भगवान श्रीकृष्ण लगभग 5000 वर्ष ईश्वी पूर्व इस धरती पर अवतरित हुए थे। उनका जन्म द्वापर युग में हुआ था।…
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4. निःस्वार्थ सेवा हेतु सद्भावना की आवश्यकता !
आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दन फरवरी 2022
साधू भूखा भाव का धन का भुखा नाहीं, धन का भूखा जो फिरे वो तो साधू नाहीं ll संत कवीर जी के इस कथनानुसार सज्जन या सत्पुरुष वही होता है जिसे किसी प्रकार का कोई लोभ न हो l लोभी पुरुष कभी साधू नहीं हो सकता l अगर लघु मार्ग द्वारा धन संग्रह करने के उद्देश्य से कोई व्यक्ति सेवक का चोला धारण करके जनसेवा के पथपर चलता है तो उससे जनसेवा नहीं, निज की सेवा होती है जैसे कमीशन का जुगाड़ करना, रिश्वत लेना, घूस खाना और गवन करना l क्योंकि जन सेवा हेतु सीमित दृष्टिकोण या संकीर्ण विचारधारा की नहीं बल्कि विशाल हृदय, शांत मस्तिष्क और मात्र राष्ट्र एवम् जनहित के कार्य करने की आवश्यकता होती है l यह सब गुण सज्जन एवम् सत्पुरुषों में विद्द्यमान होते हैं l
जिस व्यक्ति का मन परहित के लिए दिन-रात तड़पता हो, बुद्धि परहित का चिंतन करती हो और हाथ परहित के कार्य करने हेतु सदैव तत्पर रहते हों – उसके लिए यह सारा संसार अपना और वह स्वयं सारे संसार का अपना होता है l इस प्रकार एक दिन वह व्यक्ति श्रीराम, या श्रीकृष्ण जी के समान भी गुणवान बन सकता है l परन्तु जो व्यक्ति मात्र दिखावे का सेवक बनकर मन से नित निजहित के लिए परेशान रहता हो, बुद्धि से निजहित सोचता हो और जिसके हाथ निजहित के कार्य करने हेतु व्याकुल रहते हों – उसके लिए जनसेवा का कोई अर्थ नहीं होता है l वह विश्व में किसी का अपना नहीं होता है और जो उसके अपने होते हैं वो भी दुःख में उसे अकेला छोड़ने वाले होते हैं l
राष्ट्रहित, समाजहित और जनहित के लिए वह मुद्दे जो भारत के समक्ष उसकी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय उजागर हुए थे, वह आज भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं l वह हमसे टस से मस इसलिए नहीं हो पाए हैं क्योंकि हमने उन्हें समाज या जन का सेवक बनकर कम और निज सेवक होकर अधिक निहारा है l सौभाग्य वश हमारा भारत लोकतान्त्रिक देश है जिसमें जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए सरकार बनाने का हमें संवैधानिक अधिकार प्राप्त है l हम अपने मतदान द्वारा अपना मनचाहा प्रतिनिधि चुनकर विधानसभा या लोकसभा तक भेज सकते हैं l अगर हम उसके माध्यम से अपनी आवाज संसद भवन तक नहीं पहुंचाते हैं तो हमें किसीको दोष नहीं देना चाहिए l
वर्तमान राष्ट्रहित में देश की एक ऐसी सशक्त एवम् सकारात्मक राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली होनी चाहिए जिसमें कलात्मक कृषि-बागवानी एवम् रोजगार प्रशिक्षण, व्यवहारिक आत्मरक्षा एवम् जन सुरक्षा प्रशिक्षण, सृजनात्मक पठन-पाठन और रचनात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था हो l इससे भारत की दूषित शिक्षा-प्रणाली से जन साधारण को अवश्य ही राहत मिल सकती है l जनहित में जन साधारण को विश्वसनीय स्थानीय जन स्वास्थ्य सेवा मिलनी चाहिए l इसके लिए सुविधा सम्पन्न चिकित्सालय, सर्वसुलभ प्रसूति-गृह, उचित चिकित्सा सुविधाएँ, पर्याप्त औषध भंडार, योग्य डाक्टर व रोग विशेषज्ञ, रोगी की उचित देखभाल, स्वास्थ्य कर्मचारी वर्ग और त्वरित चिकित्सा-वाहन सेवा का होना अनिवार्य है l वह इसलिए कि त्रुटिपूर्ण और अभावग्रस्त जन स्वास्थ्य सेवा समाप्त हो सके l
जनहित देखते हुए आज बारह मासी स्थानीय व्यवसायिक व्यवस्था की महती आवश्यकता है l इसके लिए सहकारीता आन्दोलन को पुनः जीवित किया जा सकता है जिसके अंतर्गत पशुधन, पौष्टिक खाद, पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ, जल, जंगल, जमीन का सरंक्षण सहकारी वाणिज्य-व्यापार, स्वरोजगार, सहकारी ग्रामाद्द्योग तथा सहकारी सम्पदा का संवर्धन हो ताकि सहकारी खेती को बढ़ावा मिल सके l जन साधारण को मात्र 100, 200 दिनों तक का नहीं बल्कि पुरे 365 दिनों का व्यवसाय मिल सके l
जन-जन हित में स्थानीय जानमाल की रक्षा-सुरक्षा को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए जरूरी है पीने का स्वच्छ पानी, पौष्टिक खाद्द्य वस्तुएं व पेय पदार्थ, रसोई गैस, मिटटी का तेल, विद्दुत ऊर्जा, स्थानीय नागरिकता की विश्वसनीय पहचान और स्थानीय जानमाल की रक्षा-सुरक्षा समितियों का गठन किया जाना ताकि जन साधारण की जीवन रक्षक आवश्यकताएँ पूर्ण हो सकें और उसे आतंकवाद, उग्रवाद जिहाद, अपहरण, धर्मांतरण, बलात्कार तथा हिंसा से अभय प्राप्त हो सके l इस प्रकार राष्ट्रीय जनहित में आवश्यक है – सशक्त एवम् सकारात्मक राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली, विश्वसनीय जन स्वास्थ्य सेवा, बारह मासी स्थानीय व्यवसायिक व्यवस्था और जानमाल रक्षा-सुरक्षा की सुनिश्चितता l ऐसा कार्य मात्र परहित चाहने वाले न्याय प्रिय, दूरदर्शी राजनीतिज्ञ, नीतिवान और धर्मात्मा लोग ही कर सकते हैं l अगर हम परहित करना चाहते हैं तो हमें सत्पुरुषों और परमार्थियों को ही अपना प्रतिनिधि बनाना होगा l उन्हें उनके क्षेत्र से विजयी करवाने हेतु अपनी ओर से उनकी हर संभव सहायता करनी होगी l अन्यथा निजहित चाहने वालों के मायाजाल से हमें कभी मुक्ति नहीं मिलेगी l बस हमें मिलती रहेगी मात्र दूषित शिक्षा, त्रुटिपूर्ण व अभावग्रस्त जन स्वास्थ्य सेवा, 100, 150 और 200 दिनों का व्यवसाय की लालीपाप l
देशवासियों ! यदि सोये हुए हो तो जाग जाओ और स्वयं जागने के साथ-साथ दूसरों को भी जगा लो l निजहित चाहने वाले बेचारे अपनी आदत से बड़े मजबूर हैं l बे मजबूर ही रहेंगे क्योंकि उन्होंने निजहित में कमीशन जुटाना है, रिश्वत लेनी है, घूस खानी है, राष्ट्र तथा समाज की सम्पदा डकारनी है तथा भ्रष्टाचार ही फैलाना है l आप उनसे राष्ट्रहित, जनहित और समाजहित की चाहना रखना छोड़ दो l यह आपकी आशा पूर्ण होने वाली नहीं है l उनके पास अतिरिक्त कार्य करने का समय नहीं है l इसका निर्णय अब आपने मतदान करके करना है l निडर होकर मतदान कीजिये और अपनी पसंद के उम्मीदवार को विजयी बनाइए l देखना कहीं आपसे चूक न हो जाये l
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2. कर्तव्य – सेवा ज्ञान का महत्व
आलेख – मातृवंदना 2022 फरवरी
ईश्वर अजर, अमर, अविकारी, सर्वव्यापक और निराकार है l वह निर्जीव में भी है और सजीव में भी l वह सबके भीतर भी है और बाहर भी l अर्थात वह कण-कण में विद्यमान है l जीव ईश्वर का अंश है l मानव शरीर की आकृति का प्रादुर्भाव परिवर्तनशील प्रकृति जल, वायु, मिट्टी, अग्नि और आकाश से होता है l मनुष्य के जन्म का पहला साँस और मृत्यु के अंतिम साँस का मध्यकाल, उसका जीवन काल होता है l हर प्राणी की मृत्यु होना निश्चित है, मृत्यु अवश्य होती है, प्रकृति नाशवान है l
ऋषियों ने मानव जीवन काल को चार अवस्थाएं प्रदान की हैं – ब्रह्मचर्य जीवन, गृहस्थ जीवन, वानप्रस्थ जीवन, और सन्यास जीवन l इनके सबके अपने -अपने दायित्व हैं l ब्रह्मचर्य जीवन में ज्ञान अर्जित करना, गृहस्थ जीवन में संतानोत्पत्ति करना, वानप्रस्थ जीवन में यम नियमों का पालन करते हुए शरीर, मन, बुद्धि का शुद्धिकरण करना एवंम सत्सनातन तत्व जानना और सन्यास जीवन में सत्सनातन तत्वका मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार करना दायित्व है l मानव जीवन का उद्देश्य-जीवन में चार फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति करना है l
जीव को मानव शरीर में इन्द्रियां, मन, बुद्धि अज्ञान वश अपने अधीन करके रखती हैं, उनसे मनुष्य द्वारा जीव को सहज में मुक्त नहीं किया जा सकता, उसकी मुक्ति के लिए मनुष्य को वेद विधि-विधानानुसार यत्न करना पड़ता है l ऋषियों का मानना है कि परिवर्तनशील प्रकृति तीन सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों से युक्त है l नाशवान प्रकृति में रहते हुए जीव समय-समय पर इन त्रिगुणों से प्रभावित होता रहता है l
त्रिगुण संपन्न प्रकृति से मनुष्य जाति के गुण, संस्कार और स्वभाव में समय-असमय पर बदलाव होते रहते हैं l अपनी मनोवृत्ति अनुसार मनुष्य कभी सात्विक ,कभी राजसिक और कभी तामसिक संगत करता है l ऐसी किसी संगत के ही अनुसार उसकी वैसी भावना उत्पन्न होती है l उस भावना अनुसार उस का वैसा विचार उत्पन्न होता है, अपने विचार के अनुसार वह वैसा कर्म करता है और फिर अंत में उसके द्वारा किये हुए कर्मानुसार ही उसे वैसा फल भी मिलता है l यही प्रकृति का अटूट नियम और उसका कटु सत्य हैl
सृष्टि में हर पहलु के अपने दो पक्ष होते हैं – अच्छा और बुरा l अच्छे कार्य का जनमानस पर अच्छा प्रभाव होता है l इसलिए समाज में उसकी हर स्थान पर प्रसंशा होती है और बुरे का बुरा प्रभाव होता है जिस कारण उसकी सर्वत्र निंदा होती है l अतः मनुष्य जाति का सदैव पहले वाले पक्ष का साथ देने और दूसरे का विरोध करना चाहिए l
घर परिवार के आपसी व्यवहार में वाणी बहुत महत्वपूर्ण होती है l बोलचाल के ढंग ने जहाँ कई घरों को जोड़ा है, वहां अनेकों को तोड़ा भी है l रिश्ते निभाने में शब्द अमृत भी बन जाते हैं और जहर भी l शब्दों में आत्मीयता होनी चाहिए जिसमें भावनाएं भरी हों l हृदय से बोले और हृदय से सुने गए शब्द ही अमृत समान होते हैं l घर परिवार में एक दूसरे के प्रति विश्वास होना चाहिए l नहीं तो यह वो भूकंप है जो मधुर रिश्तों में दरार पैदा कर देता है और एक दिन उन्हें समाप्त भी कर देता है l सदा मीठा नहीं खाया जा सकता पर कुछ खट्टा, कुछ मीठा दोनों के स्वाद से हम अपनी परिवार रूपी बगिया को अवश्य महका सकते हैं l
प्रेम, त्याग, समर्पण, सहयोग, सहभागिता और सेवा की भावना परिवार के मुख्य गुण है, परिवार को संगठित और सशक्त करते हैं l जिस परिवार में ऐसे गुण विद्यमान होते हैं, उस परिवार के किसी भी व्यक्ति को अन्यत्र स्वर्ग ढूंढने की आवश्यकता नहीं होती है l सशक्त परिवार अर्थात माता-पिता ही बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकते हैं, उन्हें सशक्त बना सकते हैं l
माँ के गर्भ में पोषित होने से लेकर, बच्चे का जन्म लेने के पश्चात् पाठशाला जाने तक पहला और दूसरा गुरु माता-पिता ही होते हैं l माता-पिता बच्चों को संस्कार देते हैं l तीसरा गुरु विद्यालय में गुरुजन होते हैं जो उन्हें तात्विक या विषयक शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उनका भविष्य निर्माण करते हैं l तीनों गुरु पूजनीय हैं l माता-पिता के रहते हुए घर और गुरु के रहते हुए विद्यालय दोनों विद्या मंदिर होते हैं l घर में माता-पिता के सान्निध्य में रहकर बच्चे संस्कारवान बनते हैं जबकि विद्यालय में गुरु के सान्निध्य में रहने से शिष्य अपने विषय में पारंगत, समर्थ, सशक्त युवा बनते हैं l सशक्त युवाओं के कन्धों पर ही भारत का भविष्य टिका हुआ है l
सशक्त युवाओं को उनके गुण, संस्कार और स्वभाव से जाना जाता है l सशक्त युवाओं से सशक्त परिवार बनता है l सशक्त परिवार सशक्त गाँव का निर्माण करते हैं l सशक्त गाँवों से सशक्त राज्य बनते हैं l सशक्त राज्यों से देश सशक्त होता है l सशक्त देश से सशक्त विश्व की आशा की जा सकती है l यह बात किसी को नहीं भूलनी चाहिए कि मनुष्य को उसके कर्मों से जाना जाता है, उसके परिवार से नहीं l
ब्रह्म भाव में स्थिर रहकर ब्रह्मतत्व का विश्व कल्याण हेतु प्रचार-प्रसार करने वाला कोई भी युवा ब्रह्मज्ञानी ज्ञानवीर हो सकता है l क्षत्रिय भाव में स्थिर रहकर जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा शूरवीर हो सकता है l वैश्य भाव में स्थिर रहकर गौ-सेवा, कृषि और व्यापार से जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा धर्मवीर हो सकता है l शूद्र्भाव में स्थिर रहकर हस्त-ललित कला, लघु एवंम कुटीर उद्योग से जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा कर्मवीर हो सकता है l
संसार में हर युवा को उसके गुण, स्वभाव और संस्कार से जाना जाता है l इसी कारण ज्ञानवीर की तत्वज्ञान से, रणवीर की पराक्रम से, धर्मवीर की कर्तव्य परायणता से और कर्मवीर की कर्मशीलता से पहचान होती है l वह अपने गुण, संस्कार और स्वभाव के अनुसार अपने माता-पिता, गुरु, समाज, राष्ट्र और संसार की सेवा/कल्याणकारी कार्य करता है और बदले में उसे धन, बल व यश की प्राप्ति होती है l
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1. स्वाधीनता – हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है
मातृवंदना जनवरी 2022
लोकमान्य तिलक जी ने कहा था - स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, हम उसे लेकर रहेंगे l 15 अगस्त 1947 से राजनीतिक दृष्टि से विश्व मानचित्र पर भारतवर्ष एक स्वतंत्र राष्ट्र है l उसका एक अपना संविधान है l दुसरे राष्ट्रों की भांति भारतवासी भी हर वर्ष अपना स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं l क्या स्वाधीनता जन साधारण तक पहुंच पाई है ?
सदियों पूर्व हमारे देश भारतवर्ष को कमजोर करने के लिए आतताइयों ने अपने हित में साम, दाम, दंड और भेद से अनेकों षड्यंत्र आरम्भ किए थे l स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में संगठित राष्ट्र विरोधी शक्तियां आज भी सक्रिय हैं l ऐसा लगता है कि हमें अभी स्वतंत्रता की एक और लड़ाई लड़ना बाकी है l हमारे अपने जीवन से संबंधित संबोधन, वाचन, और श्रवण, पहनावा, दिनचर्या, खाना-पीना, रहन-सहन सब विदेशी हैं l शायद इसलिए कि हम लम्बे समय तक पराधीन रहे हैं, हम विदेशी सभ्यता-संस्कृति के प्रभाव में आकर उसके उपासक बन गए हैं l
भारत की पाठशालाओं से लेकर विद्द्यालय, महा विद्द्यालय, विश्व विद्द्यालय तक सभी का शिक्षा माध्यम अंग्रेजी भाषा है l देश के हजारों विद्द्यार्थी अंग्रेजी में पढ़ने के लिए विदेशों में जाते हैं और काले अंग्रेज बनकर लौटते हैं l हमें ज्ञान–विज्ञान विकसित करने के लिये विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है l चिकित्सालयों में हम हर रोग का निदान अंग्रेजी चिकित्सा पद्दति से करवाना अच्छा समझते हैं l युगों से भारतवर्ष गौवंश का पोषक रहा है लेकिन हम गौवंश के स्थान पर मशीनों के सहारे खेती का कार्य करते हैं, यह जानते हुए भी कि गौवंश खेती के लिए कितना उपयोगी है ? अधिक पैदावार चाहने की लालसा से हम खेती में घातक कीटनाशक दवाईयों का छिड़काव, रासायनी खाद का धुंआंधार प्रयोग, दुधारू पशुओं एवम् फल-सब्जियों का टीकाकरण करते हैं l इससे खाद्द्य, पेय पदार्थों से पौष्टिकता विलुप्त हो रही है l अब खेत घातक दवाईयों व रासायनी खाद के कुप्रभाव से जहर उगलने लगे हैं l अन्न, दूध, फल, साग-सब्जियां खाद्द्य और पेय पदार्थ सब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो गए हैं l ऐसा जानकर भी हम अनजान बने हुए हैं, समाज में अनेकों समस्याएं और घातक रोग उत्पन्न हो रहे हैं l देशभर में पर्याप्त मानवी ऊर्जा होते हुए भी हम उसके स्थान पर मशीनों और मशीनी उत्पादन को बढ़ावा दे रहे हैं l युवावर्ग अपने परम्परागत कार्यों से निरंतर कट रहा है l वह हर जगह बेरोजगार दिखाई दे रहा है l उसमें दिन-प्रतिदिन अपराध की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं l
स्वतंत्रता की दृष्टि से भारतवर्ष कभी अपने स्वाभिमान के लिए विश्व विख्यात था l देश इतना समृद्ध एवम् वैभवशाली था कि वह सोने की चिड़िया के नाम से सर्वत्र जाना जाता था l भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों के द्वारा जिन जग-हितकारी कार्यों का शुभारम्भ किया गया था, उन्हें निरंतर जारी रखने की आवश्यकता थी, पर हम आये दिन उन्हें भूलते जा रहे हैं l बच्चों को गुरुकुलों में सत्य पर आधारित वैदिक शिक्षा दी जाती थी l संस्कृत भाषा शिक्षा का माध्यम थी l अपना हर ज्ञान-विज्ञान सम्पूर्ण विकसित था जिसे पढ़ने और सीखने के लिए विदेशों से हजारों विद्द्यार्थी हमारे देश में आते थे l चिकित्सालयों में आयुर्वेदाचर्यों द्वारा हर रोगी की चिकित्सा आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्दति से करवाई जाती थी l
सावधान ! 15 अगस्त 1947 से भारत स्वाधीन है मगर क्या वह स्वाधीनता जन साधारण तक पहुँच पाई है, नहीं ना ? आज हर कोई किसी न किसी रूप से पराधीन अवश्य है l देशभर में अब भी ऐसे अनेकों षड्यंत्र जारी हैं जिनसे देश की अखंडता पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं l अगर हमने विदेशी सभ्यता-संस्कृति का परित्याग करने में देरी की, अपने घर में छिपे हुए गद्दारों को पहचानकर उन्हें अलग-थलग नहीं किया और भारतीय वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों द्वारा दर्शाए गए दिव्य मार्ग को अपने जीवन में नहीं अपनाया तो वह दिन दूर नहीं कि हम विदेशियों के द्वारा रचे गए चक्कर-व्यूह में फंसकर अपने ही घर में अपने आप राजनैतिक दृष्टि से पुनः पराधीन हो जायेंगे l अनेकों सदियाँ बीत जाने के पश्चात् ही बड़ी कठिनता से डूबते हुए बेड़े को किनारे लगाने हेतु किसी एक महान, कुशल मल्लाह का जन्म होता है l अगर हम समय रहते उसे शीघ्रता से नहीं पहचान पाए, हमने उसका साथ नहीं दिया तो यह भी निश्चित है कि हमसे पुनः एक और बहुत बड़ी चूक हो जाएगी l
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5. “षड्यंत्र” बार-बार लेकिन “पलटवार” एक बार !
मातृवंदना दिसंबर 2021
सनातन धर्म की कालगणना के अंतर्गत सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग चार युग माने गए हैं l हर युग में धर्मी और अधर्मी लोग होते हैं l इतिहास साक्षी है कि सृष्टि में जब–जब अधर्म की वृद्धि और धर्म की हानि हुई है, तब-तब धर्म की रक्षा करने हेतु किसी न किसी महान आत्मा का धरती पर अवतरण भी हुआ है जिसने धर्म की पुनर्स्थापना और अधर्म का विनाश किया है l त्रेता युग में आर्यपुत्र श्रीराम जी ने विधर्मी रावण का और द्वापर युग में श्रीकृष्ण जी ने कंस का संहार किया था l अखंड भारत की भूमि “आर्य भूमि” है l
मुगलों के आगमन से पूर्व आर्यवर्त में “सामाजिक वर्ण व्यवस्था” कर्म आधारित सर्वमान्य थी l मुगल शासकों ने उसे अपने स्वार्थ हेतु जन्म आधारित जाति सूचक बनाया l वह आगे चलकर “वर्ण व्यवस्था” के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ l लोग भूल गए कि सनातन धर्म एक विशाल वट वृक्ष समान है और “सामाजिक वर्ण व्यवस्था” के चारों वर्ण उसकी ठोस टहनियां l जातियों में विभक्त भारतीय समाज सनातन धर्म की उपेक्षा करके शनै-शनै मात्र जातियों की रक्षा-सुरक्षा करने लग गया l लोग वैदिक पेड़ सनातन धर्म की “वर्ण व्यवस्था” के स्थान पर उसके पत्ते “जातियां” बचाने का प्रयास करने लगे l
मुगल शासनकाल ने भारत में इतना अधिक आतंक, जिहाद फैलाया और जबरन धर्मांतरण किया कि बहुत से लोगों ने अपने राष्ट्र के कुशल नेतृत्व और रक्षा-सुरक्षा के आभाव में अत्याचारी मुगलों के भय से “इस्लामी मजहब” स्वीकार कर लिया l जो नहीं माने उन्हें बड़ी निर्दयता पूर्वक मार दिया गया l उनमें एक ऐसा भी वर्ग था जिसने कभी हार नहीं मानी l उसने मरे हुए पशु उठाये, उनका चमड़ा उतारने का भी कार्य किया l कुछ लोग महलों और हवेलियों से मैला उठाने का कार्य करने लगे, वे भंगी कहलाये l उन्हें समाज में अछूत भी कहा जाने लगा l
अंग्रेजी शासनकाल में “गुरुकुल शिक्षा–प्रणाली” को बंद करके उसके स्थान पर अंग्रेजी शिक्षा–प्रणाली आरम्भ की l अंग्रेजी स्कूल, कान्वेंट स्कूल स्थापित किये ताकि देश, धर्म-संस्कृति का मानचित्र बदला जा सके l देशभर में “गुरु-शिष्य परम्परा” की जगह निरंतर अंग्रेजी स्कूल, कान्वेंट स्कूल खुलते रहे और बच्चे सेक्युलर बनते गए l
सेक्युलर वादी सरकारों के द्वारा “परम्परागत भारतीय इतिहास” को मनमाने ढंग से छिपाया गया l उसके स्थान पर भारत विरोधी इतिहास पाठ्यक्रमों में जोड़कर पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ाया गया l
धर्म के ठेकेदारों ने भी धर्म की मनमानी परिभाषा गढ़कर भारतीय समाज को भ्रमित और दिशाहीन किया है l
रामायण के अनुसार आर्यपुत्र श्रीराम जी का चरित्र हमें सनातन धर्म का अर्थ, कर्तव्य-पालन करना
सिखाता है न कि उससे विमुख होना l नवयुवाओं का आर्यपुत्र लक्ष्मण की तरह गर्म खून और श्रीराम जी की तरह शीतल मस्तिष्क सर्वहितकारी हो सकता है l महाभारत में कहा गया है कि “अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है किन्तु धर्म की रक्षा करने के लिए हिंसा करना उससे भी अधिक श्रेष्ठ है l
किसी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र पर आई विपदा, कठिनाई, संकट और बीमारी के समय पर समर्थवान नवयुवाओं द्वारा पीड़ितों की सेवा-सुश्रुषा करने हेतु तत्परता, सहायता, सेवा, रक्षा-सुरक्षा किया जाना ही परम धर्म, परम कर्तव्य है l जिन जिहादी दानवों को लवजिहाद, आतंक और धर्मांतरण फ़ैलाने से आनंद मिलता है, उन्हें आर्यपुत्र श्रीराम, भारत, संविधान, कानून, राष्ट्रीय ध्वज और उसकी सेना से कभी प्रेम नहीं हो सकता l देशभर में लवजिहाद, आतंक और धर्मांतरण करने वाले लोगों के विरुद्ध समस्त समाज को शास्त्र और शस्त्र का उचित प्रयोग किया जाना अनिवार्य होना चाहिए l संगीत, नृत्य, अभिनय, भाषण, संवाद, लेखन जैसी विभिन्न कलाओं के पैमानों से भारत, सनातन धर्म संस्कृति और सभ्यता का सम्मान हर समय छलकना चाहिए l जो फ़िल्मी स्टार संगीत, नृत्य, अभिनय, भाषण, संवाद, लेखन जैसी कलाओं से देश धर्म-संस्कृति का अपमान करते हैं, उनका सामाजिक बहिष्कार अवश्य होना चाहिए l
सनातन धर्म के अंतर्गत सभी मंदिरों में संस्कृत भाषा का भयमुक्त पठन-पाठन करने वाले भगवाधारी पंडितों का समाज द्वारा हार्दिक सम्मान व अभिनन्दन किया जाना चाहिए l मंदिरों द्वारा संचालित गुरुकुलों में भी देश, धर्म-संस्कृति की सेवा-कार्य करने वाले सनातनी सन्यासियों का समाज द्वारा हार्दिक सम्मान व अभिनन्दन होना चाहिए l अपने देश, धर्म-संस्कृति के विरुद्ध हो रहे निरंतर षड्यंत्रों, आक्रमणों को हम सहजता से समझ पायें, उनके विरुद्ध कुछ ठोस कदम उठा सकें, तभी हमारा जीवन सार्थक हो सकता है l मानव जीवन का उद्देश्य तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति करना था लेकिन वर्तमान में अखंड भारत भूमि “आर्य भूमि” के आर्यपुत्र युवाओं का मात्र पैसा कमाना, परिवार को खुश रखना, मौज मस्ती करना और मात्र अपने काम तक सीमित रहना, उद्देश्य बन गया है l वर्तमान में अंग्रेजी सियार-सेक्युलर बनकर देश, धर्म-संस्कृति का बात-बात पर अधिक से अधिक राजनीति और उसका अपमान करना एक आम बात हो गई है जो एक बड़ा चिंतनीय विषय है l
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4. संतुलित विकास की आवश्यकता
मातृवंदना अक्तूबर 2021 पर्यावरण चेतना - 10
जैसे-जैसे पृथ्वी पर जनसंख्या बढ़ रही है – धरती पर प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों के अनवरत दोहन में भी वृद्धि हो रही है l इस प्रकार प्राकृतिक असंतुलन बढ़ने के कारण वो दिन दूर नहीं जब मनुष्य को पृथ्वी पर पीने हेतु जल और रहने का स्थान शेष नहीं रहेगा l इसलिए आवश्यक है सही समय पर सभी लोग जाग जाएँ, वे अपनी जिम्मेदारियां समझें और पृथ्वी के प्रति अपना कर्तव्य निभाएं l
युगों से पृथ्वी पर मात्र मनुष्य ही नहीं रहता आया है बल्कि अन्य जीव-जन्तु जलचर, थलचर और नभचर भी रह रहे हैं l इन सबका जीवन एक दूसरे पर निर्भर करता है l हर बड़ा जीव अपनी क्षुधा शांत करने हेतु दुसरे जीव को मारता और उसे खाता है l महत्वाकांक्षी मनुष्य तो इतना व्याकुल रहता है कि वह अपनी सुख-सुविधाएँ पाने के लिए प्रकृति ही को भूल गया है l वह भूल गया है कि जननी जन्म देती है मगर उसका पालन-पोषण तो प्रकृति ही करती है l
समस्त सुख–सुविधा सम्पन्न स्वच्छ मकान, संतुलित पौष्टिक भोजन, सस्ती बिजली, त्वरित उपयुक्त चिकित्सा, श्मशान घाट, विद्यालय, खेल व योग-प्राणायाम करने का उचित स्थान, देवालय एवम् सत्संग भवन, पशु चिकित्सालय, प्रदूषण मुक्त आवागमन के संसाधन, बारातघर, समुदायक भवन, पुस्तकालय, ग्राम पंचायतघर, बाजार तथा अनाज व सब्जी मंडी, बैंक तथा एटीएम इतियादि किसी गाँव या शहर की अपनी मूल आवश्यकताएं होती हैं l समाज का विकास होना आवश्यक है l वह विकास पोषण पर आधारित हो, शोषण पर नहीं l प्रकृति शोषण पर आधारित किसी भी मूल्य पर होने वाले विकास को कभी सहन नहीं करती है l ऐसा विकास प्राकृतिक आपदा बनकर अपना रौद्र रूप अवश्य दिखाती है l
फिर भी मनुष्य वन कटान, अवैध खनन और अवैध निर्माण कार्य करता हुआ कथित विकास की ओर अग्रसर है मगर विनाश भी उसके साथ गतिशील है l परिणाम स्वरूप जहाँ-तहां वर्षा कम या ज्यादा होने से बाढ़ आती है, अनावश्यक जलभराव होता है, भूस्खलन हो रहे हैं, प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं मनुष्य के लिए एक ओर विकास है तो दूसरी ओर विनाश l वह एक आपदा से जूझकर निवृत होता है तो दूसरी आपदा मुंह वाय उसके सम्मुख खड़ी मिलती है l
इस समस्या से निपटने के लिए जरूरी है जब भी कोई सरकारी या गैर सरकारी विकास योजना बनाई जाए तो उसमें दूरदर्शिता का समावेस अवश्य होना चाहिए l उससे प्रकृति पर कम से कम दुष्प्रभाव पड़ना चाहिए l जल स्रोत, जंगल वृत्त और कृषि भूमि सुनिश्चित होनी चाहिए l हर आवश्यक वृत्त वन कटान, अवैध भू-खनन और अवैध निर्माण कार्य मुक्त होना चाहिए l
स्थानीय लोगों को विकास के साथ जोड़ना चाहिए l संतुलित विकास करने के साथ-साथ उनके द्वारा लम्बे समय तक प्राकृतिक संतुलन बनाए रखना अति आवश्यक है l उसके लिए अपेक्षित प्राकृतिक पोषण के आधार पर अंतराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रांतीय और क्षेत्रीय स्तर की सरकारी व गैर सरकारी सामाजिक तथा धार्मिक संस्थाओं और उनकी सहयोगी स्थानीय शाखाओं के सहयोग, श्रद्धा और सेवा-भक्ति की भावना द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है l
प्रकाशित मातृवंदना अक्तूबर 2021