धर्म अध्यात्म संस्कृति – 6
प्राचीन भारत वर्ष विश्व मानचित्र पर आर्यावर्त देश रहा है l आर्य वेदों को मानते थे l वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते थे l वेद जो देव वाणी पर आधारित है, उन्हें ऋषि मुनियों द्वारा श्रव्य एवम् लिपिवद्ध किया हुआ माना जाता है l वेदों में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्वेद प्रमुख हैं l वे सब सनातन हैं, वे पुरातन होते हुए भी सदैव नवीन हैं l उनमें परिवर्तन नहीं होता है l वे कभी पुराने नहीं होते हैं l
समय परिवर्तनशील है जिसके साथ-साथ नश्वर संसार की हर वस्तु बदल जाती है l नहीं बदलता है तो वह मात्र सत्य है l सत्य सनातन है l वेद सत्य पर आधारित होने के कारण सदा नवीन, अपरिवर्तनशील और सनातन हैं l वेदों के अनुगामी और हमारे पूर्वज आर्य सत्यप्रिय, कर्मनिष्ठ, धार्मिक और शूरवीर थे l सत्यप्रियता, कर्मनिष्ठा, धार्मिकता और शूरवीरता ही वेदों का आधार है, उनका सार है l यही हमारी पुरातन संस्कृति तथा अध्यात्मिक धरोहर है जिसे विश्व ने माना है l
सत्य ही ब्रह्म है, वह ब्रह्म जिसका किसी के द्वारा कभी कोई विघटन नहीं किया जा सकता l वह सदैव अबेध्य, अकाट्य और अखंडित है l ब्रह्म-ज्ञान और विषयक तात्विक ज्ञान प्राप्त करना ही विवेकशील पुरुष का परम कर्तव्य है जो उन्हें भली प्रकार समझ लेता है, जान जाता है, उसे सत्य-असत्य में भेद अथवा अंतर कर पाना सहज हो जाता है l कोई कहे कि रात बड़ी काली होती है, रात को हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है l यह पहला सत्य है l अगर काली रात में कोई एक दीपक प्रज्ज्वलित कर लिया जाये तो घोर अंधकार भी दिन के उजाले की तरह प्रकाश में बदल जाता है और तब हमें सब कुछ दिखाई देने लगता है l यह दूसरा सत्य है l इसी तरह मन, कर्म तथा वाणी से ब्रह्ममय हो जाने से मनुष्य सत्यवादी हो जाता है l तदोपरांत उसमें सत्य प्रियता, सत्य निष्ठा जैसे अनेकों दैवी गुण स्वाभाविक ही पैदा हो जाते हैं l
ब्रह्मज्ञान से मनुष्य की अपनी पहचान होती है l वह जान जाता है कि उसमें क्या कर सकने की क्षमताएं विद्यमान हैं ? वह स्वयं क्या-क्या कार्य कर सकता है ? उनके संसाधन क्या हैं ? अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य बेंधने हेतु उन्हें धारण और प्रयोग कैसे किया जाता है ? उन क्षमताओं के द्वारा जीवन में उन्नति कैसे की जा सकती है ? जब वह ऐसा सब कुछ जान जाता है, तब वह अपने गुण व संस्कार और स्वभाव से वही कार्य करता है जो उसे आरम्भ में कर लेना होता है l देर से ही सही, वह वैसा करके अपने कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है l उसे कार्य कौशल प्राप्त हो जाता है जो उसकी अपनी आवश्यकता होती है l
ब्रह्मज्ञान से मनुष्य को उचित-अनुचित और निषिद्ध कार्यों का ज्ञान होता है l जनहित में उचित कार्य करना वह अपना कर्तव्य समझता है l वह नैतिक, व्यवहारिक कार्य करता हुआ सदाचार का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है l इस प्रकार उसके गुण-संस्कारों से दूसरों को प्रेरणा मिलती है l दूसरों के लिए वह एक आदर्श बन जाता है l वे उसका अनुसरण करते हैं और अपना जीवन सफल बनाते हैं l
ब्रह्मज्ञान से ही मनुष्य जागरूक होता है l उसका हृदय एवम् मष्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है l जब वह इस स्थिति पर पहुँच जाता है तब वह स्वयं के शौर्य और पराक्रम को भी पहचान लेता है l वह समाज को संगठित करके/एक नई दिशा देकर उसमें नवजीवन का संचार करता है जिससे समाज और उसकी धन-संपदा की रक्षा एवं सुरक्षा सुनिश्चित होती है l
ब्रह्मज्ञान मनुष्य जीवन को पुष्ट करता है l उसे अजेयी शक्ति प्रदान करता है l शायद इन पंक्तियों में इसी प्रकार के भाव भरे हैं :-
सुगंध बिना पुष्प का क्या करें ?
तृप्ति बिना प्राप्ति का क्या करें ?
ध्येय बिना कर्म निरर्थक है,
प्रसन्नता बिना जीवन व्यर्थ है l
प्रश्न पैदा होता है कि ऐसे गुण-संस्कारों के प्रेरणा स्रोत क्या हैं ? यह गुण-संस्कार जन साधारण तक कैसे पहुंचाए जा सकते हैं ? इसका उत्तर आर्यों ने सहज ही युगों पूर्व गुरुकुलों की स्थापना करके दे दिया है जिसे भारत, भारतीय समाज ही नहीं, संपूर्ण विश्व भली प्रकार जानता है l
प्रकाशित 2011 मातृवंदना
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विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति
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भारतीय संस्कृति का संरक्षण आवश्यक
धर्म अध्यात्म संस्कृति – 5
यह बात सर्व विदित है कि भारत ऋषि-मुनियों का देश रहा है l मनीषियों ने मानव जीवन को मुख्यता चार आश्रमों में विभक्त किया था l उनमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रमों के अपने विशेष सिद्धांत थे, उच्च आदर्श थे l उनके अनुसार मनुष्य अपना सार्थक एवम् समर्थ जीवन यापन करता हुआ अपार शक्तियों का स्वामी बन जाता था l भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी l जब मैकाले ने ऐसा भारत में देखा और जाना तो वह ईर्ष्या वश तिलमिला उठा l उसने भारत की इस उच्चस्तरीय जीवन पद्दति को हर प्रकार से नष्ट–भ्रष्ट करने तथा उसके स्थान पर निम्नस्तरीय शैली स्थापित करने का मन बना लिया l उसने ब्रिटिश संसद में जाकर एक वक्तव्य दिया जो भारत विरुद्ध महा-षड्यंत्र था l वही वक्तव्य आगे चलकर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को लम्बे समय तक हरा-भरा बनाये रखने तथा उसका विस्तार करने हेतु भारत की नैतिक, अध्यात्मिक और सत्सनातन धर्म-संस्कृति का ह्रास करने वाला ब्रिटिश शासकों का सहायक नीति-शास्त्र बना l
मैकाले का मूल उद्देश्य भारत को हर प्रकार से क्षीण-हीन, अपंग और निःसहाय बनाकर उसमें ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को मजबूत करना था l समय-समय पर भारतीय संत महापुरुषों, समाज सुधारकों, नवयुवाओं धार्मिक व राजनेताओं ने मैकाले की भारत विरोधी नीतियों का डटकर विरोध किया और अनेकों बलिदान दिए l उनके द्वारा लम्बे समय तक अथक प्रयासों और त्याग से ही बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय तथा हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई ताकि भारतीय संस्कृति की अखंड पहचान बनी रहे l उसका भली प्रकार विस्तार हो सके l
इस प्रकार 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश भर में सरकारी, गैर सरकारी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्व विद्यालयों से हमें जो दिव्य प्रकाश मिलने की आशा बनी थी, वह एक बार फिर धूमिल हो गई l सरकारों द्वारा इस ओर कोई विशेष प्रयास नहीं हुआ बल्कि उन अंग्रेजी फैक्ट्रियों व कारखानों से पहले की तरह निरंतर सस्ते बाबू और काले अंग्रेज बनकर निकलते रहे जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य की आवश्यकता मानी जाती थी l
इससे स्पष्ट होता है कि हम जिस गरिमा के साथ स्वतंत्रता को अंगीकार करने आगे बढ़े थे, वह गरिमा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् और अधिक तीव्र होने के स्थान पर लुप्तप्रायः हो गई है l स्वदेशी संस्कारों के स्थान पर पाश्चात्य संस्कार हमारी रग-रग में समा रहे हैं l अगर इस ओर बढ़ती प्रवृत्ति को अतिशीघ्र नहीं रोका गया तो भारत का एक बार फिर पराधीन होना निश्चित है l मत भूलो कि राष्ट्रीय सांस्कृतिक सद्भावना, सहकार, प्रेम और एकता ही अखंड भारत के प्राण हैं l
वर्तमान में बहुत से कार्य मशीनों से किये जाते हैं l कार्य में असफल होने वाली मशीनों को कार्यशालाओं में ले जाकर मिस्त्री से ठीक भी करवा लिया जाता है, पर हमें देश भर में कहीं कोई ऐसी कार्यशाला नहीं दिखाई देती है, जहाँ हमारी संस्कृति में आ चुकी त्रुटियों का अवलोकन व सुधार करके उसे पुष्ट भी किया जाता हो l हाँ पाश्चात्य संस्कृति बड़ी तेजी के साथ किसी बाधा के बिना भारतीय संस्कृति पर अवश्य छा रही है l
राष्ट्रीय संस्कृति के पोषक रह चुके गुरुकुलों के देश में – विद्यालयों से लेकर विश्व विद्यालयों तक भारतीय संस्कृति की उपेक्षा होने के कारण पाश्चात्य संस्कृति के भरण-पोषण को ही निर्विवाद रूप से बढ़ावा मिल रहा है l रही सही कसर वर्तमान सरकार द्वारा पूरी की जा रही है l इसके द्वारा विदेशियों का शिक्षा में प्रवेश के लिए अब रंग-मंच तैयार किया जा चुका है l क्या इस तरह हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर पाएंगे ? क्या हमारी संस्कृति दूसरों के लिए पुनः आदर्श बन पायेगी ?
उपरोक्त बातों से स्पष्ट होता है कि एक ओर जहाँ आज भारत को मजबूत सीमाओं की आवश्यकता है तो दूसरी ओर उसके भीतर सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्यकुशल नवयुवाओं की भी आवश्यकता है जो भारतीय संस्कृति के संवाहक रूप में उसका पुनरुत्थान करने में पूर्णतया सक्षम और समर्पित हो l
प्रकाशित नवम्बर 2009 मातृवंदना
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भारतीय सनातन धर्म संस्कृति
धर्म अध्यात्म संस्कृति – 4
सभी कष्ट दूर हो जाते हैं l कोई समस्या शेष नहीं रहती है l विपदाओं का भी शमन हो जाता है l इसके लिए मनुष्य को सत्सनातन-धर्म का अनुसरण करना पड़ता है l वह धर्म मुख्यतः तीन बातों पर आधारित है – सत्य, सनातन और धर्म l
परम पिता परमात्मा विशाल दिव्य ऊर्जा पुंज सर्व आत्माओं का स्वामी होने के नाते स्वयं एक सत्य है l वह अजर, अमर, सर्वज्ञ, सर्व व्यापक, अन्तर्यामी, होने के कारण जैसा पहले था, आज है और आगे भी रहेगा l इस कारण वह सनातन है l धर्म का अर्थ है जीने की कला, जिसका जीवन में आचरण किया जाता है l धर्म मुक्ति का मार्ग प्रसस्त करता है और उसकी प्रभावशाली जीवन शैली से मानव धर्म, परिभाषित होता है l विश्व में जब-जब मानव धर्म की हानि होती है तब-तब मात्र मानव जीवन शैली में विसंगति पाई जाती है l
मानव चाहे किसी उच्च गुण, संस्कार सम्पन्न देश, काल और पात्र का ही सहारा क्यों न लेता हो या वह अच्छी से अच्छी जीवन शैली पर ही अमल क्यों न करे – पर मन चंचल होने के कारण उसमें विसंगतियों के आगमन हेतु प्रवेश द्वार भी हर समय खुला रहता है l इसके लिए अनिवार्य है सजगता, सतर्कता और सावधानी से व्यक्तिगत अथवा समुदायक जीवन शैली को उसकी विसंगतियों से निरंतर सुरक्षित बनाये रखना l
इन बातों का ध्यान रखते हुए प्राचीनकाल में भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को मुख्यतः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास चार आश्रमों में विभक्त किया हुआ था और सर्वहित में कार्यान्वयन हेतु प्रत्येक आश्रम को उसका अपना कार्यभार सौंप रखा था जिसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी था l
ब्रह्मचर्य जीवन में शिक्षण-प्रशिक्षण, गृहस्थ जीवन में सांसारिक, वानप्रस्थ जीवन में आत्मचिंतन-मनन व सुधार तथा सन्यास जीवन में देश-विदेश का भ्रमण करते हुए आत्मज्ञान तथा सयंम से जन चेतना का कार्य किया जाता था l
प्राचीन संत-मुनि जन यह भली प्रकार जानते थे कि जहाँ जीवन से संबंधित कार्य होते हैं, वहां विसंगतियां भी अवश्य आती हैं l वह मनुष्य को कदम-कदम पर प्रभावित करती हैं l उनसे महिलाएं, बच्चे, वृद्ध कोई भी सुरक्षित नहीं रह पाता है l उन्हें आये दिन अपहरण, शोषण और बलात्कार जैसे अपराधों का सामना करना पड़ता है l इसी कारण समाज में भांति-भांति के अपराधों में निरंतर वृद्धि होती है l वह धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय अपराधों से पीड़ित होता है l मानव मन में नित नये-नये सुख भोगों की लालसा उत्पन्न होती है और वह निरंतर उनकी खोज में रहता है l उससे समाज सुखी होने के स्थान पर दिन-प्रतिदिन दुखी होता है, उसके दुःख घटने के स्थान पर और बढ़ते हैं, वे घटने का नाम ही नहीं लेते है l भारतीय मनीषियों ने दुःख निवारण का सरल, सुंदर एवं अचूक उपाय बताया है l
सत्संग करो :– सत्संग उचित स्थान और उपयुक्त समय पर किया जाता है l उसमें प्रायः ब्रह्मज्ञान की बातें होती हैं l ब्रह्मज्ञान से समस्त समस्याओं का हल निकलता है l सत्संग में जटिल बातें सरलता से समझी ओर समझाई जाती हैं, उनका समाधान निकाला जाता है जिन्हें मानव जीवन में चरितार्थ किया जाता है l
सद्भावना रखो :- सद्भावना वृद्धि हेतु मनुष्य द्वारा विद्वानों के प्रति सम्मान की भावना का विशेष ध्यान रखा जाता है l अगर मनुष्य में उनसे कुछ सीखने की भावना न हो तो उसका विद्वानों के बीच में जाना तो दूर, उनके बारे में सोचना भी निरर्थक होता है l पर जब वह सीखने की भावना से उनके पास जाता है तो उसका कर्तव्य बन जाता है कि उन पर विश्वास करे, उनके द्वारा बताये गए मार्ग पर चले, वह समाज में सबके साथ प्रेम से रहे, मानवता और दीन-दुखियों के लिये सेवा-भक्ति भाव से कार्य भी करे l
शुद्ध विचार अपनाओ :– मनुष्य द्वारा दूसरों के साथ शांत, मृदु, प्रिय और सत्य बोलना हितकारी होता है l शुद्ध लेखन कार्य द्वारा उसका प्रकाशन और प्रचार-प्रसार करना मानवता ही की सेवा है l
सत्कर्म करो :– मनुष्य के द्वारा किया जाने वाला प्रत्येक कार्य सबको अच्छा लगे, उससे दूसरों को कोई पीड़ा या कष्ट न हो, कार्य व्यवहार में लाना श्रेष्ठ है l सत्संग से प्राप्त जीवनोपयोगी बातों का अपने जीवन में अनुसरण करते हुए सबके लिए न्याय एवम् समानता हेतु प्रयास करना सर्वोत्तम है l सर्वहितकारी शुद्ध कर्म करना मानवता हित के लिए रामवाण समान है l
भारतीय संत-महात्माओं का चिंतन-मनन कार्य – सूर्य के समान दीप्तमान, प्रभावशाली और सर्वव्यापक रहा है l उन्होंने मानव जीवन विकास को न केवल एक नई दिशा दी थी बल्कि कर्म के आधार पर मानव समाज हित में वर्ण व्यवस्था का सृजन, पोषण और वर्धन भी किया था l वह व्यवस्था किसी जाति, धर्म, वर्ग भेदभाव और विशेषकर निजहित तक ही सीमित नहीं थी l उससे निष्पक्ष सबका कल्याण होता था l उसकी कुंजी जब तक चरित्रवान एवम् सदाचारी लोगों के हाथों में रही, उसका सर्वहित में सदुपयोग होता रहा पर ज्यों ही वह उनके हाथों से फिसलकर पतित एवम् दूराचारी लोगों के हाथों में गई, उसका मात्र निजहित में दुरूपयोग होने लगा है l उसी का परिणाम है कि आज संपूर्ण मानव जाति की परंपरागत जीवन शैली ही नहीं सामाजिक व्यवस्था ही विकृत हो गई है l उसका स्वरूप हम सबके सम्मुख है l इसका उत्तरदायी मैं, आप और हम सभी हैं l हम सब उसी समाज में रहते हैं जिसे हमने विकृत किया है l अब उसे सुंदर व सुव्यस्थित भी हमने ही करना है l यह हमारा दायित्व है l
वैदिक परंपरा के अनुसार विश्व एक परिवार है l हम सब उसके सदस्य हैं l “सबका कल्याण हो l” इस परंपरागत धारणा से हमारा दायित्व बन जाता है कि हम समग्र संसार हित के लिए उसके अनुकूल चिंतन-मनन करें l स्वयं कुछ करें और दुसरों को कार्य करना भी सिखाएं ताकि हमारे बच्चे योग्य बन सकें l वह अपने मन, वचन एवम् कर्म से अपने आगे होने वाले बच्चों के लिए प्रेरक बन सकें l
प्रकाशित अप्रैल मई 2015 मातृवंदना
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डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में समरसता
धर्म अध्यात्म संस्कृति – 3
ऋषि-मुनि, सिद्ध, सन्यासी, साधु-सन्त, महात्मा और परमात्मा के साथ जुड़े माणिकों एवं अलंकारों से सुशोभित, भारत माता के सरताज, देव और वीरभूमि हिमाचल प्रदेश की तराई में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है जिला कांगड़ा, का प्रवेश द्वार नूरपुर, के उत्तर में सहादराबान से सर्पाकार एवं घुमावदार सड़क द्वारा लेतरी, खज्जन, हिंदोरा-घराट, सदवां से घने निर्जन चीड़ के जंगल पार, गांव सिम्बली से होते हुए नूरपुर से लगभग 11 किलोमीटर के अंतराल पर स्थित है - सुल्याली गांव।
अपनी हरियाली की अपार सुंदरता एवं स्वच्छता के कारण भारत की देव भूमि हिमाचल प्रदेश विश्व विख्यात है। यहां पर स्थित विभिन्न प्रसिद्ध धार्मिक स्थल देश व विदेश में अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। प्रदेश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में सुल्याली गांव का डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर अथवा प्राकृतिक शिवाला डिह्बकेश्वर धाम अत्यंत सुंदर, शांत तथा रमणीय स्थल है।
यह प्राकृतिक शिवाला अपने अस्तित्व में कब आया ? कोई नहीं जानता है। परंतु यहां विराजित साक्षात देवों के देव महादेव परिवार की गांव सुल्याली में वसने वाले लोगों पर असीम कृपा अवश्य है। लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम व सद्भावना कूटकूट कर भरी हुई है।
डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर के स्नानों में स्नान सोमवार की अमावस्या, वैसाखी की अमावस्या, बुध पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, पितर तर्पण, सावन मास के सोमवारों के स्नान होते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी, शीतला पूजन के साथ-साथ यहां शिवरात्रि हर वर्ष बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है जिसमें हर वर्ण के लोग यथाशक्ति बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।
यहां पर गृह शांति हेतु हवन करवाये जाते हैं। बच्चों के मुंडन संस्कार होते हैं। यहां पर लंगर लगवाने की व्यवस्था भी है जिसमें कोई भी गृहस्थी अपनी इच्छा से यहां की व्यवस्था के अनुसार हवन, संकीर्तन करवाने के साथ-साथ लंगर भी लगवा सकता है।
भरमौर निवासी गद्दी समुदाय के लोग अंधेरा होने पर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में शिव विवाह जिसे वे अपनी स्थानीय भाषा में नवाला कहते हैं, का हर वर्ष जनवरी मास में आयोजन करते हैं। वे शिव-पूजन करके लोक-नृत्य सहित शिव-विवाह के भजन गाते हैं। जो देखने योग्य होता है। इसे देखने हेतु यहां पर दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे यहां आए हुए श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते है जिसे लोग सप्रेम पूर्वक प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।
स्व0 मास्टर गिरीपाल शर्मा जी ने अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नी की याद में चरण पादुका स्थित सुल्याली गांव में शिवरात्रि के दिन इस यज्ञ का शुभारम्भ किया था। जो वहां हर वर्ष किया जाता था। इसे बाद में बंद कर दिया गया और फिर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में आरम्भ कर दिया गया। स्व0 मास्टर हंस राज शर्मा, जी ने सन् 1967- 68 ई0 से शिवरात्रि पर्व से लोगों को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। यज्ञ में दाल, चावल, खट्टा, मीठा, मह्दरा आदि बनना आरम्भ हो गया। इससे पूर्व यहां आषाढ़ मास की संक्रांति को चपाती, आम की लाहस तथा माश की दाल बना कर सहभोज करने की प्रथा प्रचलित थी। जिसे ग्रहण करके सभी लोग आनन्द उठाते थे।
यहां हर वर्ष शिवरात्रि से दो - तीन दिन पूर्व ही उसकी तैयारी होना आरम्भ हो जाती है। शिवरात्रि से एक दिन पूर्व यहां हवन-यज्ञ किया जाता है। रात को भजन कीर्तन होता है और दूसरे दिन सहभोज-भण्डारा किया जाता है जिसका आयोजन एवं समापन बिना किसी भेदभाव से संपूर्ण होता है। इन दिनों डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में बहुत ज्यादा चहल-पहल रहती है। यहां स्थानीय लोग ही नहीं दिल्ली, पंजाब और जम्मू-कश्मीर राज्यों के दूर-दूर से आए हुए श्रद्धालू-भक्त जन भी अपनी-अपनी यथाशक्ति से अन्न, तन, मन और धन द्वारा सेवा कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।
यहां आने वाले आस्थावान भक्तों पर भोलेनाथ सदा दयावान रहते हैं। जन धारणा के अनुसार शिवरात्रि को शिवभोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजमान रहते हैं तथा यहां पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद भी देते हैं। स्थानीय लोगों की धारणा है कि शिवरात्रि के पश्चात् शिव भोले नाथ सपरिवार, मणिमहेश कैलाश की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।
शिव भोले नाथ के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाले भक्तजन बारह मास - सर्दी, गर्मी और बरसात में शिव दर्शन और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वे शिवलिंगों को दूध लस्सी से नहलाते हैं तथा उन पर बिल्व-पत्री चढ़ा कर उनकी धूप-दीप, नैवेद्यादि से पूजा अर्चना करके, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
साहिल ग्रुप पठानकोट, के सदस्य मिलकर यहां हर वर्ष दिन में पहले सुल्याली बाजार से होते हुए डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर तक संगीत सहित शिव-विवाह की मनोरम झांकियां निकालते हैं और फिर देर रात तक शिव-विवाह से संबंधित धर्म-सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता रहता है जिसे देखने हेतु दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे वहां आने वाले श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते हैं। लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।
सुल्याली गांव के आसपास के क्षेत्र से अनेकों महिलाएं डिह्बकेश्वर महादेव परिसर में आकर सोमवार की अमावसया, वैसाखी की बड़ी सोमी अमावसया को पीपल वृक्ष का पूजन करती हैं। इस पूजन में पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमायें की जाती हैं जिनके अंतर्गत फल, चावल व दाल के दाने, द्रब, दक्षिणा, कच्चा सू़त्र की लड़ियां और जोतें सभी गिनती में 108-108 एक समान नग होते हैं। इसके अतिरिक्त सुहागी, वर्तन और कपड़ा भी होता है जो दान किया जाता है। कच्चा सूत्र की लड़ियों को पीपल वृक्ष के चारों ओर परिक्रमा करके लपेटा जाता है जो देखने योग्य होता है। इस तरह डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में अध्यात्मिकता देखने को मिलती है जो समरसता से परिपूर्ण होती है।
प्रकाशित मार्च-अप्रैल 2020 मातृवंदना
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जलधारा करती है शिवलिंगों को स्नान
धर्म अध्यात्म संस्कृति – 2
देव भूमि हिमाचल प्रदेश में – सुल्याली गाँव, तहसील नूरपुर से लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है l इसी गाँव में एक कंगर नाला के ठीक उस पार, स्वयं प्रगट हुए आप अनादी नाथ, शंकर, भोले नाथ, शिव-शम्भू जी का प्राचीन मंदिर है जो स्वयं निर्मित एक ठोस पहाड़ी गुफा में है, दर्शनीय स्थल है l
मान्यता है कि डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर में पीड़ितों की पीड़ा दूर होती है, जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शांत होती है, अर्थार्थियों को उनका मनचाहा भोग-सुख मिलता है और तत्वज्ञान की लालसा रखने वालों को तत्वज्ञान भी प्राप्त होता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा रूप में दृश्यमान होने के कारण उसमें कहीं दूध समान सफेद रंग की जलधाराएँ गिरती दिखाई देती हैं तो कहीं बूंद-बूंद करके टपकता हुआ पानी l इसके नीचे बने हुए असंख्य छोटे-बड़े शिव लिंगों को उनसे हर समय स्नान प्राप्त होता रहता है l
डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा के ऊपर से कल-कल छल-छल करके बहने वाली जलधारा की उंचाई लगभग 20-25 फुट है l जिस स्थान पर छड़-छड़ की ध्वनि के साथ यह जलधारा गिरती है, स्थानीय लोग अपनी भाषा में उसे छडियाल या गौरी कुंड कहते हैं l यह डिह्बकू भी कहलाता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा की वायें ओर एक और गुफा है जो स्थानीय जनश्रुति अनुसार कोई भूमिगत मार्ग है l मंदिर गुफा के दायें ओर उससे कुछ उंचाई पर स्थित उसी के समान गहराई की एक अन्य गुफा है l यहाँ पर गंगा की धारा, शिव जटा से प्रत्यक्ष सी प्रकट होती हुई दिखाई देती है l सुल्याली गाँव और उसके आस-पास के कई क्षेत्रों को पीने का शुद्ध पानी यहीं से प्राप्त होता है l
परम्परा के अनुसार डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में जो भी महात्मा आते हैं, उनकी सेवा में राशन का प्रबंध सुल्याली गाँव के परिवार करते हैं l “बिच्छू काटे पर जहर न चढ़े” यह किसी सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद है या डिह्बकेश्वर महादेव की असीम कृपा ही l
सुल्याली गाँव में बिच्छू के काटने पर किसी व्यक्ति को जहर नहीं चढ़ता है l जनश्रुति और उनके विश्वास के अनुसार शिवरात्रि को शिव भोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजित रहते हैं तथा यहाँ पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद देते हैं l
प्रकाशित 17 मई 2006 दैनिक जागरण