मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: धर्म-अध्यात्म-संस्कृति

  • श्रेणी:

    स्थानीय ब्राह्मण सभा पुनर्गठन की आवश्यकता

    दिनांक 22 मार्च 2025

    धर्म और अधर्म - समय सूचक यंत्र की भांति समय वृत्त निरंतर घूम रहा है । परिवर्तन प्रकृति का नियम है । दिन के पश्चात रात और रात के पश्चात दिन का आगमन अवश्य होता है । विश्व में कभी धर्म का राज स्थापित होता है तो कभी अधर्म का । सृष्टि में सत्सनातन धर्म का होना नितांत आवश्यक है । असत्य, अधर्म, अन्याय और दुराचार को अधर्म पसंद करता है लेकिन धर्म नहीं । युद्ध चाहे राम - रावण का हो या महाभारत का, धर्म और अधर्म के महा युद्ध में जीत सदैव धर्म की होती है, अधर्म की नहीं ।
    मानव जाति का पतन और उत्थान - प्राणी जगत में जब एक ओर मनुष्य जाति के मानसिक विकार अपना उग्र रूप धारण करते हैं तो दूसरी ओर उसका बौध्दिक पतन भी अवश्य होता है । काम - कामुकता वश नर के द्वारा स्थान - स्थान पर नारी जाति का अपहरण, बलात्कार, धर्मांतरण किया जाता है, उसका अपमान, शारीरिक - मानसिक शोषण होता है । इससे अब नर जाति भी अछूती नहीं रही है । मदिरा पान से नर - नारी अपना - पराया संबंध भूल जाते हैं । क्रोध में वह झगड़े, मारपीट, करते हैं । वह आतंकी, उग्रवादी, जिहादी बन जाते हैं । वह हिंसा, तोड़फोड़, अग्निकांड करते हैं । लोभ में वह चोरी, ठगी, तस्करी, धन गबन, घोटाले ही नहीं करते हैं, वह छल - कपट, षड्यंत्र भी करते हैं । मोह में वह अपना और अपनों का ही हित चाहते हैं, उससे संबंधित चेष्टायें करते हैं । अहंकार में वह दूसरों को तुच्छ और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं ।
    संगत से भावना और भावना से विचार उत्पन्न होते हैं । विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा और बुरा परिणाम उसका फल - मनुष्य की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है । वह जैसा चाहता है, बन जाता है । पौष्टिक संतुलित भोजन से शरीर, श्रद्धा, प्रेम - भक्ति भाव से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन, समर्पण से उसकी आत्मा को बल मिलता है । इससे मनुष्य के पराक्रम, यश, मान और प्रतिष्ठा का वर्धन होता है । मनुष्य की आयु बढ़ती है । उसके लिए लोक - परलोक का मार्ग प्रशस्त होता है ।
    समर्थ सामाजिक वर्ण व्यवस्था - प्राचीन भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, क्योंकि यह अपने समृद्ध संसाधनों, सत्सनातन धर्म, वैभवशाली संस्कृति और सम्पन्न अर्थ - व्यवस्था के कारण विश्व की सबसे धनी सभ्यताओं में से एक था । इसके पीछे सत्सनातन धर्म का रक्षण – पोषण, संवर्धन करने वाली आर्यवर्त मनीषियों की सर्व कल्याणकारी सोच थी जो कर्म आधारित व्यापक और सशक्त वैश्विक सत्सनातनी सामाजिक वर्ण - व्यवस्था के नाम से जानी गई है । इसके अनुसार मानव शरीर के चार अवयव प्रमुख माने गए हैं । मुख से ब्राह्मण, पेट से वैश्य, बाजुओं से क्षत्रिय और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई, मानी गई है । यह एक दूसरे के पूरक हैं । जिस प्रकार शरीर के चार अवयवों में से किसी एक अवयव के बिना अन्य अवयव का कभी पोषण, रक्षण नहीं हो सकता, उसी प्रकार समाज की वर्ण - व्यवस्था में जो उसके चार अभिन्न वर्ण विभाग हैं - एक दूसरे के पूरक, पोषक और रक्षक भी हैं ।
    सर्व व्यापक सामाजिक वर्ण - व्यवस्था आर्यवर्त काल से सुचारू रूप से चली आ रही है जिसके अंतर्गत वर्ण - व्यवस्था के चार वर्ण विभाग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण अपने - अपने गुण, संस्कार और स्वभाव के अनुसार सबके हित के लिए कर्म करते हुए सुख - शांति का माध्यम बनते थे । उससे राष्ट्र वैभव सम्पन्न और समृद्धशाली बना था । समय के थपेड़ों ने इस कर्म प्रधान वर्ण - व्यवस्था को जातियों में विभक्त कर दिया । उसने उसमें छुआ - छुत वाली गहरी खाई खोद दी है । उसकी मनचाही कहानी गढ़कर, उसे ठेस पहुंचाई है जो किसी नीच सोच का ही परिणाम है । समर्थ सामाजिक वर्ण - व्यवस्था कर्म आधारित, कर्म प्रधान थी, न कि जन्म आधारित या जाति आधारित ।
    ब्राह्मण आचार्य - वह व्यक्ति ब्राह्मण / आचार्य कहलाता था जो वैदिक ज्ञान का सृजन, पोषण, संवर्धन करता था । जो ब्रह्म विद्या का पंडित होता था । जो ईश्वरीय तत्व के ज्ञान का सृजन करता था । जो असत्य, अधर्म, अन्याय और अनाचार के विरूद्ध कलम उठाता था । जो लोगों को जागरूक करता था, उनका मार्ग दर्शन करता था ।
    सत्सनातन धर्म का संवाहक होने के नाते ब्राह्मण / आचार्य समाज में वैदिक ज्ञान - विज्ञान वृद्धि हेतु हर गाँव के विशाल मंदिर में एक गुरुकुल, एक धार्मिक पुस्तकालय, एक गौशाला और एक आयुर्वेदिक चिकित्सालय की स्थापना करते थे । वह सत्सनातन धर्म - संस्कृति, समाज, राष्ट्र की सेवा और रक्षा के प्रति विद्यार्थियों को गुण, संस्कार और स्वभाव अनुसार शिक्षण – प्रशिक्षण देते थे । वह समाज के सभी बच्चों की बिना भेदभाव निशुल्क शिक्षा, चिकित्सा प्रदान करते थे । वह ब्रह्मभाव में स्थिर रहकर शस्त्र - शास्त्र संबंधी सभी विद्याओं से युक्त सर्व कल्याणकारी कार्य करने हेतु विद्यार्थियों को विद्वान्, – ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर और कर्मवीर बनाते थे ।


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

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    जलधारा कराती है शिव लिंगों को स्नान

     

    आलेख – धर्म अध्यात्म संस्कृति दैनिक जागरण 17.5.2006

    देव भूमि हिमाचल प्रदेश में – सुल्याली गाँव तहसील नूरपुर से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है l इसी गाँव में एक कंगर नाला के ठीक उस पर, स्वयम प्रकट हुए आप अनादिनाथ शिव शंकर-भोले नाथ शम्भू जी का प्राचीन मंदिर है जो स्वयं निर्मित एक ठोस पहाड़ी गुफा में है, दर्शनीय स्थल है l

    मान्यता है कि डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर में पीड़ितों की पीड़ा दूर होती है, जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शांत होती है, अर्थार्थियों को उनका मनचाहा भोग-सुख मिलता है और तत्वज्ञान की लालसा रखने वालों को तत्वज्ञान भी प्राप्त होता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा रूप में दृश्यमान होने के कारण उसमें कहीं दूध समान सफेद रंग की जलधाराएँ गिरती दिखाई देती हैं तो कहीं बूंद-बूंद करके टपकता हुआ पानी l इसके नीचे बने असंख्य छोटे-बड़े शिव लिंगों को उनसे हर समय स्नान प्राप्त होता रहता है l


    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा के ऊपर से कल-कल और छल-छल करके बहने वाली जलधारा की ऊंचाई लगभग 20-25 फुट है l जिस स्थान पर छड़-छड़ की ध्वनि के साथ यह जलधारा गिरती है, स्थानीय लोग अपनी भाषा में उसे छडियाल या गौरीकुंड कहते हैं l यह डिह्बकू भी कहलाता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा की वाएं ओर एक और गुफा है जो स्थानीय जनश्रुति अनुसार कोई भूमिगत मार्ग है l मंदिर गुफा के दाएं ओर उससे कुछ ऊंचाई पर स्थित उसी के समान गहराई की एक अन्य गुफा हा l यहाँ पर गंगा की धारा, शिव जटा से प्रत्यक्ष सी प्रकट होती हुई दिखाई देती है l सुल्याली गाँव और उसके आसपास के कई क्षेत्रों को पिने का शुद्ध पानी यहीं से प्राप्त होता है l


    परम्परा के अनुसार डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में जो भी महात्मा आते हैं, उनकी सेवा में राशन का प्रबंध सुल्याली गाँव के परिवार करते हैं l “बिच्छू काटे पर जहर न चढ़े” यह किसी सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद है या डिह्बकेश्वर महादेव की असीम कृपा ही l


    सुल्याली गाँव में बिच्छू के काटने पर किसी व्यक्ति को जहर नहीं चढ़ता है l जनश्रुति और उनके विश्वास के अनुसार शिवरात्रि को शिव भोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजित रहते हैं तथा यहाँ पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद देते हैं l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”


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    ख़ुशी का पर्व – दीपावली

    आलेख – धर्म अध्यात्म संस्कृति मातृवन्दना अक्तूबर 2019

    वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, और शिशिर विभिन्न ऋतुओं का देश है l वर्षा ऋतु के अंत में जैसे ही शरद ऋतु का आरम्भ होता है उसके साथ ही नवरात्रि – दुर्गा पूजन और रामलीला मंचन भी एक साथ आरम्भ हो जाते हैं l दुर्गा पूजन एवं राम लीला मंचन का नववें दिन समाप्त हो जाने के पश्चात् दसवें दिन विजय दसवीं को दशहरा मनाया जाता है l भारतीय परम्परा के अनुसार विजय दसवीं का पर्व लंकापति रावण (बुराई) पर भगवान श्रीराम (अच्छाई) के द्वारा विजय का प्रतीक माना जाता है l यह पर्व श्रीराम का रावण पर विजय पाने के पश्चात् अयोध्या आगमन की ख़ुशी में उनका हर घर में दीपमाला जलाकर स्वागत किया जाता है l

    धर्म परायण, ईश्वर भक्त और अपने कर्तव्यों के प्रति सदैव जागरूक रहने वाला मनुष्य अपने जीवन में दीपावली को सार्थक कर सकता है l


    सार्थक दीपावली
    नगर देखो ! सबने दीप जलाये हैं
    द्वार-द्वार पर, घर आने की तेरी ख़ुशी में मेरे राम !
    अँधेरा मिटाने, मेरे राम !
    आशा और तृष्णा ने घेरा है मुझको]
    स्वार्थ और घृणा ने दबोचा है मुझको,
    सीता को मुक्ति दिलाने वाले राम !
    विकारों की पाश काटने वाले राम !
    दीप बनकर मैं जलना चाहुँ,
    दीप तो तुम प्रकाशित करोगे, मेरे राम !
    अँधेरा खुद व खुद दूर हो जायेगा,
    हृदय दीप जला दो मेरे राम !
    सार्थक दीपावली हो मेरे मन की,
    घर-घर ऐसे दीप जलें, मेरे राम !
    रहे न कोई अँधेरे में संगी – साथी,
    दुनियां में सबके हो तुम उजागर, मेरे राम !


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

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    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में समरसता

    आलेख – धर्म संस्कृति मातृवन्दना मार्च अप्रैल 2020  

    ऋषि-मुनि, सिद्ध, सन्यासी, साधु-सन्त, महात्मा और परमात्मा के साथ जुड़े माणिकों एवं अलंकारों से सुशोभित, भारत माता के सरताज, देव और वीरभूमि हिमाचल प्रदेश की तराई में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है जिला कांगड़ा, का प्रवेश द्वार नूरपुर, के उत्तर में सहादराबान से सर्पाकार एवं घुमावदार सड़क द्वारा लेतरी, खज्जन, हिंदोरा-घराट, सदवां से घने निर्जन चीड़ के जंगल पार, गांव सिम्बली से होते हुए नूरपुर से लगभग चोदह किलोमीटर के अंतराल पर स्थित है - सुल्याली गांव।

    अपनी हरियाली की अपार सुंदरता एवं स्वच्छता के कारण भारत की देव भूमि हिमाचल प्रदेश विश्व विख्यात है। यहां पर स्थित विभिन्न प्रसिद्ध धार्मिक स्थल देश व विदेश में अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। प्रदेश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में सुल्याली गांव का डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर अथवा प्राकृतिक शिवाला डिह्बकेश्वर धाम अत्यंत सुंदर, शांत तथा रमणीय स्थल है।


    यह प्राकृतिक शिवाला अपने अस्तित्व में कब आया? कोई नहीं जानता है। परंतु यहां विराजित साक्षात देवों के देव महादेव परिवार की गांव सुल्याली में वसने वाले लोगों पर असीम कृपा अवश्य है। लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम व सदभावना कूटकूट कर भरी हुई है।


    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर के स्नानों में स्नान सोमवार की अमावसया, वैसाखी की अमावसया, बुध पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, पितर तर्पण, सावन मास के सोमवारों के स्नान होते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी, शीतला पूजन के साथ-साथ यहां शिवरात्रि हर वर्ष बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है जिसमें हर वर्ण के लोग यथाशक्ति बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।


    यहां पर गृह शांति हेतु हवन करवाये जाते हैं। बच्चों के मुंडन संस्कार होते हैं। यहां मास के हर रविवार को लंगर लगवाने की व्यवस्था भी है जिसमें कोई भी गृहस्थी अपनी इच्छा से यहां की व्यवस्था के अनुसार हवन, संकीर्तन करवाने के साथ-साथ लंगर भी लगवा सकता है।


    भरमौर निवासी गद्दी समुदाय के लोग अंधेरा होने पर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में शिव विवाह जिसे वे अपनी स्थानीय भाषा में नवाला कहते हैं, का हर वर्ष जनवरी मास में आयोजन करते हैं। वे शिव पूजन करके लोक-नृत्य सहित शिव विवाह के भजन गाते हैं। जो देखने योग्य होता है। इसे देखने हेतु यहां पर दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे यहां आए हुए श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते है जिसे लोग सप्रेमपूर्वक प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।


    स्व0 मास्टर गिरीपाल शर्मा जी ने अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नी की याद में पादुका स्थित सुल्याली गांव में शिवरात्रि के दिन इस यज्ञ का शुभारम्भ किया था। जो वहां हर वर्ष किया जाता था। इसे बाद में बंद कर दिया गया और फिर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में आरम्भ कर दिया गया। स्व0 मास्टर हंस राज शर्मा, जी ने सन् 1967.68 ई0 से शिवरात्रि पर्व से लोगों को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। यज्ञ में दाल, चावल, खट्टा, मीठा, मह्दरा आदि बनना आरम्भ हो गया। इससे पूर्व यहां आषाढ़ मास की संक्रांति को चपाती, आम की लाहस तथा माश की दाल बना कर सहभोज करने की प्रथा प्रचलित थी। जिसे ग्रहण करके सभी लोग आनन्द उठाते थे।
    यहां हर वर्ष शिवरात्रि से दो - तीन दिन पूर्व ही उसकी तैयारी होना आरम्भ हो जाती है। शिवरात्रि से एक दिन पूर्व यहां हवन-यज्ञ किया जाता है। रात को भजन कीर्तन होता है और दूसरे दिन सहभोज-भण्डारा किया जाता है जिसका आयोजन एवं समापन बिना किसी भेदभाव से संपूर्ण होता है। इन दिनों डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में बहुत ज्यादा चहल-पहल रहती है। यहां स्थानीय लोग ही नहीं दिल्ली, पंजाब और जम्मू-कश्मीर राज्यों के दूर-दूर से आए हुए श्रद्धालू-भक्त जन भी अपनी-अपनी यथाशक्ति से अन्न, तन, मन और धन द्वारा सेवा कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।


    यहां आने वाले आस्थावान भक्तों पर भोलेनाथ सदा दयावान रहते हैं। जन धारणा के अनुसार शिवरात्रि को शिवभोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजमान रहते हैं तथा यहां पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद भी देते हैं। स्थानीय लोगों की धारणा है कि शिवरात्रि के पश्चात् शिव भोले नाथ सपरिवार, मणिमहेश कैलाश की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।


    शिव भोले नाथ के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाले भक्तजन बारह मास - सर्दी, गर्मी और बरसात में शिव दर्शन और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वे शिवलिंगों को दूध लस्सी से नहलाते हैं तथा उन पर बिल्व-पत्री चढ़ा कर उनकी धूप-दीप, नैवेद्यादि से पूजा अर्चना करके, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।


    साहिल ग्रुप पठानकोट, के सदस्य मिलकर यहां हर वर्ष दिन में पहले सुल्याली बाजार से होते हुए डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर तक संगीत सहित शिवविवाह की मनोरम झांकियां निकालते हैं और फिर देर रात तक शिव विवाह से संबंधित धर्म-सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता रहता है जिसे देखने हेतु दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे वहां आने वाले श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते हैं। लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।


    सुल्याली गांव के आसपास के क्षेत्र से अनेकों महिलाएं डिह्बकेश्वर महादेव परिसर में आकर सोमवार की अमावसया, वैसाखी की बड़ी सोमी अमावसया को पीपल वृक्ष का पूजन करती हैं। इस पूजन में पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमायें की जाती हैं जिसके अंतर्गत फल, चावल व दाल के दाने, द्रब, दक्षिणा, कच्चा सू़त्र की लड़ियां और जोतें सभी गिनती में 108-108 एक समान नग होते हैं। इसके अतिरिक्त सुहागी, वर्तन और कपड़ा भी होता है जो दान किया जाता है। कच्चा सू़त्र की लड़ियों को पीपल वृक्ष के चारों ओर परिक्रमा करके लपेटा जाता है जो देखने योग्य होता है। इस तरह डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में अध्यात्मिकता देखने को मिलती है जो समरसता से परिपूर्ण होती है।

    चेतन कौशल “नूरपुरी”


  • श्रेणी:

    सनातन धर्म

    चेतन विचार -धर्म आस्था अध्यात्म संस्कृति

    # सनातन विरोधी गुट का त्याग करने वाले महानुभावों का हार्दिक अभिनंदन, हमारे लिए सनातन से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं ।*
    चेतन कौशल "नूरपुरी"