मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: विभिन्न आलेख

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    निःस्वार्थ सेवा हेतु सद्भावना की आवश्यकता !

    आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दन  फरवरी 2022

    साधू भूखा भाव का धन का भुखा नाहीं, धन का भूखा जो फिरे वो तो साधू नाहीं ll संत कवीर जी के इस कथनानुसार सज्जन या सत्पुरुष वही होता है जिसे किसी प्रकार का कोई लोभ न हो l लोभी पुरुष कभी साधू नहीं हो सकता l अगर लघु मार्ग द्वारा धन संग्रह करने के उद्देश्य से कोई व्यक्ति सेवक का चोला धारण करके जनसेवा के पथपर चलता है तो उससे जनसेवा नहीं, निज की सेवा होती है जैसे कमीशन का जुगाड़ करना, रिश्वत लेना, घूस खाना और गवन करना l क्योंकि जन सेवा हेतु सीमित दृष्टिकोण या संकीर्ण विचारधारा की नहीं बल्कि विशाल हृदय, शांत मस्तिष्क और मात्र राष्ट्र एवम् जनहित के कार्य करने की आवश्यकता होती है l यह सब गुण सज्जन एवम् सत्पुरुषों में विद्द्यमान होते हैं l
    जिस व्यक्ति का मन परहित के लिए दिन-रात तड़पता हो, बुद्धि परहित का चिंतन करती हो और हाथ परहित के कार्य करने हेतु सदैव तत्पर रहते हों – उसके लिए यह सारा संसार अपना और वह स्वयं सारे संसार का अपना होता है l इस प्रकार एक दिन वह व्यक्ति श्रीराम, या श्रीकृष्ण जी के समान भी गुणवान बन सकता है l परन्तु जो व्यक्ति मात्र दिखावे का सेवक बनकर मन से नित निजहित के लिए परेशान रहता हो, बुद्धि से निजहित सोचता हो और जिसके हाथ निजहित के कार्य करने हेतु व्याकुल रहते हों – उसके लिए जनसेवा का कोई अर्थ नहीं होता है l वह विश्व में किसी का अपना नहीं होता है और जो उसके अपने होते हैं वो भी दुःख में उसे अकेला छोड़ने वाले होते हैं l
    राष्ट्रहित, समाजहित और जनहित के लिए वह मुद्दे जो भारत के समक्ष उसकी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय उजागर हुए थे, वह आज भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं l वह हमसे टस से मस इसलिए नहीं हो पाए हैं क्योंकि हमने उन्हें समाज या जन का सेवक बनकर कम और निज सेवक होकर अधिक निहारा है l सौभाग्य वश हमारा भारत लोकतान्त्रिक देश है जिसमें जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए सरकार बनाने का हमें संवैधानिक अधिकार प्राप्त है l हम अपने मतदान द्वारा अपना मनचाहा प्रतिनिधि चुनकर विधानसभा या लोकसभा तक भेज सकते हैं l अगर हम उसके माध्यम से अपनी आवाज संसद भवन तक नहीं पहुंचाते हैं तो हमें किसीको दोष नहीं देना चाहिए l
    वर्तमान राष्ट्रहित में देश की एक ऐसी सशक्त एवम् सकारात्मक राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली होनी चाहिए जिसमें कलात्मक कृषि-बागवानी एवम् रोजगार प्रशिक्षण, व्यवहारिक आत्मरक्षा एवम् जन सुरक्षा प्रशिक्षण, सृजनात्मक पठन-पाठन और रचनात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था हो l इससे भारत की दूषित शिक्षा-प्रणाली से जन साधारण को अवश्य ही राहत मिल सकती है l जनहित में जन साधारण को विश्वसनीय स्थानीय जन स्वास्थ्य सेवा मिलनी चाहिए l इसके लिए सुविधा सम्पन्न चिकित्सालय, सर्वसुलभ प्रसूति-गृह, उचित चिकित्सा सुविधाएँ, पर्याप्त औषध भंडार, योग्य डाक्टर व रोग विशेषज्ञ, रोगी की उचित देखभाल, स्वास्थ्य कर्मचारी वर्ग और त्वरित चिकित्सा-वाहन सेवा का होना अनिवार्य है l वह इसलिए कि त्रुटिपूर्ण और अभावग्रस्त जन स्वास्थ्य सेवा समाप्त हो सके l
    जनहित देखते हुए आज बारह मासी स्थानीय व्यवसायिक व्यवस्था की महती आवश्यकता है l इसके लिए सहकारीता आन्दोलन को पुनः जीवित किया जा सकता है जिसके अंतर्गत पशुधन, पौष्टिक खाद, पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ, जल, जंगल, जमीन का सरंक्षण सहकारी वाणिज्य-व्यापार, स्वरोजगार, सहकारी ग्रामाद्द्योग तथा सहकारी सम्पदा का संवर्धन हो ताकि सहकारी खेती को बढ़ावा मिल सके l जन साधारण को मात्र 100, 200 दिनों तक का नहीं बल्कि पुरे 365 दिनों का व्यवसाय मिल सके l
    जन-जन हित में स्थानीय जानमाल की रक्षा-सुरक्षा को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए जरूरी है पीने का स्वच्छ पानी, पौष्टिक खाद्द्य वस्तुएं व पेय पदार्थ, रसोई गैस, मिटटी का तेल, विद्दुत ऊर्जा, स्थानीय नागरिकता की विश्वसनीय पहचान और स्थानीय जानमाल की रक्षा-सुरक्षा समितियों का गठन किया जाना ताकि जन साधारण की जीवन रक्षक आवश्यकताएँ पूर्ण हो सकें और उसे आतंकवाद, उग्रवाद जिहाद, अपहरण, धर्मांतरण, बलात्कार तथा हिंसा से अभय प्राप्त हो सके l इस प्रकार राष्ट्रीय जनहित में आवश्यक है – सशक्त एवम् सकारात्मक राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली, विश्वसनीय जन स्वास्थ्य सेवा, बारह मासी स्थानीय व्यवसायिक व्यवस्था और जानमाल रक्षा-सुरक्षा की सुनिश्चितता l ऐसा कार्य मात्र परहित चाहने वाले न्याय प्रिय, दूरदर्शी राजनीतिज्ञ, नीतिवान और धर्मात्मा लोग ही कर सकते हैं l अगर हम परहित करना चाहते हैं तो हमें सत्पुरुषों और परमार्थियों को ही अपना प्रतिनिधि बनाना होगा l उन्हें उनके क्षेत्र से विजयी करवाने हेतु अपनी ओर से उनकी हर संभव सहायता करनी होगी l अन्यथा निजहित चाहने वालों के मायाजाल से हमें कभी मुक्ति नहीं मिलेगी l बस हमें मिलती रहेगी मात्र दूषित शिक्षा, त्रुटिपूर्ण व अभावग्रस्त जन स्वास्थ्य सेवा, 100, 150 और 200 दिनों का व्यवसाय की लालीपाप l
    देशवासियों ! यदि सोये हुए हो तो जाग जाओ और स्वयं जागने के साथ-साथ दूसरों को भी जगा लो l निजहित चाहने वाले बेचारे अपनी आदत से बड़े मजबूर हैं l बे मजबूर ही रहेंगे क्योंकि उन्होंने निजहित में कमीशन जुटाना है, रिश्वत लेनी है, घूस खानी है, राष्ट्र तथा समाज की सम्पदा डकारनी है तथा भ्रष्टाचार ही फैलाना है l आप उनसे राष्ट्रहित, जनहित और समाजहित की चाहना रखना छोड़ दो l यह आपकी आशा पूर्ण होने वाली नहीं है l उनके पास अतिरिक्त कार्य करने का समय नहीं है l इसका निर्णय अब आपने मतदान करके करना है l निडर होकर मतदान कीजिये और अपनी पसंद के उम्मीदवार को विजयी बनाइए l देखना कहीं आपसे चूक न हो जाये l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”


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    कर्तव्य-सेवा ज्ञान का महत्व

    आलेख – मातृवंदना 2023 फरवरी

    ईश्वर अजर, अमर, अविकारी, सर्वव्यापक और निराकार है l वह निर्जीव में भी है और सजीव में भी l वह सबके भीतर भी है और बाहर भी l अर्थात वह कण-कण में विद्यमान है lजीव ईश्वर का अंश है l मानव शरीर की आकृति का प्रादुर्भाव परिवर्तनशील प्रकृति जल, वायु, मिट्टी, अग्नि और आकाश से होता है l मनुष्य के जन्म का पहला साँस और मृत्यु के अंतिम साँस का मध्यकाल, उसका जीवन काल होता है l हर प्राणी की मृत्यु होना निश्चित है, मृत्यु अवश्य होती है, प्रकृति नाशवान है l

    ऋषियों ने मानव जीवन काल को चार अवस्थाएं प्रदान की हैं – ब्रह्मचर्य जीवन, गृहस्थ जीवन, वानप्रस्थ जीवन, और सन्यास जीवन l इनके सबके अपने -अपने दायित्व हैं l ब्रह्मचर्य जीवन में ज्ञान अर्जित करना, गृहस्थ जीवन में संतानोत्पत्ति करना, वानप्रस्थ जीवन में यम नियमों का पालन करते हुए शरीर, मन, बुद्धि का शुद्धिकरण करना एवंम सत्सनातन तत्व जानना और सन्यास जीवन में सत्सनातन तत्वका मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार करना दायित्व है l मानव जीवन का उद्देश्य-जीवन में चार फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति करना है l


    जीव को मानव शरीर में इन्द्रियां, मन, बुद्धि अज्ञान वश अपने अधीन करके रखती हैं, उनसे मनुष्य द्वारा जीव को सहज में मुक्त नहीं किया जा सकता, उसकी मुक्ति के लिए मनुष्य को वेद विधि-विधानानुसार यत्न करना पड़ता है l ऋषियों का मानना है कि परिवर्तनशील प्रकृति तीन सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों से युक्त है l नाशवान प्रकृति में रहते हुए जीव समय-समय पर इन त्रिगुणों से प्रभावित होता रहता है l

    त्रिगुण संपन्न प्रकृति से मनुष्य जाति के गुण, संस्कार और स्वभाव में समय-असमय पर बदलाव होते रहते हैं l अपनी मनोवृत्ति अनुसार मनुष्य कभी सात्विक ,कभी राजसिक और कभी तामसिक संगत करता है l ऐसी किसी संगत के ही अनुसार उसकी वैसी भावना उत्पन्न होती है l उस भावना अनुसार उस का वैसा विचार उत्पन्न होता है, अपने विचार के अनुसार वह वैसा कर्म करता है और फिर अंत में उसके द्वारा किये हुए कर्मानुसार ही उसे वैसा फल भी मिलता है l यही प्रकृति का अटूट नियम और
    सका कटु सत्य हैl

    सृष्टि में हर पहलु के अपने दो पक्ष होते हैं – अच्छा और बुरा l अच्छे कार्य का जनमानस पर अच्छा प्रभाव होता है l इसलिए समाज में उसकी हर स्थान पर प्रसंशा होती है और बुरे का बुरा प्रभाव होता है जिस कारण उसकी सर्वत्र निंदा होती है l अतः मनुष्य जाति का सदैव पहले वाले पक्ष का साथ देने और दूसरे का विरोध करना चाहिए l


    घर परिवार के आपसी व्यवहार में वाणी बहुत महत्वपूर्ण होती है l बोलचाल के ढंग ने जहाँ कई घरों को जोड़ा है, वहां अनेकों को तोड़ा भी है l रिश्ते निभाने में शब्द अमृत भी बन जाते हैं और जहर भी l शब्दों में आत्मीयता होनी चाहिए जिसमें भावनाएं भरी हों l हृदय से बोले और हृदय से सुने गए शब्द ही अमृत समान होते हैं l घर परिवार में एक दूसरे के प्रति विश्वास होना चाहिए l नहीं तो यह वो भूकंप है जो मधुर रिश्तों में दरार पैदा कर देता है और एक दिन उन्हें समाप्त भी कर देता है l सदा मीठा नहीं खाया जा सकता पर कुछ खट्टा, कुछ मीठा दोनों के स्वाद से हम अपनी परिवार रूपी बगिया को अवश्य महका सकते हैं l


    प्रेम, त्याग, समर्पण, सहयोग, सहभागिता और सेवा की भावना परिवार के मुख्य गुण है, परिवार को संगठित और सशक्त करते हैं l जिस परिवार में ऐसे गुण विद्यमान होते हैं, उस परिवार के किसी भी व्यक्ति को अन्यत्र स्वर्ग ढूंढने की आवश्यकता नहीं होती है l सशक्त परिवार अर्थात माता-पिता ही बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकते हैं, उन्हें सशक्त बना सकते हैं l


    माँ के गर्भ में पोषित होने से लेकर, बच्चे का जन्म लेने के पश्चात् पाठशाला जाने तक पहला और दूसरा गुरु माता-पिता ही होते हैं l माता-पिता बच्चों को संस्कार देते हैं l तीसरा गुरु विद्यालय में गुरुजन होते हैं जो उन्हें तात्विक या विषयक शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उनका भविष्य निर्माण करते हैं l तीनों गुरु पूजनीय हैं l माता-पिता के रहते हुए घर और गुरु के रहते हुए विद्यालय दोनों विद्या मंदिर होते हैं l घर में माता-पिता के सान्निध्य में रहकर बच्चे संस्कारवान बनते हैं जबकि विद्यालय में गुरु के सान्निध्य में रहने से शिष्य अपने विषय में पारंगत, समर्थ, सशक्त युवा बनते हैं l सशक्त युवाओं के कन्धों पर ही भारत का भविष्य टिका हुआ है l


    सशक्त युवाओं को उनके गुण, संस्कार और स्वभाव से जाना जाता है l सशक्त युवाओं से सशक्त परिवार बनता है l सशक्त परिवार सशक्त गाँव का निर्माण करते हैं l सशक्त गाँवों से सशक्त राज्य बनते हैं l सशक्त राज्यों से देश सशक्त होता है l सशक्त देश से सशक्त विश्व की आशा की जा सकती है l यह बात किसी को नहीं भूलनी चाहिए कि मनुष्य को उसके कर्मों से जाना जाता है, उसके परिवार से नहीं l


    ब्रह्म भाव में स्थिर रहकर ब्रह्मतत्व का विश्व कल्याण हेतु प्रचार-प्रसार करने वाला कोई भी युवा ब्रह्मज्ञानी ज्ञानवीर हो सकता है l क्षत्रिय भाव में स्थिर रहकर जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा शूरवीर हो सकता है l वैश्य भाव में स्थिर रहकर गौ-सेवा, कृषि और व्यापार से जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा धर्मवीर हो सकता है l शूद्र्भाव में स्थिर रहकर हस्त-ललित कला, लघु एवंम कुटीर उद्योग से जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा कर्मवीर हो सकता है l


    संसार में हर युवा को उसके गुण, स्वभाव और संस्कार से जाना जाता है l इसी कारण ज्ञानवीर की तत्वज्ञान से, रणवीर की पराक्रम से, धर्मवीर की कर्तव्य परायणता से और कर्मवीर की कर्मशीलता से पहचान होती है l वह अपने गुण, संस्कार और स्वभाव के अनुसार अपने माता-पिता, गुरु, समाज, राष्ट्र और संसार की सेवा/कल्याणकारी कार्य करता है और बदले में उसे धन, बल व यश की प्राप्ति होती है l



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    गुरुकुल शिक्षा पद्दति और संस्कार

    आलेख – परम्परागत गुरुकुल शिक्षा मातृवन्दना जुलाई 2019

    प्राचीन भारतीय निशुल्क शिक्षा-प्रणाली अपने आप में विशाल हृदयी होने के कारण विश्वभर में जानी और पहचानी गई थी l भारत विश्वगुरु कहलाया था l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परंपरा पर आधारित थी जिसमे सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोकानुदान की पवित्र भावना, सद्विचार, सत्कर्मों से विश्व का कल्याण होता था l
    गुरुकुल कभी किसी का शोषण नहीं, मात्र पोषण ही करते थे l तभी तो “सारी धरती गोपाल की है” भारत मात्र उद्घोष ही नहीं करता है, सारे विश्व को एक परिवार भी मानता है l गुरुकुल में राजा, रंक और भिखारी सभी के होनहार बच्चों को अपने जीवन में आगे बढ़ने का एक समान सुअवसर प्राप्त होता था l उनके साथ एक समान व्यवहार होता था l गुरु व आचार्य जन शिष्यों के अँधेरे जीवन में तात्विक विषय ज्ञान-विज्ञान, ध्यान, लग्न, मेहनत, योग्यता, निपुणता, प्रतिभा और शुद्ध अचार-व्यवहार जैसे सद्गुणों का प्रकाश करके उन्हें दीप्तमान करते थे l इससे बच्चों के जीवन की नींव ठोस होती थी l उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था l बच्चे विश्व बंधू बनते थे जो गुरु व आचार्य के आशीर्वाद और बच्चों की लग्न तथा मेहनत का ही प्रतिफल होता था l
    भारतीय गुरुकुलों में शिक्षण-शुल्क प्रथा का अपना कोई भी महत्व नहीं था l गुरुकुलों में शुल्क रहित शिक्षण-प्रथा से ही गुरु तथा शिष्य का निर्वहन, साधना, समृद्धि और विकास होता था l स्वेच्छा से सामर्थ्यानुसार, बिना किसी भय के, ख़ुशी-ख़ुशी से दिया जाने वाला लोक अनुदान बच्चों के जीवन का निर्माण करता था l
    कोई भी प्राचीन गुरुकुल प्राचीन गुरुकुल एक वह दिव्य कार्यशाला थी जहाँ बच्चों में योग्यता पनपती थी l वहां उन्हें दुःख-सुख का सामना करने का अनोखा साहस मिलता था l जीवन के हर क्षेत्र में आत्म सम्मान के साथ सर उठाकर चलने और समय पड़ने पर शेर की तरह दहाड़ करने के साथ-साथ जीने और मरने की भी एक अनोखी मस्ती प्राप्त होती थी l इन गुणों को प्रदान करता था – आचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का योगदान l गुरुकुलों की गरिमा अविरल जलधारा समान प्रवाहित होती रहती थी l गुरुकुलों को अनुदान से प्राप्त अन्न, धन, वस्त्र और भूमि आदि पर मात्र गुरुकुल में कार्यरत मानी आचार्यों का जितना स्वामित्व होता था, अध्ययनरत, अध्ययनकाल तक उस पर शिष्यों का भी उतना ही स्वामित्व रहता था l दोनों में प्रेम, सहयोग, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना होती थी l आचार्य शिष्यों के जीवन का निर्माण करते थे, उनका मार्गदर्शन करते थे l जबकि शिष्य पूर्ण ज्ञानार्जित करने के पश्चात मात्र कर्तव्य परायण होकर अपने माता-पिता गाँव, समाज, शहर और राष्ट्र ही की सेवा करते थे l भारतीय शिक्षा क्षेत्र मात्र निःस्वार्थ सेवा क्षेत्र रहा है जिसमें निष्कामी आचार्य तथा ज्ञान पिपासु विद्यार्थियों की महती आवश्यकता बनी रहती थी l वह तो सदैव सबके लिए ज्ञान का प्रणेता और मार्ग दर्शक ही था l आचार्य भली प्रकार जानते थे – उन्हें विद्यार्थियों को किस प्रकार का शिक्षण देने के साथ प्रशिक्षण भी देना है l
    वैसे शिक्षण-प्रशिक्षण लेने की कोई आयु सीमा नहीं होती है l आवश्यकता है तो मात्र तुम्हारे (विद्यार्थी) दृढ़ निश्चय की कि तुम जीवन में क्या करना चाहते हो, क्या कर रहे हो ? तुम क्या बनना चाहते हो, क्या बन गए हो ? तुम क्या पाना चाहते हो, तुमने अभी तक पाया क्या है ? अगर तुम अपना उद्देश्य पाने में बारबार असफल रहे हो, उसके लिए तुम्हें किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता है, किसी शंका का समाधान ही करवाना हो तो आओ ! उसका निवारण करने को l गुरुकुल के आचर्यों की शरण लो l वहां तुम्हें हर समस्या का हल मिलेगा l
    तुम जब भी आना अपने साथ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास अवश्य लाना, भूल न जाना l हमारे आचार्य यही शुल्क लेते हैं l बिना इनके तुम्हें वहां उनसे कुछ भी नहीं है, मिलने वाला l भारत माता के तन पर लिपटा हुआ वस्त्र जगह-जगह से कटा हुआ है l भारतीय शिक्षा सदियों से आक्रान्ताओं, अत्याचारियों की बर्बरता, क्रूरता का शिकार हुई है l उसकी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी है l कपड़ा तो ठोस है, घिसा नहीं है, मात्र कटा हुआ है l वह तो अब भी हर मौसम का सामना करने में पूर्ण सक्षम है l भारतीय शिक्षा अव्यवस्थित होते हुए भी किसी अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली की तुलना में अब भी कम नहीं, श्रेष्ठ ही है l जरुरी है – उस कपड़े की सिलाई करना l उसे पुनः साफ-सुथरा करके फिर से उपयोगी बनाना l शिक्षा का पुनर्गठन करना, उसे उचित नेतृत्व प्रदान करना l
    क्या हमें किसी अन्य तन का मात्र सुंदर कपड़ा देख अपने तन का उपयोगी एवंम सुखदायी कपड़े का त्याग कर देना चाहिए ? हमें अपनी जीवनोपयोगी भारतीय शिक्षा-प्रणाली को भुला देना चाहिए ? उसके स्थान पर किसी अन्य राष्ट्र से उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली को स्वीकार कर लेना चाहिए ? नहीं , कभी नहीं l हमें भारतीय शिक्षा प्रणाली को पुनः समझना होगा l उसे आधुनिक नई कसौटी पर परखना होगा l तभी वह एक दिन देश, काल और पात्र के अनुकूल तथा जन मानस के अनुरूप, उपयोगी सिद्ध होगी l वैसे किसी कमजोर रोगी के तन से लिया हुआ कोई भी का कपड़ा एक हृष्ट-पुष्ट निरोगी काया को मात्र रोगों के अतिरिक्त कुछ और दे भी क्या सकता है ? ऐसे कपड़े की तरह ली गई अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली भारत वर्ष के लिए किसी भयानक संक्रामक रोग से कम नहीं है l इससे उसे दूर रखने में ही हम सबका हित है l
    आज हम वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को अँधेरे का कारण मान रहे हैं लेकिन अँधेरे को दोष देने से कहीं अच्छा है – कोई एक दीप जला देना l कभी-कभी भारतीय शिक्षा का मंद गति से प्रवाहित होने वाला मदमाती महक का मधुर झोंका न जाने कहाँ से आकर कोमल मन को स्पर्श कर जाता है ? मन आनंदित हो जाता है l लगता है वह कुछ कह रहा हो –
    गुण छुपाये चुप नहीं पाता, गुण का स्वभाव है यही,
    फुलवारी अपनी फूलों भरी, सुगंध कभी रूकती है नहीं l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”


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    ज्ञान के चालीस स्रोत  

    आलेख - शिक्षा कश्मीर टाइम्स 16.11.2008

    योग्य गुरु एवंम योग्य विद्यार्थी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त विद्या से विद्यार्थी का हृदय और मस्तिष्क प्रकाशित होता है l अगर विद्या प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील द्वारा बार-बार प्रयत्न करने पर भी असफलता मिले तो उसे कभी जल्दी हार नहीं मान लेनी चाहिए बल्कि ज्ञान संचयन हेतु पूर्ण लगनता के साथ और अधिक श्रम करना चाहिए ताकि उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न रह जाये l
    1. लोक भ्रमण करने से विषय वस्तु को भली प्रकार समझा जाता है l
    2. साहित्य एवंम सदग्रंथ पड़ने से विषय वस्तु का बोध होता है l
    3. सुसंगत करने से विषयक ज्ञान-विज्ञान का पता चलता है l
    4. अधिक से अधिक जिज्ञासा रखने से ज्ञान-विज्ञान जाना जाता है l
    5. बड़ों का उचित सम्मान और उनसे शिष्ट व्यवहार करने से उचित मार्गदर्शन मिलता है l
    6. आत्म चिंतन करने से आत्मबोध होता है l
    7. सत्य निष्ठ रहने से संसार का ज्ञान होता है l
    8. लेखन-अभ्यास करने से आत्मदर्शन होता है l
    9. अध्यात्मिक दृष्टि अपनाने से समस्त संसार एक परिवार दिखाई देता है l
    10. प्राकृतिक दर्शन करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है l
    11. सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगन्धित बनता है l
    12. शैक्षणिक वातावरण बनाने से ज्ञान विज्ञान का विस्तार होता है l
    13. कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l
    14. कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग लेने से आत्मविश्वास बढ़ता है l
    15. दैनिक लोक घटित घटनाओं पर दृष्टि रखने से स्वयं को जागृत किया जाता है l
    16. समय का सदुपयोग करने से भविष्य प्रकाशमान हो जाता है l
    17. कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l
    18. उच्च विचार अपनाने से जीवन में सुधार होता है l
    19. आत्मविश्वास युक्त कठोर श्रम करने से जीवन विकास होता है l
    20. मानवी ऊर्जा ब्रह्मचर्य का महत्व समझ लेने और उसे व्यवहार में लाने से कार्य क्षमता बढ़ती है l
    21. मन में शुद्धभाव रखने से आत्म विश्वास बढ़ता है l
    22. कर्मनिष्ठ रहने से अनुभव एवंम कार्य कुशलता बढ़ती है l
    23. दृढ निश्चय करने से मन में उत्साह भरता है l
    24. लोक परम्पराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है l
    25. स्थानीय लोक सेवी संस्थाओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का अवसर मिलता है l
    26. संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पर्व मनाने से राष्ट्र की एकता एवंम अखंडता प्रदर्शित होती है l
    27. स्वधर्म निभाने से संसार में अपनी पहचान बनती है l
    28. प्रिय नीतिवान एवंम न्याय प्रिय बनने से सबको न्याय मिलता है l
    29. स्वभाव से विनम्र एवंम शांत मगर शूरवीर बनने से जीवन चुनौतिओं का सामना किया जाता है l
    30. निडर और धैर्यशील रहने से जीवन का हर संकट दूर होता है l
    31. दुःख में प्रसन्न रहना ही शौर्यता है l वीर पुरुष दुःख में भी प्रसन्न रहते है l
    32. निरंतर प्रयत्नशील रहने से कार्य में सफलता मिलती है l
    33. परंपरागत पैत्रिक व्ययवसाय अपनाने से घर पर ही रोजगार मिल जाता है l
    34. तर्क संगत वाद-विवाद करने से एक दूसरे की विचारधारा जानी जाती है l
    35. तन, मन, और धन लगाकर कार्य करने से प्रशंसकों और मित्रों की वृद्धि होती है l
    36. किसी भी प्रकार अभिमान न करने से लोकप्रियता बढ़ती है l
    37. सदा सत्य परन्तु प्रिय बोलने से लोक सम्मान प्राप्त होता है l
    38. अनुशासित जीवन यापन करने से भोग सुख का अधिकार मिलता है l
    39. कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग सुख और यश प्राप्त होता है l
    40. निःस्वार्थ भाव से सेवा करने से वास्तविक सुख व आनंद मिलता है l


    चेतन कौशल “नूरपुरी”

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    परंपरागत शिक्षा-संस्कृति संरक्षण की आवश्यकता

    आलेख – शिक्षा व्यवस्था मातृवंदना फरवरी 2017 
    यह शाश्वत सत्य है कि हम जैसी संगत करते हैं, हमारी वैसी भावना होती है l हमारी जैसी भावना उत्पन्न होती है, हमारा वैसा विचार होता है l हमारा जैसा विचार पैदा होता है, हमसे हमारा वैसा ही कर्म होने लगता है और जब हम जैसा कर्म करते हैं, तब हमें उसका वैसा फल भी मिलता है l  
    गृहस्थ जीवन में गर्भादान के पश्चात् एक माँ के गर्भ में जब शिशु पूर्णतया विकसित हो जाता है तब उसके साथ ही उसके सभी अंग भी सुचारू ढंग से अपना-अपना कार्य करना आरंभ कर देते हैं l माँ के सो जाने पर शिशु भी सो जाता है और उसके जाग जाने पर वह भी जाग जाता है l इस अवस्था में माँ-बाप के द्वारा उसे जो कुछ सिखाया जाता है शिशु सहजता से सीख जाता है l
    इसका उदाहरण हमें महाभारत के पात्र वीर अभिमन्यु से मिलता है l तब अभिमन्यु अपनी माँ सुभद्रा की कोख में पल रहा था l एक दिन महारथी अर्जुन अपनी भार्या सुभद्रा को चक्रव्यूह बेधने की विधि सुनाने लगे l सुभद्रा ने उसे चक्रव्यूह में प्रवेश करने तक तो सुन लिया, पर इससे आगे सुनते-सुनते वह बीच में सो गई, शिशु भी सो गया l चक्रव्यूह से बाहर कैसे निकलना है ? वह बात माँ और बेटा दोनों नहीं सुन पाए l अतः महाभारत युद्ध की अनिवार्यता देखते हुये और चक्रव्यूह बेधन का अपूर्ण ज्ञान होते हुए भी अभिमन्यु को गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में प्रवेश करना पड़ा l वह उसमें प्रवेश तो कर गया पर बाहर निकलने के मार्ग का उसे ज्ञान न होने के कारण, वह बाहर नहीं निकल सका l अतः वह वीरगति को प्राप्त हो गया l
    जन्म लेने के पश्चात् शिशु सबसे पहले माँ को पहचानता है l ज्यों-ज्यों उसे संसार का बोध होता होने लगता है त्यों-त्यों वह घर के अन्य सदस्यों को भी पहचानने लगता है और उनसे बहुत सा कुछ सीख लेता है l शिशु के साथ सीखने-सिखाने के इस कर्म में सबसे पहले माँ-बाप की सबसे बड़ी भूमिका रहती है l उसके सामने माँ-बाप जैसा कार्य करते हैं, वह उन्हें जैसा कार्य करते हुए देखता है, वह उन्हें जैसा बोलते हुए सुनता है, वह तत्काल उसका अनुसारण भी करने लगता है l हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनकी सन्तान उनसे अच्छी हो l वह भविष्य में उनसे भी अधिक बढ़-चढ़कर उन्नति करे l इसी बात का ध्यान रखते हुए उन्हें अपने बच्चो के लिए एक अच्छा वातावरण बनाना होता है l एक अच्छे वातावरण में ही बच्चों को अच्छे संस्कार मिलते हैं और वे अपने जीवन में दिन दुगनी-रात चौगुनी उन्नति करते हैं l
    घर से बच्चों को अच्छे संस्कार मिलने के पश्चात विद्यालय में गुरुजनों की बड़ी भूमिका होती है l विद्यालय में अच्छे संस्कारों का संरक्षण होता है, होना भी चाहिए l यह कार्य कभी भारत के परंपरागत गुरुकुल किया करते थे l वहां गुरुजनों के द्वारा ऐसी होनहार प्रतिभाओं को भली प्रकार परखा और तराशा जाता था जो युवा होकर अपने-अपने कार्य क्षेत्र में जी-जान लगाकर कार्य करते थे l परिणाम स्वरूप हमारा भारत विश्व मानचित्र पर अखंड भारत बनकर उभरा और वह सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ l उन्नति के पश्चात पतन होना निश्चित है, देश का पतन हुआ l वर्तमान भारत जिसे हम सब देख रहे हैं, वह वास्तविक भारत नहीं है जो विश्व मानचित्र पर अखंड महाभारत दिखता था l विभिन्न षड्यंत्रों के कारण उसके कई महत्वपूर्ण क्षेत्र अब उससे कटकर विभिन्न राष्ट्र बन चुके हैं l देश में अब भी अनेकों षड्यंत्र जारी हैं l ऐसी स्थिति में सरकारों को देशहित में कठोर निर्णय लेने होते हैं, लेने भी चाहिए और जनता द्वारा उन्हें अपना भरपूर सहयोग देना चाहिए l भविष्य में सावधान रहने की आवश्यकता है l
    भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के पश्चात अंग्रेजों ने भारतीय परंपरागत गुरुकुलों की मान्यता समाप्त कर दी थी l और उसके स्थान पर उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली जारी की थी l पाश्चात्य शिक्षा-संस्कृति पर आधारित वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था से भारतीय सनातन धर्म, शिक्षा-संस्कृति पर बुरा प्रभाव पड़ा है, पड़ रहा है और निरंतर जारी है l
    भारतीय परंपरागत गुरुकुलों की विशेषता यह थी कि ब्रह्मचर्य जीवन में जब बच्चे पूर्णतया विद्या प्राप्त करके स्नातक बनकर युवाओं के रूप में गुरुकुल छोड़ने के पश्चात समाज में आगमन करते थे तब वे समाज की दृष्टि में सच्चे ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर तथा कर्मवीर होते थे l लोग उनका हार्दिक सम्मान करते थे l परन्तु पराधीनता से मुक्ति पाने के पश्चात् भी भारतवर्ष में आज हर युवा अव्यवस्था के दंश से दुखी, अपनी इच्छा का कार्य, कार्य क्षेत्र न मिल पाने के कारण असहाय सा अनुभव कर रहा है l
    यह हम सबका दुर्भाग्य ही है कि भारत में परंपरागत गुरुकुल नहीं हैं l वर्तमान शिक्षा के निम्न स्तर तथा शिक्षा व्यवस्था का तेजी से व्यपारीकरण एवंम राजनीतिकरण होने से बच्चों को माँ-बाप से मिलने वाले संस्कारों को कहीं संरक्षण नहीं मिल रहा है l घर पर बच्चों को अच्छे संस्कार तो मिल जाते हैं पर उनका पालन-पोषण करने वाली परंपरागत गुरुकुल प्रधान शिक्षा व्यवस्था आज कहीं दिखती नहीं है l पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था और उसके अधीनस्थ कार्य करने वाले समस्त छोटे तथा बड़े असमर्थ विद्यालय, विद्यालय केन्द्रों से युवा वर्ग दशा और दिशा दोनों से भ्रमित हो रहा है l उसका भविष्य अंधकारमय हो गया है l फिर भी वह अपना हित चाहता है पर उसकी श्रेष्ठता किसमें है ? यहाँ हमें इस बात का विश्लेषण करके देखना अति आवश्यक है l
    हम लोगों में कुछ लोग मात्र अपना ही भला चाहते हैं l कुछ लोग अपना और अपने रिश्तेदारों का भला चाहते हैं l कुछ लोग अपना और कुछ लोगों का भला चाहते हैं l जो लोग मात्र अपना भला चाहते हैं, अपने रिश्तेदारों का भला चाहते हैं, अपना और कुछ लोगों का भला चाहते हैं, उनमें निज स्वार्थ भी दिखाई देता है l वे कभी सबका भला होता हुआ नहीं देख सकते l मगर हममें कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सब लोगों का भला चाहते हैं l इसमें उनका अपना कोई भी हित नहीं दिखता l वे दूसरों के हित में अपना हित समझते हैं, चाहते हैं l इसलिए सबका भला करने वाले लोग सन्यासी, सर्व श्रेष्ठ लोग होते हैं l
    मन के विकार और इच्छाएं बड़ी प्रबल होती हैं l वानप्रस्थ जीवन में उनका अपने विवेक द्वारा सयंमन करने और उनके प्रति हर समय जागरूक रहने की निरंतर आवश्यकता रहती है l वैसे तो हर व्यक्ति स्वतंत्र रहना चाहता है पर स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि प्रभावशाली होने पर भी मर्यादाओं का उल्लंघन किया जाये या हर किसी को उसकी मनमर्जी करने की छूट हो, बल्कि स्वतंत्रता का अर्थ है कि व्यक्ति के द्वारा उन मर्यादाओं की पालना करने के साथ-साथ समाजिक दायित्वों का भी भली प्रकार निर्वहन हो l समर्थवान बनने के लिए हर व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करके, उसका कृपा-पात्र बन सकता है l
    वह प्रार्थना कर सकता है – हे ईश्वर ! हमारे मन में सुसंगत करने का साहस उत्पन्न हो l कुसंगत से हमारी निरंतर दूरी बनी रहे l सुसंगत हमारे मन में शुद्ध भावना पैदा करे l शुद्ध भावना से हमारी हर दुर्बलता, दुर्भावना का नाश हो l शुद्ध भावना से हमारे मन में शुद्ध विचारों की वृद्धि हो l भूलकर भी हमारे मन कोई कुविचार न आये l शुद्ध विचार हमारे सत्कर्मों की सदा वृद्धि करें l आपका हमें कभी विस्मरण न हो l हमसे कभी कोई दुराचार न हो l सत्कर्मों से हमारा सदैव आत्मोत्थान हो l हमारा कभी आत्म-पतन न हो l आप हमें सदा आत्मोन्मुख बनाये रखें l आपकी कृपा से हम सदैव दूसरों की भलाई करने हेतु निमित मात्र बने रहें l यह मनोकामना हम सबकी पूर्ण हो l
    सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाये नीति के अंतर्गत परंपरागत सन्यासी और शासक, जन प्रतिनिधि, राजनेता का जीवन एक ही समान होता है, भारत में पहले ऐसा होता था और अब भी है l उनका कार्य, कार्य क्षेत्र अलग-अलग होने पर भी उनकी रचनात्मक एवंम सकारात्मक सोच एक ही समान रहती है l वास्तविक सन्यासी ज्ञानी, भक्त और वैरागी होता है l वह सदैव दूसरों का मार्गदर्शन करता है l यही कारण था कि भारत विश्व गुरु बना l
    सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाये नीति के अंतर्गत सबका एक समान विकास करना, विकास किया जाना सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों का दायित्व है l आज देशहित में आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को माँ-बाप के द्वारा मिलने वाले शिक्षा संस्कारों का समस्त विद्यालयों में भली प्रकार पालन-पोषण हो, संरक्षण हो l यह कार्य वहां तभी साकार हो सकता है जब भारत सरकार और देश की राज्य सरकारें आपस में परंपरागत गुरुकुलों की भाँती कोई एक ठोस राष्ट्रीय शिक्षा-नीति की घोषणा करके उसे व्यवहारिकता प्रदान करें l इससे भारतवर्ष विश्व मानचित्र पर पुनः अखंड महाभारत एवंम विश्व गुरु बन सकता है l इसके बिना न तो भारतवर्ष का हित है और न ही किसी देशवासी का

    चेतन कौशल “नूरपुरी”