क्या हिंन्दी ”हिन्द की राजभाषा“ को व्यावहारिक रूप में जन साधारण तक पहुंचाने में कोई वाधा आ रही है? अगर हां तो हम उसे दूर करने में क्या प्रयास कर रहे हैं? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना ज्यादा जरूरी है।
मुझे भली प्रकार याद है दिनांक 21 फरवरी 2008 को मैं अपार जन समूह में लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में बैठा हुआ अति प्रसन्न था। हम सब वहां पर आयोजित केन्द्रीय भू जल बोर्ड व सिंचाई एवं जन स्वास्थय कर्मचारियों की संयुक्त बैठक में भाग लेने गए हुए थे। वहां पर विद्यमान गणमान्य अधिकारियों की अध्यक्षता सिंचाई एवं जन स्वास्थय मंत्री ने की थी।
सभागार में हर कोई खामोश, कार्रवाई प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था। वह शुरू हुई और हमारे कान खड़े हो गए। आरम्भ में, राज्य के सिंचाई एवं जन स्वास्थय मंत्री माननीय रविन्द्र रवि और चिन्मय स्वामी आश्रम, संस्था की निदेशिका डा0 क्षमा मैत्रेय के संभाषण से भारतीयता की झलक अवश्य दिखाई दी। दोनों के भाषण हिन्दी भाषा में हुए जिनमें देश के गौरव की महक थी। मुझे पूर्ण आशा थी कि भावी कार्रवाई भी इसी प्रकार चलेगी परन्तु विलायती हवा के तीव्र झौंके से रुख बदल गया और देखते ही देखते सभागार से हिन्दी भाषा सूखे पत्ते की तरह उड़ कर अमुक दिशा में न जाने कहां खो गई। जिसका वहां किसी ने पुनः स्मरण तक नहीं किया – जो भी बोला, जिस किसीने किसी से पूछा या जिसने कहा, वह मात्र अंग्रेजी भाषा में था।
उस समय मुझे ऐसा लगा मानों हम सब लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद में बैठे हुए हैं और कार्रवाई देख रहे हैं, अंतर मात्र इतना था कि हमारे सामने गोरे अंग्रेज नहीं, बल्कि काले अंग्रेज – स्वदेशी अपने ही भाई थे। वो समाज को बताना चाहते थे कि वे गोरे अंग्रेजों से कहीं ज्यादा बढ़िया अंग्रेजी भाषा बोल और समझ सकते हैं। उनकी अंग्रेजी भाषा, हिन्दी भाषा से ज्यादा प्रभावशाली है। अंग्रेजी भाषा में उनका ज्ञान देश की आम जनता आसानी से समझ सकती है। मुझे तो वहां अंग्रेजी साम्राज्य की बू आ रही थी – भले ही वह भारत में कब का समाप्त हो चुका है।
अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना बुरी बात नहीं है। उसे बोलने से पूर्व देश, स्थान और श्रोता का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी है। वह लघु सचिवालय अपना था। वहां बैठे सब लोग अपने थे फिर भी वहां सबके सामने राज- भाषा हिन्दी की अवहेलना और अनदेखी हुई। बोलने वाले लोग हिन्दी भूल गए, जग जान गया कि सचिवालय में राजभाषा हिन्दी का कितना प्रयोग होता है और उसे कितना सम्मान दिया जाता है।
ऐसा लगा मानों सचिवालय में मात्र दो महानुभावों को छोड़ कर अन्य किसी को हिन्दी या स्थानीय भाषा आती ही नहीं है। हां, वे सब पाश्चत्य शिक्षा की भट्टी में तपे हुए अंग्रेजी भाषा के अच्छे प्रवक्ता अवश्य थे। वे अंग्रेजी भाषा भूलने वाले नहीं थे क्योंकि उन्होंने गोरे अंग्रेजों द्वारा विरासत में प्रदत भाषा का परित्याग करके उसका अपमान नहीं करना था। वे हिन्दी भाषा बोल सकते थे पर उन्होंने सचिवालय में राष्ट्रीय भाषा हिन्दी का प्रयोग करके उसे सम्मानित नहीं किया, कहीं गोरे अंग्रेज उनसे नाराज हो जाते तो…!
भारत या उसके किसी राज्य का, चाहे कोई लघु सचिवालय हो या बड़ा, राज्यसभा हो या लोकसभा अथवा न्यायपालिका वहां पर होने वाली सम्मानित राजभाषा हिन्दी में किसी भी जन हित की कार्रवाई, बातचीत अथवा संभाषण के अपरिवर्तित मुख्य अंश मात्र उससे संबंधित विभागीय कार्यालय या अधिकारी तक सीमित न हो कर ससम्मान राष्ट्र की विभिन्न स्थानीय भाषाओं में, उचित माध्यमों द्वारा जन साधारण वर्ग तक पहुंचने अति आवश्यक हैं। उनमें पारदर्शिता हो ताकि जन साधारण वर्ग भी उनमें सहभागीदार बन सके और सम्मान सहित जी सके। उसके द्वारा प्रदत योगदान से क्या राष्ट्र का नवनिर्माण नहीं हो सकता? उसका लोकतंत्र में सक्रिय योगदान सुनिश्चित होना चाहिए जो उसका अपना अधिकार है। इससे वह दुनियां को बता सकता है कि भारत उसका अपना देश है। वह उसकी रक्षा करने में कभी किसी से पीछे रहने वाला नहीं है।
9 नवंबर 2008 कश्मीर टाइम्स