मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: धर्म अध्यात्म संस्कृति -आलेख

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    आस्था की दहलीज पर

    धर्म अध्यात्म संस्कृति – 1

    हमारे देश में ऐसे अनेकों धार्मिक व तीर्थ स्थल हैं जिनके साथ हमारी पवित्र आस्थाएं जुड़ी हुई हैं l हम वहां अपनी किसी न किसी कामना सहित देव दर्शनार्थ जाते हैं और अपनी कामना पूरी होने पर उन्हें श्रद्धा सुमन भी अर्पित करते हैं l इससे हमें मानसिक शांति मिलती है l 

    पर दुर्भाग्य से इन्हीं धार्मिक व तीर्थ स्थलों पर समाज विरोधी तत्वों का साम्राज्य स्थापित हो गया है l मंदिर परिसरों में भारी भीड़, महिलाओं से छेड़-छाड़, दुर्व्यवहार, उनके कीमती जेवरों का छिना जाना और पुरुषों की जेब तक कट जाना प्रतिदिन एक गंभीर समस्या बनती जा रही है l ऐसा व्रत-त्योहार व मेलों में होता है l

    इस समस्या से निपटने के लिए आवश्यक है कि मंदिर प्रशासन और मेला आयोजकों के कार्यक्रमों को सुव्यवस्थित व अनुशासित बनाने के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं को भी आगे आने का सुअवसर दिया जाये l उन्हें प्रशासन की ओर से पूर्ण सहयोग मिले ताकि हमारे मंदिर और तीर्थ स्थान आस्था के केंद्र बने रहें और श्रद्धालु, भक्त जनों को वहां सदा भय एवम् तनाव मुक्त वातावरण मिल सके l पंजाब से सीखना चाहिए कि इन स्थलों की शुचिता कैसे बनाये रखी जाती है l

    प्रकाशित  1 जुलाई 2007 दैनिक जागरण

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    सुख – शान्ति कैसे प्राप्त करें

    हमारा जीवन जितना अल्पायु का है उससे कई गुणा बढ़कर कामनाओं की उसमें अधिकता रहती है l हमारा मन किसी न किसी इच्छा का शिकार बना रहता है l भले ही वह कोई नर हो या नारी उनके जीवन में कोई न कोई रोग, शोक या व्याधि देखने को अवश्य मिल जाती है l मनुष्य की अपनी समस्त इच्छाएं अपनी विविधताओं के कारण कभी पूरी नहीं होती हैं l उनके फल विभिन्न हैं l 
    प्राचीन आचार्यों के अनुसार – सुखी मानव जीवन के मुख्यतः चार फल हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष l इनसे मानव जीवन का गहरा संबंध है l भले ही यह सब मानव जाति का भला करने में सक्षम हैं पर आज के युग में वे नीरस और उपेक्षित हो गये हैं l कारण है – अज्ञानता, और भ्रष्टाचार की सर्वव्यापकता l धर्मयापन में बाधा साम्प्रदायिकता, गुटबंदी है तो अर्थ उपार्जन में बे - इमानी, काम में अविवेक है तो मोक्ष में मैं, मैंने की भावना l
     सब नर – नारी सुख चाहते हैं l वह शांति पाना चाहते हैं l वे चाहते हैं कि उन्हें मिलने वाला सुख तथा शांति एक ही बार एक साथ मिल जाये l पर यह एक ऐसी अनहोनी अपूर्ण इच्छा और कामना भी है कि जिसे पूरा करने के लिए उनका जीवन बहुत छोटा पड़ जाता है l अनुचित ढंग से आयु भर प्रयत्न करने पर भी वह जो कुछ उन्हें प्राप्त होता है – वे कभी उससे तृप्त और संतुष्ट नहीं हो पाते हैं l उन्हें सदा अशांति और निराशा ही देखने को मिलती है l 
    परन्तु सृष्टि में कुछ ऐसे भी विवेकशील महानुभाव विद्यमान हैं, जिन्होंने सुख तथा शान्ति पाने के परम उद्देश्य की दृष्टि से प्रकृति को मुख्यता दो भागों - जड़ तथा चेतन में विभक्त कर दिया है l जड़ प्रकृति में भौतिक शरीर और चेतन प्रकृति में अमर आत्मा विद्यमान है l 
    जड़ प्रकृति में धरती, आकाश, जल, वायु, अग्नि, बुद्धि और मैं या मैंने का भाव आते हैं जो प्रायः नश्वर हैं l इस प्रकृति में रोग, हर्ष, शोक, पीड़ा, भूख, प्यास, दुःख-सुख, लाभ और हानि जैसे अनेकों प्रकार के कष्ट पाये जाते हैं l अज्ञानी, भोगी, आलसी और निराशावादी ही नर-नारी इस प्रकृति से प्रभावित होते हैं l 
    परन्तु विवेकशील आशावादी नर-नारी अपने कठोर शरीर-श्रम, सन्तुलित भोजन, खेलकूद, भ्रमण, उचित लोक व्यवहार, स्वाध्याय, व्यायाम, योगाभ्यास, समय सदुपयोग, नियमित कार्य, ऋतू अनुसार वस्तु प्रयोग, कर्तव्य पालना, अनुशासन, सयंम और सादगी भरे सुव्यवस्थित जीवन से जड़ प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेते हैं l जड़ प्रकृति में होने वाली किसी भी घटना का उनके मन पर दुष्प्रभाव  नहीं पड़ता है l उनकी ज्ञान ज्योति निरंतर अचल और दीप्तमान बनी रहती है
    मानव शरीर में चेतन तत्व का अस्तित्व है जिससे वह सजीव या प्राण वाला होता है तथा चलता-फिरता, देखता-सुनता, खाता-पीता और बातें भी करता है l चेतन तत्व सर्व सुखदायक और दैवी गुण सम्पन्न है जिनका वही नर-नारी साक्षात् कर सकते हैं जो वास्तविक सुख तथा शांति की खोज में साधनारत रहने का दृढ़ निश्चय किये हुए हैं l साधनारत रहने से साधक के मन से संसारिक विषयक वस्तुओं के प्रति भोग-सुख की इच्छा, चिंता समाप्त हो जाती है और उसका आत्मा परमात्मा से दूध में घी समान मिलने के लिए तड़प उठता है और उसकी समाधि भी लग जाती है l 
    जब मनुष्य में चेतना जागृत हो जाती है तो शरीर से आलस्य स्वयं ही भाग जाता है l उसमें एक अद्भुत सी स्फूर्ति आ जाती है l ऐसे महान पुरुषों का प्रत्येक कार्य दूसरों के लिए प्रेरणादायक बन जाता है l भोगी पुरुष उसे अवतारी पुरुष भी कहते हैं जो उनकी मंद बुद्धि और अज्ञानता की उपज होती है l सत्य तो यह है कि कोई भी साहसी और कर्मवीर पुरुष मात्र पुरुषार्थ करके वैसा बन सकता है l
    समय या असमय पर इन्द्रियां, मन और बुद्धि भी संसारिक पदार्थों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहती हैं जिन्हें भ्रष्ट-पथ से सन्मार्ग पर लाने के लिए मनुष्य को अभ्यास या वैराग्य के द्वारा आत्मशान्ति या वास्तविक सुख का मार्ग अपनाना होता है l उसे निरंतर साधना करनी होती है l इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि का संसारिक विषयों में आसक्त हो जाने पर कोई भी आत्मा जड़ प्रकृति के अधीन कैदी के रूप में रहता है जो उसके अपने स्वभाव के विपरीत होता है l वह उस पराधीनता से मुक्त होने के लिए निरंतर सटपटाता रहता है l उसकी मुक्ति मात्र विवेकशील, कर्मनिष्ठ मनुष्य की निरंतर साधना और निराभिमान से संभव होती है l भोगी और आलसी तो हर प्रकार से क्षीण होकर संसारिक नश्वर शरीर में बार-बार जन्म और मृत्यु को ही प्राप्त होता है और कष्ट पाता है l 
    सृष्टि में बार-बार आवागमन को प्राप्त होना बुद्धिमानों का कार्य नहीं है और न ही यह उन्हें शोभा ही देता है l बुद्धिमान और साहसी तो वह है जिसकी इन्द्रियों में शक्ति है, मन पवित्र है, बुद्धि  विलक्षण है और आत्मा भी उदार है l
    कर्मशील, कर्मयोगी पुरुष के लिए ज्ञान युक्त जड़ प्रकृति संसार से ज्ञान प्राप्त करके अपने मन द्वारा उसका त्याग करना अति आवश्यक है l जो नर-नारी जड़ प्रकृति का त्याग नहीं करते हैं, उसमें लिप्त रहते हैं, वास्तव में वह सुख व शान्ति पाने से विमुख रह जाते हैं l इसके पीछे उनके मन की संसार के प्रति बनी आसक्ति होती है l अगर इस स्थान पर वह संसारिक विषयक पदार्थों का भोग किये बिना मुक्ति-पथ पर चलना आरम्भ कर देते हैं तब भी उनकी यात्रा संदेहास्पद की रहती है l उसमें इस का भय बना रहता है कि कहीं कभी अचानक उनके मन में संसारिक पदार्थों के सुख के प्रति भोग की इच्छा न पैदा हो जाये l जब कभी इस त्रुटि पूर्ण जीवन को लिए हुए, कोई भी नर-नारी मुक्ति–मार्ग पर चलते हुए संसारिक पदार्थों के रसास्वादन हेतु लालायत हो जाते हैं l तभी वह विषयासक्त ढोंगी कहे जाते हैं l इसलिए आवश्यक है कि संसार की हर वस्तु का आयु और समयानुसार भोग करना तथा अनुभवी होकर पवित्र मन द्वारा अध्यात्मिक पुरुष हो जाना l इससे कोई भी साधक अपनी डगर से विचलित नहीं होगा l क्योंकि मानसिक लालसा–इच्छा का त्याग ही सब प्रकार के किये जाने वाले त्यागों में सर्व श्रेष्ठ त्याग है l
    जड़-चेतन दो प्रकृतियों को मिलाने से एक नदी बनती है तो संसारिक तथा ईश्वरीय सुख उस नदी के दो किनारे भी हैं जिनके बीच में त्याग रूपी तीव्र धारा बहती है l आप एक समय में जिज्ञासु अथवा भोगी के नाते मात्र संसारिक सुख पा सकते हैं या मोक्ष ही प्राप्त कर सकते हैं संसारिक भोग करते हुए आप मोक्ष के बारे में मात्र सोच ही सकते हैं l आपके द्वारा उसे प्राप्त किया जाना तो तभी संभव हो सकता है जब आप अपने प्राणों की भी चिंता न करते हुए नाव रूपी निश्चय से नदी की त्याग रूपी तेज धारा में देह-मोह छोडकर कूद न जाये l अगर इस नाजुक समय में आपके हृदय में तनिक सी भी विषयासक्ति रह जाती है तो आप अपने कार्य में सफल नहीं हो सकते l
    वास्तव में ऐसे ही समय पर किसी मनुष्य के विवेक और सयंम की कड़ी परीक्षा होती है l इसलिए आवश्यक है कि वह पहले ही पूर्ण आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय के साथ उस परीक्षा में बैठे और उतीर्ण भी हो l
    इन जड़ और चेतन प्रकृतियों में मनुष्य को दो स्वरूप देखने को मिलते हैं – नामधारी और निराकार l नामधारियों में राम, शाम, शीला, गीता आदि किसी देहधारी का नाम होता है जबकि निराकार स्वयं ज्योति स्वरूप आत्मा या परमात्मा ही होता है l 
    वास्तविक सुख तथा शांति के उद्देश्य को मद्द्ये नजर रखते हुए जड़ प्रकृति देह का सदुपयोग करना अति आवश्यक है l जिससे कि वह प्राकृतिक कष्टों, विपदाओं, वाधाओं ओर जीवन चुनौतियों से भयभीत न हो बल्कि उनसे डटकर सामना कर सकने की शक्ति संपन्न बने l इस कार्य को करने में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष साधन मात्र हैं l 
    विशेष प्रकार की क्रियाओं, साधनों, सदाचार पालन के द्वारा अपनी इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि का भी सयंमन करने के साथ-साथ आत्मा पर भी पूर्ण नियंत्रण करके स्वयं को ईश्वरीय तत्व में लीन करने की सारी क्रियाएं, धार्मिक हैं l धर्म व्यक्तिगत विषय है जो स्वयं को सुखी करने के साथ-साथ दूसरों को भी सुख प्रदान करता है l इससे इहलोक और परलोक दोनों का सुधार होता है l 
    ब्रह्मचर्य व्रत पालन के साथ-साथ संपूर्ण विद्या प्राप्त कर लेने के पश्चात् शुद्ध अर्थ उपार्जित करते हुए गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके उतनी ही संतान उत्पन्न करना जिससे कि पारिवारिक, वंश, समाज, और राष्ट्र की रक्षा हो सके, शांति भंग न हो, सन्तान का भली प्रकार से लालन-पालन होने के साथ-साथ उसे उच्च शिक्षा भी मिले – वास्तविक अर्थों में “काम” है l
    योग प्राणायाम से आत्म संयमन करते हुए संसारिक मोह ममता, भोग इच्छा, धन संग्रह या लोभ की भावना से रहित ईश्वरीय तत्व का ध्यान करते हुए, लोक मार्गदर्शन करना और बिना कष्ट के अपने प्राणों का समाधि ही में त्याग करना उत्तम मोक्ष है l
    यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सही अर्थ समझ लें और उसके अनुकूल अपना जीवन यापन करें तो निःसंदेह हम वास्तविक सुख तथा शांति प्राप्त कर सकते हैं l

    प्रकाशित 14 नवम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स

    मानव जीवन विकास  – 13


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    साधक मन और साधना

    धर्म-अध्यात्म-संस्कृति – 12

    साधना-प्रगति के अंतिम बिंदु तक पहुँचने के लिए जो जिज्ञासु प्रयत्नशील रहता है, वह कभी थकने या रुकने का नाम नहीं लेता है – साधक कहलाता है l वह भली प्रकार जानता है कि साधना के मार्ग पर फूल कम और कांटे अधिक मिलते हैं l फिर भी जिज्ञासु साधक अपने अदम्य साहस के साथ उन काँटों को अपने पैरों तले रौन्दता हुआ मात्र फूलों को ही चुनता है और अपनी विकास–यात्रा जारी रखता है l इस प्रकार अविलंब प्रयत्न करते हुए एकाएक उसके जीवन में वह भी सुअवसर आ जाता है जब वह विभिन्न प्रकार के फूल एकत्रित करके उन्हें किसी एक मनोहारी माला का स्वरूप प्रदान कर देता है l साधक की साधना साकार हो जाती है l उसे उसकी निश्चित मंजिल मिल जाती है l 

    साधना मार्ग में यह बात सुनिश्चित है कि साधक मन उस समय अपनी रचनात्मक साधना प्रगति–मार्ग से भ्रमित हो जाता है जब उसकी बुद्धि मन के अधीन विषयासक्त होकर उचित निर्णय लेने में असमर्थ हो जाती है l विषय भोगी चंचल मन इच्छा वश होकर इन्द्रिय विषय – शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध का रसास्वादन करने हेतु दौड़ता है, ललायत रहता है l वह इन्द्रिय इच्छापूर्ति का माध्यम बनता है पर अल्पकालिक इन्द्रिय सुख उसके लिए दुःख का कारण बनता है l परिणाम स्वरूप बुद्धि का नाश होता है l साधक की साधना अवरुद्ध होने के कारण, आगे नहीं बढ़ पाती है l साधक पूर्णता प्राप्त करने से वंचित रह जाता है l इसी कारण इन्द्रिय विषय अल्पकालिक सुख देने वाले, साधना-मार्ग के शत्रु होते हैं l श्रीकृष्ण जी के कथनानुसार – “साधक को अपना मन अभ्यास या वैराग्य के द्वारा सयंत करके उसे सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय नीति के अंतर्गत रचनात्मक कार्यों में समर्पित करना चाहिए l”

    पांच ज्ञानेंद्रियाँ – त्वचा, रसना, आँख, कान और नाक स्पर्श करना, रस चखना, रूप देखना, शब्द सुनना, गंध सूंघना और पांच कर्मेन्द्रियाँ – हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर कर्म करना, भोजन करना, जनन, मल विच्छेदन, तथा चलना अपने स्वाभाविक गुणानुकुल कार्य करती हैं l इन्द्रियों का समयबद्ध अनुशासित और सयंत करके साधक पुरुष उन्हें बुद्धि द्वारा, अपने जीवन के प्रगति–पथ पर जीवन का निश्चित लक्ष्य पाने के लिए रचनात्मक कार्यों में लगाता है l इससे उसकी हर प्रकार की प्रगति होने के साथ-साथ उसे पूर्णता भी प्राप्त होती  है

    कोई भी साधक पुरुष शरीर रूपी मकान को अंदर की अपेक्षा उसके बाहरी सौन्दर्य को निखारने में बिना कारण अपनी शारीरिक शक्ति, अमूल्य समय और धन कभी नष्ट नहीं करता है l वह दैवी गुणों से विमुख नहीं रहता है l वह नित गुरु की देख-रेख में, उनके मार्ग-दर्शन और आदेशानुसार अपने दैवी गुणों की सतत वृद्धि ही करता है l इनका सदुपयोग करने से उसका अपना तो भला होता है, साथ ही साथ दूसरों का भी भला होता है परन्तु दुरूपयोग करने से सबको पीड़ा और दुःख ही मिलते हैं l  जो साधक पुरुष मान्यवर गुरु की उपेक्षा करते हैं, उनकी उन्नति पर ईर्ष्या करते हैं और उनसे अधिक स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं – वे अपने जीवन में विकास अथवा लाभ पाने के नाम पर पतन-हानि ही पाते हैं l कायर, आलसी, और चापलूस साधक पुरुष की साधना कभी साकार नहीं होती है l

    साधक पुरुष प्रायः सयंमित, शांत, त्यागी, समद्रष्टा, विनम्र और अनुशासित होता है l वह अध्यात्मिक तथा भौतिक प्रगति में संतुलन बनाये रखता है l वह मानसिक विकारों के वेगों के प्रति सदैव सचेत रहता है l वह जानता है कि मानसिक विकारों के वेग उसकी उन्नति में वाधक हैं l जो प्रगति की उंचाई की ओर बढ़ते हुए उसके क़दमों को लड़खड़ा देते हैं l परिणाम स्वरूप साधक का पतन होना आरम्भ हो जाता है l 

    इसलिए पति-पत्नी के अतिरिक्त पराये नर-नारी का चिंतन-मनन, दर्शन और संग करना जैसे आचार-व्यवहारों से न केवल काम वासना जागृत होती है, बल्कि वह और अधिक बढ़ती है  l इससे समाज में माँ, बहन, बहु, बेटी भरजाई और उनके समान अन्य की भी मान-मर्यादा नष्ट होती है l साधक पुरुष मान-मर्यादा के रक्षक होते हैं, भक्षक नहीं l वह ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जिनसे समाज में अपहरण, बलात्कार, देह प्रदर्शन, देह व्यपार, और गुंडागर्दी को बढ़ावा मिलता हो l वह स्वयं तो सयमित रहते हैं, समय-समय पर दूसरों को भी सावधान करते रहते हैं l

    छोटी-छोटी बातों के पीछे बौखला जाना, अपशब्द कहना और लड़ाई-झगड़े करना जैसे आचार-व्यवहार क्रोध के ही विभिन्न रूप हैं l यह सब क्रोध को बढ़ावा देते हैं l विकराल रूप न धारण हो, इसी बात का ध्यान रखते हुए साधक पुरुषों के द्वारा शांतभाव  में गंभीर से गंभीर समस्या का हल ढूँढना होता है l क्रोध किसी समस्या का हल नहीं है l साधक द्वारा क्रोध करने की आवश्यकता आ भी पड़े तो वह ज्ञान, कर्तव्य, नीति, और न्याय संगत होता है l इनके बिना किया गया क्रोध किसी को लाभा न्वित करने के स्थान पर हानि ही पहुंचाता है l

    अपने लिए अपनी आवश्यकता से अधिक चल-अचल धन-संपदा, अन्न, वस्त्र का उत्पादन निर्माण, संग्रहण करना और उन पर मात्र अपना एकाधिकार जताना जैसे अचार-व्यवहार व्यक्तिगत स्वार्थ और लोभ ही के स्वरूप हैं l साधक पुरुष असंग्रही, बुद्धिमान, सदाचारी, न्यायप्रिय और कर्तव्य-परायण होते हैं l वह स्वयं उदाहरण बनकर, दूसरों को भी वैसा ही बनने का मार्ग प्रशस्त करते हैं l इससे चारों ओर प्रसन्नता, प्रेम और सुख-समृद्धि देखने को मिलती है l

    नशा–धुम्रपान जान-बुझकर मौत के कुएं में छलांग लगाने के समान है l इससे तन, मन, धन, और स्वयं का नाश होता है l तन के जर-जर हो जाने पर, उसे कई प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है l नशा–धुम्रपान करने वाले पुरुष की बुद्धि का नाश हो जाता है l उसकी विचार करने की शक्ति नष्ट हो जाती है l उसे आर्थिक संकट घेर लेता है l साधक पुरुष ऐसा करने से दूर रहते हैं और दूसरों को इस संकट से सावधान भी करते हैं l

    साधक पुरुष सृष्टि में – पति-पत्नी, संतान, धन-संपदा, सुख-सुविधा, पद, वेतन, सत्ता सुख को ही अपना सब कुछ नहीं मानते हैं l यह सब उन्हें भौतिक सुख तो दे सकते हैं पर आत्मिक शांति नहीं l साधक पुरुष को भौतिक सुख के साथ-साथ अध्यात्मिक सुख की भी आवश्यकता होती है l साधक पुरुष ऐसे आचार-व्यवहार जिनसे अशांति होने का भय या संदेह हो, उनमें अपने मन से कभी आसक्त नहीं होते हैं बल्कि निज मन को अभ्यास और वैराग्य के अंतर्गत उसे अध्यात्मिक उन्नति की साधना में व्यस्त रखते हैं l इससे उन्हें आत्मिक सुख और आनंद मिलता है l

    मैं और मैंने शब्दों का बात-बात पर उच्चारण, व्यवहार में प्रदर्शन करना ही अहंकारी पुरुष का अहंकार है l उसमें अपने से बड़ों के प्रति सम्मान की भावना का आभाव रहता है l वह छोटों के प्रति अप्रिय होता है l साधक पुरुष विनम्र होते हैं l विनम्रता के कारण वह सबको प्रिय होते हैं l विनम्रता ही मैं और मैने के अहंकारी भावों का अस्तित्व मिटाती है l उससे आत्मसमर्पण का भाव जागृत होता है तथा आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है जिससे साधक पुरुष के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है l

    साधक पुरुष साधना में मग्न रहकर मानवता ही की सेवा करते हैं और समय-समय पर वे समाज तथा प्रशासन के द्वारा सम्मानित भी होते हैं l साधक पुरुषों का सुख-दुःख सबका अपना सुख-दुःख बन जाता है l साधक साधना से दूसरों को अपना बना लेते हैं l उनकी चिंता सभी करते हैं l वह हर मन प्यारे बन जाते हैं l सारा संसार उनका अपना घर होता है और वे होते हैं, विश्व परिवार के सदस्य – विश्व बंधू l

    साधक पुरुष सबको एक ही परमात्मा की संतान मानते हैं, देखते हैं, सुनते हैं, बोलते हैं और सबके लिए प्रिय ही कार्य करते हैं l उनका जीवन चिंता मुक्त होता है l वास्तव में चिंता मुक्त विकसित चिंतनशील मन ही साधक पुरुष के जीवन को सार्थक, पूर्ण, साकार, सफल, आत्मज्ञानी और सुखी-समृद्ध बनाने के साथ-साथ उसे मुक्ति भी प्रदान करता है l

    काश ! ऐसी प्रभु कृपा सभी पर हो l

    प्रकाशित 9 जुलाई 1996 कश्मीर टाइम्स


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    वैदिक वर्ण व्यवस्था का सत्य

    मातृवंदना जुलाई 2017

    इस लेख का मुख्य प्रेरणा-स्रोेत लाला ज्ञान चंद आर्य द्वारा लिखित ”वर्ण व्यवस्था का वैदिक रूप“ पुस्तक है। यह पुस्तक उनका अपने आप में एक हृदय स्पर्शी और अनूठा प्रयास है।
    पुस्तक में दर्शाया गया है - मानव शरीर के अवयव मुख-ब्राह्मण, बाहु-क्षत्रिय, उदर-वैश्य और पैर-शूद्र हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने शरीर से चारों वर्णों का दैनिक कार्य करते हुए ही आर्य है। मानव जाति के पूर्वज आर्य थे। इसलिए समस्त मानव जाति मात्र आर्य पुत्र है। आर्य पुत्र जो कर्म करने के समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं, कार्य करने के पश्चात वे स्वयं आर्य हो जाते हैं। शरीरिक कार्य कर लेने के पश्चात शरीर के अवयव पैर अछूत या घृणित नहीं हो जाते हैं और न ही उन्हें कभी शरीर से अलग ही किया जा सकता है। वैदिक शूद्र शिल्पकार या इंजिनियर भी अछूत या घृणित नहीं हो सकता। मुख, भुजा, पेट, या पैर में किसी एक अवयव की पीड़ा संपूर्ण शरीर के लिए कष्टदायी होती है। वर्ण व्यवस्था में किसी एक वर्ण का कष्ट समस्त समाज के लिए असहनीय है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण कर्ममूलक हैं, जन्ममूलक नहीं। समाज में सभी आर्य एक समान हैं। उनमें कोई ऊँच-नीच अथवा छूत-अछूत नहीं है।
    आर्य वेद मानते हैं। वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते हैं। आर्य वही है जोे संकट काल में महिला, बच्चे, वृद्ध और असहाय की जान माल की रक्षा करते हैं, सुरक्षा बनाए रखते हैं। ब्राह्मण वर्ण शेष तीनों वर्णों का पथ प्रदर्शक गुरु और शिक्षक है। वह उन्हेें ज्ञान प्रदान करता है। क्षत्रिय वर्ण शेष तीनों वर्णों की रक्षा करके उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करता है। वैश्य वर्ण शेष तीनों वर्णों का कृषि-बागवानी, गौपालन, व्यापार से पालन-पोषण करता है। शुद्र वर्ण शेष तीनों वर्णों के लिए श्रमसाध्य शिल्पविद्या, हस्तकला द्वारा भांति-भांति की वस्तुओं का निर्माण, उत्पादन करके सुख सुविधा प्रदान करता है।
    समाज मेें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कर्मगत चार प्रमुख वर्ण हैं। वर्ण व्यवस्था में मनुष्य की जाति मानव है। जैसे गाय जाति को भैंस या भैंस जाति को कभी बकरी नहीं बनाया जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य जाति को किसी अन्य जाति का नहीं कहा जा सकता।
    वर्ण व्यवस्था में एक व्यसक लड़की को अपना मनपसंद का वर चुनने का पूर्ण अधिकार है। जो उसे पसंद होने के साथ-साथ उसके योग्य होता है। लोभ से ग्रस्त, भ्रष्टचित होकर विपरीत वर्ण में विवाह करने से वर्णसंकर पैदा होते हैं, हो रहे हैं। जिससे सनातन कुल, वर्ण-धर्म का नाश होता है, हो रहा है। आत्मपतन होने के साथ-साथ समाज में पापाचार और व्यभिचार बढ़ता है, बढ़ रहा है।
    वर्ण व्यवस्था में मानव जीवन के कल्यााणार्थ चार प्रमुख आश्रम हैं - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और सन्यासाश्रम। वर्ण व्यवस्था के चारों आश्रमों मेें वेद सम्मत कार्य किए जाते हैं। ब्रह्मचर्याश्रम में गुरु विद्यार्थी को वैदिक शिक्षा प्रदान करता है। गृहस्थाश्रम में विवाह, संतानोत्पति, संतान का पालन-पोषण, शिक्षा और व्यवसाय आदि कार्य होते हैं। वानप्रस्थाश्रम में आत्मसुधार तथा ईश्वरीय तत्व का चिंतन मनन होता है और सन्यासाश्रम में जन कल्याणार्थ हितोपदेश दिया जाता है।
    ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी किसी गृहस्थाश्रम में जाकर अपने खाने के लिए भीक्षाटन करते हैं, न कि वे खाने के लिए जीते हैं। वे गृहस्थ के कल्याणार्थ गृहस्थियों को उपदेश देते हैं।
    ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी का जीवन सदाचारी, सयंमी, जप, तप, ध्यान करने वाला होने के कारण गृहस्थाश्रम पर निर्भर रहता है। वे ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जिससे गृहस्थी को किसी प्रकार का कष्ट या उसकी कोई हानि हो।
    वर्ण व्यवस्था में सबके लिए कार्य करना, सबका अपने-अपने कार्य में व्यस्त रहना, आपस में मेल मिलाप रखना, आपसी हित-चिंतन, आवश्यकता पूर्ति, पालन-पोषण, रक्षण, एक दूसरे का सम्मान करना, प्रेम स्नेह रखना, महत्व समझना, ऊँँच-नीच रहित स्वरूप, अधिकार, कर्तव्य और सहयोग को बढ़ावा देना अनिवार्य है। वेद सम्मत किया जाने वाला कोई भी कार्य जन कल्याणकारी होता है। उससे लोक भलाई होती है।
    वर्ण व्यवस्था गृहस्थाश्रम के लिए उपयोगी है। वह उसकी हर आवश्यकता पूरी करती है। वर्णों के कर्म गुण, संस्कार और स्वभाव अनुसार विभिन्न होते हैं। ब्राह्मण सहनशील और ज्ञानवान होेेेता है तो क्षत्रिय विवेकशील तथा शूरवीर। वैश्य धनवान, मृदुभाषी और बुद्धिमान होता है तो शूद्र विद्वान शिल्पकार और कर्मशील। एक वर्ण ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता है जिससे दूसरे वर्ण को कष्ट अथवा उसकी किसी प्रकार की हानि हो। वर्णों का मूलाधार कर्मगत उनका अपना कार्यकौशल और सदाचार है। चारों वर्ण अपने-अपने गुण संस्कार और स्वभाव से जाने जाते हैं। ब्राह्मण तात्विक ज्ञान से जाना जाता है तो क्षत्रिय बल-पराक्रम से। वैश्य धर्म कर्तव्य-परायणता से जाना जाता है तो शूद्र शिल्प-कला और कार्य-कौशल से। वर्णों में किसी एक वर्ण का दुःख तीनों वर्णों के लिए अपना दुःख होता है। मानों पैर में कोई कांटा लगा हो और हृदय, मष्तिष्क तथा हाथ उसे निकालने के लिए व्याकुल एवं तत्पर हो गए हों। समाज में मां-बाप तथा गुरु का स्थान सर्वोपरि है, वंदनीय है। जो बच्चे या विद्यार्थी उनका अपमान, निरादर या तिरस्कार करते हैं - वे दंडनीय हैं।
    शिल्पकार शूद्र वर्ण भी उतना ही अधिक आदरणीय है जितना कि ज्ञानदाता ब्राह्मण वर्ण। शिल्पकार शूद्र वर्ण, ब्राह्मण वर्ण की तरह अपने कार्य में विद्वान होता है। समाज मेें मानव जाति को जाति, धर्म, लिंग, ऊँच-नीच भेदभाव उत्पन्न करके बांटना वेद विरुद्ध अपराध है। यज्ञ - श्रेष्ठ कार्य से हीन, मनन पूर्वक कार्य न करने वाला, व्रतों - अहिंसा, सत्य आदि मर्यादाओं के अनुष्ठान से पृथक रहने वाला, जिसमें मनुष्यत्व न हो, वह दस्यु, अपराधी है। दस्यु व अपराधी भी आर्य बन जाते हैं, जब वे वेद मानते हैं और वेद सम्मत कार्य करते हैं। आर्य भी दस्यु या अपराधी बन जाते हैं, जब वे वेद मानना भूल जाते हैं और वेद सम्मत कार्य नहीं करते हैं। दस्यु या अपराधी - वेद नहीं मानते हैं। वे वेद विरुद्ध कार्य करते हैं। समाज में जातियां उपजातियां उन लोगों की देन है जो वेद नहीं मानते थे। जो दम्भी, स्वार्थी एवं अहंकारी थे और जो इस समय उनका अनुसरण भी कर रहे हैं।
    पूर्व में स्थित हिमालय और उससे उत्पन्न गंगा, जमुना, कृष्णा, सरस्वती, नर्वदा, कावेरी, गोदावरी और सिंधु जिस भू भाग से होकर बहती हैं, वह क्षेत्र आर्यवर्त है। जिस देश में नारी को नर की शक्ति, उसकी अद्र्धांगिनी और जग जननी मां मानने के साथ-साथ उसे पूर्ण सम्मान भी दिया जाता है, उस राष्ट्र को आर्यवर्त कहते हैं।
    आचार्य चाणक्य के अनुसार - ”जिसके पास विद्या नहीं है, न तप है, न कभी उसने दान ही किया है, न उसमें कोई गुण है और न धर्म, न उसके पास शीतलता ही है - वह मनुष्य इस मृत्युलोक में उस मृग के समान भार मात्र है जो पूरा दिन घास खाने के अतिरिंक्त और कुछ नही करता है।“


  • मानवी उर्जा – ब्रह्मचर्य
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    मानवी उर्जा – ब्रह्मचर्य

    विद्यार्थी जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया है। इस काल में विद्यार्थी गुरु जी के सान्निध्य में रह कर समस्त विद्याओं का सृजन, संवर्धन और संरक्षण करके स्वयं अपार शक्तियों का स्वामी बनता है। सफल विद्यार्थी बनने के लिए विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य या मानवी उर्जा का महत्व समझना अति अवष्यक है। ब्रह्मचर्य के गुण विद्यार्थी को सदैव ऊध्र्वगति प्रदान करते हैं।
    1- ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इंद्रियों का संयम।
    2- ब्रह्मचर्य बुद्धि का प्रकाश  है।
    3- ब्रह्मचर्य नैतिक जीवन की नींव है।
    4- सफलता की पहली शर्त है – ब्रह्मचर्य।
    5- चारों वेदों में ब्रह्मचर्य जीवन ही श्रेष्ठ  जीवन है।
    6- ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण सौभाग्य का कारण है।
    7- ब्रह्मचर्य व्रत आध्यात्मिक उन्नति का पहला कदम है।
    8- ब्रह्मचर्य मानव कल्याण एवं उन्नति का दिव्य पथ है।
    9- अच्छे चरित्र का निर्माण करने में ब्रह्मचर्य का मौलिक स्थान है।
    10- ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण शक्तियों का भंडार है।
    11- ब्रह्मचर्य ही सर्व श्रेष्ठ  ज्ञान है।
    12- ब्रह्मचर्य ही सर्व श्रेष्ठ धर्म है।
    13- सभी साधनों का साधन ब्रह्मचर्य है।
    14- ब्रह्मचर्य मन की नियन्त्रित अवस्था है।
    15- ब्रह्मचर्य योग के उच्च शिखर पर पहुंचाने की सर्व श्रेष्ठ सोपान है।
    16- ब्रह्मचर्य स्वस्थ जीवन का ठोस आधार है।
    17- गृहस्थ जीवन में ऋतु के अनुकूल सहवास करना भी ब्रह्मचर्य है।
    ब्रह्मचर्य से मानव जीवन आनन्दमय हो जाता है।
    1- प्राणायाम से मन, इंद्रियां पवित्र एवं स्थिर रहती हैं।
    2- ब्रह्मचर्य से अपार शक्ति प्राप्त होती है।
    3- ब्रह्मचर्य से हमारा आज सुधरता है।
    4- ब्रह्मचर्य में शरीर, मन व आत्मा का संरक्षण होता है।
    5- ब्रह्मचर्य से बुद्धि सात्विक बनती है।
    6- ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की आत्म स्वरूप में स्थिति हो जाती है।
    7- ब्रह्मचर्य से आयु, तेज, बुद्धि व यश  मिलता है।
    8- ब्रह्मचारी का शरीर आत्मिक प्रकाश  से स्वतः दीप्तमान रहता है।
    9- ब्रह्मचारी अजीवन निरोग एवं आनन्दित रहता है।
    10- ब्रह्मचारी स्वभाव से सन्यासी होता है।
    11- ब्रह्मचारी अपनी संचित मानवी उर्जा – ब्रह्मचर्य को जन सेवा एवं जग भलाई के कार्यों में लगाता है।
    दोष  सदैव अधोगति प्रदान करते हैं इसलिए ब्रह्मचारी की उनसे सावधान रहने में ही अपनी भलाई है।
    1- दुर्बल चरित्र वाला व्यक्ति ब्रह्मचर्य पालन में कभी सफल नहीं होता है।
    2- मनोविकार ब्रह्मचर्य को खण्डित करता है।
    3- आलसी व्यक्ति कभी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता।
    4- अति मैथुन शारीरिक शक्ति नष्ट  कर देेता है।
    5- काम से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से बुद्धि भ्रमित होती है।
    6- काम मनुष्य  को रोगी, मन को चंचल तथा विवेक को शून्य बनाता है।
    7- वीर्यनाश  घोर दुर्दशा  का कारण बनता है।
    8- देहाभिमानी ही कामी होता है।
    9- काम विकार का मूल है।
    10- ब्रह्मचर्य के बिना आत्मानुभूति कदापि नहीं होती है।
    11- काम विचार से मस्तिष्क  पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
    12- काम वासना के मस्त हाथी को मात्र बुद्धि के अंकुश  से नियन्त्रित किया जा सकता है।
    13- काम, क्रोध, लोभ नरक के द्वार हैं।
    जनवरी 2010
    मतृवन्दना