25 सितम्बर 2007 दैनिक जागरण
अगर कोई स्थानीय व्यक्ति अच्छा खाता-पीता, सोता है और उसके बारे में लोग कहें कि उसका जीवन सर्वश्रेष्ठ है तो एक विद्यार्थी भी उनकी हां में हां मिलाए क्या? नहीं, वह जानता है कि सुखी जीना मात्र खाने-पीने, सोने तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह जीवन की एक कला है। कलात्मक गुणों के कारण ही सुखी जीवन की पहचान होती है। उनसे उसे लौकिक व अलौकिक सुख-शांति प्राप्त होती है। मगर गुण विहीन होने पर उसका वह सब कुछ समाप्त हो जाता है।
गुणों से ही विद्यार्थी जीवन का विकास होता है। उसके जीवन को स्वतः ही चार चाँद लग जाते हैं । अपने लक्ष्य से भटका हुआ कोई भी विद्यार्थी अपनी आवश्यकता अनुसार प्रयास करके स्वयं को सन्मार्ग पर ले आता है अथवा उसकी आवश्यकता देखते हुए माता-पिता और गुरुजन (अपने बच्चों और विद्यार्थियों को) ऐसा करने में उसे अपना योगदान देते हैं जो अनिवार्य है भी।
यह सत्य है कि जीना जीवन की कला है। कैसे जिया जाता हैं? जीने की कला को जीवन में चरित्रार्थ करने के लिए अनिवार्य है। विद्यार्थी द्वारा किसी आदर्श जीवन का अनुकरण करना। इसके बिना उसका जीवन नीरस रहता है। किसी भी विद्यार्थी को स्नातक बनने के पश्चात उसके व्यक्तित्व को मात्र उसके अपने बल, बुद्धि, विद्या और गुणों से जाना और पहचाना जाता है। अगर वह समर्थवान अपनी सामर्थया का प्रयोग जन हित कार्य में करता है तो वह सोने पर सुहागा सावित होता है। क्या वर्तमान विद्यार्थी ऐसा करने का प्रयत्न करते हैं? क्या उन्हें ऐसा करना अनिवार्य है?
25 सितम्बर 2007 दैनिक जागरण
श्रेणी: 7 स्व रचित रचनाएँ
-
6. विद्यार्थी जीवन आदर्श
-
5. कर्तव्य विमुखता का काला साया
आलेख - सामाजिक चेतना दैनिक जागरण 6 सितंबर 2007
आज बुराई का प्रतिरोध करने वाला हमारे बीच समाज में कोई एक भी साहसी, वीर, पराक्रमी, बेटा, जन नायक, योद्धा अथवा सिंहनाद करने वाला शेर नौजवान दिखाई नहीं दे रहा है l मानों जननियों ने ऐसे शेरों को पैदा करना छोड़ दिया है l गुरुजन योद्धाओं को तैयार करना भूल गये हैं अथवा वे समाज विरोधी तत्वों के भय से भयभीत हैं l
उचित शिक्षा के आभाव में आज समस्त भारत भूमि भावी वीरों से विहीन हो रही है l उद्दमी युवा जो एक वार समाज में कहीं किसी के साथ अन्याय, शोषण अथवा अत्याचार होते देख लेता था, अपराधी को सन्मार्ग पर लाने के लिए उसका गर्म खून खौल उठता था, उसका साहस पस्त हो गया है l यही कारण है कि जहाँ भी दृष्टि जाती है, मात्र भय, निराशा अशांति और अराजकता का तांडव-नृत्य होता हुआ दिखाई देता है l धर्माचार्यों के उपदेशों का बाल-युवा वर्ग पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ रहा है l
बड़ी कठिनाई से पांच% युवाओं को छोड़कर आज का शेष भारतीय नौजवान वर्ग भले ही बाहर से अपने शरीर, धन, और सौन्दर्य से ही सही अपना यश और नाम कमाने के लिए बढ़-चढ़कर लोक प्रदर्शन करता हो परन्तु वह भीतर से आत्म रक्षा-सुरक्षा की दृष्टि से तो है विवश और असमर्थ ही l उचित शिक्षा के आभाव में वह सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्य क्षेत्र में कोरा होने के साथ-साथ वह अधीर भी है l वह सन्मार्ग भूलकर स्वार्थी, लोभी, घमंडी और आत्म विमुख होता जा रहा है l उसमें सन्मार्ग पर चलने की इच्छा शक्ति भी तो शेष नहीं बची है l वह भूल गया है कि वह स्वयं कौन है और क्या कर सकता है ?
आज का कोई भी विद्यार्थी, स्नातक, बे-रोजगार नौजवान मानसिक तनाव के कारण आत्म विमुख ही नहीं हताश-निराश भी हो रहा है जिससे वह जाने-अनजाने में आत्म हत्या अथवा आत्मदाह तक कर लेता है l प्राचीन काल की भांति क्या माता-पिता बच्चों में आज अच्छे संस्कारों का सृजन कर पाते हैं ? क्या गुरुजन विद्यार्थी वर्ग में विद्यमान उनके अच्छे गुण व संस्कारों का भली प्रकार पालन-पोषण, संरक्षण और संवर्धन करते हैं ? वर्तमान शिक्षा से क्या विद्यार्थी संस्कारवान बनते हैं ? नहीं तो ऐसा क्या है जिससे कि हम अभिभावक और गुरुजन अपना कर्तव्य भूल रहे हैं ? हम अपना कर्तव्य पालन नहीं कर रहे l
-
4. “विद्यार्थी जीवन कल्याण मंच”
दैनिक जागरण 2.9.2007
प्राचीन काल की तरह माता-पिता व गुरुजनों को आज मात्र स्वयं ही को नहीं जगाना है बल्कि स्वयं जागकर बाल, विद्यार्थी, स्नातक और युवा वर्ग को भी जगाना है l वे अब भी स्वयं और परहित के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं l उनमें लौकिक एवं अलौकिक कार्य कर सकने की अपार क्षमताएं तथा शक्तियां विद्यमान हैं जिन्हें वे मात्र महान पुरुषों के जीवन चरित्र से प्रेरणा लेकर स्वयं अखंड एवं निरंतर प्रयास करके अवश्य प्रकट कर सकते हैं l इनसे आत्म कल्याण एवं परहित के लिए सृजनात्मक तथा रचनात्मक कार्य किये जा सकते हैं l
अतः आज स्वयं जीवन से भ्रमित और निराश - हताश हो रहे बाल, विद्यार्थी, स्नातक और युवा वर्ग को चाहिए कि अभिभावक, गुरुजन, कर्मठ, उद्यमी, अनुभवियों से योग साधना युक्त “जीवन मार्ग दर्शन” ग्रहण करें जिससे वे स्वयं को तनावमुक्त, संस्कारवान और कठिन से कठिन कार्य करने के योग्य उद्यमी साहसी और जीवन की समस्त चुनौतियों का सामना कर सकने वाले शूरवीर बनने के साथ - साथ अपना भविष्य भी उज्ज्वल बना सकें l स्थानीय अभिभावक, गुरु, राजनेता और प्रशासक जन अपने कर्मठ जीवन अनुभवों से सर्वमान्य, जनहित और संयुक्त आधार पर “बाल सभा” की भाँति, बृहत रूप में, विद्यालय में अपेक्षाकृत गठित किये जाने वाले “विद्यार्थी जीवन कल्याण मंच” के माध्यम द्वारा इस उत्तरदायित्व को भली प्रकार से निभाने का अनवरत एवं अखंड प्रयास कर सकते हैं l इससे बाल एवं विद्यार्थी वर्ग में एक आशा की नई किरण जाग सकती है l इससे स्नातक एवं नौजवान वर्ग को अपना “जीवन कल्याण” करने तथा सफल गृहस्थ जीवन यापन करने की प्रेरणा मिलेगी l इससे समर्थ कर्मवीरों को अपेक्षित ग्रामसेवा, ग्राम विकास करने अपेक्षाकृत राष्ट्र सेवा में सहयोग देने और विश्व परिवार में भाई - बंधुत्व भाव बनाये रखने में महत्व पूर्ण योगदान भी मिलेगा l
-
1. जय राष्ट्रीय निशान
मातृवन्दना अगस्त 2007
जय राष्ट्रीय निशान
रहे सदा तेरी पहचान
केसरिया वीरता उत्साह त्याग का सूचक
आन शान मान का पूजक
नहीं था तू अनादर करने के योग्य
जलते देखते हैं यहां वहां हमारे प्राण
जय राष्ट्रीय निशान
श्वेत सत्य पवित्रता शांति का प्रतीक
नहीं है आज यहां सब दिखता ठीक
गए कहां गुरु देते थे जो हमें सीख
कर्तव्य अपना भूल गए होता नहीं भान
जय राष्ट्रीय निशान
हरा श्रद्धा विश्वास वैभव का द्योतक
तू तो था दुखसुख का बोधक
ह्रास त्रास दिखता यहां वहां अत्याचार
अनाचार नहीं करना था परहित परत्राण
जय राष्ट्रीय निशान
काली छाया ने आ ढक लिया है
तुझे सहने हर संताप दिया है
फड़कती हैं भुजाएं हमारीे टकराने को
देकर भी शीश तेरा करेंगे त्राण
जय राष्ट्रीय निशान
-
3. जनहित विरोधी मानसिकता
25 अगस्त 2007 दैनिक जागरण सामाजिक जन चेतना
“भारत देश महान” जैसी बातें अब नीरस और खोखली लगने लगी हैं l मन्दिर समान पवित्र घर और विद्यालयों में जहाँ कभी ज्ञान, श्रद्धा, प्रेम-भक्ति और विश्वास पाया जाता था, वहां पर अज्ञान, अश्रद्धा, अवज्ञा, अविश्वास होने के साथ-साथ अवैध संबंध, भ्रूण हत्याएं, बात-बात पर वाद-विवाद, मार-पीट, मन-मुटाव, अपमान, घृणा, द्वेष, आत्म तिरस्कार और आत्म हत्याएं होती हैं l
अध्यात्म प्रिय होने के कारण देश के अधिकांश परिवार प्रकृति प्रेमी होते थे l परन्तु वह भौतिकवादी हो जाने से जीवन देने वाले पर्यावरण के भी शत्रु बन गए हैं l इस कारण भौतिकवाद की अंधी दौड़ में वन-संपदा, प्राकृतिक सौन्दर्य और समस्त जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ लुप्तप्रायः होती जा रही हैं l मात्र मनुष्य जाति की भीड़ और उसका कंकरीट का जंगल ही बढ़ रहा है l पेयजल और कृषि योग्य भूमि का अस्तित्व संकट में है और प्राद्योगिकी प्रदूषण के साथ-साथ धरती का ताप भी बढ़ रहा है जिससे हिमनद और ग्लेशियर तेजी से पिघलते जा रहे हैं l
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति के लिए लगनशील, उद्यमी युवा-वर्ग में बल, बुद्धि, विद्या, वीर्य, सद्गुणों का सृजन, संवर्धन और संरक्षण करने के स्थान पर नशा-धुम्रपान करने, क्लब, वैश्यालय एवम् नृत्यशालाओं में जाने का प्रचलन बढ़ गया है l अध्यात्मिक उपेक्षा करने से वह एड्स जैसे भयानक रोगों का शिकार हो रहा है l
समाज में अज्ञानता, अपराध, अपहरण, यौन शोषण, बलात्कार, अन्याय, बाल-श्रम, बंधुआ मजदूरी, मानव तस्करी, अत्याचार, हत्यायें, अग्निकांड, उग्रवाद, अशांति, अराजकता होती है l स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र में जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र के नाम पर वाद-विवाद खड़ा करके आपसी फुट डाली जाती है और उन्हें स्वार्थ सिद्धि के लिए आपस में भी बांटा जाता है l
देश के सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों में आर्थिक भ्रष्टाचार, गबन, घोटाले होकर वे अग्निकांड के द्वारा अग्नि की भेंट चढ़ जाते हैं l न्यायिक प्रणाली अधिक महंगी, दीर्घ प्रक्रियाओं में से निकलने वाली, दूरस्थ, दैनिक वेतन भोगी, कम वेतन मान पाने वाले एवं निर्धनों की पहुँच से दूर, आमिर-गरीब में असमानता रखने वाली और मात्र किताबी कानून तक अव्यवहारिक होने के कारण – राष्ट्रीय न्यायलयों से जन साधारण का विश्वास दिन-प्रतिदिन उठता जा रहा है l इस प्रकार परिवार, विद्यालय, समाज और राष्ट्र के प्रति जन साधारण में आस्था, विश्वास, प्रेम और जनहित का आभाव दिखाई देने लगा है जो एक विचारणीय विषय है l हमें इस ज्वलंत समस्या का समाधान निकालने के लिए ध्यान देने के साथ-साथ विचार अवश्य करना चाहिए l
प्रकाशित 25 अगस्त 2007 दैनिक जागरण