मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



2. भक्ति, श्रद्धा, प्रेम का पर्व श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

भगवान श्रीकृष्ण लगभग 5000 वर्ष ईश्वी पूर्व इस धरती पर अवतरित हुए थे। उनका जन्म द्वापर युग में हुआ था।…
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सशक्त न्याय व्यवस्था की आवश्यकता

दिनांक 29 जुलाई 2025 सत्य, न्याय, नैतिकता, सदाचार, देश, सत्सनातन धर्म, संस्कृति के विरुद्ध मन, कर्म और वचन से की…
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सनातन धर्म के सोलह संस्कार

दिनांक 20 जुलाई 2025 सनातन धर्म के सोलह संस्कारसनातन धर्म में मानव जीवन के सोलह संस्कारों का प्रावधान है जो…
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ब्राह्मण – ज्ञानवीर

उद्देश्य – विश्व कल्याण हेतु ज्ञान विज्ञान का सृजन, पोषण और संवर्धन करना l – ब्रह्मा जी का मुख ब्राह्मण…
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क्षत्रिय – शूरवीर

उद्देश्य –  ब्राह्मण, नारी, धर्म, राष्ट्र, गाये के प्राणों की रक्षा – सुरक्षा की सुनिश्चितता  बनाये रखना l   -…
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    किशोर अवस्था

    इस अवस्था में बच्चे का ज्ञान और विवेक अपरिपक्व होता है l अच्छे बुरे या निषिद्ध कार्य का सही आंकलन नहीं होता है l वह जो भी कार्य करता है - उसे अच्छे बुरे या निषिद्ध कार्य का ज्ञान होना चाहिए l लेकिन वह कठिन और चुनौति पूर्ण जीवन यापन की अपेक्षा सुगम और सरल जीवन यापन करना अधिक पसंद करता है l कई बार अभिभावक की अनदेखी और कुसंगति में पड़कर वह अनुचित मार्ग की ओर भी अग्रसित हो जाता है l अगर समय रहते अभिभावक बच्चे का उचित मार्गदर्शन करें तो वह उस संकट से बच भी सकता है l 
    किशोर/किशोरियों के लिए यही समय सम्भलने का होता है । अगर इस समय उनके माता - पिता के द्वारा उन्हें अच्छे संस्कार, गुरु और अध्यापक द्वारा उचित शिक्षण - प्रशिक्षण प्राप्त हो तो वे अपने जीवन में संभल सकते हैं, वे दुर्व्यसनों का शिकार नहीं होते हैं । वे धैर्य और साहस के साथ अपने जीवन की चुनौतियों, बाधाओं, कठिनाइयों और दुःख - सुख का सामना करने में सक्षम होते हैं और दुर्व्यसनों का शिकार नहीं होते हैं l

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    बाल अवस्था

    यह वह अवस्था है जिसमें बच्चा नटखट होता है l कोई बच्चा बहुत नटखट होता तो कोई कम लेकिन होता अवश्य है l उसमें बोध और विवेक दोनों ही सुप्त अवस्था में होते हैं, जो उसकी आयु बढ़ने के साथ - साथ जागृत होते हैं l आरम्भ में उसे कुछ भी ज्ञान नहीं होता है, देखा देखी करता है l अकेले बच्चा नट - खट्टता कम करता है जबकि जोड़ी में बहुत अधिक l 

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    जीवन की चार अवस्थाएं

    सत्सनातन धर्म में मनीषियों के द्वारा मानव जीवन की चार अवस्थाएं - बाल अवस्था, किशोर अवस्था, युवा अवस्था, और वृद्ध अवस्था निर्धारित की गई हैं l 

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    अखंड भारत

    - # अखंड भारत का ही दूसरा नाम सनातन है, समस्त भू- मंडल सनातन मय है।*
    - # हम भारतीय हैं – अगर विश्वभर में हमें कोई पहचानता है तो वह हमारे देश प्रेम, धर्म परायणता, भारतीय संस्कृति से ही जानता है।*
    - # स्वदेश से प्रेम तो करके देखो, विरोधियों से स्वयं दूरी न हो जाए तो कहना।*



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    1. कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था एवं ब्राह्मण समाज

    मातृवन्दना जुन 2025                                                

    धर्म और अधर्म - समय सूचक यंत्र की भांति समय वृत्त निरंतर घूम रहा है । परिवर्तन प्रकृति का नियम है । दिन के पश्चात रात और रात के पश्चात दिन का आगमन अवश्य होता है । विश्व में कभी धर्म का राज स्थापित होता है तो कभी अधर्म का । सृष्टि में सत्सनातन धर्म का होना नितांत आवश्यक है । असत्य, अधर्म, अन्याय और दुराचार को अधर्म पसंद करता है लेकिन धर्म नहीं । युद्ध चाहे राम - रावण का हो या महाभारत का, धर्म और अधर्म के महा युद्ध में जीत सदैव धर्म की होती है, अधर्म की नहीं ।
    मानव जाति का पतन और उत्थान - प्राणी जगत में जब एक ओर मनुष्य जाति के मानसिक विकार अपना उग्र रूप धारण करते हैं तो दूसरी ओर उसका बौध्दिक पतन भी अवश्य होता है । काम - कामुकता वश नर के द्वारा स्थान - स्थान पर नारी जाति का अपहरण, बलात्कार, धर्मांतरण किया जाता है, उसका अपमान, शारीरिक - मानसिक शोषण होता है । इससे अब नर जाति भी अछूती नहीं रही है । मदिरा पान से नर - नारी अपना - पराया संबंध भूल जाते हैं । क्रोध में वह झगड़े, मारपीट, करते हैं । वह आतंकी, उग्रवादी, जिहादी बन जाते हैं । वह हिंसा, तोड़फोड़, अग्निकांड करते हैं । लोभ में वह चोरी, ठगी, तस्करी, धन गबन, घोटाले ही नहीं करते हैं, वह छल - कपट, षड्यंत्र भी करते हैं । मोह में वह अपना और अपनों का ही हित चाहते हैं, उससे संबंधित चेष्टायें करते हैं । अहंकार में वह दूसरों को तुच्छ और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं ।
    संगत से भावना और भावना से विचार उत्पन्न होते हैं । विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा और बुरा परिणाम उसका फल - मनुष्य की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है । वह जैसा चाहता है, बन जाता है । पौष्टिक संतुलित भोजन से शरीर, श्रद्धा, प्रेम - भक्ति भाव से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन, समर्पण से उसकी आत्मा को बल मिलता है । इससे मनुष्य के पराक्रम, यश, मान और प्रतिष्ठा का वर्धन होता है । मनुष्य की आयु बढ़ती है । उसके लिए लोक - परलोक का मार्ग प्रशस्त होता है ।
    समर्थ सामाजिक वर्ण व्यवस्था - प्राचीन भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, क्योंकि यह अपने समृद्ध संसाधनों, सत्सनातन धर्म, वैभवशाली संस्कृति और सम्पन्न अर्थ - व्यवस्था के कारण विश्व की सबसे धनी सभ्यताओं में से एक था । इसके पीछे सत्सनातन धर्म का रक्षण – पोषण, संवर्धन करने वाली आर्यवर्त मनीषियों की सर्व कल्याणकारी सोच थी जो कर्म आधारित व्यापक और सशक्त वैश्विक सत्सनातनी सामाजिक वर्ण - व्यवस्था के नाम से जानी गई है । इसके अनुसार मानव शरीर के चार अवयव प्रमुख माने गए हैं । मुख से ब्राह्मण, पेट से वैश्य, बाजुओं से क्षत्रिय और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई, मानी गई है । यह एक दूसरे के पूरक हैं । जिस प्रकार शरीर के चार अवयवों में से किसी एक अवयव के बिना अन्य अवयव का कभी पोषण, रक्षण नहीं हो सकता, उसी प्रकार समाज की वर्ण - व्यवस्था में जो उसके चार अभिन्न वर्ण विभाग हैं - एक दूसरे के पूरक, पोषक और रक्षक भी हैं ।
    सर्व व्यापक सामाजिक वर्ण - व्यवस्था आर्यवर्त काल से सुचारू रूप से चली आ रही है जिसके अंतर्गत वर्ण - व्यवस्था के चार वर्ण विभाग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण अपने - अपने गुण, संस्कार और स्वभाव के अनुसार सबके हित के लिए कर्म करते हुए सुख - शांति का माध्यम बनते थे । उससे राष्ट्र वैभव सम्पन्न और समृद्धशाली बना था । समय के थपेड़ों ने इस कर्म प्रधान वर्ण - व्यवस्था को जातियों में विभक्त कर दिया । उसने उसमें छुआ - छूत वाली गहरी खाई खोद दी है । उसकी मनचाही कहानी गढ़कर, उसे ठेस पहुंचाई है जो किसी नीच सोच का ही परिणाम है । समर्थ सामाजिक वर्ण - व्यवस्था कर्म आधारित, कर्म प्रधान थी, न कि जन्म आधारित या जाति आधारित । योग्य ब्राह्मण/ आचार्य समाज में प्रतिभाओं की खोज एवं योग्य विद्यार्थियों का चयन करते थे l वे प्रतिभाओं को अपना संरक्षण और उन्हें जीवन में आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देते थे l उन प्रतिभाओं के जीवन में विद्यमान सर्व कलाओं का विकास करने में सहयोग करते थे l प्रतिभागियों के लिए वैदिक ज्ञान – विज्ञान की प्रतियोगिताओं का आयोजन करते थे l जीवन में आने वाले संकट, चुनौतियाँ, विपदाओं से निपटने हेतु विद्यार्थियों को आत्म-रक्षा हेतु तैयार करते थे l उन्हें वैदिक शिक्षण – प्रशिक्षण देकर समर्थवान बनाते थे l इस प्रकार समाज के सर्वंगीन उत्थान में उनकी अग्रणीय भूमिका रहती थी l