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श्रेणी: राष्ट्रीय भावना

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    नींद त्यागो – राष्ट्र संभालो

    आलेख – राष्ट्रीय भावना दैनिक कश्मीर टाइम्स 29.6.1996

    किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी सभ्यता और संस्कृति पर निर्भर करती है l कोई भी देशवासी विदेश में उसके अपने ही राष्ट्र की राष्ट्रीयता, भाषा, पहनावा, रहन-सहन, खाना, आचार- व्यवहार और स्वदेशी भावना से जाना तथा पहचाना जाता है l इसलिए राष्ट्र और उसकी राष्ट्रीयता से संबंधित स्थानीय सभ्यता–संस्कृति का महत्व स्वाभाविक ही बढ़ जाता है l किसी राष्ट्र की सभ्यता– संस्कृति उसके उच्च गुण-संस्कारों के ही कारण महान होती है l इसी आधार पर भारत विश्व भर में सोने की चिड़िया के नाम से विख्यात हुआ था l
    विदेशी आक्रान्ता जिनमें तुर्क, हुण, डच, मंगोल, यूनानी, फ़्रांसिसी, पुर्तगाली, मुगल और अंग्रेज प्रमुख थे, भारत में अपने-अपने निश्चित प्रयोजन सिद्ध करने हेतु आये l उन्होंने भारत की सुख-समृद्धि को नष्ट तो किया ही, साथ हो साथ भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर अपनी सभ्यता-संस्कृति की छाप भी लगा दी l
    इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि भारत में स्थानीय भाषा, पहनावा, रहन-सहन, योग साधना,  खाना, आचार-व्यवहार जो सब वहां के वातावरण, जलवायु, प्रकृति और परंपरा पर आधारित थे, उनका अब अपना वास्तविक स्वरूप शेष बहुत कम रह गया है l वह बड़ी तेजी से साहित्य की मात्र वस्तु बनती जा रही है l
    इस अभूतपूर्व परिवर्तन में आक्रान्ताओं के आतंक का भले ही बड़ा हाथ रहा हो पर उनके साथ-साथ उस समय से संबंधित देश के गद्दारों, भाड़े के विदेशी सैनिकों और सत्ता के महत्वाकांक्षी लोगों का भी कम योगदान नहीं है l स्वदेश में विदेशी आक्रान्ताओं का प्रवेश उन्हीं लोगों के माथे पर लगा कलंक है जो उस समय की विदेशी कूटनीति छल-कपट की चालों से अनभिज्ञ रहे और लालच का शिकार हुए थे l उन्होंने तो सब्जबाग ही देखे थे l इसी कारण वे निरंतर अपनों के हाथों अपने ही प्रिय बंधुओं को मौत के घाट उतारते रहे l     
    इस प्रकार जो व्यक्ति अपनों का प्रिय न हो सका, प्रिय न कर सका, गैर का क्या करेगा ! बात को आक्रान्ता लोग उदाहरण सहित पगपग पर परखते और सिद्ध भी करते करते थे l जब उनका स्वार्थ सिद्ध हो जाता था तो इनाम में वे उन्हें देते थे, मौत l इससे पूर्व कि उन्हें अपनी गलती का अहसास हो सके, वे अपने सामने साक्षात् मृत्यु देख उनसे अपने शेष जीवन का जीवनदान पाने की याचना भी करते थे, पर तब तक समय हाथ से निकल चुका होता था l अपार धन, सैन्य शक्ति होते हुए भी देश के महान नायक, खलनायक अपने अहंकार वश झूठे यश-मान की लालसा रखने पर स्वयं ही मिट्टी में मिलते चले गये l यह प्रवृत्ति हम में आज भी जारी है l जो कार्य हमारे पूर्वज नहीं कर पाए उन्हें अब हम पूरा कर रहे हैं l हम अपने ही हाथों अपना चेहरा बिगाड़ रहे हैं l   
    आज हमारा राष्ट्र भले ही स्वतंत्र है l हम स्वतंत्र देशवासी हैं फिर भी विदेशी सभ्यता-संस्कृति हमारे जनमानस पर पूर्ण रूप से प्रभावी है l  हम स्वाधीन होकर भी पराधीन हैं l क्या आज विश्व में हमारी अपनी कोई पहचान है ? क्या हमारी सभ्यता-संस्कृति विदेशी सभ्यता-संस्कृति के प्रभाव से प्रभावित नहीं है ? क्या हमारा समाज विभिन्न सभ्यता-संस्कृतियों के नाम पर अल्प संख्यकों, बहुसंख्यकों में विभक्त नहीं हो रहा है ? आज हम अपने ही घर में भयभीत हैं, हम भारतीय होने, भारतीय कहलाने से डरते हैं l हम अपनी सभ्यता-संस्कृति का स्वयं उपहास उड़ाते हैं l उसे भुलाते जा रहे हैं l दूसरों की सभ्यता-संस्कृति का अन्धानुकरण करते हुए हम गर्व अनुभव करते हैं l फिर भी हमारे राष्ट्र का नाम आज भी बड़े मान-सम्मान से लिया जाता है, कारण उसकी प्राचीन प्रतिष्ठित विश्व कल्याणी भावना l उसके द्वारा सबका कल्याण चाहना l प्राचीन भारतीय सभ्यता-संस्कृतिकी उच्च प्रकाष्ठा, सबका सम्मान करना l सबके प्रति प्रेमभाव रखना l “स्वयं जियो और दूसरों को जीने दो, को व्यवहार में लाना l
    परन्तु आज की भौतिकवादी अंधी दौड़ में यह सब चौपट हो गया है l हम सब अध्यात्मिक विकास की उपेक्षा करके मात्र संसारिक उन्नति के पीछे हाथ धोकर पड़ गये हैं l हम यह भी भली प्रकार जानते हैं कि अध्यात्मिक सुख दीर्घकाल तक जीवित रहता है, जबकि भौतिक सुख क्षणिक मात्र ही होता है l फिर भी हमारे मन के विकारों ने हमें अपना दास बना लिया है l हमारे जीवन का प्रत्येक पल मानव जीवन के यथार्थ ज्ञान को भूलता जा रहा है l जीवन की वास्तविकता हमारे लिए पहेली बनती जा रही है l प्राचीन भारत ने विश्व में ब्रह्मज्ञान को ही सब विद्याओं का जनक जाना और माना था l उसने हम सबको सुख और समृद्धि भी प्रदान की थी l आधुनिक काल में हमने उसकी उपयोगिता भूलकर उसे अपने दैनिक जीवन से भी अलग कर दिया है l क्या हमारा समाज इतना उन्नत हो गया है कि हमें अब ब्रह्मज्ञान की तनिक भी आवश्यकता नहीं रही है l  हमने ऐसा कौन सा गूढ़ रहस्य प्राप्त कर लिया है कि जिससे हमें ब्रह्मज्ञान भी नीरस लगने लगा है ? क्या ब्रह्मज्ञान त्यागने के लिए हमें किसीने बाध्य किया है ? क्या आधुनिक शिक्षा-प्रणाली इसके लिए उत्तरदायी है ?
    मानव जीवन अमूल्य है l उसकी उपयोगिता, आवश्यकता प्रकृति और परंपरा का ध्यान रखकर भारतीय आचार्यों ने अध्यात्मिक शिक्षा को हमारे समाज की मूल आवश्यकता माना था l उन्होंने उसे काल, पात्र और समय के अनुकूल बनाया था l आचार्यों द्वारा शिक्षा पात्र को भली प्रकार जाँच-परख और पहचानकर ही दी जाती थी l यह हमारे आचार्यों की दूरदर्शिता नहीं तो और क्या है ? इससे इसी लोक का नहीं परलोक का भी कल्याण हुआ है l राष्ट्र सोने की चिड़िया के नाम से विश्वभर में जाना और पहचाना गया है l 
    और शायद इसीलिए विदेशी आक्रान्ताओं को विकसित भारत अच्छा नहीं लगा l उन्ही के शब्दों में – “यदि राष्ट्र भारत को नष्ट करना है तो पहले उसके ज्ञान को नष्ट करो l देश को मार्गदर्शन मिलना बंद हो जायेगा l वह एक दिन अवश्य ही पराधीन होगा l” आक्रान्ताओं ने सर्व प्रथम देश की नालंदा, तक्षशिला, पल्लवी, विक्रमशिला और उन जैसे छोटे-बड़े असंख्य विद्यालय, विश्व विद्यालय अपनी घुसपैठ का निशाना बनाये l उन्होंने पहले उनमें विद्यमान महत्वपूर्ण साहित्य ग्रंथों को लूटा l जो समझ नहीं आया, उसे अग्नि में समर्पित कर दिया l आचार्यों को मौत के घाट उतार दिया l उनके द्वारा देश में फूट डालो, राज करो की नीति का आरंभ हुआ l भारतीय नायक, खलनायक आपस में लड़ने लगे l
    आज हमारी राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रीय भावना भ्रष्टतंत्र के अधीन है l हमें उसका कोई विकल्प भी नहीं दिखाई दे रहा l क्या राष्ट्रीय जन चेतना उसे मुक्ति दिला सकती है ? अगर हम सबका यही एक प्रश्न है  तो कोई बताये कि कहाँ हैं हमारे राष्ट्र के निष्कामी, कर्मठ, समर्पित युवा, जन नायक, शिक्षक, अभिभावक, राजनेता, प्रशासक और सेवक ? कहाँ छुप गये हैं, वे सब डरकर ? क्या भयभीत हैं, वह किसी अनहोनी का आभास पाकर ? या मौत ही आतंकित कर रही है जो आएगी अवश्य एक दिन l फिर डरते हो क्यों मर जाने से ? मरना है, मरो शेर की तरह, देश के लिए l स्वागत नये युग का करने के लिए l आत्म निरीक्षण करो और जानो कि तुम स्वयं क्या नहीं कर सकते ? आप सबके हित में अपना भला चाहते हो तो आओ हम सब एक मंच पर सुसंगठित होकर विचार करें l रचनात्मक कार्य करने का प्रण लें ताकि हम सब अपनी विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाई गई लोक कल्याणी योजनाओं का सर्वांगीण विकास करके उनसे पूरा-पूरा लाभ प्राप्त कर सकें l हम अपने इस पुनीत कार्य में तभी सफल हो सकते हैं जब हमारा जीवन उच्च संस्कारों से परिपूर्ण होगा l क्योंकि उच्च संस्कारों से ही उच्च व्यक्तित्व का निर्माण होता है l उससे जीवन के प्रत्येक कार्यक्षेत्र में विजयी होने की अजयी शक्ति मिलती है, भय समाप्त होता है l अभय को तरुण ही धारण करते हैं l इसलिए तरुण ही राष्ट्र की जन चेतना, जन शक्ति और लोक शक्ति हैं l भ्रष्टाचार का भ्रम तोड़ने वाला इंद्र का वज्र भी वही हैं l अपने देश की सभ्यता-संस्कृति के उद्दारक तरुण ही तो हैं l
    आज देश को चरित्रवान नव युवाओं की परमावश्यकता है l जिससे वे प्रत्येक परिवार, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र का विकास तथा नवयुग का निर्माण करने के लिए लोक-शक्ति बन सकें l जन चेतना से जन्य लोकशक्ति ही नव युवाओं में सर्वांगीण शक्तियों का विकास कर सकती है l उन्हें जागृत करके लोक कल्याणी योजनाओं के माध्यम से जन–जन तक पहुंचा सकती है l जन साधारण लाभान्वित हो सकते हैं l भले ही यह कार्य कठिन है पर अगर युवाओं की इच्छा-शक्ति दृढ़ हो, वे अपने देश के हित प्रेम और सहयोग देने में सम्पन्न हों तो कुछ भी असंभव भी नहीं है l तरुण ही भारतीय सभ्यता-संस्कृति के रक्षक हैं l वे भारत के हैं और उन्ही के बल से भारत उनका अपना देश है l इसलिए नींद त्यागो और देखो अब भी यह भारत कितना सुंदर और शक्तिशाली है ! उसे संभालो, उसने अभी अपना विश्व स्तरीय प्राचीन भारत का खोया हुआ यश मान पुनः प्राप्त करना है l उसने फिर से अपनी प्राचीन गरिमा बनानी है l उसने अपने ज्ञानदीप से विश्व को नई रह दिखानी है l                                                             
    चेतन कौशल “नूरपुरी”


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    लोक विकास – समस्या और समाधान

    आलेख - राष्ट्रीय भावना असहाय समाज वर्ग जनवरी जून 1996 

    इस सृष्टि की संरचना कब हुई ? कहना कठिन है l सृष्टि के रचयिता ने जहाँ प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए आहार की व्यवस्था की है, वहां मनुष्य के जीवन से संबंधित हर पक्ष के साथ एक विपरीत पहलू भी जोड़ा है l जहाँ सुख है, वहां दुःख भी है l रात है तो दिन भी है l इसी प्रकार सृष्टि में उत्थान और पतन की अपनी-अपनी कार्य शैलियाँ हैं l उत्थान की सीढ़ी चढ़कर मनुष्य आकाश की ऊँचाइयां छूने लगता तो पतन की ढलान से फिसलकर वह इतना नीचे भी गिर जाता है कि एक दिन उसे अपने आप से लज्जा आने लगती है l मनुष्य विवेकशील, धैर्यवान और प्रयत्नशील प्राणी होने के कारण अपना प्रयत्न जारी रखता है l वह गिरता अवश्य है परन्तु कड़ी मेहनत करके वह पुनः पूर्वत स्थान की प्राप्ति भी कर लेता है l कई बार वह उससे भी आगे निकल जाता है l यह उसकी अपनी लग्न और मेहनत पर निर्भर करता है l विकास प्रायः दो प्रकार के होते हैं – अध्यात्मिक तथा भौतिकी l जब वेद पथ प्रेमी साधक आंतरिक विकास करता है तो सत्य ही का विकास होता है – वह विकास जिसका कभी नाश नहीं होता है l शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा मरती नहीं है l अभ्यास और वैराग्य को आधार मानकर निरंतर साधना करके, साधक मायावी संसारिक बन्धनों से मुक्त अवश्य हो जाता है l

    साधक भली प्रकार जानता है कि देहांत के पश्चात् उसके द्वारा संग्रहित भौतिक सम्पदा का तो धीरे-धीरे परिवर्तन होने वाला है परन्तु अपरिवर्तनशील आत्मा अपनी अमरता के कारण, अपना पूर्वत अस्तित्व बनाये रखती है l नश्वर शरीर क्षणिक मात्र है जबकि आत्मा अनश्वर, अपरिवर्तनशील और चिरस्थाई है l

    जीवन यापन करने के लिए भौतिक विकास तो जरुरी है पर मानसिक प्रगति उस जीवन को आनंदमयी बनाने के लिए कहीं उससे भी ज्यादा जरुरी है l घर में सर्व सुख-सुविधाएँ विद्यमान हों पर मन अशांत हो तो वह भौतिक सुख-सुविधाएँ किस काम की ? मानसिक अप्रसन्नता के कारण ही संसार अशांति का घर दिखता है l  

    भौतिक विकास में साधक जन, धन, जीव-जन्तु, बल, बुद्धि, विद्या, अन्न, पेड़-पौधे, जंगल, मकान, कल-कारखाने और मिल आदि की संरचना, उत्पादन और उनको वृद्धि करते हैं जो पूर्णतया नश्वर हैं l इनकी उत्पति धरती से होती है l धरती से उत्पन्न और धरती पर विद्यमान कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, परिवर्तनशील है l जो स्थिर नहीं है, वह सत्य कहाँ ? अस्थिर या असत्य वस्तु को साधक अपना कैसे कह सकता है ? उसका तो अपना वही है जो सत्य है, स्थिर है, अपरिवर्तनशील है, अमर है और कभी मिटता नहीं है l वह तो मात्र आत्मा है

    सृष्टि में भौतिक विकास, मानसिक कामनाओं की देन है l उसमें निर्मित कोई भी वस्तु, चाहे वह रसोई में प्रयोग करने वाली हो या शयन कक्ष की, कार्यालय-कर्मशाला की हो या खेल-मैदान की, धरती-जल की हो या खुले आकाश की – वह मात्र मनुष्य की विभिन्न भावनाओं, विचारों, और व्यवहारिक मानसिक प्रवृत्तियों की उपज है l जन साधारण लोग उनकी ओर आकर्षित होते हैं l वे उन्हें पाकर अति प्रसन्न होते हैं l साधकों को यह शक्ति, विकास की ओर उन्मुख मानसिक प्रवृत्ति से प्राप्त होती है l

    भोजन से शरीर, भक्ति-प्रेम से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन से आत्मा को बल मिलता है l इससे पराक्रम, वीर्य, विवेक और तेज वर्धन होने के साथ-साथ साधक की आयु लम्बी तो होती है पर साथ ही साथ उसके लिए लोक-परलोक का मार्ग भी प्रशस्त होता है l “जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” कहावत इस कार्य को पूरा करती है l इस प्रकार विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा – बुरा परिणाम या फल साधक की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है l वह जैसा चाहता और करता है – बन जाता है l  

    जिस प्राणी ने मनुष्य जीवन पाया है, उसे जीवन लक्ष्य पाने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को पुरुषार्थी अवश्य बनना चाहिए l उसे जीवन का विकास, साधना, मेहनत और प्रयत्न करना चाहिए l बिना पुरुषार्थ के सृष्टि में रहकर उससे कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव है l उसमें सभी पदार्थ हैं पर वे मात्र पुरुषार्थी के लिए, पुरुषार्थ से उत्पन्न किये जाने वाले हैं l जो जिज्ञासु पुरुषार्थ करता है, उन्हें प्राप्त कर लेता है l  

    ऐसा कोई भी जिज्ञासु तब तक किसी आत्म स्वीकृत कला के प्रति समर्पित एक सफल पुरुषार्थी नहीं बन सकता, जब तक वह प्राकृतिक गुण, संस्कारानुसार दृढ़ निश्चय करके कार्य आरम्भ नहीं कर देता l पुरुषार्थी को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समर्पित होना अति आवश्यक है l वह जीवनोपयोगी कलाओं में से किसी को भी अपनी सामर्थ्या एवम् रुचि अनुसार चुन सकता है – भले ही वह धार्मिक हो या राजनैतिक, आर्थिक हो या शैक्षणिक, पारिवारिक हो या सामाजिक – बिना सामर्थ्या एवम् अभिरुचि के, जीवन में सफल हो पाना असम्भव है l देखने में आया है कि प्रायः पुरुषार्थी का मन उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में नहीं लगता है जो उससे करवाए या किये जाते हैं l उसका ध्यान अन्य कार्यों की ओर आकृष्ट रहता है जिनमें उसकी अभिरुचि होती है l इसके पीछे उसकी आर्थिक विषमता, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, प्रोत्साहन का आभाव और उसे समय पर उचित मार्गदर्शन न मिल पाना – विवशता होती है l इस कारण अनचाहे उसका मन अशांत, परेशान और अप्रसन्न रहता है l 

    आवश्यकता है – किसी भी कलामंच या कार्यक्षेत्र के किसी कलाकार या श्रमिक को कभी मानसिक पीड़ा ना हो l अतः उससे उसकी इच्छानुसार, मनचाह कार्य लिया जाना सर्वश्रेष्ठ है l भले ही उस कला साधना अथवा कार्य से संबंधित प्रशासन द्वारा उसका कार्यक्षेत्र ही क्यों न बदली करना पड़े l ऐसा कलाकार जो अपने श्रम के प्रति समर्पित न हो, उसमे उसकी लग्न न हो, तो क्या कभी दर्शक उसे एक अच्छा कलाकार या श्रमिक कहेंगे ? क्या वह अपनी कला अथवा श्रम में सफल हो पाएगा ? क्या दर्शक उसके प्रशसंक बन पाएंगे ?

    ऐसे कलाकारों या श्रमिकों से विकास का क्या अर्थ जो स्वयं ही को संतुष्ट नहीं कर सकते – समाज या राष्ट्र को संतुष्ट कौन करेगा ? कहने का तात्पर्य यह है कि वह न तो किया जाने वाला कार्य भली प्रकार कर सकते हैं और न ही उस कार्य को जिसे वह करना ही चाहते हैं l वह अपने जीवन में कुछ तो कर दिखाना चाहते हैं पर कर नहीं पाते हैं l इस प्रकार समाज ऐसे होनहार कलाकारों और श्रमिकों के नाम से वंचित और अपरिचित भी रह जाता है जिन्होंने उसे गौरवान्वित करना होता है l साधक के पास उसे जन्म से प्राप्त कोई भी प्राकृतिक अभिरुचि – प्रतिभा जो उसके गुण, संस्कार और स्वभाव से युक्त होती है – जीवन साध्य उद्देश्य को प्राप्त करने में पूर्ण सक्षम, समर्थ होती है l उसे सफलता के अंतिम बिंदु तक पंहुचाने के लिए उपयोगी और उचित संसाधनों का होना अति आवश्यक है l

    कला-क्षेत्र में, कला-सम्राटों के सम्राट संगीत-सम्राट तानसेन जैसे साधक कलाकार, कला-साधना की सेवा के लिए अपने तन, मन, धन और प्राणों से समर्पित होते हैं l वह स्वयं अपनी कला-साधना को न तो किसी बाजार की वस्तु बनाते हैं और न ही बनने देते हैं l उनकी कला में स्वतः ही आकर्षण होता है l वे अपनी लग्न और कड़ी मेहनत से कला का विकास करते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं कि विश्व में मात्र उनकी अपनी क्षेत्रीय कला विद्या, संस्कृति सभ्यता और साहित्य से राष्ट्र, क्षेत्र, गाँव, समाज, परिवार और उनकी अपनी भी पहचान होती है l तरुण साधक कला साधना में मग्न रहकर, उसकी गरिमा बनाये रखते हैं वह कला का प्रदर्शन करने से पूर्व, उसे समाज की पसंद नहीं बनाते हैं और न ही उसकी मांग की चिंता करते हैं अपितु वह साधना से समस्त समाज को अपनी कला की ओर आकर्षित करते हैं l समाज स्वयं ही उनकी कला का प्रेमी, प्रशंसक, सहयोगी और अनुयायी बनता है l इससे विकास की गाड़ी निश्चित मंजिल की ओर बढ़ती जाती है l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”

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    जय भारत देश महान

    आलेख - राष्ट्रीय भावना दैनिक जागरण 18 अगस्त 2007 
    वह भारत का स्वर्णयुग ही था जब देश का कोई भी नौजवान अपने बल, साहस, सुझबुझ और विद्या-ज्ञान आदि गुणों से सदैव परिपूर्ण रहता था l इसी कारण वह स्थानीय क्षेत्र से बढ़कर राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और समस्त विश्व स्तर पर भी पहुँच जाता था l वहां वह अपनी अद्भुत प्रतिभा और अपार प्रभावी क्षमताओं के कारण जाना-पहचाना जाता था l 

    उसका अपेक्षित संकल्प पूजनीय माता-पिता व् गुरु को कभी शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट पहुँचाने वाला नहीं होता था l उसकी अपनी कोई भी स्वार्थपूर्ण भावना प्यारे बहन भाई को बलात पीड़ा अथवा क्षति पहुँचाने वाली नहीं होती थी l उसका कोई भी विचार किसी व्यक्ति, जाति, वंश, मत, पंथ, सम्प्रदाय का ही नहीं बल्कि किसी भाषा, स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र के लिए भी कल्याणकारी होता था l वह सदैव वाद-विवाद से ऊँचा उठकर स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र की एकता एवंम अखंडता बनाये रखने में सहायक होता था l उसकी वाणी से कदाचित दूसरों का मन आहत और व्यथित नहीं होता था l वह किसी की उन्नति से घृणा, अथवा द्वेष नहीं करता था बल्कि उससे प्रेरणा और सहयोग लेकर अपने सन्मार्ग पर आगे बढ़ने का निरंतर प्रयास किया करता था l उसका अपना हर आचार-व्यवहार सर्व सुख-शांति प्रदाता होता था l वह वन सम्पदा, समस्त जीव जंतुओं और प्राकृतिक सौन्दर्य से भी उतना ही अधिक प्रेम किया करता था जितना कि अपने परिवार से l उसके दोनों हाथ सदैव किसी असहाय, पीड़ित, अपाहिज, बाल, वृद्ध रोगी, नर-नारी की निस्वार्थ सेवा सुश्रुसा और सहायता हेतु हर समय तत्पर रहते थे l उसका आहार सदैव बलवर्धक और पौष्टिकता से भरपूर रहता था l उसके पराक्रमी साहस के समक्ष स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र विरोधी तत्व भूलकर भी कोई अपराध करने का दुस्साहस नहीं कर पाते थे l इसी कारण स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र में सब ओर सुख-शांति और समृद्धि होने से भारत विश्व में सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ था l


    आइये ! हम सब मिलकर आज कुछ ऐसा कर दिखाएँ कि जिससे भारत को उसका पुरातन खोया हुआ हुआ गौरव फिर से प्राप्त हो सके और विश्वभर में ये प्यारा संगीत सदा अनवरत, अविरल चहुँ ओर गूंजता रहे ---- “जय भारत देश महान , ऊँची तेरी शान----- ऊँची तेरी शान l”

    चेतन कौशल “नूरपुरी”

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    जागेगा स्वाभिमान जमाना देखेगा

    आलेख – राष्ट्रीय भावना मातृवंदना जनवरी 2018 
    प्राचीन काल से ही हमारा देश एक अध्यात्म प्रिय देश रहा है भारत के ऋषि-मुनियों का संपूर्ण जीवन ज्ञान-विज्ञान अनुसन्धान एवंम शिक्षण-प्रशिक्षण कार्य में व्यतीत हुआ है उन्होंने सनातन संस्कृति में मानव जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास जीवन चार श्रेणियों में विभक्त किया था l वे संपूर्ण मानव जाति के कल्याणार्थ व्यक्तिगत ध्यानस्थ होकर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं – “हे प्रभु ! तू मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चल l अँधेरे से उजाले की ओर ले चल l मृत्यु से अमरता की ओर ले चल l” उनका मानना है कि “आत्म सुधार करने से मानव जाति का सुधार होता है l” जीवन सब जीते हैं  पर जीवन जीना इतना सरल नहीं, जितना कि कहना l वह हर पल कष्ट, दुःख, कठिनाइयों और चुनौतियों से घिरा रहता है l   
    मात्र विवेकशील मनुष्य समय और परिस्थिति अनुसार बुद्धि से निर्णय लेते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं की संसार में जीवन नश्वर है l सुख-दुःख बादल समान हैं, वे आते हैं तो चले भी जाते हैं l वह जीवन में जनहित, समाजहित और राष्ट्रहित में कुछ नया करना चाहते हैं, जबकि अन्य मार्ग में आने वाली कठिनाइयों से बचने के लिए सरल एवंम लघु मार्ग ढूंढ़ते हैं l इस प्रकार दोनों की सोच दूसरे के विपरीत हो जाती है l मानव जीवन में फुलों भरा सरल एवंम लघु मार्ग ढूँढने वाले लोग मात्र मन की बात मानते हैं l वे उसी पर चलते हैं l वे नैतिकता और मानवता की तनिक भी प्रवाह नहीं करते हैं l
    ऐसे लोगों के द्वारा स्थापित शिक्षा केन्द्रों के पाठ्यक्रमों में देश का इतिहास, वास्तविक इतिहास नहीं होता है l उसमें सच्ची घटनाओं का सदैव अभाव रहता है l समाज परंपरागत सभ्यता एवंम संस्कृति से कटता जाता है और वह धीरे-धीरे उसे भूल भी जाता है l वे सत्ता पाने के लिए नैतिकता के साथ-साथ मानवता को भी ताक पर रख देते हैं, वे व्यक्ति विशेष, परिवार-वंश की महिमा मंडित करते कभी थकते नहीं हैं l वे क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्म-संप्रदाय वाद को बढ़ावा देते हैं l इससे देश की एकता एवंम अखंडता कमजोर होती है l अपने हित के लिए दंगे करवाए जाते हैं l विवेकशील मनुष्य नैतिकता, मानवता और मान-मर्यादाओं को पसंद करते हैं l स्मरण रहे ! कि ऐसे ही लोगों के प्रयासों से हमारा भारत अखंड भारत “सोने की चिड़िया” बना था l वे निजी जीवन में जनहित, समाजहित और राष्ट्रहित में कष्ट, दुःख, कठिनाइयों और चुनौतियों से सीधा सामना करने की विभिन्न प्रतिज्ञाएँ करते हैं, वह विपरीत परिस्थितयों से लोहा लेने के लिए हर समय तैयार रहते हैं l उनके लिए सबका हित सर्वोपरी होता है l
    उनके द्वारा संचालित विद्या केन्द्रों से बच्चों को अच्छी, संस्कारित, गुणात्मक एवंम उच्चस्तरीय शिक्षा मिलती है l उससे उनका चहुंमुखी विकास होता है l उनके प्रशासन की नीतियां सर्व कल्याणकारी होती हैं l उपरोक्त बातों से स्पष्ट हो जाता है कि समस्त मानव जाति के पास जीवन यापन करने के सरल या कठिन मात्र दो ही मार्ग होते हैं l एक मार्ग उसे पतन – असत्य, अन्धकार और दुःख-मृत्यु की ओर ले जाता है तो दूसरा उत्थान – सत्य, प्रकाश और सुख-अमरता की ओर l हमें किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए ? उसे हमारे लिए जानना और समझना अति आवश्यक है l


    चेतन कौशल "नूरपुरी"



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    कब तक होती रहेगी राजभाषा की अनदेखी

    राष्ट्रीय भावना – 3

    क्या हिंदी “हिन्द की राजभाषा” को व्यवहारिक रूप में जन साधारण तक पहुँचाने में कोई बाधा आ रही है ? अगर हाँ, तो हम उसे दूर करने में क्या प्रयास कर रहे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना अति आवश्यक है l मुझे भली प्रकार याद है, दिनांक 29 फरवरी 2008 का वह दिन l मैं अपार जन समूह में लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में बैठा हुआ अति प्रसन्न था l हम सब वहां पर आयोजित केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड व सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य अधिकारी व कर्मचारियों की संयुक्त बैठक में भाग लेने गए हुए थे l वहां पर विद्यमान गणमान्य अधिकारीयों की बैठक की अध्यक्षता सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य मंत्री ने की थी l

    सभागार में हर कोई खामोश, कार्रवाई प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था l एकाएक वह शुरू हुई और हमारे कान खड़े हो गये l आरम्भ में, राज्य के सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य मंत्री माननीय रविन्द्र रवि और चिन्मय स्वामी आश्रम, संस्था की निदेशिका डाक्टर क्षमा मैत्रेय के संभाषण से भारतीयता की झलक अवश्य दिखाई दी l दोनों के भाषण हिंदी भाषा में हुए जिनमें देश के गौरव की महक थी l मुझे पूर्ण आशा थी कि भावी कार्रवाई भी इसी प्रकार चलेगी परन्तु विलायती हवा के तीव्र झोंके से रुख बदल गया और देखते ही देखते सभागार से हिंदी भाषा सूखे पत्ते की तरह उड़कर अमुक दिशा में न जाने कहाँ खो गई l जिसका वहां किसी ने पुनः स्मरण तक नहीं किया – जो भी बोला, जिस किसी ने किसी से पूछा या जिसने कहा, सुना – वह मात्र अंग्रेजी भाषा में ही था l

    उस समय मुझे ऐसा लगा मानों हम सब लघु सचिवालय – धर्मशाला की सभागार में नहीं, बल्कि ब्रिटिश संसद में बैठे हुए हैं और कार्रवाई देख रहे हैं, अंतर मात्र इतना था कि हमारे सामने गोरे अंग्रेज नहीं, बल्कि काले अंग्रेज – वो भी स्वदेशी अपने ही भाई थे l वो समाज को बताना चाहते थे कि वे गोरे अंग्रेजों से कहीं ज्यादा बढ़िया अंग्रेजी भाषा बोल और समझ सकते हैं l उनकी अंग्रेजी भाषा, हिंदी भाषा से ज्यादा प्रभावशाली है l अंग्रेजी भाषा में उनका ज्ञान देश की आम जनता आसानी से समझ सकती है l मुझे तो वहां अंग्रेजी साम्राज्य की बू आ रही थी – भले ही वह भारत में कब का समाप्त हो चूका था l

    अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना बुरी बात नहीं है l उसे बोलने से पूर्व देश, स्थान और श्रोता का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी है l वह लघु सचिवालय अपना था l वहां बैठे सब लोग अपने थे फिर भी वहां सबके सामने राजभाषा हिंदी की अवहेलना और अनदेखी हुई l बोलने वाले लोग हिंदी बोलना भूल गए और जग जान गया कि सचिवालय में राजभाषा हिंदी का कितना प्रयोग होता है और उसे कितना सम्मान दिया जाता है ?

    ऐसा लगा मानों मिन्नी सचिवालय में मात्र दो महानुभावों को छोड़कर अन्य किसी को हिंदी या स्थानीय भाषा आती ही नहीं है l हाँ, वे सब पाश्चात्य शिक्षा की भट्टी में तपे हुए अंग्रेजी भाषा के मंजे हुए अच्छे प्रवक्ता अवश्य थे l वे अंग्रेजी भाषा भूलने वाले नहीं थे क्योंकि उन्होंने गोरे अंग्रेजों द्वारा विरासत में प्रदत अंग्रेजी भाषा का परित्याग करके उसका अपमान नहीं करना था l वे हिंदी भाषा बोल सकते थे पर उन्होंने सचिवालय में राजभाषा हिंदी का प्रयोग करके सम्मानित नहीं किया, कहीं गोरे अंग्रेज उनसे नाराज हो जाते तो ——!

    भारत या उसके किसी राज्य का, चाहे कोई लघु सचिवालय हो या बड़ा, राज्यसभा हो या लोक सभा अथवा न्याय पालिका वहां पर प्रयोग होने वाली सम्मानित राजभाषा हिंदी में किसी भी जनहित की कार्रवाई, बातचीत अथवा संभाषण के अपरिवर्तित मुख्य अंश मात्र उससे संबंधित विभागीय कार्यालय या अधिकारी तक सीमित न होकर ससम्मान राष्ट्र की विभिन्न स्थानीय भाषाओँ में, उचित माध्यमों द्वारा जन साधारण वर्ग तक पहुँचाना अति आवश्यक है l उनमें पारदर्शिता हो ताकि जन साधारण वर्ग भी उनमें सहभागीदार बन सके और सम्मान सहित जी सके l उसके द्वारा प्रदत योगदान से क्या राष्ट्र का नव निर्माण नहीं हो सकता ? उसका लोकतंत्र में सक्रीय योगदान सुनिश्चित होना चाहिए जो उसका अपना अधिकार है l इससे वह दुनियां को बता सकता है कि भारत उसका भी अपना देश है l वह उसकी रक्षा करने में कभी किसी से पीछे रहने वाला नहीं है l 

    प्रकाशित 9 नवंबर 2008 दैनिक कश्मीर टाइम्स