मानवता

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श्रेणी: राष्ट्रीय भावना – आलेख

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    हमारी हिन्दी भाषा

    यह सत्य है कि हमारे देश के लोग, उनका रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार, राष्टीय भौगोलिक स्थिति, जलवायु और उत्पादन से देश की सभ्यता और संस्कृति को बल मिलता है। उससे भारत की पहचान होती है। अगर कभी इसमें विद्यमान गुण व दोषों को समाज के सम्मुख अलिखित रूप में व्यक्त करना पड़े तो हम उस माध्यम को भाषा का नाम दे सकते हैं।
    सर्वसुलभ भाषा का यथार्थ ज्ञान हमारी राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति का संसाधन हो सकता है, चाहे वह हिन्दी ही क्यों न हो? उसका देश के प्रत्येक बच्चे से लेकर अभिभावक, गुरु, प्रशासक और राजनेता तक को भली प्रकार ज्ञान होना अति आवश्यक हैं।
    समय की मांग के अनुसार भारत के विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने के लिए सरकारी या स्वयं सेवी संगठनों द्वारा जो प्रयास हो रहे हैं उनमें हिन्दी सप्ताह या हिन्दी पखवाड़ा सर्वोपरि रहा है। इससे लोगों में हिन्दी के प्रति नव चेतना जागृत हुई है। निरन्तर प्रयास जारी रखने की महती आवश्यक है।
    हिन्दी भाषा, अंतर्राष्ट्रीय भाषा में परिणत हो कर अंग्रेजी भाषा के कद तुल्य बने, इसमें भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटलबिहारी वाजपयी का योगदान सराहनीय रहा है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के सभा मंच पर हिन्दी में भाषण देकर विश्व में हिन्दी का मान बढ़ाया है। इसे और प्रभावी बनाने के लिए अनिवार्य है कि देश के सरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-ज्ञान का समुचित विकास हो। लोगों में शुद्ध हिन्दी लेखन-अभ्यास रुके बिना जारी रहे। लोग आपस में प्रिय हिन्दी भाषी संबोधनों का निःसंकोच प्रयोग करें और वे जब भी आपस में वार्तालाप करें, शुद्ध हिन्दी भाषा का उच्चारण करें।
    हिन्दी भाषा को राजभाषा का ससम्मान स्थान दिलाने की कल्पना वर्षों पूर्व हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने की थी। उनका सपना तभी साकार हो सकता है जब हम अपने बच्चों को अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी माध्यम की पाठशालाओं में भी प्रविष्ठ करेंगे। वहां से उन्हें हिन्दी का ज्ञान दिलाएंगे। वे शुद्ध हिन्दी लिखना, पढ़ना और उच्चारण करना सीखेंगे। वे पारिवारिक रिस्तों में मिठास घोलने वाले प्रिय हिन्दी भाषी संबोधनों से जैसे माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहन, भाभी-भाई, बहन-जीजा, चाची-चाचा, तायी-ताया, मामी-मामा, मौसी-मौसा कह कर पुकार सकेंगे और समाज में उनसे मिलने-जुलने वाले प्रिय बन्धुओं से भी उन्हीं जैसा व्यवहार करेंगे। क्या हम प्राचीनकाल की भांति आज भी समर्थ हैं? इस ओर हम क्या प्रयास कर रहे हैं?
    भारत की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति से प्रेरित होकर आज का कोई भी नौजवान सहर्ष कह सकता है कि हम हिन्दीभाषी लोग विभिन्न भाषी क्षेत्रों के लोगों का इसलिए सम्मान करते हैं कि हम उन्हें अधिक से अधिक जान-पहचान सकें और हमारी राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता पहले से कई गुणा अधिक सुदृढ़ बन सके।
    12 अक्तूबर 2008 कश्मीर टाइम्स

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    राष्ट्र -हित कितना बौना!

    किसी व्यक्ति का-अपना परिवार, परिवार का-समाज, समाज का-क्षेत्र, क्षेत्र का-राज्य, राज्य का-राष्ट्र, और राष्ट्र का-विश्व पूरक होता है। वे सब एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। इन्हें स्वयं के निर्वहन हेतु आपस में मधुर संबंध और सामंजस्य बनाए रखना अति आवश्यक है।
    व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज, क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और जान-माल संबंधी रक्षा-सुरक्षा तक की विश्वसनीयता बनाए रखने की महती आवश्यकता होती है जिसमें स्वतन्त्रता, समता, और बन्धुता का समर्पण भाव विद्यमान होता है। इससे विश्व शान्ति बनती है।
    ”बुद्ध और उनके धम्म का भविष्य“ पुस्तक जिसके लेखक स्वयं डा0 भीमराव आम्बेडकर हैं, की भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि 29 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डा0 भीमराव आम्बेडकर ने संविधान पारित होते समय राष्ट्र को चेतावनी दी थी-”26 जनवरी 1950 को हम राजनीतिक जीवन में समान होंगे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में असमान। हमें इस विषमता को जल्द से जल्द हटाना होगा, वरना उस विषमता के शिकार हुए लोग राजनैतिक प्रजातन्त्र का यह ढांचा उखाड़कर फैंक देंगे।“
    अगर डा0 भीमराव आम्बेडकर के यह विचार उस समय तर्क संगत रहे हैं तो आज के परिप्रेक्ष्य में भी उनका महत्व कम नहीं है। आज हमें प्रजातन्त्र के इस ढांचे को उखाड़कर नही फैंकना है बल्कि एक सच्चे भारतीय बनकर उसे अत्याधिक भली प्रकार संवारना है। राष्ट्र को आज इसकी आवश्यकता है। इसके लिए देश के प्रतिभाशाली राजगुरुओं, धर्माचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, शिक्षाविदों, अर्थ-शास्त्रियों, समाज सेवकों, डाक्टरों, इंजिनियरों, और न्यायविदों को समय-समय पर आत्म निरीक्षण करना होगा ताकि उनके कार्य और कार्य-प्रणाली की विसंगतियां दूर हो सकेें।
    भारत अपने आप में एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक देश है जिसके विभिन्न क्षेत्रों में जहां छोटी-छोटी अनेकों क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां हैं, वहीं उसकी राष्ट्रीय स्तर का दम भरने वाली बड़ी-बड़ी पार्टियां भी हैं। ऐसे कोई भी पार्टी जब अपने निजी स्वार्थ और जन हित विरोधी नीतियों का शिकार हो जाती है और वह जनता की अदालत में अपना विश्वासमत खो बैठती है तब उसकी सरकार अल्पमत में होती है। परिणाम स्वरूप पुनः चुनाव होता है। जनता जिस पार्टी को चाहती है, वह उसको अपना वोट देकर सफल बनाती है। इससे उसे अपनी सरकार बनाने का अवसर मिलता है। इस प्रकार अल्पमत में आने या बार-बार चुनाव होने से, चुनावों में भारी खर्च होता है। यह कर्ज देश की उस गरीब जनता को महंगाई के रूप में चुकाना पड़ता है जिसे दो वक्त खाने के लिए भर पेट खाना नही मिलता है। फिर भी विभिन्न पार्टियों के कार्यकत्र्ता और नेता उससे उसका कीमती वोट मांगते हुए दिखाई देते हैं। भूखा पेट रहने वाले लोग उन्हें अपना कीमती वोट इस आशा से दे देते हैं शायद इस बार कोई तो उनकी सुध लेगा। वैसे चुनाव जीतकर नेताओं का ईद का चांद हो जाना आम बात है।
    कृषि प्रधान होने पर भी देश का कृषि-बागवानी, पशुपालन, उत्पादन, निर्माण, और वाणिज्य-व्यापार का क्षेत्र-प्राकृतिक आपदाओं, वित्तीय कमियों, कुप्रबन्धन, अव्यवस्था, जन निरक्षरता, अज्ञानता, कुपोषण अयोग्यता और राजनीतिक अदूरदर्शिता पूर्ण जन विरोधी नीतियों का शिकार हो रहा है। उससे अल्प आय वाले, दैनिक वेतन भोगी और कम वेतन लेने वाले ही लोग ज्यादा प्रभावित होते हैं। उनका दुख-दर्द बांटने वाला कोई नही होता है। उनके पास प्रयाप्त धन न होने के कारण वे सांसारिक सुख-सुविधाओं से सदैव वंचित रहते हैं। उनका भरपूर लाभ मात्र धनी लोग उठाते हैं। यही कारण है कि धनी लोग और धनवान और निर्धन अति गरीब हो रहे हैं। दोनों में गहरी खाई बढ़ रही है।
    भारतीय समाज-पुरातन काल से-सनातन धर्म और उसकी संस्कृति से जुड़ा हुआ होने के कारण, वह राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के रूप में विश्व विख्यात है। उसका विनाश करने के लिए आज तक समाज विरोधी तत्वों ने अपनी ओर से जितने भी प्रयास किए हैं, बदले में उन्होंने मुंह की खाई है। इतिहास साक्षी है कि जाति एवं धार्मिक साम्प्रदायिक शक्तियों का शिकार होने वाले लोगों का जब-जब उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों से मोह भंग हुआ है तब-तब वे पुनः सनातन धर्म की ओर लौटे हैं।
    भारतीय संस्कृति के अनुसार-वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली का आरम्भ ही जन हित विरोधी था, अब जन विरोधी है और आगे वैसा तब तक रहेगा जब तक उसे पूर्णतयः जड़ से उखाड़कर नहीं फैंक नही दिया जाता। कारण, उसकी कल्पना देश का हित चाहने वाले किसी स्वदेशी शिक्षाविद हितैशी ने नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के हितैशी एवं ब्रिटिश राजभक्त अंग्रेज मैकाले ने की थी जो भारत से उसकी समस्त सुख-समृद्धि छीनकर ब्रिटेन की खुशहाली में बदलना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ब्रिटिश शासन ने छल, बल और समर का सहारा लेकर अनेकों प्रयास किए थे जिनके अंतर्गत भारत की अपार बहुमूल्य धन-सम्पदा को ब्रिटेन पहुंचाया गया था। उनमें पंजाब के अंतिम सिख महाराजा का बहुमूल्य कोहिनूर हीरा भी था जो आज ब्रिटेन की महारानी के ताज की शोभा बढ़ा रहा है।
    यह भारत का दुर्भाग्य ही है कि अंग्रेज मैकाले द्वारा प्रदत और ब्रिटिश-राज की पोषक वर्तमान शिक्षा प्रणाली को आज भी हम भारतीयों ने ज्यों का त्यों ही अपनाया हुआ है जिससे देश को बेरोजगारी, निर्धनता, चरित्रहीनता और कुसंस्कारों की फलित खेती मिल रही हैै। स्नातक युवा वर्ग के जीवन की बुनियाद दिन प्रति दिन नैतिक मूल्यविहीन होकर खोखली हो रही है। इससे स्पष्ट है कि मैकाले का उद्देश्य पूर्ण हुआ है। वह भारतीय परम्परागत गुरुकुल प्रधान शिक्षा प्रणाली और भारतीय संस्कृति बदलना चाहता था। गुरुकुल शिक्षा के अभाव में आज देश का युवा वर्ग अपनी कार्य कुशलता, सामर्थ्या, सदाचार और सुसंस्कार भूल रहा है। वह मेहनत करने की अपेक्षा लघु मार्ग से अधिक से अधिक आय के स्रोत ढूंढ निकाल लेना श्रेष्ठ समझता है। वर्तमान में उसके द्वारा बात-बात पर या उच्च अभिलाषा पूर्ण न होने पर आत्म-हत्या तक कर लेना आम बात है।
    स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय जनता को आशा थी कि उसे स्वशासन से सस्ता और त्वरित न्याय मिला करेगा। भविष्य में उसकी जान-माल की रक्षा-सुरक्षा सुनिश्चित होगी। पर काश! आजादी मिलने के पश्चात, देश की किसी भी छोटी या बड़ी पार्टी ने इस ओर कोई विषेष कारगर कदम नहीं उठाया है। आज देश भर में – ”देश का नव निर्माण“ करने के नारे तो खूब लगाए जा रहे हैं। गांव-गांव में पाठशालाएं खोली जा रही हैं। शहर-शहर में कालेज भी स्थापित हो रहे हैं पर अज्ञानता, हिंसा, आतंक, उग्रवाद, कुपोषण, अत्याचार के रूप में-दानवता का साम्राज्य जो यहां पराधीनता के समय विद्यमान था- स्वाधीनता मिलने के पश्चात भी तन्दूर सा दहक रहा है। जनहित का ढिंढोरा पीटने वाली पार्टियां कोई बहाना मिलते ही, बिन देरी किए उस पर अपनी-अपनी राजनीतिक चपातियां सेंकनें लगती हैं। इनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उभरते हुए ज्वलंत मुद्दे उनके घोषणा पत्रों में ग्रह-नक्षत्रों के समान दमकने लगते हैं। विभिन्न पार्टियों के द्वारा घोषणा पत्रों में जनता को अनेकों सब्ज-बाग दिखाए जाते हैं जो आगामी चुनाव में उसको अपनी ओर आकर्षित करने के ज्यादा और व्यावहारिक रूप में कम संसाधन सिद्ध होते हैं। इस प्रकार वह जो चाहें करती हैं, कर सकती हैं। सरकार में विद्यमान पार्टी को अपनी सरकार बचाने की चिन्ता रहती है। जन हित का सिर दर्द मोल लेने का उसके पास समय नहीं होता है। जनता द्वारा कोई मांग करने पर उसके आराम में खलल पड़ता है। उसे आंदोलन समझा जाता है। उसे कुचलने के लिए सुरक्षा बल अपना क्रूरता पूर्वक बल प्रयोग करता है। हिंसा भड़कती है। इससे मीडिया भी अछूता नहीं रहता है।
    आज देश को महती आवश्यकता है ऐसे प्रतिभावान अभिभावकों, राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, अधिकारियों, न्यायविदों, राजगुरुओं, धर्माचार्यो, शिक्षकों, विद्यार्थिओं, श्रमिकों और समाज सेवकों की जिनकी अपने-अपने कार्य-क्षेत्रों में विद्यमान प्रशासन, वित्तव्यवस्था और कार्य प्रणाली पर अपनी मजबूत पकड़ हो। जिन्हें दोस्त और दुश्मन की भली प्रकार पहचान हो। जो राष्ट्र हित और अहित में भेद कर सकें। जो सत्य एवं असत्य का अन्तर समझ सकें ओर दोषी को निष्पक्षता पूर्ण कड़े से कड़ा दण्ड भी दिला सकें। जो जनहित की आवाज बुलंद करने में समर्थ हों और उसे व्यावहारिक रूप दे सकें। ऐसा जनहित एवं राष्ट्रीय कल्याण हेतु किया जाना अति आवश्यक है।
    28 सितम्बर 2008 कश्मीर टाइम्स


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    कर्तव्य विमुखता का काला साया

    आज बुराई का प्रतिरोध करने वाला हमारे बीच में कोई एक भी साहसी, वीर, पराक्रमी, बेटा, जन नायक, योद्धा अथवा सिंहनाद करने वाला शेर नौजवान दिखाई नहीं दे रहा है। मानों जननियों ने ऐसे शेरों को पैदा करना छोड़ दिया है। गुरु जन योद्धाओं को तैयार करना भूल गए हैं अथवा वे समाज विरोधी तत्वों केे भय से भयभीत हैं।
    उचित शिक्षा के अभाव में आज समस्त भारत भूमि भावी वीरों से हीन होने जा रही है। उद्यमी युवा जो एक बार समाज में कहीं किसी के साथ अन्याय, शोषण अथवा अत्याचार होते देख लेता था, अपराधी को सन्मार्ग पर लाने के लिए उसका गर्म खून खौल उठता था, उसका साहस परास्त हो गया है। यही कारण है कि जहां भी दृष्टि जाती है, मात्र भय, निराशा अशांति और अराजकता का तांडव होता हुआ दिखाई देता है। धर्माचार्यों के उपदेशों का बाल-युवावर्ग पर तनिक भी प्रभाव नही पड़ रहा हैै।
    बड़ी कठिनाई से पांच प्रतिशत युवाओं को छोड़ कर आज का शेष भारतीय नौजवान वर्ग भले ही बाहर से अपने बल, धन, सौंदर्य और जवानी से अपना यश और नाम कमाने के लिए बढ़चढ़ कर लोक प्रदर्शन करता हो परन्तु वह भीतर से तो है विवश और असमर्थ ही। इसी कारण सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्य क्षेत्र में कोरा होने के साथ-साथ वह अधीर भी हैै। वह सन्मार्ग भूल कर स्वार्थी, लोभी, घमंडी और आत्म विमुख होता जा रहा है। उसमें सन्मार्ग पर चलने की इच्छा-शक्ति भी तो शेष नही बची है। वह भूल गया है कि वह स्वयं कौन है?
    आज का कोई भी विद्यार्थी, स्नातक, बे-रोजगार नौजवान मानसिक तनाव के कारण आत्म विमुख ही नहीं हताष-निराश भी हो रहा है जिससे वह जाने-अनजाने में आत्महत्या अथवा आत्मदाह तक कर लेता है। प्राचीन काल की भांति क्या माता-पिता बच्चों में आज अच्छे संस्कारों का सृजन कर पाते हैं? क्या गुरुजन विद्यार्थी वर्ग में विद्यमान उनके अच्छे गुण व संस्कारों का भली प्रकार पालन-पोषण, संरक्षण और संवर्धन करते हैं? वर्तमान शिक्षा से क्या विद्यार्थी संस्कारवान बनते हैं? नहीं तो ऐसा क्या है जिससे कि हम अपना कर्तव्य भूल रहे हैं? हम अपना कर्तव्य पालन नहीं कर रहे।
    26 सितम्बर 2007 दैनिक जागरण