मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: 3 स्व रचित रचनाएँ

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    जन मानस विरोधी कदम

    सामाजिक चेतना – 6

    मातृवन्दना जून 2007 अंक में पृष्ठ संख्या 8 आवरण आलेखानुसार “कुछ वर्ष पूर्व “नासा” द्वारा उपग्रह के माध्यम से प्राप्त चित्रों और सामग्रियों से यह ज्ञात हुआ है कि श्रीलंका और श्रीरामेश्वरम के बीच 48 किलोमीटर लम्बा तथा लगभग 2 किलोमीटर चौड़ा सेतु पानी में डूबा हुआ है और यह रेत तथा पत्थर का मानव निर्मित सेतु है l भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित इस प्राचीनतम सेतु का जलयान मार्ग हेतु भारत और श्रीलंका के बीच अवरोध मानकर “सेतु समुद्रम-शिपिंग-केनल प्रोजेक्ट” को भारत सरकार ने 2500 करोड़ रूपये के अनुबंध पर तोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी है” यह भारतीय संस्कृति की धरोहर पर होने वाला सीधा कुठाराघात ही है जिसे जनांदोलन द्वारा तत्काल नियंत्रित किया जाना अनिवार्य है l

    जुलाई 2007 मातृवन्दना अंक के पृष्ठ संख्या 11 धरोहर आलेख “वैज्ञानिक तर्क” के अनुसार “धनुषकोटि” के समीप जलयान मार्ग के लिए वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध हो सकता है l” इस सुझाव पर विचार किया जा सकता है परन्तु इसकी अनदेखी की जा रही है l एक तरफ भारत की विदेश नीति पड़ोसी राष्ट्र पाकिस्तान, चीन, बंगलादेश, भूटान आदि के साथ आपसी संबंध सुधारने की रही है l उन्हें सड़कों के माध्यम द्वारा आपस में जोड़कर उनमें आपसी दूरियां मिटाई जा रही हैं तो दूसरी ओर भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित इस प्राचीनतम सेतु को तोड़ा जा रहा है l इसे वर्तमान सरकार का जन भावना विरोधी उठाया गया कदम कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि इसके साथ देश-विदेश के असंख्य श्रद्धालुओं की अपार धार्मिक आस्थाएं जुड़ी हुई हैं l इससे उन्हें आघात पहुँच रहा है l

    कितना अच्छा होता ! अगर श्रीराम युग की इस बहुमूल्य धरोहर रामसेतु का एक वार जीर्णोद्वार अवश्य हो जाता l उसे नया स्वरूप प्रदान किया जाता l  इसके लिए श्रीलंका और भारत सरकार मिलकर प्रयास कर सकती हैं l दोनों देशों के संबंध और अधिक प्रगाढ़ और मधुर हो सकते हैं l इस भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की किसी भी मूल्य पर रक्षा अवश्य की जानी चाहिए l

    प्रकाशित नवंबर 2007 मातृवन्दना


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    ख़ुशी का पर्व – दीपावली

    भारत वर्ष विभिन्न – वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर ऋतुओं का देश है l वर्षा ऋतु के अंत में जैसे ही शरद ऋतु का आरम्भ होता है उसके साथ ही नवरात्रि – दुर्गा पूजन और राम लीला मंचन भी एक साथ आरम्भ हो जाते हैं l दुर्गा पूजन एवं राम लीला मंचन का नववें दिन समाप्त हो जाने के पश्चात्, दसवें दिन विजय दसवीं को दशहरा मनाया जाता है l भारतीय परंपरा के अनुसार विजय दसवीं का पर्व लंकापति रावण (बुराई) पर भगवान श्रीराम (अच्छाई) के द्वारा विजय का प्रतीक माना जाता है l यह पर्व श्रीराम का रावण पर विजय पाने के पश्चात् अयोध्या आगमन की ख़ुशी में उनका हर घर में दीपमाला जलाकर स्वागत किया जाता है l 

    धर्म परायण, ईश्वर भक्त और अपने कर्तव्यों के प्रति सदैव जागरूक रहने वाला मनुष्य अपने जीवन में दीपावली को सार्थक कर सकता है l

    सार्थक दीपावली

    नगर देखो ! सबने दीप जलाये हैं

    द्वार-द्वार पर, घर आने की तेरी ख़ुशी में मेरे राम !

    अँधेरा मिटाने, मेरे राम !

    आशा और तृष्णा ने घेरा है मुझको]

    स्वार्थ और घृणा ने दबोचा है मुझको,

    सीता को मुक्ति दिलाने वाले राम !

    विकारों की पाश काटने वाले राम !

    दीप बनकर मैं जलना चाहुँ,

    दीप तो तुम प्रकाशित करोगे, मेरे राम !

    अँधेरा खुद व खुद दूर हो जायेगा,

    हृदय दीप जला दो मेरे राम !

    सार्थक दीपावली हो मेरे मन की,

    घर-घर ऐसे दीप जलें, मेरे राम !

    रहे न कोई अँधेरे में संगी – साथी,

    दुनियां में सबके हो तुम उजागर, मेरे राम !

    सामाजिक चेतना – 5

    प्रकाशित अक्तूबर 2019 मातृवन्दना


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    कर्तव्य विमुखता का काला साया

    सामाजिक जन चेतना – 4

    आज बुराई का प्रतिरोध करने वाला हमारे बीच समाज में कोई एक भी साहसी, वीर, पराक्रमी, बेटा, जन नायक, योद्धा अथवा सिंहनाद करने वाला शेर नौजवान दिखाई नहीं दे रहा  है l मानों जननियों ने ऐसे शेरों को पैदा करना छोड़ दिया है l गुरुजन योद्धाओं को तैयार करना भूल गये हैं अथवा वे समाज विरोधी तत्वों के भय से भयभीत हैं l

    उचित शिक्षा के आभाव में आज समस्त भारत भूमि भावी वीरों से विहीन हो रही है l उद्दमी युवा जो एक वार समाज में कहीं किसी के साथ अन्याय, शोषण अथवा अत्याचार होते देख लेता था, अपराधी को सन्मार्ग पर लाने के लिए उसका गर्म खून खौल उठता था, उसका साहस पस्त हो गया है l यही कारण है कि जहाँ भी दृष्टि जाती है, मात्र भय, निराशा अशांति और अराजकता का तांडव-नृत्य होता हुआ दिखाई देता है l धर्माचार्यों के उपदेशों का बाल-युवा वर्ग पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ रहा है l

    बड़ी कठिनाई से पांच% युवाओं को छोड़कर आज का शेष भारतीय नौजवान वर्ग भले ही बाहर से अपने शरीर, धन, और सौन्दर्य से ही सही अपना यश और नाम कमाने के लिए बढ़-चढ़कर लोक प्रदर्शन करता हो परन्तु वह भीतर से आत्म रक्षा-सुरक्षा की दृष्टि से तो है विवश और असमर्थ ही l उचित शिक्षा के आभाव में वह सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्य क्षेत्र में कोरा होने के साथ-साथ वह अधीर भी है l वह सन्मार्ग भूलकर स्वार्थी, लोभी, घमंडी और आत्म विमुख होता जा रहा है l उसमें सन्मार्ग पर चलने की इच्छा शक्ति भी तो शेष नहीं बची है l वह भूल गया है कि वह स्वयं कौन है और क्या कर सकता है ?

    आज का कोई भी विद्यार्थी, स्नातक, बे-रोजगार नौजवान मानसिक तनाव के कारण आत्म विमुख ही नहीं हताश-निराश भी हो रहा है जिससे वह जाने-अनजाने में आत्म हत्या अथवा आत्मदाह तक कर लेता है l प्राचीन काल की भांति क्या माता-पिता बच्चों में आज अच्छे संस्कारों का सृजन कर पाते हैं ? क्या गुरुजन विद्यार्थी वर्ग में विद्यमान उनके अच्छे गुण व संस्कारों का भली प्रकार पालन-पोषण, संरक्षण और संवर्धन करते हैं ? वर्तमान शिक्षा से क्या विद्यार्थी संस्कारवान बनते हैं ? नहीं तो ऐसा क्या है जिससे कि हम अभिभावक और गुरुजन अपना कर्तव्य भूल रहे हैं ? हम अपना कर्तव्य पालन नहीं कर रहे ?

    प्रकाशित 6 सितंबर 2007 दैनिक जागरण


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    और लम्बी होंगी बेरोजगार की शृंखलाएं



    आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दना सितम्बर 2008

    भारत में औद्योगिक क्रांति आने के पश्चात्, कल-कारखानों और मशीनों के बढ़ते साम्राज्य से असंख्य स्नातक, बेरोजगार की श्रृंखलाओं में खड़े नजर आने लगे हैं l उनके हाथों का कार्य कल-कारखाने और मशीनें ले चुकीं हैं l वह कठोर शरीर-श्रम करने के स्थान पर भौतिक सुख व आराम की तलाश में कल-कारखानों तथा मशीनों की आढ़ में बेरोजगार हो रहे हैं l

    भारत में वह भी समय था, जब हर व्यक्ति के हाथ में कोई न कोई काम होता था l लोग कठिन से कठिन कार्य करके अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण किया करते थे l कोई कहीं चोरी नहीं करता था l वे भीख मांगने से पूर्व मर जाना श्रेष्ठ समझते थे l कोई भीख नहीं मांगता था l इस प्रकार देश की चारों दिशाओं में मात्र नैतिकता का साम्राज्य था, सुख-शांति थी l मैकाले ने भारत का भ्रमण करने के पश्चात् 2 अक्तूबर 1835 में ब्रिटिश सरकार को अपना गोपनीय प्रतिवेदन सौंपते हुए इस बात को स्वीकारा था  l

    वर्तमान काल भले ही विकासोन्मुख हुआ है, पर विकासशील समाज सयंम, शांति, संतोष, विनम्रता आदर सम्मान, सत्य, पवित्रता, निश्छलता एवं सेवा-भक्ति भाव जैसे मानवीय गुणों की परिभाषा और आचार-व्यवहार भूल ही नहीं रहा है बल्कि वह विपरीत गुणों का दास बनकर उनका भरपूर उपयोग भी कर रहा है l वह ऐसा करना श्रेष्ठ समझता है क्योंकि मानवीय गुणों से युक्त किये गए कार्यों से मिलने वाला फल उसे देर से और विपरीत गुणों से प्रेरित कर्मफल जल्दी प्राप्त होता है l इस समय समाज को महती आवश्यकता है दिशोन्मुख कुशल नेतृत्व और उसका सही मार्गदर्शन करने की l

    भारत में औद्योगिक क्रांति का आना बुरा नहीं है, बुरा तो उसका आवश्यकता से अधिक किया जाने वाला उपयोग है l हम दिन प्रतिदिन पूर्णतया कल-कारखानों और मशीनों पर आश्रित हो रहे हैं l यही हमारी मानसिकता बेकारी की जनक है l इजरायल जैसे किसी देश को ऐसी राष्ट्रीय नीति अवश्य अपनानी चाहिए जहाँ जनसंख्या कम हो l पर्याप्त जनसंख्या वाले भारत देश में कल-कारखानों और मशीनों से कम और स्नातक-युवाओं से अधिक कार्य लेना चाहिए l ऐसा करने से उन्हें रोजगार मिलेगा व बेरोजगारी की समस्या भी दूर होगी l स्नातक-युवा वर्ग को स्वयं शरीर-श्रम करना चाहिए जो उसे स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है l कल-कारखाने और मशीने भोग-विलास संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले संसाधन मात्र हैं, शारीरिक बल देने वाले नहीं l वह तो कृषि–बागवानी, पशु–पालन, स्वच्छ जलवायु और शुद्ध पर्यावरण से उत्पन्न पौष्टिक खाद्य पदार्थों का सेवन करने से प्राप्त होता है l

    हमें स्वस्थ रहने के लिए मशीनों द्वारा बनाये गए खाद्य पदार्थों के स्थान पर, स्वयं हाथ द्वारा बनाये हुए ताजा खाद्य पदार्थों का अपनी आवश्यकता अनुसार सेवन करने की आदत बनानी चाहिए l

    भारत सरकार व राज्य सरकारों को ऐसा वातावरण बनाने में पहल करनी होगी l उन्हें अपनी नीतियां बदलनी होंगी जो विदेशी हवा पर आधारित न होकर स्वदेशी जलवायु तथा वातावरण और संस्कृति के अनुकूल हो ताकि ग्रामाद्योग, हस्तकला उद्योग तथा पैतृक व्यवसायों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन मिल सके l उनके द्वारा बनाये गये सामान को उचित बाजार मिल सके और बेरोजगारी की बढ़ती समस्या पर नियंत्रण पाया जा सके l देश में कहीं पेयजल, कृषि भूमि और प्राणवायु की कमी न रहे l इसी में हमारे देश, समाज, परिवार और उसके हर जन साधारण का अपना हित है l 

    चेतन कौशल “नूरपुरी”


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    आदर्श समाज की कल्पना

    सामाजिक जन चेतना– 2

    आओ हम ऊँच-नीच का भेद मिटायें,

    सब समान हैं, चहुँ ओर संदेश फैलायें l

    भारतीय समाज में कोई जाति से बड़ा है तो कोई धर्म से, कोई पद से ऊँचा है तो कोई धनबल से l प्रश्न उठता है कि क्या ऐसा पहले भी होता था ? हाँ, होता था पर अब उसमें अंतर आ गया है l पहले हमारी सोच विकसित थी, हम हृदय से विशाल थे, हम निजहित से अधिक संसार का हित चाहते थे परन्तु वर्तमान में हमारी सोच बदल गई है l हमारा हृदय बदल गया है, हम मात्र निजहित चाहने लगे हैं l इसका मुख्य कारण यह है कि हम अध्यात्मिक जीवन त्यागकर निरंतर संसारिक भोग विलास की ओर अग्रसर हुए हैं l हमने योग मूल्य भूला दिए हैं जिनसे हमें सुख के स्थान पर दुःख ही दुःख प्राप्त हो रहे हैं l

    देखा जाए तो यह बड़प्पन या ऊँचापन मिथ्या है l पर जो लोग इसे सच मानते हैं अगर उनमें से किसी एक बड़े को उसके माता-पिता के सामने ले जाकर यह पूछा जाये कि वह कितना बड़ा बन गया है तो उनसे हमें यही उत्तर मिलेगा – वह हमारे लिए अब भी बच्चा ही है और सदा बच्चा ही रहेगा l उसके जीवनानुभवों की उसके माता-पिता के जीवनानुभवों से कभी तुलना नहीं की जा सकती l माता-पिता की निष्काम भावना की तरह उसकी सोच का भी जन कल्याणकारी होना अति आवश्यक है l अगर वह ऐसा नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में उसे बड़ा या ऊँचा स्थान कदाचित नहीं मिल सकता l

    हमारा समाज मिथ्याचारी, बड़प्पन और ऊँचेपन की दलदल में धंसा हुआ है l वह तरह-तरह के कुपोषण, अत्याचार, जातिवाद, छुआछूत, अमीर-गरीब और बाहुबली व्यक्तियों के द्वारा बल के दुरूपयोग से पीड़ित है, जो अत्याधिक चिंता का विषय है l

    वास्तविकता तो यह है कि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं, उसका दिव्यांश हैं l वह कण-कण में समाया हुआ है l प्राणियों में मानव हमारी जाति है l भले ही हमारे कार्य विभिन्न हैं पर हमारा धर्म “सनातन धर्म” है l इसलिए वैश्विक भोग्य सम्पदा पर हम सबका अपनी-अपनी योग्यता एवं गुणों के अनुसार अधिकार होना चाहिए l किसान और मजदूर खेतों में कार्य करते हैं तो विद्वान् लोग उनका मार्ग दर्शन भी करते हैं l

    जिस व्यक्ति का जितना ऊँचा स्थान होता है उसके अनुसार उसकी उतनी बड़ी जिम्मेदारी भी होती है l उसे पूरा करना उसका कर्तव्य होता है l उससे वह भ्रष्टाचार, किसी का कुपोषण, किसी पर अत्याचार, करने हेतु कभी स्वतंत्र नहीं होता है l बलशाली मनुष्य द्वारा उसके बल–पराक्रम का वहीँ प्रयोग करना उचित है जहाँ समाज विरोधी तत्व सक्रिय हों या वे अनियंत्रित हों l

    मनुष्य का बड़प्पन या उन्चापन उसके कार्य से दीखता है न कि उसके जन्म या वंश से l मनुष्य को चाहिए कि वह मानव जाति के नाते सब प्राणियों के साथ मनुष्यता का ही व्यवहार करे l उससे न तो किसी का कुपोषण होता है न किसी से अन्याय, न किसी पर अत्याचार होता है और न किसी का अपमान l सबमें बिना भेदभाव के समानता बनी रहती है l वैश्विक सम्पदा पर यथायोग्यता अनुसार स्वतः अधिकार बना रहता है l प्रशासनिक व्यवस्था सबके अनुकूल होती है l लोग उसका आदर करते हैं l इससे लोक संस्कृति की संरचना, संरक्षण, और संवर्धन होता है l

    मनुष्य जाति में पाया जाने वाला अंतर मात्र मनुष्य द्वारा किये जाने वाले कर्मों व उसके गुणों के अनुसार होता है l सद्गुण किसी में कम तो किसी में अधिक होते हैं l वे सब आपस में कभी एक समान नहीं होते हैं l इसलिए हमें सदा एक दुसरे का सम्मान करना चाहिए l

    इससे हम छुआछूत, सामाजिक, आर्थिक, एवं न्यायिक असमानता को बड़ी सुगमता से दूर कर सकते हैं l हमारा हर कदम राम-राज्य की ओर बढ़ता हुआ एक आदर्श समाज की कल्पना को साकार कर सकता है l

    प्रकाशित 6 सितम्बर 2009  दैनिक कश्मीर टाइम्स