मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



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    मानवी ऊर्जा – ब्रह्मचर्य

    मानव जीवन विकास – 9

    गुरुकुल में विद्यार्थी जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया है l इस काल में विद्यार्थी गुरु जी के सान्निध्य में रहकर समस्त विद्याओं का सृजन, सवर्धन और संरक्षण करके स्वयं अपार शक्तियों का स्वामी बनता है l सफल विद्यार्थी बनने के लिए विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य या मानवी ऊर्जा का महत्व समझना अति आवश्यक है l ब्रह्मचर्य के गुण विद्यार्थी को सदैव उधर्वगति प्रदान करते हैं l 

    1. ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इन्द्रियों का सयंम l
    2. ब्रह्मचर्य बुद्धि का प्रकाश है l
    3. ब्रह्मचर्य नैतिक जीवन की नींव है l
    4. सफलता की पहली शर्त है – ब्रह्मचर्य l
    5. चारों वेदों में ब्रह्मचर्य जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है l
    6. ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण सौभाग्य का कारण है l
    7. ब्रह्मचर्य व्रत अध्यात्मिक उन्नति का पहला कदम है l
    8. ब्रह्मचर्य मानव कल्याण एवं उन्नति का दिव्य पथ है l
    9. अच्छे चरित्र निर्माण करने में ब्रह्मचर्य का मौलिक स्थान है l  
    10. ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण शक्तियों का भंडार है l
    11. ब्रह्मचर्य ही सर्व श्रेष्ठ ज्ञान है l
    12. ब्रह्मचर्य ही सर्व श्रेष्ठ धर्म है l
    13. सभी साधनों का साधन ब्रह्मचर्य है l
    14. ब्रह्मचर्य मन की नियंत्रित अवस्था है l
    15. ब्रह्मचर्य योग के उच्च शिखर पर पहुँचने की सर्व श्रेष्ठ सोपान है l
    16. ब्रह्मचर्य स्वस्थ जीवन का ठोस आधार है l
    17. गृहस्थ जीवन में ऋतू अनुकूल सहवास करना भी ब्रह्मचर्य है l
    18. ब्रह्मचर्य से मानव जीवन आनंदमय हो जाता है l
    19. प्राणायाम से मन, इन्द्रियां पवित्र एवं स्थिर रहती हैं l 
    20. ब्रह्मचर्य से अपार शक्ति प्राप्त होती है l
    21. ब्रह्मचर्य से हमारा आज सुधरता है l
    22. ब्रह्मचर्य में शरीर, मन व आत्मा का संरक्षण होता है l
    23. ब्रह्मचर्य से बुद्धि सात्विक बनती है l
    24. ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की आत्मस्वरूप में स्थिति हो जाती है l
    25. ब्रह्मचर्य से आयु, तेज, बुद्धि व यश मिलता है l
    26. ब्रह्मचारी का शरीर आत्मिक प्रकाश से स्वतः दीप्तमान रहता है l
    27. ब्रह्मचारी आजीवन निरोग एवं आनंदित रहता है
    28. ब्रह्मचारी स्वभाव से सन्यासी होता है l
    29.  ब्रह्मचारी अपनी संचित मानवी ऊर्जा – ब्रह्मचर्य को जन सेवा एवं जग भलाई के कार्यों में लगाता है l

    दोष सदैव अधोगति प्रदान करते हैं इसलिए ब्रह्मचारी की उनसे सावधान रहने में ही अपनी भलाई है l

    1. दुर्बल चरित्र वाला व्यक्ति ब्रह्मचर्य पालन में कभी सफल नहीं होता है l
    2. मनोविकार ब्रह्मचर्य को खंडित करता है l
    3. आलसी व्यक्ति कभी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं क्र सकता l
    4. अति मैथुन शारीरिक शक्ति नष्ट कर देता है l
    5. काम से क्रोध उत्पन्न होता है , क्रोध से बुद्धि भ्रमित होती है l
    6. काम मनुष्य को रोगी, मन को चंचल तथा विवेक को शून्य बनता है l
    7. वीर्यनाश घोर दुर्दशा का कारण बनता है l
    8. देहाभिमानी ही कामी होता है l
    9. काम विकार का मूल है l
    10. ब्रह्मचर्य के बिना आत्मानुभूति कदापि नहीं होती है l
    11. काम विचार से मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है l
    12. काम वासना के मस्त हाथी को मात्र बुद्धि के अंकुश से नियंत्रित किया जा सकता है l
    13. काम, क्रोध, लोभ नरक के द्वार हैं l

    प्रकाशित जनवरी 2010 मातृवंदना


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    मानव जीवन – एक रहस्य

    मानव जीवन विकास – 8

    ईश्वर की संरचना प्रकृति जितनी आकर्षक है, वह उतनी विचित्र भी है l जड़-चेतन उसके दो रूप हैं l इनमें पाई जाने वाली विभिन्न वस्तुओं और प्राणियों की अपनी-अपनी जातियां हैं l इन जातियों में मात्र मनुष्य ही प्रगतिशील प्राणी है l वह विवेक का स्वामी है l

    गुरु के सान्निध्य में ऐसे किसी प्रगतिशील विद्यार्थी/साधक के लिए, चाहे वह संसारिक विषय हो या अध्यात्मिक, प्रगति–पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहने का उसका अपना प्रयत्न तब तक जारी रहता है जब तक उसे सफलता नहीं मिल जाती l वह कभी नहीं देखता है कि उसने कितनी यात्रा तय कर ली है ? वह देखता है, उसकी मंजिल कितनी दूर शेष रह गई है ? वहां तक कब और कैसे पहुंचा जा सकता है ?

    संसारिक विकास नश्वर, अल्पकालिक और सदैव दुखदायक विषय है जब कि मानसिक विकास अनश्वर, दीर्घकालिक सर्व सुखदायक तथा शांतिदाता है l

    मानसिक विकास करते हुए साधक को सुख तथा शांति प्राप्त होती है l वह अपने योगाभ्यास से कुण्डलिनी जागरण, काया-कल्प, दूर बोध, विचार-सम्प्रेषण, दूरदर्शन आदि जैसे असंख्य गुणों से स्वयं ही संपन्न हो जाता है l इन दैवी गुणों के कारण वह समाज में ईश्वर समान जाना और पहचाना जाता है l वास्तव में किसी साधक के लिए, किसी जनसाधारण द्वारा ऐसा कहना तो दूर, सोचना भी सूर्य को दीप दिखाने के समान है l मनुष्य तो मनुष्य है और मात्र मनुष्य ही रहेगा l वह देव या ईश्वर कभी हो नहीं सकता  l

    कोई दैवी गुणों का स्वामी, घमंडी साधक लोगों को तरह-तरह के चमत्कार तो दिखा सकता है पर उनका मन नहीं जीत सकता, उनका प्रेमी नहीं बन सकता l एक सच्चा प्रेमी तो वही महानुभाव हो सकता है जो महर्षि अरविन्द, स्वामी दयानंद जी की तरह अपनी निरंतर साधना और यत्न द्वारा  प्रगति-पथ पर अग्रसर होता हुआ आवश्यकता अनुसार परिस्थिति, देश काल, और पात्र देखकर लोक कल्याण करे l स्वामी विवेकानंद जी की तरह अपनी दैवी शक्तियों का सदुपयोग, रक्षा, और उनका सतत वर्धन करते हुए, अपने राष्ट्र का माथा ऊँचा करने के साथ-साथ मानवता मात्र की सेवा करे l

      जन साधारण का मन चाहे उसके विकारों या वासनाओं की दलदल में लिप्त रहने के कारण अशांत रहे फिर भी वह एक साधारण भीमराव अम्बेडकर की सच्ची लग्न, विश्वास युक्त अथक प्रयत्न, मेहनत से एक दिन अपना लक्ष्य पाने में सक्षम और समर्थ हो पाता है l डा० भीमराव अम्बेडकर बन जाता है l

    महराणा प्रताप जैसे राष्ट्र प्रेमी को अपने जीवन में कभी भी किसी प्रकार के महत्व पूर्ण उद्देश्य

    की प्राप्ति के लिए छोटी या बड़ी वस्तु का त्याग और अनगिनत बाधाओं, चुनौतियों और अत्याचारों का सामना भी करना पड़ता है l हंसते हुए उनसे लोहा लेना तथा आगे कदम बढ़ाना ही उसका धर्म है l

    दधिची जैसा त्यागी, सत्पुरुष कभी मृत्यु से नहीं डरता है l वह अपने जीवन को दूसरों की वस्तु समझता है l इसी कारण वह संकट काल में किसी जान, परिवार, गाँव, शहर और राष्ट्र की भी रक्षा करता है l आवश्यकता पड़ने पर वह अपने प्राण तक न्योछावर कर देता है l

    लाल, बाल, पाल और गाँधी जी के लोक जागरण जैसे किसी जागरण से प्रेरित होकर कोई भी जन साधारण प्रेम-सुस्नेह के वश होकर किसी एक दिन जवाहर, राजेन्द्र पटेल और सुभाष जैसा लोकप्रिय नेता बन पाता है l  

    निडरता, साहस, विश्वास, लग्न, और कड़ी मेहनत ही एक ऐसी अजेयी जीवन शक्ति है जिससे साधक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियां प्राप्त करता है l जिस साधक में यह चारों शक्तियां भली प्रकार विकसित हो जाती हैं, वास्तव में विशाल समाज और राष्ट्र अपना उसी का होता है l

    अजयी चतुर्वहिनी शक्ति को साधक जीवन में निरंतर क्रियाशील बनाये रखने के लिए उच्च विचार, सादा जीवन तथा कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता बनी रहती है l

    अजयी शक्ति साधक के हृदय को शुद्ध रखने से प्राप्त होती है l उसे अपना हृदय शुद्ध रखने के लिए सात्विक गुणों की आवश्यकता पड़ती है l सात्विक गुण उसके विशुद्ध विवेक से प्राप्त होते हैं l विशुद्ध विवेक साधक द्वारा प्रकृति के प्रत्येक कार्य-व्यवहार, वस्तु में ज्ञान खोजने से बनता है – वह ज्ञान पोषक होता है l

    वास्तविक ज्ञान संसार की अल्पकालिक सुख देने वाली वस्तुओं का भोग करने के साथ-साथ उनका तात्विक अर्थ मात्र जानकार साधक को उसके अपने मन से त्याग करने के पश्चात् ही प्राप्त होता है l किसी विषय या विकार में बनी साधक के मन की आसक्ति अज्ञान की जननी होती है – वह उसका ज्ञान ढक देती है l

    तात्विक ज्ञान धारण करने वाला साधक सत्पुरुष ही पुरुषार्थी ज्ञानवीर धीर श्रीकृष्ण होता है l ज्ञान सत्य है और सत्य ही ज्ञान है l

    ज्ञानवीर सत्पुरुष जल में कमल के पत्ते के समान प्रकृति में कार्य करता हुआ भी निर्लिप्त रहता है l इसी कारण जन साधारण मनुष्य अपनी विभिन्न दृष्टियों से दैवी गुण सम्पन्न साधक, सत्पुरुष को अपना नायक, रक्षक मार्ग-दर्शक, युग निर्माता, गुरु, दार्शनिक, योगी, सिद्ध, महात्मा और अवतारी पुरुष भी मानते है l शायद वह उनके लिए एक रहस्यमय जीवन होता है l

    प्रकाशित 2017 जून मातृवंदना


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    मानव इन्द्रियां – स्वाभाविक गुण

    मानव जीवन विकास – 7

    मानव शरीर उस सुंदर मकान के समान है जिसमें आवश्यकता अनुसार दरवाजे, खिड़कियाँ, अलमारियां, रोशनदान, और नालियां सब कुछ उपलब्ध है l उसमें घर की भांति प्रत्येक वस्तु उचित स्थान पर उचित और सुसज्जित ढंग से रखी मिलती है l मानव शरीर में मुख्यतः कान, नाक, आँख, जिह्वा, त्वचा, हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैरों के ही कारण परिपूर्ण और मनमोहक है l वह अपना प्रत्येक कार्य करने में हर प्रकार से सक्षम है l

    भारतीय विद्वानों ने मनुष्य के इन महत्वपूर्ण अंगों को इन्द्रियां नाम प्रदान किया है l इन इन्द्रियों की कर्मशीलता के कारण मनुष्य शरीर गतिशील है l यह इन्द्रियां दो प्रकार की हैं – ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ l ज्ञानेन्द्रियों में कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा आती हैं और कर्मेन्द्रियों में हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर l इन सबके अपने-अपने कार्य हैं जो अपना विशेष महत्व रखते हैं l

    पांच ज्ञानेन्द्रियों में जो मनुष्य के शरीर में सुशोभित हैं, वह समय-समय पर आवश्यकता अनुसार मनुष्य को विभिन्न प्रकार के ज्ञान से स्वर्ग तुल्य आनंद व सुख की अनुभूति करवाती हैं l इन ज्ञानेन्द्रियों कान से शब्द ज्ञान, आँख से दृश्य ज्ञान, नाक से गंध ज्ञान, जिह्वा से स्वाद ज्ञान और त्वचा से स्पर्श ज्ञान सुख प्राप्त होते हैं l सृष्टि में पांच महाभूत आकाश, आग, मिटटी, पानी और वायु पाए जाते हैं जो क्रमशः कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा से शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श के रूप में अनुभव किये जाते हैं l

    आकाश के माध्यम से कान के द्वारा शब्द सुनने से शब्द ज्ञान होता है l यह शब्द कई प्रकार के होते हैं जैसे – गाने का शब्द, बजाने का शब्द, नाचने का शब्द, हंसने का शब्द, रोने का शब्द, बड़बड़ाने का शब्द, पढ़ने-पढ़ाने का शब्द, शंख फूंकने का शब्द, गुनगुनाने का शब्द, बतियाने का शब्द, चलने का शब्द, तैरने का शब्द, लकड़ी काटने का शब्द इतियादि l  

    आग या प्रकाश  के माध्यम से आँख के द्वारा देखने से दृश्य-ज्ञान होता है l उन्हें मुख्यतः चार भागों में विभक्त किया जा सकता है – रंगों के आधार पर, बनावट के आधार पर, रूप के आधार पर और क्रिया गति के आधार पर l

    रंगों में – नीला, पीला, काला, हरा, सफेद और लाल रंग प्रमुख हैं तथा अन्य प्रकार के रंग उपरोक्त रंगों के मिश्रण से जो विभिन्न अनुपात में मिलाये जाते हैं, से मन चाहे रंग तैयार किये जा सकते हैं l

    बनावट आकर में – गोलाकर, अर्ध गोलाकार, त्रिभुजाकार, आयताकार, वर्गाकार, सर्पाकार, आयताकार, लम्बा, छोटा, मोटा, नुकीला और धारदार आदि l  

    रूप प्रकार में – प्रकाश, ज्योति, आग, शरीर, पवन का स्पर्श, जल, वायु की सर-सराहट, मिटटी आदि l   

    क्रिया गति में – दो प्रकार हैं, सजीव तथा निर्जीव l सजीव स्वयं ही क्रियाशील हैं जबकि निर्जीव को क्रियाशील किया जाता है और उसे गति प्रदान की जाती है l

    मिटटी और उससे उत्पन्न जड़ी बूटियों, पेड़ पोधों, फूल-वनस्पतियों और फलों से विभिन्न प्रकार की उड़ने वाली गंधों – का नाक के द्वारा सूंघने से गंध–ज्ञान होता है l गंध कई प्रकार की हैं जिनमें कुछ इस प्रकार हैं – जलने की गंध, सड़ने की गंध, पकवान पकने की गंध, फूल-वनस्पति की गंध, पेड़ छाल की गंध, मल-मूत्र की गंध तथा मांस मदिरा की गंध आदि l  

    जल या रस के रूप में – पेय वस्तुओं का जिह्वा द्वारा स्वाद चखने से स्वाद-ज्ञान होता है l यह भी कई प्रकार के हैं – खट्टा, मीठा, फीका, नमकीन, तीक्षण, कसैला और कड़वा आदि l  

    वायु के स्पर्श से त्वचा पर पड़ने वाले प्रभावों से त्वचा के जिन-जिन रूपों में अनुभव होता है उनमें ठंडा, गर्म, नर्म, ठोस मुलायम और खुरदरा प्रमुख अनुभव हैं l

    पांच कर्मेन्द्रियाँ मनुष्य को कर्म करने में सहायता करती हैं l यह इन्द्रियां इस प्रकार हैं – मुंह, हाथ, उपस्थ, गुदा और पैर l मुंह से होने वाले कार्य इस प्रकार है – फल खाना, बातें करना, गाना, हँसना, रोना, बड़बड़ाना, बांसुरी बजाना, शंख फूंकना, गुनगुनाना और पानी पीना आदि

    हाथों से किये जाने वाले कार्य इस प्रकार हैं – पैन पकड़ना, पत्र लिखना, सिर खुजलाना, कपड़ा निचोड़ना, खाना पकाना, ढोल बजाना, मशीन चलाना, भाला फैंकना, तैरना, धान कूटना, स्वेटर बुनना, दही बिलोना, कपड़ा सिलना, फूल तोड़ना, कढ़ाई करना, मूर्ति तराशना, चित्र बनाना, हल चलाना, अनाज तोलना, नोट गिनना, आँगन बुहारना, बर्तन साफ करना, पोंछा लगाना, गोबर लीपना, चिनाई करना, कटाई करना, पिंजाई करना आदि l

    मूत्र विच्छेदन करना  उपस्थ का कार्य है l

    गुदा मल विच्छेदन का कार्य करता है l

    पैरों से चलना, खड़ा होना, दौड़ना, नाचना, कूदना आदि कार्य किये जाते हैं l

    इस प्रकार हम देख चुके हैं कि ज्ञानेन्द्रियाँ मनुष्य को ज्ञान की ओर और कर्मेन्द्रियाँ कर्म की ओर आकर्षित करती हैं l यही उनका अपना स्वभाव है l

    प्रकाशित 24 अगस्त 1996 काश्मीर टाइम्स


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    दिल प्रीतम का घर है

    मानव जीवन विकास – 6

    किसी ने ठीक ही कहा है कि “जिस तरह हमें अपना शरीर कायम रखने के लिए भोजन जरुरी है  आत्मा की भलाई के लिए प्रार्थना करना कहीं उससे भी ज्यादा जरूरी है l प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं वरन हृदय से होता है l इसलिए गूंगे, तुतले, और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं l जीभ पर अमृत राम-नाम हो और हृदय में हलाहल – दुर्भावना हो तो जीभ का अमृत किस काम का ?”

    उपरोक्त विचारों से स्पष्ट है कि प्रार्थना या भजन हृदय से किया जाता है जिससे मनुष्य का हृदय शुद्ध होता है l ऐसा करने के लिए उसे बाह्य संसाधनों अथवा संयंत्रों की कभी आवश्यकता नहीं होती है बल्कि उसे आत्मावलोकन एवं स्वाध्य करना होता है, आत्म शुद्धि करनी होती है l जिस मनुष्य के हृदय में दुर्भावना और अज्ञान होता है, वह समाज का न तो हित चाहता है और न कभी भलाई के कार्य ही कर सकता है l 

    इसी कारण आज देश का प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, गाँव और शहर पलपल ध्वनि प्रदूषण का शिकार हो रहा है l उसकी दिन-प्रति दिन वृद्धि हो रही है l उससे समस्त जन जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है l ध्वनि प्रदूषण के कारण समाज में बहरापन जैसे रोग भी बढ़ रहे हैं l इसका उत्तरदायी कौन है ?

    वर्तमान में विवाह, पार्टी, घर व दुकानों में रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकार्डर, डैक एवं मंदिर, गुरुद्वारा, मस्जिद पर टंगे बड़े-बड़े स्पीकर तथा जगराता पार्टियाँ बे रोक-टोक ध्वनि प्रदूषण फैला रहे हैं,  क्यों ?

    बच्चों के पढ़ने व रोगी के आराम करने के समय पर संयंत्रों के उच्च स्वर सुनाई देते हैं l उनसे मनचाहा उच्च स्वर वादन/स्वरोच्चारण होता है l शायद ऐसा करने वाले भक्तजन व विद्वान लोगों को भजन कीर्तन सुनाना ज्यादा अच्छा लगता होगा l क्या उससे बच्चे भली प्रकार पढ़ाई कर पाते हैं ? क्या इससे किसी दुखी, पीड़ित या रोगी को पूरा आराम मिल पाता है ?

    स्मरण रहे ! कि प्रार्थना या भजन स्पीकरों या डैक से उच्च स्वर से नहीं, मानसिक या धीमी आवाज में ही करना श्रेष्ठ व सर्व हितकारी है l उससे किसी को दुःख या कष्ट नहीं होता है l इसी कारण बहुत से लोग आत्मचिंतन करते हैं तथा मानसिक नाम जाप करते हैं l उन्हें प्रार्थना या भजन किसी को सुनाने की आवश्यकता नहीं होती है l  

    रोगी-दुखियों को कष्ट पहुँचाना और विद्यार्थियों की पढ़ाई में बाधा डालना इन्सान का नहीं, शैतान का कार्य है l अगर हम मनुष्य हैं तो हमें मनुष्यता धारण कर मनुष्य के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार अवश्य करना चाहिए, शैतान सा नहीं l

    प्रार्थना या भजन करना हो तो हृदय से करो, वह जीवन अमृत समान है l शैतान, अहंकारी और अज्ञानी होकर विभिन्न संयंत्रों से उच्च स्वर बढ़ाकर उसे समाज के लिए विष मत बनाओ l

    समाज में ध्वनि प्रदूषण न फ़ैल सके, इसके लिए प्रशासन के द्वारा ध्वनि विस्तार रोधक कानून से अंकुश लगाया जाना अति आवश्यक है l हम सबको इस कार्य में हार्दिक योगदान करना चाहिए l किसी ने  ठीक ही कहा है कि दिल एक मंदिर है l प्यार की जिसमें होती है पूजा, वह प्रीतम का घर है l

    प्रकाशित 19 अप्रैल 2009दैनिक कश्मीर टाइम्स

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    जिंदगी से कला जोड़ो, नशा नहीं

    मानव जीवन विकास – 5

    जीना भी एक कला है। जो युवा कलात्मक विधि से जीना सीख जाता है, वह मानों उसके लिए सोने पर सुहागा। कलात्मक विधि से जीने के लिए युवा का किसी न किसी कला के साथ जुड़े रहना अति अवश्यक है। इसके लिए युवा को मांस-मदिरा सेवन और धू्रम्रपान करने से सदैव दूर रहना चाहिए। इन वस्तुओं का सेवन करने से मानव जीवन में दुष्प्रभाव पड़ता है, तरह-तरह की विसंगतियां उत्पन्न होती हैं जो जीवन विकास के लिए वाधक होती हैं। वैसे भी सनातन धर्म इनका सेवन करने की किसी को आज्ञा नहीं देता है अपितु सावधान ही करता है।

     किसी ने ठीक ही कहा है कि “जिंदगी से कला जोड़ो, नशा नहीं।” जिंदगी में जब कोई भी व्यक्ति खाद्य पदार्थ या पेय रस का निर्धारित मात्रा या आवश्यकता से अधिक सेवन करता है तो उससे उसके शरीर का पाचन तंत्र अव्यवस्थित होता है और इससे आगे जिन पदार्थों का वह बार-बार सेवन करता है, उन्हें एक पल के लिए भी भूलता नहीं है, मात्र नशा करना कहलाता है। उनमें दारू या शराब प्रमुख है। इतना ही नही, किसी पार्टी, विवाह-शादी, स्वागत या विदाई समारोह के समय पर शराब का वितरण करना भी एक फैशन बन गया है। जिस समारोह के आयोजन में शराब वितरण न हो, उसे एक अच्छा आयोजन नहीं कहा जाता है।

    इसके लिए बालीवुड सिनेमा उद्योग भी कम उत्तरदायी नहीं है। उसमें देश, धर्म-संस्कृति के हित की कोई भी बात ना होकर मात्र पैसा ही कमाना उसका उद्देश्य बनकर रह गया है। यही नहीं वह समाज को नशा करने हेतु प्रेरित भी कर रहा है जिससे निरंतर अपराध प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है।

    देशभर में जहां लोग सुवह-शाम मंदिरों में जाते थे, घंटियां बजाकर देवी-देवताओं की आरती किया करते थे। आज शायद ही कोई ऐसा गांव बचा होगा जहां शराब की दुकान ठेका ना खुला हो। साएं होते ही वहां शराब खरीदने वालों की लंबी कतारें देखी जा सकती हैं। उनमें अधिकतर वे ही लोग अधिक दिखाई देते हैं जो दिहाड़ीदार होते हैं।

    आधुनिक काल विकासवाद का युग है। संस्कार और शिक्षा की सुगंध जो विद्यार्थी के आचरण और व्यवहार में दिखाई देनी चाहिए थी, के स्थान पर नवयुवा/नवयुवतियां जीवन की दिशा से अनभिज्ञ या जीवन दिशा से भ्रमित होकर कैफे, रैस्टोरैंट, या होटलों में आयोजित होने वाली छोटी या बड़ी पार्टियों में जाकर पवित्र रिस्तों की धज्ज्यिां उड़ाते दिखाई देते हैं। वे वहां अनैतिक संबंध बनाकर पलभर में ही अपना सब कुछ खो बैठते हैं जो उन्हें जीवन में भविष्य के लिए सम्भाल कर रखना होता है।

    गांजा, सुलफा, सुमैग, हेरोइन, पोस्त, हफीम, चर्स, और चिट्टा जो नशे के विभिन्न रूप हैं, ने आज दारू या शराब को भी पीछे छोड़ दिया है। इन पदार्थाें का युवावर्ग में तेजी से प्रचलन बढ़ रहा है। ऐसे व्यवसाय का साम्राज्य फैलाने में राज्य या क्षेत्र स्तरीय “नशा अपराध तंत्र” की गैंग में सक्रिय स्मगलरों और उनके अजैंटों के रूप में आपसी बड़ी भूमिका रहती है जो किसी न किसी प्रकार नशा-पदार्थों को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। इस कार्य में उनके सिर पर हर समय संकट की घंटी बजती रहती है। फिर भी वह इस अपराधिक कार्य को अवश्य करते हैं। या तो वह पुलिस टीम द्वारा पकड़े जाते हैं, जेल की सलाखों के पीछे पड़े सड़ते रहते हैं या उसकी गोली ही का शिकार बनते हैं।

    श्री मद् भगवद्गीता के अनुसार जीवन का यह भी एक कड़वा सत्य है कि मनुष्य अच्छाई की अपेक्षा बुराई की ओर अतिशीघ्र आकृष्ट होता है। कोई भी व्यक्ति जो जैसी संगत करता है, उसकी वैसी भावना पैदा होती है। उसकी जैसी भावना होती है, उसके वैसे विचार पैदा होते हैं। उसके जैसे विचार हों, वह वैसा ही कर्म करता है और वह जैसे कर्म करता है, उसे वैसा फल अवश्य मिलता है।

    इसमें कोई दो राय नहीं कि आज का मनुष्य अपनी जीवन शैली से पूर्णरूप से अनभिज्ञ है या जीवन दिशा से भ्रमित हो गया है। उसका जीवन निरंतर आत्म पतन की ओर अग्रसर हो रहा है। वह इस अंधकूप से बाहर निकल कर पुनः सुख-समृद्धि से परिपूर्ण अवश्य हो सकता है अगर वह जीने के लिए कला प्रेमी बन सके और कलात्मक विधि से जीना सीख जाए। उसे अपना आनंददायक जीवन जीने के लिए विधि पूर्वक अपनी किसी न किसी मन पसंद कला (संगीत, वादन, नृत्य, निर्माण, अभिनय, लेखन, भाषण या चित्रकला) के साथ जुड़ना अति आवश्यक है।

    प्रकाशित अक्तूबर 2020 मातृवंदना