मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: विभिन्न आलेख

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    आतताई नहीं, मानवतावादी बनो



    आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दना सितम्बर 2020

    “मनु व्यवस्था का वास्तविक स्वरूप” लेख में डा० बीसी चौहान ने लिखा है l मनुस्मृति के अध्याय 3 के श्लोक 167 और 168 के अनुसार – चारों वर्णों के पितर वैदिक ऋषि थे l ब्राह्मण वर्ण के पितर भृगु ऋषि के पुत्र सोम थे l क्षत्रिय अंगीरा ऋषि के पुत्र हविष्मन्त थे l वैश्य वर्ण के पितर वर्ण के पितर पुलत्स्य ऋषि के पुत्र आज्यप थे l शूद्र वर्ण के पितर वशिष्ठ ऋषि के पुत्र सुकालिन थे l इससे स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के रचनाकार जो ऋषि थे, उनके द्वारा वैदिक ग्रन्थों की संरचना जाति, पंथ, भाषा, व भूगोल को केन्द्रित कर नहीं हुई थी बल्कि समस्त मानव जाति और विश्व के कल्याणार्थ ध्यान में रखकर उनकी रचना की गई थी l

    विश्व में आखंड भारत से कौन अपरिचित है ? वेद अनुसार – विश्व में मात्र एक जाति मानव है, नर-नारी उसके दो रूप हैं l धर्म मानवता है l सत्य की पताका भगवा है l भाषा संस्कृत या देवनागरी है l राज्य सत्य, धर्म, न्याय और नीति के प्रति समर्पित हैं l सत्ता का राज्य के प्रति समर्पण आवश्यक है l राष्ट्र “अखंड भारत” है और विश्व “एक परिवार” है l  

    जिस काल में भारत सोने की चिड़िया के नाम से विश्व विख्यात हुआ था और विश्वगुरु बना था, वह वैदिक काल ही था l लोग प्रकृति से प्रेम किया करते थे l उनके हर हाथ कुछ करने के लिए कोई न कोई कार्य अवश्य मिलता था l लोग कला प्रेमी और मेहनती थे l वे कृषि-बागवानी किया करते थे l वे गौवंश को माता कहना अधिक पसंद करते थे और उसकी सेवा किया करते थे l धरती पर कहीं वर्षा या पीने के लिए जल की और खाने के लिए अन्न, दाल, सब्जी, तिलहन, कंदमूल और फलों की कोई कमी नहीं रहती थी l चारों ओर सुख समृद्धि दिखाई देती थी l 

    इतिहास साक्षी है कि हम शौर्यता-पराक्रम में भी किसी से कभी कम नहीं रहे l हमने किसी पर पहले कभी आक्रमण नहीं किया बल्कि हर बार आक्रमणकारी को मुंहतोड़ उत्तर दिया है l हमसे जब-जब जिसने लड़ने का दुस्साहस किया है, तब-तब उसने हमसे मुंह की खाई है l 

    प्रकृति परिवर्तनशील है l उसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है l हम बहुत से लोगों का सोचने का ढंग बदल गया है l सेवा, त्याग की हमारी भावना स्वार्थ पूर्ण होती जा रही है l हमारे परमार्थ के कार्यों ने स्वार्थ का स्थान ले लिया है l पहले हमें परमार्थ कार्य करने में काफ़ी आनंद आता था l हम उसे करने में सदा प्रसन्न/उद्यत्त रहते थे, पर हमें अब स्वार्थ पूर्ण कार्य करने में अधिक आनंद आने लगा है l हम सत्य, न्याय, धर्म, सदाचार और परमार्थ को निरंतर भूलते जा रहे हैं l हम असत्य, अन्याय, अधर्म और अनीति की राह पर चल पड़े हैं l हम महत्वाकांक्षी लोगों ने समाज को अपनी-अपनी इच्छाओं के अनुरूप साम, दाम, दंड और भेद के बल पर वेद विरूद्ध बलात विभिन्न जाति, पंथ, भाषा, खगोल व भूगोल के नाम पर बाँट लिया है और हम उसे बांटने का यह कर्म परोक्ष या अपरोक्ष रूप में अनवरत जारी रखे हुए हैं l

    गीता के पहले अध्याय में 36 वें श्लोक की व्यख्या करते हुए स्वामी प्रभुपद जी महाराज कहते हैं – वैदिक आदेशानुसार आततायी छः प्रकार के होते हैं – 1. विष देने वाला 2. घर में अग्नि लगाने वाला 3. घातक हथियार से आक्रमण करने वाला 4. धन लुटने वाला 5. दूसरों की भूमि हड़पने वाला तथा 6. पराई स्त्री का अपहरण करने वाला और इस कर्म में आधुनिक काल के तीन और आततायी जुड़ गए हैं 7. वाहन और सवारी को क्षति पहुँचाने वाला 8. भवन अथवा पुल को बम से उड़ाने वाला 9. तस्करी करने वाला l 

    आतंकवाद का कार्य आततायी ही करते हैं, सज्जन पुरुष नहीं l वे अनेकों रूप धारण कर चुके हैं l लगभग 1400 वर्षों से लेकर आजतक आततायियों ने सदैव अन्याय, असत्य, अधर्म और अनीति का ही सहारा लिया है और उससे मात्र सज्जन पुरुषों को ही निशाना बनाया है, उन्हें हर प्रकार से हानि पहुंचाई है, जबकि आर्य पुरुष न्याय, सत्य, नीति और धर्म प्रेमी रहे हैं और उन्होंने आततायियों के द्वारा प्रायोजित अन्याय, असत्य, अधर्म और अनाचार के विरुद्ध किये जा रहे समस्त कार्यों का डटकर बड़ी वीरता से सामना किया है और अपनी विजय का परचंम लहराया है l

    हमें अपने आतीत को कभी नहीं भूलना चाहिए l हम सब ऋषियों की संतानें हैं l हम आर्य पुरुष न्याय, सत्य, सदाचार और धर्म प्रेमी वीर पुरुष थे, हैं और रहेंगे l वेदों के रचनाकार ऋषि थे l वैदिक ग्रन्थों की संरचना समस्त मानव जाति और विश्व के कल्याणार्थ ध्यान में रखकर की गई थी l यही हमारी विरासत है उसकी रक्षा करने के लिए लाख बाधाएं होते हुए भी हमें सत्य, न्याय, सदाचार, धर्म और परमार्थ की राह पर निरंतर चलना होगा ताकि विश्व स्तर पर आततायियों के द्वारा प्रायोजित अन्याय, असत्य, अनाचार एवंम अधर्म के विरुद्ध हम अनुशासित एवं संगठित हो सकें और वीरता के साथ डटकर उनका सामना कर सकें l


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    अनुच्छेद 370 तब और अब



    आलेख – राष्ट्रीय भावना – मातृवंदना
    सितम्बर 2019

    भारत को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात 15 अगस्त 1947 को जम्मू-कश्मीर भी स्वतंत्र हो गया था l उस समय यहाँ के शासक महाराजा हरि सिंह अपने प्रान्त को स्वतंत्र राज्य बनाये रखना चाहते थे l लेकिन 20 अक्तूबर 1947 को कबालियों ने पकिस्तानी सेना के साथ मिलकर कश्मीर पर आक्रमण करके उसका बहित सा भाग छीन लिया था l इस परिस्थिति में महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर की रक्षा हेतु शेख अब्दुल्ला की सहमति से जवाहर लाल नेहरु के साथ मिलकर 26 अक्तूबर 1947 को भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के अस्थाई विलय की घोषणा करके हस्ताक्षर किये थे l  इसके साथ ही भारत से तीन विषयों रक्षा, विदेशी मुद्दे और संचार के आधार पर अनुबंध किया गया कि जम्मू-कश्मीर के लोग अपने संविधान सभा के माध्यम से राज्य के आंतरिक संविधान का निर्माण करेंगे और जब तक राज्य की संविधान सभा शासन व्यवस्था और अधिकार क्षेत्र की सीमा निर्धारित नहीं कर लेती है तब तक भारत का संविधान केवल राज्य के बारे में एक अंतरिम व्यवस्था प्रदान कर सकता है l

    उस समय डा० अम्बेडकर देश के पहले कानून मंत्री थे l उन्होंने शेख अब्दुल्ला से कहा था – “तो आप चाहते हैं कि भारत आपकी सीमाओं की सुरक्षा करे, आपके यहाँ सड़कें बनवाये, आपको अनाज पहुंचाए, देश में बराबर का दर्जा भी दे लेकिन भारत की सरकार कश्मीर पर सीमित शक्ति रखे. भारत के लोगों का कश्मीर पर कोई अधिकार न हो ! इस तरह के प्रस्ताव पर भारत के हितों से धोखाधड़ी होगी l देश का कानून मंत्री होने के नाते मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता l” वर्ष 1951 में महिला सशक्तिकरण का हिन्दू संहिता विधेयक पारित करवाने के प्रयास में असफल रहने पर स्वतंत्र भारत के इस प्रथम कानून मंत्री ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था l देश का स्वरूप बिगाड़ने वाले इस प्रावधान का डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कड़ा विरोध किया था l 1952 में उन्होंने नेहरु से कहा था, “आप जो करने जा रहे हैं, वह एक नासूर बन जयेगा और किसी दिन देश को विखंडित कर देगा l वह प्रावधान उन लोगों को मजबूत करेगा, जो कहते हैं कि भारत एक देश नहीं, बल्कि कई राष्ट्रों का समूह है l” अनुच्छेद 370 को भारत के संविधान में इस मंशा के साथ मिलाया गया था, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में प्रावधान केवल अस्थाई हैं l उसे 17 नवम्बर 1952 से लागु किया गया था l   

    डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी को यह सब स्वीकार्य नहीं था l वे जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत का अभिन्न अंग बनाना चाहते थे l उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य का अलग झंडा और अलग संविधान था l संसद में डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की जोरदार बकालत की थी l अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने संकल्प व्यक्त किया था “या तो मैं आपको भारत का संविधान प्राप्त करवाऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा l” वे जीवन प्रयन्त अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे l वे अपना संकल्प पूरा करने के लिए 1952 में बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े l वहां पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार करके नजरबंद कर दिया गया l वहां पर 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई l    

    अनुच्छेद 370 के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का राज्य तो है लेकिन वह राज्य के लोगों को विशेष अधिकार और सुविधाएँ प्रदान करता है l जो अन्य राज्यों से अलग हैं l भारत पाक मध्य क्रमशः 1965, 1971, 1999 में कारगिल युद्ध हो चुके हैं और उसने हर बार मुंह की खाई है l इन सबके पीछे चाहे वह हिंसा, बालात्कार, आगजनी, घुसपैठ, आतंक, पत्थरवाजी ही क्यों न हो, उसकी मात्र एक यही मनसा रही है किसी न किसी तरह भारत को कमजोर करना है l

    जम्मू-कश्मीर में प्रयोजित आतंक का मुख्य कारण वहां के कुछ अलगाववादी नेताओं के निजी हित रहे हैं l वे अलगाववादी नेता पाकिस्तान के निर्देशों पर जम्मू-कश्मीर के गरीब नौजवानों को देश विरुद्ध भड़काते हैं और उन्हें आतंक का मार्ग चुनने को बाध्य करते हैं l जबकि वे नेता अपने लड़कों को विदेशों में पढ़ाते हैं l यह सिलसिला 5 जुलाई 2019 तक निरंतर चलता रहा है और प्रसन्नता की बात यह है कि इसके आगे प्रधान मंत्री श्री नरेंदर मोदी जी के अथक प्रयासों से  डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी का संकल्प पूरा होने जा रहा है l मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य के लद्दाख क्षेत्र को 31 जुलाई 2019 को अलग से केंद्र शासित राज्य घोषित कर दिया है l समय की आवश्यकता है – कश्मीर के लोग इन अलगाववादी नेताओं के निजी हितों को समझें और भारत का लघु स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले इस प्रदेश में पुन: सुख-शांति की स्थापना हो l  

    चेतन कौशल “नूरपुरी “


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    क्रांति लाने हेतु

    जो भाई-बहन और नौजवान सकारात्मक सोच रखते हैं, उनसे हमारा विनम्र अनुरोध है कि वे रचनात्मक कार्य करने हेतु अपने-अपने गांव या शहर में शाखाओं का गठन करें और क्षेत्र में क्रांति लाने हेतु निम्न प्रयास तेज करके शिव-शक्ति ग्राम सेवा मंच के इस कार्यक्रम में सहयोग दें।
    शैक्षणिक क्रांति – वैदिक पाठशाला से प्रतिभाओं का उजागर, प्रोत्साहन, संरक्षण करना।
    शासनिक क्रांति – स्वशासन से राष्ट्र एवं समाज हित में सनातन धर्म और संस्कृति की सेवा, त्याग और बलिदान की भावना को बढ़ावा देना।
    जल क्रांति – वर्षा जल संग्रहण करना।
    हरित क्रांति – फुलवारी, बागवानी, पेड़-पौधों को बढ़ावा देना।
    श्वेत क्रांति – गाय सेवा से दूध उत्पादन को बढ़ावा देना।
    औद्योगिक क्रांति – ग्रामोद्योग से लघु एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना।
    सहमत हैं? तो सांझा अवश्य करें।


  • आदर्श समाज की कल्पना
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    आदर्श समाज की कल्पना

    आलेख - सामाजिक चेतना कश्मीर टाइम्स 6 सितम्बर 2009  
    आओ हम ऊँच नीच का भेद मिटाएं
    सब समान हैं, चहुं ओर  संदेश  फैलाएं
    भारतीय समाज में कोई जाति से बड़ा है तो कोई धर्म से, कोई पद से ऊँचा है तो कोई धनबल से। प्रश्न  उठता है कि क्या ऐसा पहले भी होता था? हां, होता था! पर अब उसमें अंतर आ गया है। पहले हमारी सोच विकसित थी, हम हृदय से विशाल थे, हम संसार का हित चाहते थे परंतु वर्तमान में हमारी सोच बदल गई है। हमारा हृदय बदल गया है, हम निजहित चाहने लगे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि हम अध्यात्मिक जीवन त्यागकर निरंतर संसारिक भोग विलास की ओर अग्रसर हुए हैं। हमने योग मूल्य भुला दिए हैं जिनसे हमें सुख के स्थान पर दुख ही दुख प्राप्त हो रहे हैं।
    देखा जाए तो यह बड़प्पन या ऊँचापन मिथ्या है। पर जो लोग इसे सच मानते हैं अगर उनमें से किसी एक बड़े को उसके माता-पिता के सामने ले जाकर यह पूछा जाए कि वह कितना बड़ा बन गया है तो उनसे हमें यही उत्तर मिलेगा – वह अभी बच्चा है। उसके जीवनानुभवों की उसके माता-पिता  के जीवनानुभवों से कभी तुलना नहीं की जा सकती। माता पिता की निष्काम  भावना की तरह उसकी सोच का भी जन कल्याणकारी होना अति आवश्यक  है। अगर वह ऐसा नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में उसे बड़ा या ऊँचा स्थान कदाचित नहीं मिल सकता।
    हमारा समाज मिथ्याचारी बड़प्पन और ऊँचेपन की दलदल में धंसा हुआ है। वह तरह-तरह के शोषण,  अत्याचार, जातिवाद, छुआछूत, अमीर-गरीब और बाहुबली व्यक्तियों के द्वारा बल के दुरुपयोग से पीड़ित है, जो अत्याधिक चिंता का विषय  है।
    वास्विकता तो यह है कि हम सब एक ही ईश्वर  की संतान हैं, उसका दिव्यांश  हैं। वह कण-कण में समाया हुआ है। प्राणियों में मानव हमारी जाति है। भले ही हमारे कार्य विभिन्न हैं पर हमारा धर्म मानवता है। इसलिए वश्विक  भोग्य सम्पदा पर हम सबका अपनी-अपनी योग्यता एवं गुणों के अनुसार अधिकार होना चाहिए। किसान और मजदूर खेतों में कार्य करते हैं तो विद्वान उनका मार्गदर्शन भी करते हैं। जिस व्यक्ति का जितना ऊँचा स्थान होता है उसके अनुसार उसकी उतनी बड़ी जिम्मेदारी भी होती है। उसे पूरा करना उसका कर्तव्य होता है। उससे वह भ्रष्टाचार, किसी का शोषण, किसी पर अत्याचार करने हेतु कभी स्वतंत्र नहीं होता है। बलशाली मनुष्य द्वारा उसके बल-पराक्रम का वहीं प्रयोग करना उचित है जहां समाज विरोधी तत्व सक्रिय हों या अनियंत्रित हों।
    मनुष्य का बड़प्पन या ऊँचापन उसके कार्य से दिखता है न कि उसके जन्म या खानदान से। मनुष्य को चाहिए कि वह मानव जाति के नाते सब प्राणियों के साथ मनुष्यता  ही का व्यवहार करे। उससे न तो किसी का शोषण  होता है न किसी से अन्याय, न किसी पर अत्याचार होता है और न किसी का अपमान। सबमें बिना भेदभाव के समानता बनी रहती है। वैश्विक  संपदा पर यथायोग्यता अनुसार स्वतः अधिकार बना रहता है। प्रशासनिक व्यवस्था सबके अनुकूल होती है। लोग उसका आदर करते हैं। इससे लोक संस्कृति की संरचना, संरक्षण और संवर्धन होता है।
    मनुष्य जाति में पाया जाने वाला अंतर मात्र मनुष्य  द्वारा किए जाने वाले कर्मों व उसके गुणों के अनुसार होता है। सद्गुण किसी में कम तो किसी में अधिक होते हैं। वे आपस में कभी एक समान नहीं होते हैं। इसलिए हमें एक दूसरे का सदा सम्मान करना चाहिए।
    इससे हम छुआछूत, सामाजिक, आर्थिक एवं न्यायिक असमानता को बड़ी सुगमता से दूर कर सकते हैं। हमारा हर कदम राम-राज्य की ओर बढ़ता हुआ एक आदर्श समाज की कल्पना को साकार कर सकता है।
     
    चेतन कौशल “नूरपुरी”

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    बलि का बकरा

    आज तक हमने बकरों की बलि दिया जाना सुना था पर यह नहीं सुना था कि कहीं बस की सवारियों को भी बलि का बकरा बनाया जाता है। जी हां, ऐसा अब खुले आम हो रहा है। अगर हम अन्य स्थानों को छोड़ मात्र जम्मू से लखनपुर तक की बात करें तो राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे बने ढाबों, भोजनालयों और चाय की दुकानों को कसाई घरों के रूप में देख सकते हैं। वहां प्रति चपाती पांच रुपए के साथ नाम मात्र की फराई दाल दस रुपए में और चाय का प्रति कप पांच रुपए के साथ एक कचौरी तीन रुपए के हिसाब से धड़ल्ले से बेची जाती है। वहां कहीं मुल्य सूचि दिखाई नहीं देती है। शायद उन्हें प्रशासन की ओर से पूछने वाला कोई नहीं है। क्या यह दुकानदार सरकारी मूल्य सूचि के अंतर्गत निर्धारित मूल्यानुसार सामान बेचते हैं? संबंधित विभाग पर्यटक वर्ग अथवा सवारी हित की अनदेखी क्यों कर रहा है?
    राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारों पर ढाबों और चाय की दुकानों पर लम्बे रूट की बसें रुकती हैं। वहां पर चालक और परिचालकों को तो खाने-पीने के लिए मूल्यविहीन बढ़िया और उनका मनचाहा खाना-पीना मिल जाता है, मानों जमाई राजा अपने ससुराल में पधारे हों। पर बस की सवारियों को उनकी सेवा के बदले में दुकानदारों की मर्जी का शिकार होना पड़ता है। अन्तर मात्र इतना होता है कि कोई कटने वाला बकरा तो गर्दन से कटता है पर सवारियों की जेब दुकानदारों द्वारा बढ़ाई गई अपनी मंहगाई की तेज धार छुरी से काटी जाती है। कई बार सवारियों के पास गंतव्य तक पहुंचने के मात्र सीमित पैसे होते हैं। अगर रास्ते में भूख-प्यास लगने पर उन्हें कुछ खाना-पीना पड़ जाए तो वह खाने-पीने की वस्तुएं खरीद कर न तो कुछ खा सकती हैं और न पी सकती हैं। क्या लोकतन्त्र में उन्हें जीने का भी अधिकार शेष नहीं बचा है?
    यह पर्यटक एवं सवारी वर्ग भी तो अपने ही समाज का एक अंग है जो हमारे साथ कहीं रहता है। स्वयं समाज सेवी और इससे संबंधित सरकारी संस्थाओं को प्रशासन के साथ इस ओर विशेष ध्यान देना होगा और सहयोग भी देना पड़ेगा। उसके हित में उन्हें राष्ट्रीय राजमार्ग तथा बस अड्डों पर खाने-पीने और अन्य आवश्यक सामान खरीदने हेतु उचित मूल्य की दुकानों व ठहरने या विश्राम करने के लिए सुख-सुविधा सम्पन्न सस्ती सरायों की व्यवस्था करनी होगी ताकि स्थानीय दुकानदारों द्वारा सवारियों और प्रयटकों से मनमाना मूल्य न वसूला जाए और कोई किसी के निहित स्वार्थ के लिए कभी बलि का बकरा न बन सके।
    13 जुलाई 2008 कश्मीर टाइम्स