मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



2. भक्ति, श्रद्धा, प्रेम का पर्व श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

भगवान श्रीकृष्ण लगभग 5000 वर्ष ईश्वी पूर्व इस धरती पर अवतरित हुए थे। उनका जन्म द्वापर युग में हुआ था।…
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सशक्त न्याय व्यवस्था की आवश्यकता

दिनांक 29 जुलाई 2025 सत्य, न्याय, नैतिकता, सदाचार, देश, सत्सनातन धर्म, संस्कृति के विरुद्ध मन, कर्म और वचन से की…
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सनातन धर्म के सोलह संस्कार

दिनांक 20 जुलाई 2025 सनातन धर्म के सोलह संस्कारसनातन धर्म में मानव जीवन के सोलह संस्कारों का प्रावधान है जो…
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ब्राह्मण – ज्ञानवीर

उद्देश्य – विश्व कल्याण हेतु ज्ञान विज्ञान का सृजन, पोषण और संवर्धन करना l – ब्रह्मा जी का मुख ब्राह्मण…
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क्षत्रिय – शूरवीर

उद्देश्य –  ब्राह्मण, नारी, धर्म, राष्ट्र, गाये के प्राणों की रक्षा – सुरक्षा की सुनिश्चितता  बनाये रखना l   -…
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    2. माँ

    जून 2011 मातृवन्दना  

    सिंहनी बलवान सिंह जन्म देकर
    सदा अभय होकर सोती है
    गधी दस गधों की माँ होकर भी
    दुःख पाती, बोझा ढोती है
    सौ पुत्र थे, गन्धारी- धृतराष्ट्र के,
    दुःख ही दुःख पाया था
    पांच थे कुंती के प्यारे पांडव,
    दुःख में भी सुख पाया था
    माँ ! तू जनना धर्म परायण,
    ज्ञाननिष्ठ, कला प्रेमी और शूरवीर
    नहीं तो बाँझ ही रहना भला,
    व्यर्थ न बहाना कभी नैन नीर


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    1. मेहनत का राज

    मई 2011 मातृवन्दना 

    मेहनत करने वालों को कम बहुत हैं
    नहीं करने वालों को हैं बहुत बहाने
    वही कहें आंगन टेढ़ा
    जो कभी नाचना न जाने
    मेहनत लग्न से होती है
    दिल – दिमाग एक करना जो जाने
    मेहनत करने वालों को कम बहुत हैं
    नहीं करने वालों को हैं बहुत बहाने
    जबरन न उनको कम पर लगाना
    ध्यान जिन्होंने कम पर नहीं लगाना
    लग्न से मुश्किल कम आसान हो जाते
    आओ चलें ! कार्यकुशल मेहनती को अपनाने
    मेहनत करने वालों को कम बहुत हैं
    नहीं करने वालों को हैं बहुत बहाने
    धन –दौलत अर्जित होती है
    और ठाट- बाट भी, क्या कहने !
    धन –दौलत उन्हीं की दासी होती है
    धन सदुपयोग करना जो जाने
    मेहनत करने वालों को काम बहुत हैं
    नहीं करने वालों को हैं बहुत बहाने
    सारा बाजार उन्हीं का होता अपना
    जान लेते बाजार के सारे जो मायने
    मेहनत करना अपना धर्म वो समझते
    नहीं ढूंढते, नहीं करने के जो बहाने
    मेहनत करने वालों को कम बहुत हैं
    नहीं करने वालों को हैं बहुत बहाने


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    2. शिक्षा और अध्यात्म ने जोड़ा है बिखरा समाज

    मातृवंदना अप्रैल 2011 

    सत्य ब्रह्म है और ब्रह्म ही सत्य है l ऐसा वेद कहते हैं l वेद भारतीय संस्कृति और अध्यात्म के दिव्य आधार स्तंभ रहे हैं जो सदियों से मानव जाति में सत्य, कर्म, धर्म और शौर्यता का संचार करते आये हैं l हमारे पूर्वज आर्य थे l आर्य सत्यप्रिय, कर्मनिष्ठ, धार्मिक और शूरवीर थे l इसी आधार पर भारत में नैतिक, सामाजिक, अध्यात्मिक, राजनैतिक और आर्थिक शक्तियों का संपूर्ण विकास हुआ था l इस कार्य को सफल बनाने वाली थी, भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली l
    भारतीय शिक्षा-प्रणाली संसार और अध्यात्म दोनों की प्रिय रही है l वह सत्य पर आधारित थी l इससे विद्यार्थी द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया जाता था l विद्यार्थी अन्तर्मुखी हो जाता था l इससे उसकी आत्म साक्षात्कार करने की दिशा निर्धारित होती थी l
    भारतीय शिक्षा कर्म प्रधान थी l वह सर्वजन हिताय – सर्व जन सुखाय का बोध करवाती थी l उसमें जीव जंतुओं के हित और उनके सुख का भी विशेष ध्यान रखा जाता था l पर्यावरण सुरक्षा में लेश मात्र भी उपेक्षा नहीं की जाती थी और प्रदूषण कहीं दिखाई नहीं देता था l
    भारतीय शिक्षा धार्मिक और संस्कारित थी l विद्यार्थी का जीवन धार्मिक और संस्कारवान होता था l वह जीवन में कभी नीच कर्म करने का दुस्साहस नहीं करता था l अगर उससे कभी ऐसा हो भी जाता था तो गुरुकुल या गुरु के द्वारा उसका सुधार कर लिया जाता था l उसकी सोच पवित्र हो जाती थी l वह किसी का दुःख अपना दुःख समझकर उसे दूर करने का प्रयास करता था l वह सदैव माँ-बाप, गुरु, वृद्ध और महिलाओं का सम्मान किया करता था l उसकी जीवन शैली महान थी l
    भारतीय शिक्षा बच्चों को पराक्रमी बनाती थी l उससे विद्यार्थी अपने जीवन में किसी भी दुःख या कष्ट का सामना करने में सक्षम हो जाते थे l वह राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों का डटकर सामना करने के लिए सदैव तैयार ही नहीं रहते थे बल्कि उनका सामना भी करते थे l इससे बिखरे हुए समाज को अज्ञान के अँधेरे में सत्य का प्रकाश मिलता था l उसे सत्कर्म करने की प्रेरणा मिलती थी l धर्म और संस्कारों से उसे जीने-मरने की कला का ज्ञान होता था और इसके साथ ही साथ उसे शूरवीरता से जान-माल की रक्षा-सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का सामना करने का साहस भी मिलता था l
    इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय शिक्षा और अध्यात्म बिखरे हुये समाज को जोड़ने में ज्ञान, कर्म, धर्म, और शौर्यता इत्यादि सर्व गुणों से संपन्न, समर्थ और सक्षम रहा है l यह भारत का दुर्भाग्य ही है कि अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजों के द्वारा भारतीय गुरुकुल शिक्षा–प्रणाली प्रथा को हतोत्साहित करके धीमें-धीमें समाप्त कर दिया गया l राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्वार्थवश हमने इस ओर देखने का साहस तक नहीं किया जिसकी हमें आज अत्याधिक आवश्यकता है l आइये ! हम सब इसकी पुनर्स्थापना करने का मिलकर प्रयास करें ताकि भारत का खोया हुआ पुरातन गौरव पुनः प्राप्त हो सके l

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    2. विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति

     
    फरवरी 2011 मातृवंदना


    प्राचीन भारत वर्ष विश्व मानचित्र पर आर्यावर्त देश रहा है l आर्य वेदों को मानते थे l वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते थे l वेद जो देव वाणी पर आधारित है, उन्हें ऋषि मुनियों द्वारा श्रव्य एवम् लिपिवद्ध किया हुआ माना जाता है l वेदों में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्वेद प्रमुख हैं l वे सब सनातन हैं, वे पुरातन होते हुए भी सदैव नवीन हैं l उनमें परिवर्तन नहीं होता है l वे कभी पुराने नहीं होते हैं l 
    समय परिवर्तनशील है जिसके साथ-साथ नश्वर संसार की हर वस्तु बदल जाती है l नहीं बदलता है तो वह मात्र सत्य है l सत्य सनातन है l वेद सत्य पर आधारित होने के कारण सदा नवीन, अपरिवर्तनशील और सनातन हैं l वेदों के अनुगामी और हमारे पूर्वज आर्य सत्यप्रिय, कर्मनिष्ठ, धार्मिक और शूरवीर थे l सत्यप्रियता, कर्मनिष्ठा, धार्मिकता और शूरवीरता ही वेदों का आधार है, उनका सार है l यही हमारी पुरातन संस्कृति तथा अध्यात्मिक धरोहर है जिसे विश्व ने माना है l
    सत्य ही ब्रह्म है, वह ब्रह्म जिसका किसी के द्वारा कभी कोई विघटन नहीं किया जा सकता l वह सदैव अबेध्य, अकाट्य और अखंडित है l ब्रह्म-ज्ञान और विषयक तात्विक ज्ञान प्राप्त करना ही विवेकशील पुरुष का परम कर्तव्य है जो उन्हें भली प्रकार समझ लेता है, जान जाता है, उसे सत्य-असत्य में भेद अथवा अंतर कर पाना सहज हो जाता है l कोई कहे कि रात बड़ी काली होती है, रात को हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है l यह पहला सत्य है l अगर काली रात में कोई एक दीपक प्रज्ज्वलित कर लिया जाये तो घोर अंधकार भी दिन के उजाले की तरह प्रकाश में बदल जाता है और तब हमें सब कुछ दिखाई देने लगता है l यह दूसरा सत्य है l इसी तरह मन, कर्म तथा वाणी से ब्रह्ममय हो जाने से मनुष्य सत्यवादी हो जाता है l तदोपरांत उसमें सत्य प्रियता, सत्य निष्ठा जैसे अनेकों दैवी गुण स्वाभाविक ही पैदा हो जाते हैं l 
    ब्रह्मज्ञान से मनुष्य की अपनी पहचान होती है l वह जान जाता है कि उसमें क्या कर सकने की क्षमताएं विद्यमान हैं ? वह स्वयं क्या-क्या कार्य कर सकता है ? उनके संसाधन क्या हैं ? अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य बेंधने हेतु उन्हें धारण और प्रयोग कैसे किया जाता है ? उन क्षमताओं के द्वारा जीवन में उन्नति कैसे की जा सकती है ? जब वह ऐसा सब कुछ जान जाता है, तब वह अपने गुण व संस्कार और स्वभाव से वही कार्य करता है जो उसे आरम्भ में कर लेना होता है l देर से ही सही, वह वैसा करके अपने कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है l उसे कार्य कौशल प्राप्त हो जाता है जो उसकी अपनी आवश्यकता होती है l
    ब्रह्मज्ञान से मनुष्य को उचित-अनुचित और निषिद्ध कार्यों का ज्ञान होता है l जनहित में उचित कार्य करना वह अपना कर्तव्य समझता है l वह नैतिक, व्यवहारिक कार्य करता हुआ सदाचार का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है l इस प्रकार उसके गुण-संस्कारों से दूसरों को प्रेरणा मिलती है l दूसरों के लिए वह एक आदर्श बन जाता है l वे उसका अनुसरण करते हैं और अपना जीवन सफल बनाते हैं l
    ब्रह्मज्ञान से ही मनुष्य जागरूक होता है l उसका हृदय एवम् मष्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है l जब वह इस स्थिति पर पहुँच जाता है तब वह स्वयं के शौर्य और पराक्रम को भी पहचान लेता है l वह समाज को संगठित करके/एक नई दिशा देकर उसमें नवजीवन का संचार करता है जिससे समाज और उसकी धन-संपदा की रक्षा एवं सुरक्षा सुनिश्चित होती है l
    ब्रह्मज्ञान मनुष्य जीवन को पुष्ट करता है l उसे अजेयी शक्ति प्रदान करता है l शायद इन पंक्तियों में इसी प्रकार के भाव भरे हैं :-
    सुगंध बिना पुष्प का क्या करें ?
    तृप्ति बिना प्राप्ति का क्या करें ?
    ध्येय बिना कर्म निरर्थक है, 
    प्रसन्नता बिना जीवन व्यर्थ है l
    प्रश्न पैदा होता है कि ऐसे गुण-संस्कारों के प्रेरणा स्रोत क्या हैं ? यह गुण-संस्कार जन साधारण तक कैसे पहुंचाए जा सकते हैं ? इसका  उत्तर आर्यों ने सहज ही युगों पूर्व गुरुकुलों की स्थापना करके दे दिया है जिसे भारत, भारतीय समाज ही नहीं, संपूर्ण विश्व भली प्रकार जानता है l 

    प्रकाशित 2011 मातृवंदना

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    1. सनातन है जीने की कला !


    15 जनवरी 2011 कश्मीर टाइम्स


    किसी ने ठीक ही कहा है –
    “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत l
    पारब्रह्म को पाइए, मन ही के प्रतीत”
    अर्थात मन से हार मान लेने से मनुष्य की हार होना निश्चित है परन्तु हारकर भी मन से न हारना और युक्ति-युक्त होकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयासरत रहने से, उसकी जीत अवश्य होती है l चाहे परम शांति पाने की ही बात क्यों न हो, उसके लिए बलशाली मन की भूमिका प्रमुख होती है l  
     “जीना एक कला है l” सब जानते हैं l पर जिया कैसे जाता है ? बलिष्ठ तन, पवित्र मन, तेजस्वी बुद्धि और महान आत्मा की उद्गति कैसे होती है ? इन प्रश्नों का उत्तर हमें भारतीय सत्सनातन जीवन पद्धति से मिलता है l


    चिंता नहीं, चिन्तन करो :– भले ही जन साधारण का मन अत्याधिक बलशाली हो, परन्तु वह स्वभाव से कभी कम चंचल नहीं होता है l अपनी इसी चंचलता के कारण, वह दश इन्द्रिय घोड़ों पर सवार होकर, इन्द्रिय विषयों का रसास्वादन करने हेतु हर पल लालायत रहता है l वह अपने जीवन के अति आवश्यक कल्याणकारी उद्देश्य को भूलकर सत्य और धर्म-मार्ग से भी भटक जाता है l वह बार-बार भांति-भांति के निर्रथक प्रयास एवं चेष्टाएँ करता है जिनसे उसे असफलताएं या निराशाएं ही मिलती हैं l वह प्रभु-कृपा से अनभिज्ञ हो जाता है, अतः वह चिंताग्रस्त होकर दुःख पाता है l परन्तु  सजग जिज्ञासु, युवा साधक और मुनिजन अपने नियंत्रित मन द्वारा, सत्य एवम् धर्म प्रिय कार्य करते हुए सदैव चिंता-मुक्त रहते हैं l वह अपने जीवन में सफलता और वास्तविक सुख-शांति प्राप्त करते हैं l 


    निद्रा का त्याग करो :- सत्य और धर्म के मार्ग से भ्रमित पुरुष पतित, मनोविकारी, स्वार्थवश अँधा एवम् इन्द्रिय दास होता है l वह धार्मिक शिक्षा, संस्कार एवं समय पर उचित मार्ग-दर्शन के अभाव में अपने हितैषियों के साथ सर्व प्रिय कार्यों का सहभागी न बनकर मनोविकार, अपराध, और षड्यंत्रों में लिप्त रहता है l यही उसकी निद्रा है l इसी निद्रावश वह अपनी आत्मा, परिवार, गाँव, राज्य और विश्व विरुद्ध कार्य करता है, उनका शत्रु बनता है l वह स्वयं पीड़ित होकर शारीरिक, मानसिक और आर्थिक आधार पर  सत्ता, पद, धन, बाहुबल और अमूल्य समय का दुरूपयोग करता है l इससे किसी का भी हित नहीं होता है, अतः नित नये-नये संकट, कठिनाइयाँ, समस्याएं, बाधाएं और चुनौतियाँ पैदा होती हैं l परिणाम स्वरूप वह प्रभु-कृपा से वंचित रहता है l लेकिन सजग, जिज्ञासु, युवा साधक और मुनिजन सर्व प्रिय कार्य एवं आत्मोन्नति करते हुए प्रभु-कृपा के पात्र बनते हैं l


    स्वयं की पहचान करो :-  युद्ध कर्म में परिणत कुरुक्षेत्र में गीता उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण जी, कहते हैं – “हे अर्जुन ! स्वयं को जानो l इसके लिए सर्व प्रथम तुम जीवनोद्देश्य में सफलता पाने हेतु अपने मनोविकारों के प्रति, प्रतिपल सजग और सतर्क  रहकर युक्ति-युक्त अभ्यास एवं वैराग्य–श्रम करो l अपने मन का स्वामी बनो l स्थितप्रज्ञ, धर्मपरायण एवं कर्तव्यनिष्ठ होकर, सर्व हितकारी लक्ष्य बेधन अर्थात युद्ध करो l तदुपरांत सृजनात्मक, रचनात्मक, सकारात्मक तथा जन हितकारी कर्मों को व्यवहारिक रूप दो l तुम्हारी विजय निश्चित है l इसमें तुम किसी प्रकार का संदेह न करो, मोह त्याग दो l सत्य और धर्म की रक्षा हेतु धर्मयुद्ध करो l इस समय तुम्हारा यही कर्तव्य है l” निस्संदेह यह उपदेश अर्जुन जैसे किसी भी जिज्ञासु, युवा साधक और मुनि के लिए आत्म-जागरण और उस पर प्रभु-कृपा का कार्य कर सकता है, करना चाहिए l 

      
    प्रभु-कृपा का पात्र बनो :– ऐसे जिज्ञासु युवा साधक, मुनि और योगीजन जो बहुजन हिताए – बहुजन सुखाये नीति के अंतर्गत सर्व प्रिय कार्य (मन से रामनाम का जाप और शरीर से सांसारिक कार्य) करते हैं, उनसे इनका अपना तो भला होता ही है, साथ ही साथ दूसरों को भी लाभ मिलता है l “वसुधैव कुटुम्बकम” में युगों से भक्त जन, साधक परिवार के सदस्य बनते रहे हैं, मानों कोई सरिता समुद्र में समा रही हो l इसे देख मन अनायास ही हिलोरे लेने लग जाता है l
    “राम नाम की लूट है, लुट सके तो लुट l 
    अंतकाल पछतायेगा, जब प्राण जायेंगे छुट ll”
    इस प्रकार विश्व में सभी ओर प्रभु-कृपा, आनंद ही आनंद और परमानंद दिखाई देता है l धर्म-कर्म है जहाँ, प्रभु-कृपा है वहां l भारतीय “सत्सनातन जीवन पद्दति” के इस उद्घोष को साकार करने हेतु प्रत्येक भारतीय जिज्ञासु युवा साधक और मुनि में बलशाली मन द्वारा निश्चित कर्म करने के साथ-साथ अपने लक्ष्य बेधन की प्रबल इच्छा-शक्ति और कार्य क्षमता अवश्य होनी चाहिए l जो गर्व के साथ भारत का माथा ऊँचा कर सके l जो उचित समय पर विश्व में अपना लोहा मनवा सके l जिससे भारत का खोया हुआ पुरातन गौरव पुनः प्राप्त हो सके l    
    जन-जन के हृदय से निकलें शुद्ध विचार,
    भारत “सोने की चिड़िया” सपना करें साकार,
     “वसुधैव कुटुम्बकम - साधक परिवार,”
    घर-घर पहुंचाए धर्म, सांस्कृतिक विचार l


    प्रकाशित 15 जनवरी 2011कश्मीर टाइम्स