मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



2. भक्ति, श्रद्धा, प्रेम का पर्व श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

भगवान श्रीकृष्ण लगभग 5000 वर्ष ईश्वी पूर्व इस धरती पर अवतरित हुए थे। उनका जन्म द्वापर युग में हुआ था।…
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सशक्त न्याय व्यवस्था की आवश्यकता

दिनांक 29 जुलाई 2025 सत्य, न्याय, नैतिकता, सदाचार, देश, सत्सनातन धर्म, संस्कृति के विरुद्ध मन, कर्म और वचन से की…
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सनातन धर्म के सोलह संस्कार

दिनांक 20 जुलाई 2025 सनातन धर्म के सोलह संस्कारसनातन धर्म में मानव जीवन के सोलह संस्कारों का प्रावधान है जो…
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ब्राह्मण – ज्ञानवीर

उद्देश्य – विश्व कल्याण हेतु ज्ञान विज्ञान का सृजन, पोषण और संवर्धन करना l – ब्रह्मा जी का मुख ब्राह्मण…
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क्षत्रिय – शूरवीर

उद्देश्य –  ब्राह्मण, नारी, धर्म, राष्ट्र, गाये के प्राणों की रक्षा – सुरक्षा की सुनिश्चितता  बनाये रखना l   -…
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    2. स्लोगन जल बाईसा

    ज्ञान वार्ता छमाही 2013 

    जल है गुणों की खान,
    धरती की बढ़ाये शान,

    जल रहेगा,
    जीवन बचेगा,

    भू-जल बढ़ाओ,
    जीवन बचाओ,

    जल के संग,
    जल के रंग,

    जल है जहाँ,
    जीवन है वहां,

    जल, जीवन की आशा,
    सूखा, निराशा ही निराशा,

    जल की कहानी,
    जीवन की कहानी,

    जहाँ भू-जल सहारा है,
    वहां जीवन हमारा है,

    जल से पढ़, पेड़ों से जंगल,
    सूखे में सबका करते मंगल,

    पेड़, पानी हैं जीवन आधार,
    बंद करो, इन पर अत्यचार,
    जल संपदा, जंगल संग,
    खिलता जीवन, भरता रंग,

    जल मिलेगा जब तक,
    जीवन रहेगा तब तक,

    जल गुणों की खान,
    बचाए हम सबकी जान,

    भूजल के सहारे,
    प्राण रहेंगे हमारे,

    पेड़ों से शुद्ध मिलती है वायु,
    वायु से लंबी होती है आयु,

    जंगल संतुलित वर्षा हैं लाते,
    हम सबका जीवन हैं बचाते,

    जल, जमीन, जंगल संरक्षण प्रण हमारा,
    पल-पल बारी जाये इन पर जीवन हमारा,

    सूखी धरती करे पुकार,
    मुझ पर करो यह उपकार,
    बहते पानी पर बाँध बनाओ,
    भूजल बढ़ाओ, पुनर्भरण अपनाओ,

    जीवन होगा खुशहाल तभी,
    जल बचायेंगे, जब हम सभी,
    जल है,
    जीवन है,

    भूजल संचित,
    जीवन सुरक्षित,

    खुद जागो, दूसरों को जगाओ,
    जल, जमीन, जंगल को बचाओ,
    स्वच्छ बहे जल - धारा
    स्वस्थ रहे जीवन हमारा,

    बहते जल को बांधकर,
    करो यह उपकार,
    भूमि जलस्तर बढ़ेगा,
    सम्पन्न होगा संसार,



  • 2. युवा पीढ़ि और उसका दायित्व
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    2. युवा पीढ़ि और उसका दायित्व

    अक्तूबर 2013 मातृवन्दना 

    ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्माण्ड बड़ा विचित्र है। सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का द्योतक है कि समस्त ब्रह्माण्ड में कोेेई भी अमुक वस्तु किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है।
    युवाओं को जीवन के महान् उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण-संस्कार जीवन उद्देश्यों  के अनुकूल होते हैं। प्रतिकूल गुण -संस्कारों से किसी भी महान् उद्देश्य  की प्राप्ति नहीं होती है। बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है। जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात  उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण-संस्कार युक्त युवाओं के कर्माें की छाप भी सम्पूर्ण जनमानस पटल परअवश्य अंकित होती है जो युग-युगांतरों तक उसके द्वारा भुलाए नहीं भुलाई जाती है। अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है। यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति के स्वामी हैं।
    बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाय नीति के आधार पर भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए। उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना। जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लगन, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराश  कर उसे मन चाही एक सुन्दर आकृति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार प्रयत्नशील युवाओं को स्वयं में छुपी हुई प्रभावी विद्या, कला के रूप में दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में, आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो। उन्हें सफलता अवश्य  मिलेगी। देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुरूप देश - कार्य क्षेत्र, काल - समय, परिस्थिति तथा पात्र - सहयोगी और मार्गदर्शक अवश्य  मिल जाते हैं। उनसे उनका काम सहज होना निश्चित  हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है।
    किसी प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान् उद्देश्य  की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक  है जितना फूलों में सुगन्ध होना। सुगन्धित फूलों से मुग्ध होकर, फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण से प्रभावित होकर उनका अनुसरण करने के लिए, उनके अनुयायी भी बनते हैं। इसलिए वे उनके साथ रह कर, वह अच्छा बनने के लिए अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं।
    उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है। वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है। एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान  समझता है, दुराचार के कार्य करता है। इसलिए दोनों की प्रकृतियां आपस में कभी एक समान हो नहीं सकतीं। वह एक दिशा सूचकयंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा  में रहती हैं। उन दोनों में द्वंद् भी  होते हैं।
    कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार सदाचार को असहनीय कष्ट  और पीड़ा ही पहुंचाता है। जब यह दोनों प्रकृतियां सुसंगठित होकर धर्म, अधर्म के दो बड़े अलग-अलग समूहों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद् न रहकर, युद्ध होते हैं जिनसे उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है।
    समर्थ युवा वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थया एवं शक्ति रखता है। तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक  है। वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं। इसलिए युवा-शक्ति जन-शक्ति के रूप में लोक-शक्ति बन जाती है। अतः कहा जा सकता है कि -
    एकता और शक्ति का मूल आधार,
    जन, जन के उच्च गुण संस्कार।
    जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोक कर, बांध बना लिया जाता है, उसी प्रकार युवाओं में कुछ कर सकने की जो अपार तीव्र इच्छाशक्ति होती है, उसे ठहराव दे कर दिशा  देना अति आवश्यक  है। इससे युवाओं की तरुण-शक्ति को नई दिशा  मिल सकती है। उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं।

    अक्तूबर 2013 मातृवन्दना

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    1. जल – धारा से

    मातृवन्दना अक्तूबर 2013 

    थम जा, ऐ जल की धारा !
    छोड़ उतावली, बहे जाती है किधर?
    मुंह उठा, देख तो जरा
    चैकडैम बन गया है इधर
    तू बाढ़ का भय दिखाना पीछे
    पहले गति मंद कर ले अपनी
    तू भूमि कटाव भी करना पीछे
    पहले चाल धीमी कर ले अपनी
    यहाँ रोकना है थोड़ी देर
    रुक सके तो रुक जाना
    करके सूखे स्रोतों का पुनर्भरन
    चाहे तू आगे बढ़ जाना
    चैक डैम पर जलचर, थलचर,
    नभचरों ने आना है
    मंडराना तितली, भोरों ने
    फूल – वनस्पतियों पर गुनगनाना है
    प्रकृति का दुःख मिटाने को
    पर्यावरण की हंसी लौटने को
    थोड़ा थम जा, ऐ जल की धारा !
    जरा रुक जा, ऐ जल की धारा !




  • 1. भारतीय गुरुकुल परंपरा
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    1. भारतीय गुरुकुल परंपरा

    12 अक्तूबर 2013 दिव्य हिमाचल 
    प्रकृति में आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान-विज्ञान प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। कोई जिज्ञासु-पुरुषार्थी विद्यार्थी ही नरेंद्र की तरह उसे जानने, समझने और पाने के लिए कृत संकल्प होता है और अपने सद्गुरु रामकृष्ण परमहंस जी के सान्निध्य और गुरुकुल में रहकर निरंतर प्रयास एवं अभ्यास करके स्वामी विवेकानन्द बनता है। आत्मा ईश्वर का अंश है। जल की बुंद सागर से जलवाष्प बनकर आकाश में अन्य के साथ मिलकर बादल बन जाती है। उस बादल से पहाड़ों पर वर्षा होती है। उसका नीर नदी के जल में लम्बे समय तक बहने के पश्चात फिर से सागर के पानी में एकाकार हो जाता है। उसे अपना खोया हुआ सर्वस्व पुनः मिल जाता है। जल-बूंद की तरह किसी जिज्ञासु-पुरुषार्थी व्यक्ति की आत्मा भी दिव्य पुंज परमात्मा के साथ मिलने के लिए सदा व्यग्र रहती है। यह ज्ञान-विज्ञान परमात्मा से पुरुषार्थी आचार्य, गुरु, शिक्षक और अध्यापकों के द्वारा निज गुण, स्वभाव, आचरण, प्रयास, और अभ्यास से अर्जित किया जाता है। पुरुषार्थी व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहता है -
    ‘‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
    त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
    त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
    त्वमेव सर्व मम देवदेव।।’’
    वह प्रभु से यह भी प्रार्थना करता है -
    ‘‘हे प्रभु! मुझे असत्य से सत्य में ले जा,
    अंधेरे से उजाले में ले जा,
    मृत्यु से अमरता में ले जा।।’’
    आचार्य और ब्रह्म्रगुरु योग, ध्यान एवं प्राणायाम करके ‘‘ब्रह्मज्ञान’’अर्जित करते हैं । उनकी शरण में आने वाले श्रद्धालु, जिज्ञासु, विद्यार्थी और साधकों को उनके द्वारा संचालित ‘‘वेद विद्या मंदिरों’’से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। उनकेे हृदय में आचार्य और गुरुजनों के प्रति अपार श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास होता है। वे गुरु की स्तुति करते हुए कहते हैं -
    ‘‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु
    गुरुर्देवो महेश्वरः
    गुरुर्साक्षात् परमब्रह्म,
    तस्मै श्रीगुरुवे नमः’’
    भौतिक ज्ञान-विज्ञान अर्जित करने के लिए राजगुरु,शिक्षक एवं अध्यापक अपने पुरुषार्थी शिष्य, शिक्षार्थियों के साथ मिल-बैठ कर ऐच्छिक एवं रूचिकर विषयक ज्ञान-विज्ञान के पठन-पाठन का कार्य करतेे हैं। उनमें वे उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करते हैं। उस समय वे दोनों अपनी पवित्र भावना के अनुसार परमात्मा से प्रार्थना करते हैं -
    ‘‘हे परमात्मा! हम दोनों - गुरु, शिष्य की रक्षा करें। हम दोनों का उपयोग करें। हम दोनों एक साथ पुरुषार्थ करें। हमारी विद्या तेजस्वी हो। हम एक दूसरे का द्वेष न करें। ओउम शान्ति शान्ति शान्ति।’’
    पुरुषार्थी शिष्य ‘‘गुरुकुल’’ अथवा ‘‘ज्ञान-विज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण केन्द्र’’से ब्रह्म्रगुरु और राजगुरु के सान्निध्य में रहकर तथा उनसे सहयोग पाकर विषयक ज्ञान-विज्ञान में शिक्षित-प्रशिक्षित होते हैं। इस प्रकार वे उनके समरूप, उनकी इच्छाओं के अनुरूप समग्र जीव-प्राणी एवं जनहित में सृष्टि के कल्याणार्थ कार्य करने के योग्य बनते हैं। वे मानवता की सेवा को ईश्वर की पूजा मानते हैं और मनोयोग से अपना कार्य करने लगते हैं।
    गुरुकुल में आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात मनोयोग से पुरुषार्थी नवयुवाओं के द्वारा किया जाने वाला कोई भी कार्य सफल, श्रेष्ठ और सर्वहितकारी होता है। इसी आधार पर साहसी पुरुषार्थी व्यक्ति, निर्माता, अन्वेषक , विशिष्ट व्यक्ति, कलाकार, वास्तुकार, शिल्पकार, साहित्यकार, रचनाकार, कवि, विशेषज्ञ, दार्शनिक, साधक, ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी, योगी और सन्यासी अपने जीवन प्रयंत प्रयास एवं अभ्यास करते हैं। इससे उनके द्वारा मानवता की तो सेवा होती है, सबका कल्याण भी होता है।
    चिरकाल से विशाल प्रकृति अभिभावकों की तरह समस्त प्राणी जगत का पालन-पोषण करती आ रही है। गुरुकुल में विद्यार्थी सीखता है, असीमित जल, धरती, वायु भंडार तथा अग्नि और आकाश प्रकृति के महाभूत हैं। इनसे उत्पन्न ठोस, द्रव्य और गैसीय पदार्थ मानव समुदाय को प्राप्त होते हैं जिनका वह अपनी सुख-सुविधाओं के रूप में सदियोें से भरपूर उपयोग करता आ रहा हैै। इनसे जीव-प्राणियों को आहार तो मिलता है, निरोग्यता भी प्राप्त होती है। किसान, गौ-पालक, व्यापारी, दुकानदार, उत्पादक, निर्माता और श्रमिकों के द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण को परंपरागत संतुलित, प्रदूषण एवं रोग-मुक्त तथा संरक्षित बनाए रखा जाता है। इसका अर्थ है, मानवता की सेवा करना। पुरुषार्थी विद्यार्थी, नागरिक ऐसा करने हेतु हर समय तैयार रहते हैं, अपना कर्तव्य समझते हैं और उसे कार्यरूप भी देते हैं।
    समर्थ विद्यार्थी एवं नागरिकों के द्वारा पुरुषार्थ करके मात्र धन अर्जित करना, अपने परिवार का पालन-पोषण करना और उसके लिए सुख-सुविधाएं जुटाना ही प्रयाप्त नहीं है बल्कि उनके द्वारा साहसी, वीर/वीरांगनां के रूप में निजी, सरकारी, गैर सरकारी संस्थान और कार्यक्षेत्र में भी जान-माल की रक्षा करना एवं सुरक्षा बनाए रखना नितांत आवश्यक है। गुरुकुल सिखाता है, व्यक्ति के द्वारा किसी समय की तनिक सी चूक से मानवता के शत्रु को मानवता पीड़ित करने, उसे कष्ट पहुंचने का अवसर मिलता है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और आक्रमण का सहारा लेता है। उसके द्वारा व्यक्तिगत, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, राजनैेतिक और राष्ट्रीय हानि पहुंचाई जाती है। आर्यजन भली प्रकार जानते हैं, समाज में बिना भेदभाव के, आपस में सुसंगठित, सुरक्षित, सतर्क रहना और निरंतर सतर्कता बनाए रखना नितांत आवश्यक है। ऐसा करना साहसी वीर, वीरांगनाओं का कर्तव्य है। वह हर चुनौति का सामना करने के लिए हर समय तैयार रहते हैं और उचित समय आने पर वे उसका मुंह तोड़ उत्तर भी देते हैं। अगर यह सब गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की देन है तो आइए! हम राष्ट्र में प्रायः लुप्त हो चुकी इस व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने का पुनः प्रयास करें ताकि आर्य समाज और राष्ट्र में तेजी से बढ़ रहे अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और भ्रष्टाचार का जड़ से सफाया हो सके। राष्ट्र में फिर से आदर्श समाज की संरचना की जा सके
    12 अक्टूबर 2013 दिव्य हिमाचल

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    1. संपूर्ण लोक विकास : समस्या और समाधान

    मातृवंदना जुलाई 2013 

    इस सृष्टि की संरचना कब हुई ? कहना कठिन है l सृष्टि के रचयिता ने जहाँ प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए आहार की व्यवस्था की है, वहां मनुष्य के जीवन से संबंधित हर पक्ष के साथ एक विपरीत पहलू भी जोड़ा है l जहाँ सुख है, वहां दुःख भी है l रात है तो दिन भी है l इसी प्रकार सृष्टि में उत्थान और पतन की अपनी-अपनी कार्य शैलियाँ हैं l उत्थान की सीढ़ी चढ़कर मनुष्य आकाश की ऊँचाइयां छूने लगता तो पतन की ढलान से फिसलकर वह इतना नीचे भी गिर जाता है कि एक दिन उसे अपने आप से लज्जा आने लगती है l मनुष्य विवेकशील, धैर्यवान और प्रयत्नशील प्राणी होने के कारण अपना प्रयत्न जारी रखता है l वह गिरता अवश्य है परन्तु कड़ी मेहनत करके वह पुनः पूर्वत स्थान की प्राप्ति भी कर लेता है l कई बार वह उससे भी आगे निकल जाता है l यह उसकी अपनी लग्न और मेहनत पर निर्भर करता है l
    विकास प्रायः दो प्रकार के होते हैं – अध्यात्मिक तथा भौतिकी l जब वेद पथ प्रेमी साधक आंतरिक विकास करता है तो सत्य ही का विकास होता है – वह विकास जिसका कभी नाश नहीं होता है l शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा मरती नहीं है l अभ्यास और वैराग्य को आधार मानकर निरंतर साधना करके, साधक मायावी संसारिक बन्धनों से मुक्त अवश्य हो जाता है l
    साधक भली प्रकार जानता है कि देहांत के पश्चात् उसके द्वारा संग्रहित भौतिक सम्पदा का तो धीरे-धीरे परिवर्तन होने वाला है परन्तु अपरिवर्तनशील आत्मा अपनी अमरता के कारण, अपना पूर्वत अस्तित्व बनाये रखती है l नश्वर शरीर क्षणिक मात्र है जबकि आत्मा अनश्वर, अपरिवर्तनशील और चिरस्थाई है l
    जीवन यापन करने के लिए भौतिक विकास तो जरुरी है पर मानसिक प्रगति उस जीवन को आनंदमयी बनाने के लिए कहीं उससे भी ज्यादा जरुरी है l घर में सर्व सुख-सुविधाएँ विद्यमान हों पर मन अशांत हो तो वह भौतिक सुख-सुविधाएँ किस काम की ? मानसिक अप्रसन्नता के कारण ही संसार अशांति का घर दिखता है l
    भौतिक विकास में साधक जन, धन, जीव-जन्तु, बल, बुद्धि, विद्या, अन्न, पेड़-पौधे, जंगल, मकान, कल-कारखाने और मिल आदि की संरचना, उत्पादन और उनको वृद्धि करते हैं जो पूर्णतया नश्वर हैं l इनकी उत्पति धरती से होती है l धरती से उत्पन्न और धरती पर विद्यमान कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, परिवर्तनशील है l जो स्थिर नहीं है, वह सत्य कहाँ ? अस्थिर या असत्य वस्तु को साधक अपना कैसे कह सकता है ? उसका तो अपना वही है जो सत्य है, स्थिर है, अपरिवर्तनशील है, अमर है और कभी मिटता नहीं है l वह तो मात्र आत्मा है
    सृष्टि में भौतिक विकास, मानसिक कामनाओं की देन है l उसमें निर्मित कोई भी वस्तु, चाहे वह रसोई में प्रयोग करने वाली हो या शयन कक्ष की, कार्यालय-कर्मशाला की हो या खेल-मैदान की, धरती-जल की हो या खुले आकाश की – वह मात्र मनुष्य की विभिन्न भावनाओं, विचारों, और व्यवहारिक मानसिक प्रवृत्तियों की उपज है l जन साधारण लोग उनकी ओर आकर्षित होते हैं l वे उन्हें पाकर अति प्रसन्न होते हैं l साधकों को यह शक्ति, विकास की ओर उन्मुख मानसिक प्रवृत्ति से प्राप्त होती है l
    भोजन से शरीर, भक्ति-प्रेम से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन से आत्मा को बल मिलता है l इससे पराक्रम, वीर्य, विवेक और तेज वर्धन होने के साथ-साथ साधक की आयु लम्बी तो होती है पर साथ ही साथ उसके लिए लोक-परलोक का मार्ग भी प्रशस्त होता है l “जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” कहावत इस कार्य को पूरा करती है l इस प्रकार विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा – बुरा परिणाम या फल साधक की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है l वह जैसा चाहता और करता है – बन जाता है l
    जिस प्राणी ने मनुष्य जीवन पाया है, उसे जीवन लक्ष्य पाने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को पुरुषार्थी अवश्य बनना चाहिए l उसे जीवन का विकास, साधना, मेहनत और प्रयत्न करना चाहिए l बिना पुरुषार्थ के सृष्टि में रहकर उससे कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव है l उसमें सभी पदार्थ हैं पर वे मात्र पुरुषार्थी के लिए, पुरुषार्थ से उत्पन्न किये जाने वाले हैं l जो जिज्ञासु पुरुषार्थ करता है, उन्हें प्राप्त कर लेता है l
    ऐसा कोई भी जिज्ञासु तब तक किसी आत्म स्वीकृत कला के प्रति समर्पित एक सफल पुरुषार्थी नहीं बन सकता, जब तक वह प्राकृतिक गुण, संस्कारानुसार दृढ़ निश्चय करके कार्य आरम्भ नहीं कर देता l पुरुषार्थी को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समर्पित होना अति आवश्यक है l वह जीवनोपयोगी कलाओं में से किसी को भी अपनी सामर्थ्या एवम् रुचि अनुसार चुन सकता है – भले ही वह धार्मिक हो या राजनैतिक, आर्थिक हो या शैक्षणिक, पारिवारिक हो या सामाजिक – बिना सामर्थ्या एवम् अभिरुचि के, जीवन में सफल हो पाना असम्भव है l देखने में आया है कि प्रायः पुरुषार्थी का मन उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में नहीं लगता है जो उससे करवाए या किये जाते हैं l उसका ध्यान अन्य कार्यों की ओर आकृष्ट रहता है जिनमें उसकी अभिरुचि होती है l इसके पीछे उसकी आर्थिक विषमता, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, प्रोत्साहन का आभाव और उसे समय पर उचित मार्गदर्शन न मिल पाना – विवशता होती है l इस कारण अनचाहे उसका मन अशांत, परेशान और अप्रसन्न रहता है l
    आवश्यकता है – किसी भी कलामंच या कार्यक्षेत्र के किसी कलाकार या श्रमिक को कभी मानसिक पीड़ा ना हो l अतः उससे उसकी इच्छानुसार, मनचाह कार्य लिया जाना सर्वश्रेष्ठ है l भले ही उस कला साधना अथवा कार्य से संबंधित प्रशासन द्वारा उसका कार्यक्षेत्र ही क्यों न बदली करना पड़े l ऐसा कलाकार जो अपने श्रम के प्रति समर्पित न हो, उसमे उसकी लग्न न हो, तो क्या कभी दर्शक उसे एक अच्छा कलाकार या श्रमिक कहेंगे ? क्या वह अपनी कला अथवा श्रम में सफल हो पाएगा ? क्या दर्शक उसके प्रशसंक बन पाएंगे ?
    ऐसे कलाकारों या श्रमिकों से विकास का क्या अर्थ जो स्वयं ही को संतुष्ट नहीं कर सकते – समाज या राष्ट्र को संतुष्ट कौन करेगा ? कहने का तात्पर्य यह है कि वह न तो किया जाने वाला कार्य भली प्रकार कर सकते हैं और न ही उस कार्य को जिसे वह करना ही चाहते हैं l वह अपने जीवन में कुछ तो कर दिखाना चाहते हैं पर कर नहीं पाते हैं l इस प्रकार समाज ऐसे होनहार कलाकारों और श्रमिकों के नाम से वंचित और अपरिचित भी रह जाता है जिन्होंने उसे गौरवान्वित करना होता है l साधक के पास उसे जन्म से प्राप्त कोई भी प्राकृतिक अभिरुचि – प्रतिभा जो उसके गुण, संस्कार और स्वभाव से युक्त होती है – जीवन साध्य उद्देश्य को प्राप्त करने में पूर्ण सक्षम, समर्थ होती है l उसे सफलता के अंतिम बिंदु तक पंहुचाने के लिए उपयोगी और उचित संसाधनों का होना अति आवश्यक है l
    कला-क्षेत्र में, कला-सम्राटों के सम्राट संगीत-सम्राट तानसेन जैसे साधक कलाकार, कला-साधना की सेवा के लिए अपने तन, मन, धन और प्राणों से समर्पित होते हैं l वह स्वयं अपनी कला-साधना को न तो किसी बाजार की वस्तु बनाते हैं और न ही बनने देते हैं l उनकी कला में स्वतः ही आकर्षण होता है l वे अपनी लग्न और कड़ी मेहनत से कला का विकास करते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं कि विश्व में मात्र उनकी अपनी क्षेत्रीय कला विद्या, संस्कृति सभ्यता और साहित्य से राष्ट्र, क्षेत्र, गाँव, समाज, परिवार और उनकी अपनी भी पहचान होती है l तरुण साधक कला साधना में मग्न रहकर, उसकी गरिमा बनाये रखते हैं वह कला का प्रदर्शन करने से पूर्व, उसे समाज की पसंद नहीं बनाते हैं और न ही उसकी मांग की चिंता करते हैं अपितु वह साधना से समस्त समाज को अपनी कला की ओर आकर्षित करते हैं l समाज स्वयं ही उनकी कला का प्रेमी, प्रशंसक, सहयोगी और अनुयायी बनता है l इससे विकास की गाड़ी निश्चित मंजिल की ओर बढ़ती जाती है l