आलेख – मातृवंदना नवंबर 2007
“भारत देश महान” जैसी बातें अब नीरस और खोखली लगने लगी हैं l मन्दिर समान पवित्र घर और विद्यालयों में जहाँ कभी ज्ञान, श्रद्धा, प्रेम-भक्ति और विश्वास पाया जाता था, वहां पर अज्ञान, अश्रद्धा, अवज्ञा, अविश्वास होने के साथ-साथ अवैध संबंध, भ्रूण हत्याएं, बात-बात पर वाद-विवाद, मार-पीट, मन-मुटाव, अपमान, घृणा, द्वेष, आत्म तिरस्कार और आत्म हत्याएं होती हैं l
अध्यात्म प्रिय होने के कारण देश के अधिकांश परिवार प्रकृति प्रेमी होते थे l परन्तु वह भौतिकवादी हो जाने से जीवन देने वाले पर्यावरण के ही शत्रु बन गए हैं l इस कारण भौतिकवाद की अंधी दौड़ में वन-संपदा, प्राकृतिक सौन्दर्य और समस्त जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ लुप्तप्रायः होती जा रही हैं l मात्र मनुष्य जाति की भीड़ और उसका कंकरीट का जंगल ही बढ़ रहा है l पेयजल और कृषि योग्य भूमि का अस्तित्व संकट में है और प्राद्योगिकी प्रदूषण के साथ-साथ धरती का ताप भी बढ़ रहा है जिससे हिमनद और ग्लेशियर तेजी से पिघलते जा रहे हैं l
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति के लिए लगनशील, उद्यमी युवा-वर्ग में बल, बुद्धि, विद्या, वीर्य और सद्गुणों का सृजन, संवर्धन और संरक्षण करने के स्थान पर नशा-धुम्रपान करने, क्लब, वैश्यालय एवम् नृत्यशालाओं में जाने का प्रचलन बढ़ गया है l अध्यात्मिक उपेक्षा करने से वह एड्स जैसे भयानक रोगों का शिकार हो रहा है l
समाज में अज्ञानता, अपराध, अपहरण, यौन शोषण, बलात्कार, अन्याय, बाल-श्रम, बंधुआ मजदूरी, मानव तस्करी, अत्याचार, हत्यायें, अग्निकांड, उग्रवाद, अशांति, अराजकता होती है l स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र में जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र के नाम पर वाद-विवाद खड़ा करके आपसी फुट डाली जाती है और उन्हें स्वार्थ सिद्धि के लिए आपस में भी बांटा जाता है l
देश के सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों में आर्थिक भ्रष्टाचार, गबन, घोटाले होकर वे अग्निकांड के द्वारा अग्नि की भेंट चढ़ जाते हैं l न्यायिक प्रणाली अधिक महंगी, दीर्घ प्रक्रियाओं में से निकलने वाली, दूरस्थ, दैनिक वेतन भोगी, कम वेतन मान पाने वाले एवं निर्धनों की पहुँच से दूर, अमीर-गरीब में असमानता रखने वाली और मात्र किताबी कानून तक अव्यवहारिक होने के कारण – राष्ट्रीय न्यायलयों से जन साधारण का विश्वास दिन-प्रतिदिन उठता जा रहा है l इस प्रकार परिवार, विद्यालय, समाज और राष्ट्र के प्रति जन साधारण में आस्था, विश्वास, प्रेम और जनहित का आभाव दिखाई देने लगा है जो एक विचारणीय विषय है l हमें इस ज्वलंत समस्या का समाधान निकालने के लिए ध्यान देने के साथ-साथ विचार अवश्य करना चाहिए l
श्रेणी: मानव जीवन दर्शन
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श्रेणी:मानव जीवन दर्शन
जनहित विरोधी मानसिकता
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श्रेणी:मानव जीवन दर्शन
सद्गुण संस्कार और हमारा दायित्व
मानव जीवन दर्शन – 10
ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्मांड बड़ा विचित्र है l सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल के मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का का द्योतक है कि समस्त ब्रह्मांड में जो भी अमुक वस्तु विद्यमान है, वह अपने किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है l
बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मयूर का मस्त होकर नाचना और भोर के समय पक्षियों का चहचहाना किसी शुभ समाचार की ओर इंगित करता है l अगर ऐसा है तो प्राणियों में सर्व श्रेष्ठ, विवेकशील मनुष्य का जीवन नीरस और अंधकारमय कदाचित हो नहीं सकता l जब उसका जन्म होता है जो उसके जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य भी होता है l बिना उद्देश्य के उसे जन्म नहीं मिल सकता l यह प्रकृति का नियम है l गुण और संस्कारों का जीवन के साथ जन्म-जन्मों का संबंध रहता है l जीवन उद्देश का उसने अपने इसी जीवन में पूरा अवश्य करना है जिसके लिए वह संघर्षरत है l ध्यान और सूक्षम दृष्टि से उसका अध्ययन करने की आवश्यकता रहती है l उसके भीतर लावा समान दबा और छुपा हुआ भंडार दिव्य गुण और संस्कारों के रूप में उसके जीवन का उद्देश्य पूरा करने में पर्याप्त होते हैं l वह समय पर बड़े और कठिन से कठिन भी कार्य कर सकने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं l आवश्यकता मात्र है तो नवयुवाओं को गुण और संस्कारों के आधार पर सुसंगठित करने की l उन्हें उचित दिशा निर्देशन की, सहयोग की और उनका उत्साह वर्धन करने की l
युवा बहन-भाइयों को उनके जीवन के महान उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण – संस्कार जीवन उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं l प्रतिकूल गुणों से किसी भी महान जीवन उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है l बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है l जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात् उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण–संस्कार युक्त बहन-भाइयों के कर्मों की छाप भी संपूर्ण जनमानस पटल पर अवश्य अंकित होती है जो युग-युगान्तरों तक उसके द्वारा भुलाये नहीं भुलाई जाती है l अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है l यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति से संबंधित है l
बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए l उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना l जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लग्न, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराशकर उसे मनचाही एक सुंदर आकृति और आकर्षक मूर्ति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार किसी भी प्रयत्नशील बहन-भाई को स्वयं में छुपी हुई किसी प्रभावी विद्या, कला तथा दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो l उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी l देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुकूल देश – कार्य क्षेत्र, काल – समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्ग दर्शक अवश्य मिल जाते हैं l उनसे उनका काम सहज होना निश्चित हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है l
प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक है जितना फूलों में सुगंध होना l फूलों में सुगंध से मुग्ध होकर फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण का अनुसरण करने के लिए उनके अनुयायी ही बनते हैं l उनके साथ रहकर अच्छा बनने के लिए वह अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं l
उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है l वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है l एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान समझता है, दुराचार के कार्य करता है l इसलिए दोनों की प्रकृतियाँ आपस में कभी एक समान हो नहीं सकती l वह एक दिशा सूचक यंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा में रहती हैं l उन दोनों में द्वंद्व भी होते हैं l कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार, सदाचार को असहनीय कष्ट और पीड़ा ही पहुंचाता है l जब यह दोनों प्रकृतियाँ सुसंगठित होकर किन्हीं बड़े-बड़े संगठनों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद्व न रहकर युद्ध ही होते हैं जिनमें उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह अपने प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है l
समर्थ तरुणाई वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थ्या, शक्ति रखती है l तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक है l वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं l इसलिए तरुण–शक्ति जन शक्ति के रूप में लोक-शक्ति बन जाती है l अतः कहा जा सकता है कि
लोक शक्ति का मूल आधार,
जन-जन के उच्च गुण, संस्कार l
जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोककर बांध बना लिया जाता है, युवाओं में कुछ कर सकने की जो तीव्र इच्छा-शक्ति होती है, उसे अवरुद्ध करना अति आवश्यक है l आवश्यकता पड़ने पर जलाशय के जल को कम या अधिक मात्रा में नहरों के माध्यम द्वारा दूर खेत, खालिहान, गाँव-शहर तक पहुंचाया जाता है, उनसे खेती-बागवानी, साग-सब्जी की फसल में पानी लगाया जाता है और उससे अन्य आवश्यकताएं भी पूरी की जाती हैं – ठीक उसी प्रकार युवाओं की अद्भुत कार्य क्षमता को उनकी अभिरुचि अनुसार छोटी-बड़ी टोलियों में सुसंगठित करके उनसे लोक विकास संबंधी कार्य करवाए जा सकते हैं l युवा बहन–भाइयों की तरुण-शक्ति को नई दिशा मिल सकती है l उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं l किसी परिवार, गाँव, तहसील, जिला, और राज्य से लेकर राष्ट्र तक का भी विकास किया जा सकता है l तरुण–शक्ति का मार्गदर्शन अवश्य किया जाना चाहिए l क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? यह हमारा दायित्व नहीं है क्या ?
प्रकाशित 5 मई 1996 कश्मीर टाइम्स
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श्रेणी:मानव जीवन दर्शन
जिंदगी से कला जोड़ो, नशा नहीं
मानव जीवन दर्शन – 5
जीना भी एक कला है। जो युवा कलात्मक विधि से जीना सीख जाता है, वह मानों उसके लिए सोने पर सुहागा। कलात्मक विधि से जीने के लिए युवा का किसी न किसी कला के साथ जुड़े रहना अति अवश्यक है। इसके लिए युवा को मांस-मदिरा सेवन और धू्रम्रपान करने से सदैव दूर रहना चाहिए। इन वस्तुओं का सेवन करने से मानव जीवन में दुष्प्रभाव पड़ता है, तरह-तरह की विसंगतियां उत्पन्न होती हैं जो जीवन विकास के लिए वाधक होती हैं। वैसे भी सनातन धर्म इनका सेवन करने की किसी को आज्ञा नहीं देता है अपितु सावधान ही करता है।
किसी ने ठीक ही कहा है कि “जिंदगी से कला जोड़ो, नशा नहीं।” जिंदगी में जब कोई भी व्यक्ति खाद्य पदार्थ या पेय रस का निर्धारित मात्रा या आवश्यकता से अधिक सेवन करता है तो उससे उसके शरीर का पाचन तंत्र अव्यवस्थित होता है और इससे आगे जिन पदार्थों का वह बार-बार सेवन करता है, उन्हें एक पल के लिए भी भूलता नहीं है, मात्र नशा करना कहलाता है। उनमें दारू या शराब प्रमुख है। इतना ही नही, किसी पार्टी, विवाह-शादी, स्वागत या विदाई समारोह के समय पर शराब का वितरण करना भी एक फैशन बन गया है। जिस समारोह के आयोजन में शराब वितरण न हो, उसे एक अच्छा आयोजन नहीं कहा जाता है।
इसके लिए बालीवुड सिनेमा उद्योग भी कम उत्तरदायी नहीं है। उसमें देश, धर्म-संस्कृति के हित की कोई भी बात ना होकर मात्र पैसा ही कमाना उसका उद्देश्य बनकर रह गया है। यही नहीं वह समाज को नशा करने हेतु प्रेरित भी कर रहा है जिससे निरंतर अपराध प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है।
देशभर में जहां लोग सुवह-शाम मंदिरों में जाते थे, घंटियां बजाकर देवी-देवताओं की आरती किया करते थे। आज शायद ही कोई ऐसा गांव बचा होगा जहां शराब की दुकान ठेका ना खुला हो। साएं होते ही वहां शराब खरीदने वालों की लंबी कतारें देखी जा सकती हैं। उनमें अधिकतर वे ही लोग अधिक दिखाई देते हैं जो दिहाड़ीदार होते हैं।
आधुनिक काल विकासवाद का युग है। संस्कार और शिक्षा की सुगंध जो विद्यार्थी के आचरण और व्यवहार में दिखाई देनी चाहिए थी, के स्थान पर नवयुवा/नवयुवतियां जीवन की दिशा से अनभिज्ञ या जीवन दिशा से भ्रमित होकर कैफे, रैस्टोरैंट, या होटलों में आयोजित होने वाली छोटी या बड़ी पार्टियों में जाकर पवित्र रिस्तों की धज्ज्यिां उड़ाते दिखाई देते हैं। वे वहां अनैतिक संबंध बनाकर पलभर में ही अपना सब कुछ खो बैठते हैं जो उन्हें जीवन में भविष्य के लिए सम्भाल कर रखना होता है।
गांजा, सुलफा, सुमैग, हेरोइन, पोस्त, हफीम, चर्स, और चिट्टा जो नशे के विभिन्न रूप हैं, ने आज दारू या शराब को भी पीछे छोड़ दिया है। इन पदार्थाें का युवावर्ग में तेजी से प्रचलन बढ़ रहा है। ऐसे व्यवसाय का साम्राज्य फैलाने में राज्य या क्षेत्र स्तरीय “नशा अपराध तंत्र” की गैंग में सक्रिय स्मगलरों और उनके अजैंटों के रूप में आपसी बड़ी भूमिका रहती है जो किसी न किसी प्रकार नशा-पदार्थों को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। इस कार्य में उनके सिर पर हर समय संकट की घंटी बजती रहती है। फिर भी वह इस अपराधिक कार्य को अवश्य करते हैं। या तो वह पुलिस टीम द्वारा पकड़े जाते हैं, जेल की सलाखों के पीछे पड़े सड़ते रहते हैं या उसकी गोली ही का शिकार बनते हैं।
श्री मद् भगवद्गीता के अनुसार जीवन का यह भी एक कड़वा सत्य है कि मनुष्य अच्छाई की अपेक्षा बुराई की ओर अतिशीघ्र आकृष्ट होता है। कोई भी व्यक्ति जो जैसी संगत करता है, उसकी वैसी भावना पैदा होती है। उसकी जैसी भावना होती है, उसके वैसे विचार पैदा होते हैं। उसके जैसे विचार हों, वह वैसा ही कर्म करता है और वह जैसे कर्म करता है, उसे वैसा फल अवश्य मिलता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि आज का मनुष्य अपनी जीवन शैली से पूर्णरूप से अनभिज्ञ है या जीवन दिशा से भ्रमित हो गया है। उसका जीवन निरंतर आत्म पतन की ओर अग्रसर हो रहा है। वह इस अंधकूप से बाहर निकल कर पुनः सुख-समृद्धि से परिपूर्ण अवश्य हो सकता है अगर वह जीने के लिए कला प्रेमी बन सके और कलात्मक विधि से जीना सीख जाए। उसे अपना आनंददायक जीवन जीने के लिए विधि पूर्वक अपनी किसी न किसी मन पसंद कला (संगीत, वादन, नृत्य, निर्माण, अभिनय, लेखन, भाषण या चित्रकला) के साथ जुड़ना अति आवश्यक है।
प्रकाशित अक्तूबर 2020 मातृवंदना
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श्रेणी:मानव जीवन दर्शन
क्या हमारा जीवन त्रुटिपूर्ण है ?
मानव जीवन दर्शन - 4
प्रगति करने वाला विवेकशील मनुष्य अपने जीवन को सदैव त्रुटिपूर्ण मानता है l वह उन त्रुटियों के होने की कभी चिंता नहीं करता है बल्कि उनको दूर करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है l
आधुनिक काल में हर स्थान पर हड़तालें, बंद, घेराव, संप्रदायक दंगे, हिंसा पत्थराव, तोड़फोड़, अग्निकांड, लाठी प्रहार और आंसूगैस की ही घटनाएँ देखने, पढ़ने और सुनने को मिलती हैं l बात-बात पर उनकी आवश्यकता समझी जाती है l क्या ऐसा करने से आजतक समाज की कहीं भलाई हो सकी है ?
हमारा भारत एक संघीय देश है जिसमें छोटे-बड़े क्षेत्रों को मिलाकर कई राज्य बनाये गए हैं l समय-समय पर जनता मतदान द्वारा विधान सभा तथा लोक सभा हेतु अपने प्रतिनिधियों का चयन करती है जिनसे राज्य तथा केंद्र सरकारों का निर्माण होता है l भारत और उसके राज्यों में सरकारी तथा गैर सरकारी श्रमिक संगठन भी होते हैं जो समय-समय पर अपनी-अपनी मांगें सरकार द्वारा मनवाने का प्रयत्न करते रहते हैं l कभी-कभी वह अपने प्रयासों को ऐसे सक्रिय आंदोलनों के रूप में ढाल लेते हैं, जिन्हें अपने हित के आगे देशहित भी नजर नहीं आता है l वे उपद्रव करना आरम्भ कर देते हैं जिनसे देशहित नहीं होता है l उन्हें यह भी ज्ञान नहीं रहता है कि उनके उपद्रवों से किसका हित अथवा किसका अहित हो रहा है l तब कानून व्यवस्था बनाये रखने वाली पुलिस उन पर अपनी कार्रवाही करती है l उसे तो संवैधानिक कानून व्यवस्था और शान्ति बनाये र खनी होती है l
सदियों से संसार में भांति-भांति के अनेकों प्रकार के आन्दोलन तो होते रहे हैं लेकिन उनमें और आज के आंदोलनों में यह अंतर आ गया है कि पहले वाले आंदोलनों का आधार कारण सहित प्रमानित और ठोस होता था l क्रांतिकारी जैसा आन्दोलन करना चाहते थे वे उसके अनुरूप साधनयुक्त भी होते थे जिससे कि वे जी-जान लगाकर अपने अधिकार के लिए लड़ा करते थे l भारतीय इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार से किया जाने वाला कोई भी शांतिपूर्वक स्वतंत्रता आन्दोलन विफल नहीं, सफल ही रहा है l उसकी सफलता से पूर्व जब कभी उस जैसे अन्य आंदोलनों में कोई कमी रह भी जाती थी तो आन्दोलनकारी अपना-अपना हृदय मंथन करके उनमें पाई जाने वाली कमियों को ही ढूंढते थे, उन्हें दूर किया करते थे l ताकि फिर वह कभी उनके मार्ग में कोई खलल या विघन न डाल सके l परन्तु आज गुरु विहीन और दिशाहीन क्रांतिकारी ऐसा कुछ भी रचनात्मक कार्य नहीं करते हैं बल्कि दूसरों की कमियां देखते हैं l स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को निम्न समझते हैं l जिससे उनमें सहयोग की भावना के स्थान पर टकराव ही की प्रवृति को बढ़ावा मिलता है l
हमें सर्व प्रथम अपनी कमियों को अपने समक्ष रखकर उनसे सीख लेनी चाहिए l ताकि हम वह गलती फिर जीवन प्रयन्त न दुहरायें l हमें उन्हें अपने जीवन का प्रेरणा स्रोत मानकर कार्य करना चाहिये l तभी हम अपने कार्य में सफल हो सकते हैं, आगे बढ़ सकते हैं l
भले ही किसी मनुष्य की जिह्वा, आखें और कान अपना-अपना कार्य करने में सक्षम हों और उसका विवेक सोया हुआ हो तो उस महानुभाव को जगा हुआ नहीं कहा जा सकता l आज का मनुष्य हृदय शुद्धि करने के लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च धार्मिक स्थलों पर और सभाओं में अवश्य जाता है, सत्संग करता है पर फिर भी उसके मन में दुर्भावना पनपती रहती है l उसके मन के बंद कपाट नहीं खुलते हैं l ऐसे भक्त की वहां जाने से पूर्व सम्भवतः यह भावना रहती होगी कि वह देव या गुरु शरण जाकर मात्र प्रार्थना करके अपने मन का सब कूड़ा-कचरा धो लेगा और मन से भी पवित्र हो जायेगा l पर उसकी ऐसी धारणा गलत होती है l प्रमाणित हो चुका है कि आजकल के ऐसे कई धार्मिक स्थल और संस्थाओं में भांति-भांति के ऐसे लाखों कार्य किये जाते हैं जो नैसर्गिकता, नैतिकता, राष्ट्रीयता, सभ्यता, संस्कृति, दर्शन तथा साहित्य की मान-मर्यादाओं के विरुद्ध होते हैं l उन्हें देख किसी भी भद्र नर-नारी का माथा मारे शर्म के स्वयं ही नीचे झुक जाता है l ऐसी संगत करने से क्या लाभ ? धर्म तो व्यक्तिगत विषय है, सम्प्रदायक नहीं l लोग कहते हैं कि धार्मिक स्थान उन्हें शांति प्रदान करते हैं, पर वह शांति देवालय, मठ, गुरुद्वारा, मस्जिद, चर्च, धार्मिक स्थान, सभाएं या सम्मेलन नहीं देते हैं l उन्हें उनकी सुसंगत, अध्ययन चिंतन और मनन से ही शांति प्राप्त होती है l नींबू का रस खट्टा होता है, मीठा या फीका नहीं l मनुष्य अपूर्ण है, मात्र ईश्वर पूर्ण है, सत्य है l सुबह से शाम तक मनुष्य, मनुष्य को ही देखता है, ईश्वर को नहीं l मनुष्य और मनुष्य द्वारा बनाई गई हर वस्तु अपूर्ण है l इसलिए अपूर्ण को पूर्ण, सत्य का सहारा लेना अनिवार्य है l वह कण-कण में विराजित है l मनुष्य के हृदय में भी विराजित है l वहीँ से छुपा हुआ वह पूर्णता का स्वामी अपूर्ण मनुष्य की हर दिनचर्या को निहारता है l इसलिए हमें सर्वप्रथम अपने हृदय के बंद कपाट खोलने चाहियें ताकि हमें ईश्वर के दर्शन कर सकें l इसके लिए हमें स्वयं में बदलाव लाने की महती आवश्यकता है - “हमें सत्संग अथवा प्रभु-नाम स्मरण करना चाहिए, सत्संग से मन में पवित्र भावना उत्पन्न होती है l पवित्र भावना से विचार शुद्ध होते हैं l उन विचारों से अच्छे कर्म होते हैं और अच्छे कर्मों से मिलने वाला फल भी अच्छा ही होता है l” क्या वर्तमान काल में इस सत्य अनुभवी कथन का संबंध हर व्यक्ति के साथ है ? अगर नहीं तो क्यों ?
आज आवश्यकता है – स्थिर निर्णायक बौद्धिक क्षमता की जो अच्छाई में से बुराई को निकाल दे, बुराई में से अच्छाई ढूंढ ले और फिर साथ ही साथ वह अच्छाई मनुष्य के द्वारा उसके जीवन में चरित्रार्थ भी हो l परन्तु हम ऐसा नहीं करते हैं, डरते हैं, जाने क्यों !
महान पुरुषों का तो यही अनुभव रहा है कि जब तक हम अपने मन के बंद कपाटों को स्वयं नहीं खोलते हैं, हमें आत्म-ज्ञान नहीं हो सकता l हमें दिया जाने वाला बाह्य सहयोग या ज्ञान का कोई भी महत्व नहीं – सब निरर्थक है l जैसे खाना हमारी थाली में हो – जब तक हम स्वयं ग्रास उठाकर अपने मुंह में नहीं डालते हैं, तब तक वह न तो हमारी थाली से उठता है और न हमारे मुंह में ही जाता है l इस कारण किसी व्यक्ति का सुधार या उसे आत्म-ज्ञान न तो किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा हुआ है और न ही हो सकता है l मात्र उसकी श्रद्धा, जिज्ञासा, विश्वास और सतत साधना से ही सब कुछ जाना जा सकता है और अपने आप की पहचान भी हो सकती है l
जब हमें यह ज्ञान हो जाता है कि वह कोई भी होने वाला कार्य अपने लिए अच्छा है तभी वह दूसरों के लिए अवश्य अच्छा होगा l हमें दूसरों के लिए वैसा ही कार्य करना चाहिए जैसा हम स्वयं के लिए करते हैं l यही जन जागृति है l जन जागृति से जन-शक्ति बनती है, लोक-शक्ति बढ़ती है l समाज का सुधार होता है l कोई भी जागृत महानुभाव अनुचित कार्य नहीं करता है l वह समाज को जागृति की शिक्षा देता है और स्वयं का ध्यान रखता है कि कहीं वह सो तो नहीं गया – उसके द्वारा अनुचित कार्य तो नहीं होने लगा ! इस प्रकार वह सकल समाज के लिए एक महात्मा या सद्गुरु ही होता है l हम एक सद्गुरु के अनुयायी बन सकते हैं l हमारे साथ-साथ संपूर्ण समाज जागृत हो सकता है l
इस सृष्टि में किसी भी प्रकार की अच्छाई या बुराई का प्रारम्भ मात्र स्वयं ही से होता है l जैसे जब कभी हम किसी ढोल पर चोट करते हैं तो ढम-ढम की आवाज आती है – चोट करना क्रिया है तो बदले में सुनाई देने वाला शब्द उसकी प्रतिक्रिया l इस प्रकार किसी भी तरह के कार्य से निकलने वाला अच्छा या बुरा परिणाम इसी बात पर निर्भर करता है l
जिस कार्य का प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है वह बाहर के होने वाले ही कार्य की प्रतिक्रिया होती है l अगर वह कार्य द्वद्वात्मक हो तो बदले में मन में भी द्वद्व ही पैदा होता है l अच्छा कार्य सदैव द्वद्व रहित तथा शांति प्रदाता होता है जो हमारे मन पर अच्छा प्रभाव डालता है l वह हमारी अंतरात्मा को भी मान्य होता है l
इसी तरह शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध की अनुभूतियाँ हमारी इन्द्रियों की भोज्य हैं और काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार हमारे मन की कुवृतियां l ऐसे कोई भी कुवृति तब पैदा होती है जब हमारी अपनी बुद्धि सम्मोहित मन और उसकी विभिन्न प्रकार की गतिविधियों से निकलने वाले अच्छे या बुरे परिणामों का सही विश्लेष्ण नहीं कर पाती l किसी प्रकार का निर्णय न कर पाना ही हमारी बुद्धि की क्षीणता है l यही कारण है कि आधुनिक काल में प्रकाशित की जाने वाली विभिन्न पुस्तकों, समाचार पत्रों में घटिया श्रेणी की सामग्री पढ़ने और देखने को मिलती है l वह देश, काल और पात्र अनुकूल नहीं होती है l कितना अच्छा होता कि उन्हें सभ्य जागरूक समाज द्वारा कोसा जाता l
भारत के प्राचीनकाल में ही नहीं आधुनिक काल में भी उसके विद्वानों, विचारकों के अपने-अपने विचित्र अनुभव रहे हैं –“मनुष्य को वास्तविक सुख तथा शांति पाने के लिए अपनी इन्द्रियों की कुचेष्टाओं का मन के द्वारा दमन करना तथा मन के विकारों का बुद्धि द्वारा निग्रह करके अपनी बुद्धि को आत्मा में लीन करना, आत्मा को परमात्मा में मिला देना, हमारे जीवन का परम उद्देश्य होना चाहिए l ”यह सब आदिकाल से होता आया है, अब हो रहा है और आगे भी होगा l यही भारत की अध्यात्मिकता है l
क्या उपरोक्त ऋषि-मुनियों के विचित्र अनुभवों से हमारा आत्म सुधार हो सकता है ? क्या समाज में होने वाले अपराधों को रोका जा सकता है ? हमारा समाज तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक हमारी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक उन्नति नहीं होती है l हमें अपने समाज का विकास करना है तो पहले स्वयं का विकास करना होगा l स्वयं की उन्नति तब होगी जब हमारा मन, आचरण, आहार और व्यवहार भी शुद्ध होगा l इनसे हमारे जीवन की गाथा बनती है l हमारी जीवन गाथा दूसरों के लिए प्रेरक तभी बन सकती है, जब हमारे जीवन की नींव-उसका आधार सुदृढ़ होगा l ऐसा करने के लिए हमें सर्व प्रथम स्वयं को देखना होगा कि हम क्या कर रहे हैं ? वह ठीक भी है कि नहीं ? आओ ! हम सब इकट्ठे बैठकर विचार करें कि हमारे त्रुटिपूर्ण जीवन का सुधार कैसे हो और हमसे उसे महत्वपूर्ण जीवन किस प्रकार बनाया जा सकता है ? मानव जीवन अपूर्ण है इसलिए अपूर्ण को पूर्ण संग मिलाना ही श्रेयस्कर है l
प्रकाशित 17 नवम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स
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श्रेणी:मानव जीवन दर्शन
आत्म-शांति पाने के उपाए
मानव जीवन दर्शन - 2
मानव जीवन में व्यक्ति की ओर से अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए उचित यह है कि उसके अपने अमूल्य जीवन का कोई ना कोई बड़ा उद्देश्य अवश्य हो l उससे भी अधिक जरुरी है, उसकी ओर से उस उद्देश्य को अपने दायित्व के साथ पूरा करने की चेष्टा करना l वह अपने प्रगतिशील मार्ग में आने वाले कष्टों को फूल और मृत्यु को जीवन समझे और अपना प्रयत्न तब तक जारी रखे जब तक वह उसे पूरा न कर ले l जीवन उद्देश्यों को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता है – अध्यात्मिक और वैश्विक l
आत्म-कल्याण या आत्म-शांति की कामना करते हुए यहाँ जिन-जिन उपायों की चर्चा की जाएगी, वह हमारे लिए नये नहीं हैं क्योंकि प्राचीनकाल से ही हमारे ऋषि-मुनियों, संतों, महात्माओं, आचार्यों और समाज सुधारकों ने अपने-अपने प्रयासों और अनुभवों से देश, काल और पात्र देखकर उनका कई बार मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार किया है l यह उसी कड़ी को आगे बढ़ाने का एक छोटा सा प्रयास है l
जिस प्रयास या चेष्टा से जीवन में उन्नति करने के लिए अपने मन से गुण और दोषों का परिचय मिलता है, सद्गुणों को अपने भीतर सुरक्षित रखकर दोषों को दूर किया जाता है, आत्म निरिक्षण कहलाता है l
दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ) अपने-अपने गुणों के अनुकूल कर्म करती हैं l उनकी ओर से ऐसी कुचेष्टाएँ जो मन को अध्यात्मिक मार्ग से भटकाने में समर्थ हों, उनसे मन को बचाने के लिए समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित किया जाता है l इसके साथ-साथ आत्म-साक्षात्कार का प्रयास भी जारी रखा जाता है – आत्म संयमन कहलाता है l
समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित करके, हृदय और मष्तिष्क को रोककर उसे ईश्वरीय भाव में टिकाकर, मन से प्रभु का ध्यान किया जाता है – आत्म-चिंतन कहलाता है l
अपनी आत्मा को महाशक्ति मानकर नेक कमाई से अपना निर्वहन करने के साथ कर्तव्य समझकर यथा शक्ति दूसरों की सहायता की जाती है – आत्मावलंबन कहलाता है l
अपने हृदय से कर्मफल का मोह छोड़कर, हर कार्य जिससे अपने जैसा दूसरों का भी भला होता हो, को करना कर्तव्य समझा जाता है – आत्मानुशासन कहलाता है l
संयमित जीवन में बाहरी विरोद्ध होने पर भी अपने पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ मन, वाणी और कर्म में दृढ़ आस्था रखी जाती है – आत्म सम्मान कहलाता है l
अपनी आत्मा में ध्यान मग्न रहकर दूसरे प्राणियों में भी अपनी ही आत्मा के दिव्यदर्शन करके उनके साथ अपने जैसा व्यवहार किया जाता है – आत्मीय भावना कहलाती है l
अपने अन्दर और बाहर एक जैसे भाव में आत्म स्वरूप का दर्शन करते हुए समाधि लगाई जाती है तथा श्रद्धालुओं व जिज्ञासुओं में आत्मज्ञान का अपेक्षित प्रसाद बांटा जाता है – आत्मज्ञान कहलाता है l
निराभिमान द्वारा अपने मन को आत्मज्ञान में स्थिर रखकर, यथा संभव विश्व का कल्याण और आत्मचिंतन करते हुए समाधि में ही शरीर का त्याग किया जाता है – आत्म-मुक्ति कहलाता है l
भले ही उपलिखित उपाय आत्म-कल्याण करने वाले या आत्म-शांति पाने वाले विभिन्न हैं पर इनका प्रभाव या परिणाम एक ही जैसा है l
देखने में आया है कि हर मनुष्य का अपने जीवन में कोई न कोई उद्देश्य तो होता ही है पर जिन उद्देश्यों को हमने सबके सामने लाने का प्रयास किया है, उनमें से किसी एक को अवश्य चुन लेना चाहिए l वह इसलिए कि जो उद्देश्य संसारिक दृष्टि से चुने जाते हैं, वह सब चंचल मन के किसी न किसी विकार से प्रेरित/ग्रसित और प्रभावित होकर क्षण-भान्गुरिक, अल्पायु, नाशवान सुख देने वाले ही होते हैं l कई बार हम उनका नाश भी अपने सामने होता देखते हैं l उन्हें देख हमें मानसिक दुखों के साथ-साथ और कई कष्ट भी सहन करने पड़ते हैं l
पर अध्यात्मिक उद्देश्य अनश्वर, दीर्घायु, वाला अमरता की ओर ले जाने वाला एक साधन, उपाय या मार्ग है l जैसे बर्फ की सिल्ली का पिघला हुआ पानी पहाड़ी से ढलान की ओर बहकर नाला या नदी के मार्ग में अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए अंत में समुद्र से मिलकर एकाकार हो जाता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह दुःख में दुखी और सुख में प्रसन्न न हो l सुख दुःख दोनों मन के विकार हैं l उसे स्थित-प्रज्ञ या एक भाव में स्थिर होना आवश्यक है l इससे वह ईश्वर दर्शन कर सकता है l
इसलिए हमें न केवल अपने नश्वर देह सुख के लिए अल्पकालिक सुख देने वाले उद्देश्यों की पूर्ति करनी चाहिए बल्कि उसके साथ-साथ आत्म-शांति देने या आत्म-कल्याण करने वाले उद्देश्य पुरे करने का भी प्रयत्न करना चाहिये l इससे हम स्वयं तो सुखी होंगे ही इसके साथ ही साथ दूसरों को भी सुख पहुंचा सकते हैं l
प्रकाशित 3 दिसम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स