वस्तु, चाहे वह रसोई में प्रयोग करने वाली हो या शयन कक्ष की, कार्यालय-कर्मशाला की हो या खेल-मैदान की, धरती-जल की हो या खुले आकाश की – वह मात्र मनुष्य की विभिन्न भावनाओं, विचारों, और व्यवहारिक मानसिक प्रवृत्तियों की उपज है l जन साधारण लोग उनकी ओर आकर्षित होते हैं l वे उन्हें पाकर अति प्रसन्न होते हैं l साधकों को यह शक्ति, विकास की ओर उन्मुख मानसिक प्रवृत्ति से प्राप्त होती है l
    भोजन से शरीर, भक्ति-प्रेम से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन से आत्मा को बल मिलता है l इससे पराक्रम, वीर्य, विवेक और तेज वर्धन होने के साथ-साथ साधक की आयु लम्बी तो होती है पर साथ ही साथ उसके लिए लोक-परलोक का मार्ग भी प्रशस्त होता है l “जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” कहावत इस कार्य को पूरा करती है l इस प्रकार विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा – बुरा परिणाम या फल साधक की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है l वह जैसा चाहता और करता है – बन जाता है l
    जिस प्राणी ने मनुष्य जीवन पाया है, उसे जीवन लक्ष्य पाने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को पुरुषार्थी अवश्य बनना चाहिए l उसे जीवन का विकास, साधना, मेहनत और प्रयत्न करना चाहिए l बिना पुरुषार्थ के सृष्टि में रहकर उससे कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव है l उसमें सभी पदार्थ हैं पर वे मात्र पुरुषार्थी के लिए, पुरुषार्थ से उत्पन्न किये जाने वाले हैं l जो जिज्ञासु पुरुषार्थ करता है, उन्हें प्राप्त कर लेता है l
    ऐसा कोई भी जिज्ञासु तब तक किसी आत्म स्वीकृत कला के प्रति समर्पित एक सफल पुरुषार्थी नहीं बन सकता, जब तक वह प्राकृतिक गुण, संस्कारानुसार दृढ़ निश्चय करके कार्य आरम्भ नहीं कर देता l पुरुषार्थी को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समर्पित होना अति आवश्यक है l वह जीवनोपयोगी कलाओं में से किसी को भी अपनी सामर्थ्या एवम् रुचि अनुसार चुन सकता है – भले ही वह धार्मिक हो या राजनैतिक, आर्थिक हो या शैक्षणिक, पारिवारिक हो या सामाजिक – बिना सामर्थ्या एवम् अभिरुचि के, जीवन में सफल हो पाना असम्भव है l देखने में आया है कि प्रायः पुरुषार्थी का मन उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में नहीं लगता है जो उससे करवाए या किये जाते हैं l उसका ध्यान अन्य कार्यों की ओर आकृष्ट रहता है जिनमें उसकी अभिरुचि होती है l इसके पीछे उसकी आर्थिक विषमता, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, प्रोत्साहन का आभाव और उसे समय पर उचित मार्गदर्शन न मिल पाना – विवशता होती है l इस कारण अनचाहे उसका मन अशांत, परेशान और अप्रसन्न रहता है l
    आवश्यकता है – किसी भी कलामंच या कार्यक्षेत्र के किसी कलाकार या श्रमिक को कभी मानसिक पीड़ा ना हो l अतः उससे उसकी इच्छानुसार, मनचाह कार्य लिया जाना सर्वश्रेष्ठ है l भले ही उस कला साधना अथवा कार्य से संबंधित प्रशासन द्वारा उसका कार्यक्षेत्र ही क्यों न बदली करना पड़े l ऐसा कलाकार जो अपने श्रम के प्रति समर्पित न हो, उसमे उसकी लग्न न हो, तो क्या कभी दर्शक उसे एक अच्छा कलाकार या श्रमिक कहेंगे ? क्या वह अपनी कला अथवा श्रम में सफल हो पाएगा ? क्या दर्शक उसके प्रशसंक बन पाएंगे ?
    ऐसे कलाकारों या श्रमिकों से विकास का क्या अर्थ जो स्वयं ही को संतुष्ट नहीं कर सकते – समाज या राष्ट्र को संतुष्ट कौन करेगा ? कहने का तात्पर्य यह है कि वह न तो किया जाने वाला कार्य भली प्रकार कर सकते हैं और न ही उस कार्य को जिसे वह करना ही चाहते हैं l वह अपने जीवन में कुछ तो कर दिखाना चाहते हैं पर कर नहीं पाते हैं l इस प्रकार समाज ऐसे होनहार कलाकारों और श्रमिकों के नाम से वंचित और अपरिचित भी रह जाता है जिन्होंने उसे गौरवान्वित करना होता है l साधक के पास उसे जन्म से प्राप्त कोई भी प्राकृतिक अभिरुचि – प्रतिभा जो उसके गुण, संस्कार और स्वभाव से युक्त होती है – जीवन साध्य उद्देश्य को प्राप्त करने में पूर्ण सक्षम, समर्थ होती है l उसे सफलता के अंतिम बिंदु तक पंहुचाने के लिए उपयोगी और उचित संसाधनों का होना अति आवश्यक है l
    कला-क्षेत्र में, कला-सम्राटों के सम्राट संगीत-सम्राट तानसेन जैसे साधक कलाकार, कला-साधना की सेवा के लिए अपने तन, मन, धन और प्राणों से समर्पित होते हैं l वह स्वयं अपनी कला-साधना को न तो किसी बाजार की वस्तु बनाते हैं और न ही बनने देते हैं l उनकी कला में स्वतः ही आकर्षण होता है l वे अपनी लग्न और कड़ी मेहनत से कला का विकास करते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं कि विश्व में मात्र उनकी अपनी क्षेत्रीय कला विद्या, संस्कृति सभ्यता और साहित्य से राष्ट्र, क्षेत्र, गाँव, समाज, परिवार और उनकी अपनी भी पहचान होती है l तरुण साधक कला साधना में मग्न रहकर, उसकी गरिमा बनाये रखते हैं वह कला का प्रदर्शन करने से पूर्व, उसे समाज की पसंद नहीं बनाते हैं और न ही उसकी मांग की चिंता करते हैं अपितु वह साधना से समस्त समाज को अपनी कला की ओर आकर्षित करते हैं l समाज स्वयं ही उनकी कला का प्रेमी, प्रशंसक, सहयोगी और अनुयायी बनता है l इससे विकास की गाड़ी निश्चित मंजिल की ओर बढ़ती जाती है l



  • श्रेणी:, ,

    भारतीय शिक्षा की महक

    असहाय समाज वर्ग 1995 अक्तूबर दिसम्बर 

    प्राचीन भारतीय निशुल्क शिक्षा-प्रणाली अपने आप में विशाल हृदयी होने के कारण विश्वभर में जानी और पहचानी गई थी l भारत विश्व गुरु कहलाया था l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परम्परा पर आधारित थी जिसमें सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोक अनुदान की पवित्र भावना सद्विचार,सत्कर्मो से विश्व का कल्याण होता था l गुरुकुल कभी किसी का शोषण नहीं, मात्र पोषण ही करते थे l तभी तो “सारी धरती गोपाल की है l“ भारत मात्र उद्घोष ही नहीं करता है, सारे विश्व को एक परिवार भी मानता है l


    गुरुकुल में राजा, रंक और भिखारी सभी के होनहार बच्चों को अपने जीवन में आगे बढ़ने का एक समान सुअवसर प्राप्त होता था l उनके साथ एक समान व्यवहार होता था l गुरु व आचार्य जन शिष्यों के अँधेरे जीवन में तात्विक विषय ज्ञान-विज्ञान, ध्यान, लग्न, मेहनत, योग्यता, निपुणता, प्रतिभा और शुद्ध आचार-व्यवहार जैसे सद्गुणों का प्रकाश करके उन्हें दीप्तमान करते थे l इससे बच्चों के जीवन की नींव ठोस होती थी l उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था l बच्चे विश्व-बंधु बनते थे जो गुरु व आचार्यों के आशीर्वाद और बच्चों की लग्न तथा मेहनत का ही प्रतिफल होता था l


    भारतीय गुरुकुलों में शिक्षण-शुल्क प्रथा का अपना कोई भी महत्व नहीं था l गुरुकुलों में शुल्क रहित शिक्षण-प्रथा से ही गुरु तथा शिष्य का निर्वहन, साधना, समृद्धि और विकास होता था l स्वेच्छा से सामर्थ्यानुसार, बिना किसी भय के ख़ुशी-ख़ुशी से दिया जाने वाला लोक अनुदान बच्चों के जीवन का निर्माण करता था l
    कोई भी प्राचीन गुरुकुल एक वह दिव्य कर्मशाला थी जहाँ बच्चों में योग्यता पनपती थी l वहां उन्हें दुःख-सुख का सामना करने का अनोखा साहस मिलता था l जीवन के हर क्षेत्र में आत्म सम्मान के साथ सर उठाकर चलने और समय पड़ने पर शेर की तरह दहाड़ करने के साथ-साथ जीने और मरने की भी एक अनोखी मस्ती प्राप्त होती थी l इन गुणों को प्रदान करता था – आचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का योगदान l गुरुकुलों की गरिमा अविरल जलधारा समान प्रवाहित होती रहती थी l गुरुकुलों को अनुदान से प्राप्त अन्न, धन, वस्त्र और भूमि आदि पर मात्र गुरुकुल में कार्यरत मान्य आचार्यों का जितना स्वामित्व होता था, अध्ययनरत, अध्ययनकाल तक उस पर शिष्यों का भी उतना ही स्वामित्व रहता था l दोनों में प्रेम, सहयोग, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना होती थी l आचार्य शिष्यों के जीवन का निर्माण करते थे , उनका मार्गदर्शन करते थे जबकि शिष्य पूर्ण ज्ञानार्जित करने के पश्चात् मात्र कर्तव्य परायण होकर अपने माता-पिता, गाँव, समाज, शहर, और राष्ट्र ही की सेवा करते थे l


    भारतीय शिक्षा–क्षेत्र मात्र निःस्वार्थ सेवा-क्षेत्र रहा है जिसमें निष्कामी आचार्य तथा ज्ञान पिपासु विद्यार्थियों की महती आवश्यकता बनी रहती थी l वह तो सदैव सबके लिए ज्ञान का प्रणेता और मार्ग दर्शक ही था l आचार्य भली प्रकार जानते थे – उन्हें विद्यार्थियों को किस प्रकार का शिक्षण देने के साथ-साथ प्रशिक्षण भी देना है l
    वैसे शिक्षण-प्रशिक्षण लेने की कोई आयु नहीं होती है l आवश्यकता है तो मात्र विद्यार्थी के दृढ़ निश्चय की कि वह क्या करना चाहता है, क्या कर रहा है ? वह क्या बनना चाहता है, क्या बन गया है ? वह क्या पाना चाहता है, उसने अभी तक पाया क्या है ? अगर वह अपना उद्देश्य पाने में बार-बार असफल रहा हो, उसके लिए उसे किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो, किसी शंका का समाधान ही करवाना चाहता हो तो आ जाये उसका निवारण करवाने को l गुरुकुल के आचार्यों की शरण ले l वहां उसे हर समस्या का समाधान मिलेगा l वह जब भी आये, अपने साथ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास अवश्य लाये, भूल नहीं जाना l हमारे आचार्य यही शुल्क लेते हैं l इनके बिना किसी को वहां उनसे कुछ भी नहीं है, मिलने वाला l
    आज भारत माता के तन पर लिपटा सुंदर कपड़ा जगह-जगह से कटा हुआ है l भारतीय शिक्षा सदियों से आकंताओं, अत्याचारियों की बर्बरता, क्रूरता का शिकार हुई है l उसकी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी है l कपड़ा तो ठोस है, घिसा नहीं है, मात्र कटा हुआ है l वह तो अब भी हर मौसम का सामना करने में सक्षम है l भारतीय शिक्षा अव्यवस्थित होते हुए भी किसी अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली की तुलना में अब भी कम नहीं, श्रेष्ठ ही है l जरुरी है – उस कपड़े की सिलाई करना l उसे पुनः साफ-सुथरा करके फिर से उपयोगी बनाना l गुरुकुल शिक्षा का पुनर्गठन करना उसे उचित नेतृत्व प्रदान करना l


    क्या हमें किसी अन्य तन का मात्र सुंदर कपड़ा देख अपने तन का उपयोगी एवं सुखदायी कपड़े का त्याग कर देना चाहिए ? हमें अपनी जीवनोपयोगी भारतीय शिक्षा प्रणाली को भुला देना चाहिए ? उसके स्थान पर किसी अन्य राष्ट्र से उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली को स्वीकार कर लेना चाहिए ? नहीं, कभी नहीं l हमें गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को पुनः समझना होगा l उसे आधुनिक नई कसौटी पर परखना होगा l तभी वह एक दिन देश, काल, और पात्र के अनुकूल तथा जन मानस के अनुरूप, उपयोगी सिद्ध होगी l वैसे किसी कमजोर रोगी के तन से लिया हुआ कोई भी कपड़ा एक हृष्ट-पुष्ट निरोगी काया को मात्र रोगों के अतिरिक्त कुछ और दे भी क्या सकता है ? ऐसे कपड़े की तरह ली गई अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली भारत वर्ष के लिए किसी भयानक संक्रामक रोग से कम नहीं है l इससे उसे दूर रखने में ही हम सबका हित है l


    आज हम वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को अँधेरे का कारण मान रहे हैं लेकिन अँधेरे को दोष देने से कहीं अच्छा है – कोई एक दीप जला देना l कभी-कभी भारतीयन शिक्षा का मंद गति से प्रवाहित होने वाला मदमाती महक का मधुर झोंका न जाने कहाँ से आकर कोमल मन को स्पर्श कर जाता है ? मन आनंदित हो जाता है l लगता है वह कुछ कह रहा हो -


    गुण छुपाये छुप नहीं पाता, गुण का स्वभाव है यही,
    फुलवारी अपनी फूलों भरी, सुगंध रोके, रूकती है नहीं l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”

  • श्रेणी:, ,

    पाश्चात्य शिक्षा से हमें क्या मिला ?

    असहाय समाज वर्ग 1995 अक्तूबर-दिसम्बर 

    भारत पराधीन हो गया l कारण था – उस समय के महत्वाकांक्षी, अहंकारी राजनीतिज्ञों का अपने गर्व में चूर रहकर छोटी-छोटी बातों के लिए मात्र अपने हित में बदले की भावना से एक दूसरे को नीचा दिखाने हेतु आपस में लड़ते रहना l स्थान-स्थान पर आचार्यों तथा विद्वानों का अपमान करना l यहाँ-तहां उनकी विद्वता का उपहास उड़ाया जाना l ज्ञान-विद्या की निरंतर उपेक्षा करने से राजनीतिज्ञों को सही समय पर उचित मार्गदर्शन न मिलना l परिणाम स्वरूप भारत की आंतरिक कमजोरी देख अन्य राष्ट्र छल –फरेव वाली कूटनीति की चालों द्वारा आतंकित करने लगे व उसे दोनों हाथों से दिन-रत लूटने लगे और वह लंबे समय तक निरंतर लुटता रहा l


    एक बार फिर लोगों में जाग्रति आई और उनके द्वारा त्याग ओंर लाखों बलिदान देने के पश्चात् 15 अगस्त 1947 के दिन भारत की पुनः उसकी अमूल्य राजनैतिक स्वतंत्रता मिल गई l स्वाधीन देश का फिर से विकास होने लगा l गुरुकुल भाषा संस्कृत के स्थान पर अंग्रेजी ज्ञान-प्रचार होने लगा l अंग्रेजी शिक्षा जन-जन तक पहुंची l अंग्रेजी ज्ञान बढ़ा फिर भी वह सब पर्याप्त नहीं हो पाया जो कि होना चाहिए था l वास्तविक शिक्षा भारतीय जन मानस की मूल आवश्यकता है l उसे मात्र उसके अनुरूप तथा देश, काल और पात्र के अनुकूल अवश्य होना चाहिए l


    भारत एक कृषि प्रधान देश है l लोग मेहनत –मजदूरी करना सर्वश्रेष्ठ समझते है l अपना पेट भरते हैं l बच्चों का पालन-पोषण करते हैं l यही नहीं वे उनके भविष्य का निर्माण करने हेतु वे उन्हें अध्ययन करने के लिए घर से पाठशाला, पाठशाला से विद्यालय, विद्यालय से महाविद्यालय भी भेजते हैं l लेकिन दुर्भाग्य है, स्नातक बनने या विद्या ग्रहण करने के पश्चात् भी वे मात्र बाबु-नौकर ही बन पाते हैं l कुर्सी लेना , आदेश चलाना ही जानते हैं और हाथ से कोई कार्य करने के नाम पर कुछ नहीं सीख पाते हैं l सरकारी नौकरी का आभाव, बेरोजगारी कहलाती है फिर भी गैर सरकारी शिक्षण संस्थाएं एक के पश्चात् एक करके अनेकों निरंतर खुली हैं l उन्हें सरकारी मान्यताये मिली हैं l बेरोजगारी कम होने के स्थान पर बढती जा रही है l
    इन शिक्षण संस्थाओं में अध्ययन हेतु प्रवेश-शुल्क की राशि दिन-प्रतिदिन किसी विशाल, भयानक अजगर के समान निःसंकोच अपना मुंह फैलाये जा रही है l अन्य दैनिक उपयोगी वस्तुएं तो महंगी हो रही हैं, शिक्षा भी महंगी हुई है, शिक्षा शुल्क बढ़ रहे हैं l विभिन्न श्रेणियों के परिणाम निकलने के पश्चात् नित नई श्रेणियां विद्यार्थियों के लिए नये महंगे प्रवेश शुल्क का संदेश मिल जाता है l


    यह प्राकृतिक देन् है परन्तु आवश्यक नहीं कि प्रत्येक विद्यार्थी अपने हर विषय में मेघावी ही हो l बच्चे को उससे संबंधित कमजोर विषयों की ज्ञानपूर्ति करने के लिए किसी पाठशाला या विद्यालय में में मिलने वाला शिक्षक सहयोग और अध्ययन काल भी पर्याप्त नहीं होता है l

    कारणवश ज्ञानपूर्ति करने के लिए उसे किसी अन्य माध्यम का ही सहारा लेना पड़ता है l यदि अभिभावक शिक्षित हों तो उसे घर से बाहर कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं होती है l घर पर सहायता न मिलने पर ही उसे बाहर किसी की शरण लेने पड़ती है जो मुंह माँगा शिक्षण-शुल्क भी लेता है l इससे कई बार मेहनत मजदूरी पर आश्रित अभिभावकों की आर्थिक असमर्थता उनके होनहार बच्चों के भविष्य की निराशा भी बन जाती है l महंगी शिक्षा मेहनत मजदूरी के घर में प्रवेश नहीं कर पाती है l बच्चों का बड़ा होकर कुछ बनना, कुछ करके दिखना जो उनका दर्पण तुल्य स्वप्न होता है, टूट कर बिखर जाता है l


    समय-समय पर बच्चों को पाठशाला का बढ़िया पहनावा, ढेर सी पुस्तकें, पेंसिलें, रबड़, कापियां, उनके यातायात का खर्च, विद्यालय भवन निर्माण, सफाई और उसके रख – रखाव के लिए भवन अनुदान, खेलों में भाग लेने के लिए खेल अनुदान और परीक्षा में बैठने के लिए परीक्षा शुल्क की विभिन्न देय राशियाँ जो प्रति वर्ष देय की जाती हैं – विद्यार्थियों और उनके सीमित आय वाले अभिभावकों के लिए तब तक चिंता का विषय बनी रहती है, जब तक वह देय नहीं हो जाती हैं l


    इस प्रकार हम देख चुके हैं कि विकास के नाम पर भारतीय शिक्षा-क्षेत्र लार्ड मैकाले द्वारा व्यवस्थित शुल्क प्रधान आधुनिक शिक्षा-प्रणाली के कारण आर्थिक शोषण का अखाड़ा और धन सृजन करने का स्रोत मात्र बनकर रह गया है l वर्तमान विद्यालय, मदरसे, मिशनरियों से दिशाहीन शिक्षा प्रोत्साहन दे रही है, पैदा कर रही है – “बेरोजगारी” अर्थात दुःख, चिंता, रोग-शोक, और निराशा l “भ्रष्टाचार” अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, नीति, न्याय की अव्यवस्था l “दानवता” अर्थात उग्रवाद, आतंकवाद, अलगाववाद, पत्थरवाज, आगजनी, अपहरण, धर्मांतरण, बलात्कार, हिंसा और देशद्रोह l


    क्या यह सब भारत के किसी सम्मानित भद्र माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, परिवार, गाँव, शहर और उसके समग्र समाज के माथे लगा कलंक नहीं है ? क्या वर्तमान शिक्षा से भारत का उद्दार हो सकता है ? क्या इससे भारत के जन-जन की आवश्यकताएं पूर्ण हो सकती हैं ? क्या इससे रामराज्य का सपना पुनः साकार हो सकता है ? अगर नहीं तो देखो अपने अतीत को l उस समय भारत में कौन सी शिक्षा-प्रणाली प्रचलित थी ? जो वह आज तलक विश्वभर में जन-जन की जुवान पर चर्चा का विषय बनी हुई है और सकल जगत आज भी उसके नाम के आगे नतमस्तक होता है l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”