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श्रेणी: 7 स्व रचित रचनाएँ

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    2. विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति

     
    फरवरी 2011 मातृवंदना


    प्राचीन भारत वर्ष विश्व मानचित्र पर आर्यावर्त देश रहा है l आर्य वेदों को मानते थे l वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते थे l वेद जो देव वाणी पर आधारित है, उन्हें ऋषि मुनियों द्वारा श्रव्य एवम् लिपिवद्ध किया हुआ माना जाता है l वेदों में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्वेद प्रमुख हैं l वे सब सनातन हैं, वे पुरातन होते हुए भी सदैव नवीन हैं l उनमें परिवर्तन नहीं होता है l वे कभी पुराने नहीं होते हैं l 
    समय परिवर्तनशील है जिसके साथ-साथ नश्वर संसार की हर वस्तु बदल जाती है l नहीं बदलता है तो वह मात्र सत्य है l सत्य सनातन है l वेद सत्य पर आधारित होने के कारण सदा नवीन, अपरिवर्तनशील और सनातन हैं l वेदों के अनुगामी और हमारे पूर्वज आर्य सत्यप्रिय, कर्मनिष्ठ, धार्मिक और शूरवीर थे l सत्यप्रियता, कर्मनिष्ठा, धार्मिकता और शूरवीरता ही वेदों का आधार है, उनका सार है l यही हमारी पुरातन संस्कृति तथा अध्यात्मिक धरोहर है जिसे विश्व ने माना है l
    सत्य ही ब्रह्म है, वह ब्रह्म जिसका किसी के द्वारा कभी कोई विघटन नहीं किया जा सकता l वह सदैव अबेध्य, अकाट्य और अखंडित है l ब्रह्म-ज्ञान और विषयक तात्विक ज्ञान प्राप्त करना ही विवेकशील पुरुष का परम कर्तव्य है जो उन्हें भली प्रकार समझ लेता है, जान जाता है, उसे सत्य-असत्य में भेद अथवा अंतर कर पाना सहज हो जाता है l कोई कहे कि रात बड़ी काली होती है, रात को हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है l यह पहला सत्य है l अगर काली रात में कोई एक दीपक प्रज्ज्वलित कर लिया जाये तो घोर अंधकार भी दिन के उजाले की तरह प्रकाश में बदल जाता है और तब हमें सब कुछ दिखाई देने लगता है l यह दूसरा सत्य है l इसी तरह मन, कर्म तथा वाणी से ब्रह्ममय हो जाने से मनुष्य सत्यवादी हो जाता है l तदोपरांत उसमें सत्य प्रियता, सत्य निष्ठा जैसे अनेकों दैवी गुण स्वाभाविक ही पैदा हो जाते हैं l 
    ब्रह्मज्ञान से मनुष्य की अपनी पहचान होती है l वह जान जाता है कि उसमें क्या कर सकने की क्षमताएं विद्यमान हैं ? वह स्वयं क्या-क्या कार्य कर सकता है ? उनके संसाधन क्या हैं ? अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य बेंधने हेतु उन्हें धारण और प्रयोग कैसे किया जाता है ? उन क्षमताओं के द्वारा जीवन में उन्नति कैसे की जा सकती है ? जब वह ऐसा सब कुछ जान जाता है, तब वह अपने गुण व संस्कार और स्वभाव से वही कार्य करता है जो उसे आरम्भ में कर लेना होता है l देर से ही सही, वह वैसा करके अपने कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है l उसे कार्य कौशल प्राप्त हो जाता है जो उसकी अपनी आवश्यकता होती है l
    ब्रह्मज्ञान से मनुष्य को उचित-अनुचित और निषिद्ध कार्यों का ज्ञान होता है l जनहित में उचित कार्य करना वह अपना कर्तव्य समझता है l वह नैतिक, व्यवहारिक कार्य करता हुआ सदाचार का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है l इस प्रकार उसके गुण-संस्कारों से दूसरों को प्रेरणा मिलती है l दूसरों के लिए वह एक आदर्श बन जाता है l वे उसका अनुसरण करते हैं और अपना जीवन सफल बनाते हैं l
    ब्रह्मज्ञान से ही मनुष्य जागरूक होता है l उसका हृदय एवम् मष्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है l जब वह इस स्थिति पर पहुँच जाता है तब वह स्वयं के शौर्य और पराक्रम को भी पहचान लेता है l वह समाज को संगठित करके/एक नई दिशा देकर उसमें नवजीवन का संचार करता है जिससे समाज और उसकी धन-संपदा की रक्षा एवं सुरक्षा सुनिश्चित होती है l
    ब्रह्मज्ञान मनुष्य जीवन को पुष्ट करता है l उसे अजेयी शक्ति प्रदान करता है l शायद इन पंक्तियों में इसी प्रकार के भाव भरे हैं :-
    सुगंध बिना पुष्प का क्या करें ?
    तृप्ति बिना प्राप्ति का क्या करें ?
    ध्येय बिना कर्म निरर्थक है, 
    प्रसन्नता बिना जीवन व्यर्थ है l
    प्रश्न पैदा होता है कि ऐसे गुण-संस्कारों के प्रेरणा स्रोत क्या हैं ? यह गुण-संस्कार जन साधारण तक कैसे पहुंचाए जा सकते हैं ? इसका  उत्तर आर्यों ने सहज ही युगों पूर्व गुरुकुलों की स्थापना करके दे दिया है जिसे भारत, भारतीय समाज ही नहीं, संपूर्ण विश्व भली प्रकार जानता है l 

    प्रकाशित 2011 मातृवंदना

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    1. सनातन है जीने की कला !


    15 जनवरी 2011 कश्मीर टाइम्स


    किसी ने ठीक ही कहा है –
    “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत l
    पारब्रह्म को पाइए, मन ही के प्रतीत”
    अर्थात मन से हार मान लेने से मनुष्य की हार होना निश्चित है परन्तु हारकर भी मन से न हारना और युक्ति-युक्त होकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयासरत रहने से, उसकी जीत अवश्य होती है l चाहे परम शांति पाने की ही बात क्यों न हो, उसके लिए बलशाली मन की भूमिका प्रमुख होती है l  
     “जीना एक कला है l” सब जानते हैं l पर जिया कैसे जाता है ? बलिष्ठ तन, पवित्र मन, तेजस्वी बुद्धि और महान आत्मा की उद्गति कैसे होती है ? इन प्रश्नों का उत्तर हमें भारतीय सत्सनातन जीवन पद्धति से मिलता है l


    चिंता नहीं, चिन्तन करो :– भले ही जन साधारण का मन अत्याधिक बलशाली हो, परन्तु वह स्वभाव से कभी कम चंचल नहीं होता है l अपनी इसी चंचलता के कारण, वह दश इन्द्रिय घोड़ों पर सवार होकर, इन्द्रिय विषयों का रसास्वादन करने हेतु हर पल लालायत रहता है l वह अपने जीवन के अति आवश्यक कल्याणकारी उद्देश्य को भूलकर सत्य और धर्म-मार्ग से भी भटक जाता है l वह बार-बार भांति-भांति के निर्रथक प्रयास एवं चेष्टाएँ करता है जिनसे उसे असफलताएं या निराशाएं ही मिलती हैं l वह प्रभु-कृपा से अनभिज्ञ हो जाता है, अतः वह चिंताग्रस्त होकर दुःख पाता है l परन्तु  सजग जिज्ञासु, युवा साधक और मुनिजन अपने नियंत्रित मन द्वारा, सत्य एवम् धर्म प्रिय कार्य करते हुए सदैव चिंता-मुक्त रहते हैं l वह अपने जीवन में सफलता और वास्तविक सुख-शांति प्राप्त करते हैं l 


    निद्रा का त्याग करो :- सत्य और धर्म के मार्ग से भ्रमित पुरुष पतित, मनोविकारी, स्वार्थवश अँधा एवम् इन्द्रिय दास होता है l वह धार्मिक शिक्षा, संस्कार एवं समय पर उचित मार्ग-दर्शन के अभाव में अपने हितैषियों के साथ सर्व प्रिय कार्यों का सहभागी न बनकर मनोविकार, अपराध, और षड्यंत्रों में लिप्त रहता है l यही उसकी निद्रा है l इसी निद्रावश वह अपनी आत्मा, परिवार, गाँव, राज्य और विश्व विरुद्ध कार्य करता है, उनका शत्रु बनता है l वह स्वयं पीड़ित होकर शारीरिक, मानसिक और आर्थिक आधार पर  सत्ता, पद, धन, बाहुबल और अमूल्य समय का दुरूपयोग करता है l इससे किसी का भी हित नहीं होता है, अतः नित नये-नये संकट, कठिनाइयाँ, समस्याएं, बाधाएं और चुनौतियाँ पैदा होती हैं l परिणाम स्वरूप वह प्रभु-कृपा से वंचित रहता है l लेकिन सजग, जिज्ञासु, युवा साधक और मुनिजन सर्व प्रिय कार्य एवं आत्मोन्नति करते हुए प्रभु-कृपा के पात्र बनते हैं l


    स्वयं की पहचान करो :-  युद्ध कर्म में परिणत कुरुक्षेत्र में गीता उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण जी, कहते हैं – “हे अर्जुन ! स्वयं को जानो l इसके लिए सर्व प्रथम तुम जीवनोद्देश्य में सफलता पाने हेतु अपने मनोविकारों के प्रति, प्रतिपल सजग और सतर्क  रहकर युक्ति-युक्त अभ्यास एवं वैराग्य–श्रम करो l अपने मन का स्वामी बनो l स्थितप्रज्ञ, धर्मपरायण एवं कर्तव्यनिष्ठ होकर, सर्व हितकारी लक्ष्य बेधन अर्थात युद्ध करो l तदुपरांत सृजनात्मक, रचनात्मक, सकारात्मक तथा जन हितकारी कर्मों को व्यवहारिक रूप दो l तुम्हारी विजय निश्चित है l इसमें तुम किसी प्रकार का संदेह न करो, मोह त्याग दो l सत्य और धर्म की रक्षा हेतु धर्मयुद्ध करो l इस समय तुम्हारा यही कर्तव्य है l” निस्संदेह यह उपदेश अर्जुन जैसे किसी भी जिज्ञासु, युवा साधक और मुनि के लिए आत्म-जागरण और उस पर प्रभु-कृपा का कार्य कर सकता है, करना चाहिए l 

      
    प्रभु-कृपा का पात्र बनो :– ऐसे जिज्ञासु युवा साधक, मुनि और योगीजन जो बहुजन हिताए – बहुजन सुखाये नीति के अंतर्गत सर्व प्रिय कार्य (मन से रामनाम का जाप और शरीर से सांसारिक कार्य) करते हैं, उनसे इनका अपना तो भला होता ही है, साथ ही साथ दूसरों को भी लाभ मिलता है l “वसुधैव कुटुम्बकम” में युगों से भक्त जन, साधक परिवार के सदस्य बनते रहे हैं, मानों कोई सरिता समुद्र में समा रही हो l इसे देख मन अनायास ही हिलोरे लेने लग जाता है l
    “राम नाम की लूट है, लुट सके तो लुट l 
    अंतकाल पछतायेगा, जब प्राण जायेंगे छुट ll”
    इस प्रकार विश्व में सभी ओर प्रभु-कृपा, आनंद ही आनंद और परमानंद दिखाई देता है l धर्म-कर्म है जहाँ, प्रभु-कृपा है वहां l भारतीय “सत्सनातन जीवन पद्दति” के इस उद्घोष को साकार करने हेतु प्रत्येक भारतीय जिज्ञासु युवा साधक और मुनि में बलशाली मन द्वारा निश्चित कर्म करने के साथ-साथ अपने लक्ष्य बेधन की प्रबल इच्छा-शक्ति और कार्य क्षमता अवश्य होनी चाहिए l जो गर्व के साथ भारत का माथा ऊँचा कर सके l जो उचित समय पर विश्व में अपना लोहा मनवा सके l जिससे भारत का खोया हुआ पुरातन गौरव पुनः प्राप्त हो सके l    
    जन-जन के हृदय से निकलें शुद्ध विचार,
    भारत “सोने की चिड़िया” सपना करें साकार,
     “वसुधैव कुटुम्बकम - साधक परिवार,”
    घर-घर पहुंचाए धर्म, सांस्कृतिक विचार l


    प्रकाशित 15 जनवरी 2011कश्मीर टाइम्स

  • 3. समृद्ध भारत और उसकी गरिमा
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    3. समृद्ध भारत और उसकी गरिमा

    दिसम्बर 2010 मातृन्दना

    विश्व  में  भारत आर्यवर्त के नाम से जाना जाता था। उसे समृद्धि के उच्चासन पर सुशोभित  करने का श्रेय देश  के उन वीर व वीरांगनाओं को जाता है जो भारत के इतिहास में नक्षत्रों की भांति दीप्यमान हैं। उन्होंने अपने समस्त सुखभोगों का परहित के लिए त्याग कर दिया था। उन्हें राष्ट्र, समाज और जन हित के कार्य अपने प्राणों से भी बढ़कर प्रिय थे। अधर्म, अज्ञानता, अकर्मण्यता, अन्याय और शोषण  उनके शत्रु थे। इन सबको सफलतापूर्वक परास्त करने हेतु उनके पास धर्म परायणता, ज्ञाननिष्ठा, कला-कौशल, शौर्यता  एवं पराक्रम जैसे अचूक संसाधन भी उपलब्ध थे। इनका उन्होंने अपनी क्षमता, आवश्यकता और परिस्थितियों के अनुसार समय-समय पर उचित प्रयोग करके कई बार नई सफलताएं अर्जित की थीं। उनकी प्रत्येक सफलता के पीछे जिस महान प्रेरक शक्ति का योगदान रहा है, वह शक्ति थी - उनके उच्च संस्कार जो उन्हें मिलते थे - पूर्व जन्म से, परिवार से, समाज से और गुरुकुल शिक्षा से। भारत में ऐसी व्यवस्था व्यवस्थित थी।
    संत-महापुरुषों  का कथन है कि जीवन में किसी बड़े उद्देश्य  की प्राप्ति के लिए मानव जीवन छोटा होने के कारण वह सदैव बड़ी-बड़ी चुनौतियों से घिरा रहता है। मृत्यु होने के पश्चात्य  पुनर्जन्म होने पर मनुष्य  उस कार्य को वहीं से आरम्भ करता है जहां पर उसने उसे पूर्व जन्म में अधूरा छोड़ा होता है। अथवा मृत्यु के समय उसका जिस कार्य में ध्यान रह जाता है। इस प्रकार उस प्राणी के जन्म-मृत्यु का चक्र तब तक चलता रहता है जब तक वह उस कार्य को अपनी ओर से सम्पन्न नहीं कर लेता है।
    परिवार में बड़ों के द्वारा बच्चे को जैसी शिक्षा मिलती है, वे उसके सामने जैसा आचरण करते हैं, बच्चा उन्हें जैसा आचरण करते हुए देखता है, वह उनका वैसा ही अनुसरण करता है। भले ही आरम्भ में बच्चे को अच्छे या बुरे कार्य का ज्ञान न हो पर उनका प्रभाव संस्कारों के रूप में उसके मन और मस्तिष्क  पर अवश्य  पड़ता है। विकसित अच्छे संस्कार उसके जीवन का उत्थान करते हैं जबकि बुरे संस्कार अवनति के गहन गर्त में धकेल देते हैं। इसलिए शिक्षक माता-पिता और गुरु को शास्त्र-नीति सावधान करते हुए कहती है कि बच्चों को अच्छी शिक्षा दो। उनके सामने अच्छा आचरण करो और स्वयं को सर्वदा बुरे आचरण से बचाओ। अन्यथा बच्चों पर दुष्प्रभाव  पड़ेगा और उनका भविष्य  अंधकारमय हो जाएगा। यह आपका दायित्व है।
    शास्त्र -नीति आगे कहती है कि परिवार की भान्ति समाज भी बच्चों के जीवन का उत्थान और पतन करने में सहायक होता है। यह बात उस समाज की संगति पर निर्भर करती है कि वह कितनी सुसंस्कृत  और सभ्य है? एक सभ्य एवं सदाचारी समाज की संगति से बच्चे के जीवन का विकास होता है जबकि दुराचारी और असभ्य समाज की संगति उसे पथ-भ्रष्ट  कर देती है।
    भारत के गुरुकुल उच्च संस्कारों के संरक्षक, पोषक , संवर्धक होने के साथ-साथ कार्यशालाओं  के रूप में नव जीवन निर्माता भी थे। नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला और उनके सहायक विद्यालय तथा महाविद्यालयों से भारतीय कला-सस्ंकृति न केवल भली प्रकार से फूली-फली थी बल्कि उससे जनित उसकी समृद्धि की महक विदेशों  तक भी पहुंची थी। यहां के किसी गुरुकुल से कोई भी विद्यार्थी जब पूर्ण विद्या प्राप्त करके या स्नातक युवा होकर प्रस्थान करता था तो वह उस गुरुकुल की यह प्रेरणा भी अपने साथ लेकर जाता था कि उसका व्यक्तित्व संस्कारित  है और सार्वजनिक जीवन की नींव का ठोस पत्थर भी। वह नवयुवक अपने जीवन मेें कभी ऐसा कोई भी कार्य नहीं करेगा जिससे किसी को किसी प्रकार का कोई कष्ट  हो। वह वह सदैव देश  और समाज का हित चाहने, देखने, सुनने, बोलने और कार्य करने वाला है। वह अपने दिव्यपथ से कभी विचलित नहीं होगा, भले ही उसके मार्ग में लाखों बाधाएं आएं। वह हर समय, हर स्थान पर, हर परिस्थिति में और हर संकट से दो-दो हाथ करने में समर्थ होने के कारण उनसे लोहा लेने हेतु सदैव तैयार रहेगा। यह उसका कर्तव्य है।
    सोने की चिड़िया भारत वर्ष  को अति निकटता से निहारने, समझने और उससे अपने विभिन्न उद्द्रेश्यों  की पूर्ति के लिए विदेशी  लोग भारत आए और उचित समय पाकर उसके शासक भी बनें। उनमें मुट्ठी भर गोरे अंगे्रजों ने ब्रिटिश  साम्राज्य का विस्तार करने हेतु भारत में फूट डालो, राज करो नीति का अनुसरण किया और जी भर कर आतंक फैलाया।
    आईये! हम सब संगठित होकर भारतीय सस्ंकृति की रक्षा-सुरक्षा और उसके पोशण के लिए गुरुकुलों के नैतिक मूल्यों की पुर्नस्थापना करने का दृढ़ संकल्प लें। उनके लिए धरती उपलब्ध करवाएं ताकि बच्चों को चरित्रवान बनाया जा सके। भारत को फिर से नई पहचान और उसकी अपनी उपेक्षित गरिमा प्राप्त हो सके।


    दिसम्बर 2010 मातृन्दना

  • 1. राष्ट्रीय समर्थ भाषा
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    1. राष्ट्रीय समर्थ भाषा

    2010 छमाही ज्ञान वार्ता

    वह समाज और राष्ट्र  गूंगा है जिसकी न तो कोई अपनी भाषा  है और न लिपि। अगर भाषा  आत्मा है तो यह कहना अतिश्योक्ति  नहीं होगी कि भाषा  से किसी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र  की अभिव्यक्ति होती हैं।
    विश्व में व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र का भौतिक विकास और आध्यात्मिक उन्नति के लिए स्थानीय, क्षेत्रीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं का सम्मान तथा उनसे प्राप्त ज्ञान की सतत वृद्धि करने में ही सबका हित है।
    राष्ट्र की विभिन्न भाषाओं का सम्मान करने से राष्ट्रीय  भाषा  का सूर्य स्वयं ही दीप्तमान हो जाता है।राष्ट्रीय  भाषा  स्वच्छन्द विचरने वाली वह सुगंध युक्त पवन है जिसे आज तक किसी चार दीवारी में कैद करने का कोई भी महत्वाकांक्षी प्रयास सफल नहीं हुआ है।
    स्थानीय, क्षेत्रीय, प्रांतीय भाषाओं के नाम पर भेद-भाव, वाद-विवाद और टकराव की मनोवृत्तियां महत्वाकांक्षा की जनक रहीं हैं जिससे कभी राष्ट्र  हित नहीं हुआ है। विभिन्न मनोवृत्तियां महत्वाकांक्षा उत्पन्न होने से पैदा होती हैं और उसके मिटते ही वह स्वयं नष्ट  हो जाती हैं।
    संस्कृत व हिन्दी भाषाओं ने सदाचार, सत्य, न्याय, नीति, सदव्यवहार और सुसंस्कार संवर्धन करने के हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कई सदियां बीत जाने के पश्चात  ही कोई एक भाषा  राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा  और फिर वह राष्ट्र  की सर्व सम्मानित राजभाषा बन पाती है। भारत में कभी सर्वसुलभ बोली और समझी जाने वाली संस्कृत भाषा  देश  की वैदिक भाषा  थी जिसमें अनेकों महान ग्रंथों की रचनाएं हुई हैं। संस्कृत भाषा  को कई भाषाओं की जननी माना जाता है। इस समय हिन्दी भारत की राष्ट्रीय  सम्पर्क भाषा  होने के साथ-साथ राजभाषा  भी है। हमें उस पर गर्व है। भारत में हिन्दी भाषा  अति सरल बोली, लिखी, पढ़ी, समझी और समझाई जा सकने वाली मृदु भाषा  है। आशा  है कि इसे एक न एक दिन संयुक्त राष्ट्र मंच पर उचित सम्मान अवश्य  मिलेगा। भारत के भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपयी जी, संयुक्त राष्ट्र  मंच पर अपने सर्वप्रथम भाषण में हिन्दी का प्रयोग करके इसका शुभारम्भ कर चुके हैं। वे राष्ट्र  के महान सपूत हैं।
    हिन्दी के प्रोत्साहन हेतु देश  भर में अब तक हिन्दी दिवस/सप्ताह/पखवाड़ा/आयोजन के सरकारी अथवा गैर सरकारी अनेकों सराहनीय एवं प्रसंशनीय प्रयास हुए हैं। इससे आगे हमें हिन्दी दिवस/सप्ताह/पखवाड़ा/ आयोजनों  के स्थान पर हिन्दी मासिक/तिमाही/छःमाही और वार्षिक आयोजनों का आयोजन करना होगा। हिन्दी भाषा को अधिकाधिक प्रोत्साहित करने हेतु सरल सुबोध हिन्दी शब्द कोष कारगर सिद्ध हो सकते हैं जिन्हें प्रतियोगियों का प्रोत्साहन बढ़ाने हेतु पुरस्कार रूप में प्रदान किया जा सकता है और पुस्तकालयों में पाठकों की ज्ञानसाधनार्थ उपलब्ध करवाया जा सकता है।
    सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थांओं के कार्यालयों में फाइलों व रजिस्टरों के नाम हिन्दी भाषा  में लिखे जा सकते हैं। कार्यालयों की सब टिप्पणियां/आदेश /अनुदेश  हिन्दी भाषी  जारी किए जा सकते हैं। कार्यालयों में अधिकारी व कर्मचारी नाम पट्टिकाएं तथा उनके परिचय पत्र हिन्दी भाषी बनाए जा सकते हैं। कार्यालय संबंधी पत्र व्यवहार/बैठकें/संगोष्ठियाँ /विचार विमर्श  इत्यादि कार्य अधिक से अधिक हिन्दी भाषा में हो सकते हैं।
    जन-जन की सम्पर्क भाषा  हिन्दी को राज भाषा में भली प्रकार विकसित करने का प्रयास सरकारी या स्वयं सेवी संस्थांओं द्वारा मात्र खानापूर्ति के आयोजनों तक ही सीमित होकर न रह जाए। इसके लिए प्रांतीय, शहरी और ग्रामीण स्तर के बाजारों में तथा सार्वजनिक स्थलों पर जैसे स्वयं सेवी संस्थाओ, दुकानों, पाठशालाओं, विद्यालयों, विश्व  विद्यालयों रेलवे स्टेशनों  और वाहनों आदि के नाम, परिचय, सूचना पट्ट इत्यादि हिन्दी भाषा  में लिखकर यह अवश्य  ही सुनिश्चित  किया जा सकता है कि भारत देश  की राष्ट्रीय  सम्पर्क भाषा  हिन्दी है और हिन्दी ही उसकी अपनी राजभाषा  है। कन्याकुमारी से कश्मीर  तक और असम से सौराष्ट्र  तक भारत एक अखण्ड देश  है। हिन्दी भाषा   अपने आप में हिन्द देश  को सुसंगठित एवं अखण्डित बनाए रखने में पूर्ण सक्षम है। वह विश्व  में अंग्रेजी के समकक्ष होने में हर प्रकार से समर्थ है।

    छमाही ज्ञान वार्ता

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    3. भारत माँ

    मातृवन्दना नवम्बर 2010 

    तू धरती, हमारी माता,
    गुण तेरे सारा जग गाता,
    करते हैं हम तुझे प्रणाम,
    भारत माँ -------------भारत माँ,
    सागसब्जी, तू तिलहन उपजाती,
    अनाज, कंदमूल हमें खिलाती,
    तू माँ, हम तेरी संतान,
    भारत माँ -------------भारत माँ
    तुझे दुःख हमसे मिलते,
    युग बीत गए पीड़ा सहते,
    तू देती नहीं ध्यान,
    भारत माँ --------भारत माँ
    पूत कपूत हो जाता,
    पर नहीं होती माता, कुमाता,
    तू करती सबका गुणगान,
    भारत माँ ---------भारत माँ
    मन आता, जा दुश्मन से टकराएँ,
    करनी का सबक, उसे सिखाएं,
    दुश्मनी का वह भूल जाए नाम,
    भारत माँ ------------भारत माँ