भगवान श्रीकृष्ण लगभग 5000 वर्ष ईश्वी पूर्व इस धरती पर अवतरित हुए थे। उनका जन्म द्वापर युग में हुआ था।…
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2. चाहेंगे हम
18 जून 1996 कश्मीर टाइम्स
दे सकते हैं, हम सत्ता जिन शासकों को,
हटा सकते हैं, हम उनको भी शासन से,
लोकतांत्रिक हैं, हम बोलेंगे उन शासकों को,
गद्दारी मत करना, तुम भूलकर भी स्वशासन से,
दे सकते हो, कुशल और स्वच्छ प्रशासन देना,
सुख समृद्धि देना और कल्याणकारी प्रशासन देना,
नहीं तो फिर हमने तुम्हारा स्थान खाली कर देना,
चाहेंगे हम तुम्हारा स्थान खाली कर देना,
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1. किस काम का
कश्मीर टाइम्स 18 जून 1996
सेवा जो कर न सके,
वह तन है किस काम का ?
नाम जो जाप न सके,
वह मन है किस काम का ?
कार्य जो सिद्ध कर न सके,
वह धन है किस काम का ?
सन्मार्ग जो दिखा न सके,
वह ज्ञान है किस काम का ?
जीवन-रस जो भर न सके,
वह धर्म है किस काम का ?
जीवन सृजन जो कर न सके,
वह दाम्पत्य है किस काम का ?
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2. सद्गुण संस्कार और हमारा दायित्व
आलेख - मानव जीवन दर्शन कश्मीर टाइम्स 5 मई 1996
ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्मांड बड़ा विचित्र है l सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल के मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का का द्योतक है कि समस्त ब्रह्मांड में जो भी अमुक वस्तु विद्यमान है, वह अपने किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है l
बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मयूर का मस्त होकर नाचना और भोर के समय पक्षियों का चहचहाना किसी शुभ समाचार की ओर इंगित करता है l अगर ऐसा है तो प्राणियों में सर्व श्रेष्ठ, विवेकशील मनुष्य का जीवन नीरस और अंधकारमय कदाचित हो नहीं सकता l जब उसका जन्म होता है जो उसके जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य भी होता है l बिना उद्देश्य के उसे जन्म नहीं मिल सकता है l यह प्रकृति का नियम है l गुण और संस्कारों का जीवन के साथ जन्म-जन्मों का संबंध रहता है l जीवन उद्देश का उसने अपने इसी जीवन में पूरा अवश्य करना है जिसके लिए वह संघर्षरत है l ध्यान और सूक्षम दृष्टि से उसका अध्ययन करने की आवश्यकता रहती है l उसके भीतर लावा समान दबा और छुपा हुआ भंडार दिव्य गुण और संस्कारों के रूप में उसके जीवन का उद्देश्य पूरा करने में पर्याप्त होते हैं l वह समय पर बड़े और कठिन से कठिन भी कार्य कर सकने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं l आवश्यकता मात्र है तो नवयुवाओं को गुण और संस्कारों के आधार पर सुसंगठित करने की l उन्हें उचित दिशा निर्देशन की, सहयोग की और उनका उत्साह वर्धन करने की l
युवा बहन-भाइयों को उनके जीवन के महान उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण – संस्कार जीवन उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं l प्रतिकूल गुणों से किसी भी महान जीवन उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है l बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है l जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात् उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण–संस्कार युक्त बहन-भाइयों के कर्मों की छाप भी संपूर्ण जनमानस पटल पर अवश्य अंकित होती है जो युग-युगान्तरों तक उसके द्वारा भुलाये नहीं भुलाई जाती है l अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है l यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति से संबंधित है l
बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए l उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना l जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लग्न, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराशकर उसे मनचाही एक सुंदर आकृति और आकर्षक मूर्ति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार किसी भी प्रयत्नशील बहन-भाई को स्वयं में छुपी हुई किसी प्रभावी विद्या, कला तथा दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो l उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी l देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुकूल देश - कार्य क्षेत्र, काल - समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्ग दर्शक अवश्य मिल जाते हैं l उनसे उनका काम सहज होना निश्चित हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है l
प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक है जितना फूलों में सुगंध होना l फूलों में सुगंध से मुग्ध होकर फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण का अनुसरण करने के लिए उनके अनुयायी ही बनते हैं l उनके साथ रहकर अच्छा बनने के लिए वह अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं l
उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है l वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है l एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान समझता है, दुराचार के कार्य करता है l इसलिए दोनों की प्रकृतियाँ आपस में कभी एक समान हो नहीं सकती l वह एक दिशा सूचक यंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा में रहती हैं l उन दोनों में द्वंद्व भी होते हैं l कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार, सदाचार को असहनीय कष्ट और पीड़ा ही पहुंचाता है l जब यह दोनों प्रकृतियाँ सुसंगठित होकर किन्हीं बड़े-बड़े संगठनों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद्व न रहकर युद्ध ही होते हैं जिनमें उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह अपने प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है l
समर्थ तरुणाई वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थ्या, शक्ति रखती है l तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक है l वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं l इसलिए तरुण–शक्ति जन शक्ति के रूप में लोक शक्ति बन जाती है l अतः कहा जा सकता है कि
लोक शक्ति का मूल आधार,
जन-जन के उच्च गुण संस्कार l
जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोककर बांध बना लिया जाता है, युवाओं में कुछ कर सकने की जो तीव्र इच्छा-शक्ति होती है, उसे अवरुद्ध करना अति आवश्यक है l आवश्यकता पड़ने पर जलाशय के जल को कम या अधिक मात्र में नहरों के माध्यम द्वारा दूर खेत, खालिहान, गाँव-शहर तक पहुंचाया जाता है, उनसे खेती-बागवानी, साग-सब्जी की फसल में पानी लगाया जाता है और उससे अन्य आवश्यकताएं भी पूरी की जाती हैं - ठीक उसी प्रकार युवाओं की अद्भुत कार्य क्षमता को उनकी अभिरुचि अनुसार छोटी-बड़ी टोलियों में सुसंगठित करके उनसे लोक विकास संबंधी कार्य करवाए जा सकते हैं l युवा बहन–भाइयों की तरुण शक्ति को नई दिशा मिल सकती है l उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं l किसी परिवार, गाँव, तहसील, जिला, और राज्य से लेकर राष्ट्र तक का भी विकास किया जा सकता है l तरुण–शक्ति का मार्गदर्शन अवश्य किया जाना चाहिए l क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? यह हमारा दायित्व नहीं है क्या ?
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1. मानव जीवन – एक रहस्य
आलेख - कश्मीर टाइम्स 28.1.1996
ईश्वर की संरचना प्रकृति जितनी आकर्षक है, वह उतनी विचित्र भी है l जड़-चेतन उसके दो रूप हैं l इनमें पाई जाने वाली विभिन्न वस्तुओं और प्राणियों की अपनी-अपनी जातियां हैं l इन जातियों में मात्र मनुष्य ही प्रगतिशील प्राणी साधक है l वह विवेक का स्वामी है l
ऐसे किसी प्रगतिशील विद्यार्थी/साधक के लिए, चाहे वह संसारिक विषय हो या अध्यात्मिक, प्रगति–पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहने का उसका अपना प्रयत्न तब तक जारी रहता है जब तक उसे सफलता नहीं मिल जाती l वह कभी नहीं देखता है कि उसने कितनी यात्रा तय की है ? वह देखता है, उसकी मंजिल कितनी दूर रह गई है ? वहां तक कब और कैसे पहुंचा जा सकता है ?
संसारिक विकास नश्वर, अल्पकालिक और सदैव दुखदायक विषय है जब कि मानसिक विकास अनश्वर, दीर्घकालिक सर्व सुखदायक तथा शांतिदाता है l
मानसिक विकास करते हुए साधक को सुख तथा शांति प्राप्त होती है l वह कुण्डलिनी जागरण, काया-कल्प, दूर बोध, विचार-सम्प्रेषण, दूरदर्शन आदि गुणों से भी संपन्न हो जाता है l इन दैवी गुणों के कारण वह समाज में देव या ईश्वर समान जाना और पहचाना जाता है l वास्तव में किसी साधक के लिए, किसी शिक्षार्थी द्वारा ऐसा कहना तो दूर सोचना भी सूर्य को दीप दिखाने के समान है l मनुष्य तो मनुष्य है और मात्र मनुष्य ही रहेगा l वह देव या ईश्वर कभी हो नहीं सकता l
कोई दैवी गुणों का स्वामी, घमंडी साधक लोगों को तरह-तरह के चमत्कार तो दिखा सकता है पर उनका मन नहीं जीत सकता, उनका प्रेमी नहीं बन सकता l प्रेमी वही महानुभाव हो सकता है जो महर्षि अरविन्द, स्वामी दयानंद जी की तरह अपनी निरंतर साधना, यत्न द्वारा प्रगति-पथ पर अग्रसर होता हुआ आवश्यकता अनुसार परिस्थिति, देश काल, और पात्र देखकर लोक कल्याण करे l स्वामी विवेकानंद जी की तरह अपनी दैवी शक्तियों का सदुपयोग, रक्षा, और उनका सतत वर्धन करते हुए, अपने राष्ट्र का माथा भी ऊँचा करे, मानवता मात्र की सेवा करे l
जन साधारण का मन चाहे उसके विकारों या वासनाओं की दलदल में लिप्त रहने के कारण अशांत रहे फिर भी वह साधारण भीमराव अम्बेडकर की सच्ची लग्न, विश्वास युक्त अथक प्रयत्न, मेहनत से एक दिन अपना लक्ष्य पाने में सक्षम और समर्थ हो पाता है l डा० भीमराव अम्बेडकर बन जाता है l
शिक्षार्थी के शुद्ध पयत्न द्वारा ही निश्चित किसी एक उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष की प्राप्ति होती है l
राणा प्रताप जैसे राष्ट्र प्रेमी शिक्षार्थी को अपने जीवन में कभी भी किसी प्रकार के महत्व पूर्ण उद्देश्य की प्राप्ति के लिए छोटी या बड़ी वस्तु का त्याग और अनगिनत बाधाओं, शोषनों और अत्याचारों का सामना भी करना पड़ता है l हंसते हुए उनसे लोहा लेना तथा आगे कदम बढ़ाना ही उसका धर्म है l
दधिची जैसा त्यागी, सत्पुरुष शिक्षार्थी मृत्यु से नहीं डरता है l वह अपने जीवन को दूसरों की वस्तु समझता है l इसी कारण वह संकट काल में किसी जान, परिवार, गाँव, शहर और राष्ट्र की भी रक्षा करता है l आवश्यकता पड़ने पर वह अपने प्राण तक न्योछावर कर देता है l
गाँधी जी के लोक जागरण जैसे किसी जागरण से प्रेरित कोई भी जन साधारण शिक्षार्थी प्रेम-सुस्नेह के वश होकर किसी एक दिन जवाहर, राजेन्द्र, पटेल और सुभाष जैसा लोकप्रिय नेता बन पाता है l
निडरता, साहस, विश्वास, लग्न, और कड़ी मेहनत ही एक ऐसी अजेयी जीवन शक्ति है जिससे शिक्षार्थी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियां प्राप्त करता है l जिस शिक्षार्थी में यह चारों शक्तियां भली प्रकार विकसित हों वास्तव में विशाल समाज और राष्ट्र अपना उसी का है l
अजयी चतुर्वहिनी शक्ति को शिक्षार्थी जीवन में निरंतर क्रियाशील बनाये रखने के लिए उच्च विचार, सादा जीवन तथा कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता बनी रहती है l
अजयी शक्ति शिक्षार्थी के हृदय को शुद्ध रखने से प्राप्त होती है l उसे अपना हृदय शुद्ध रखने के लिए सात्विक गुणों की आवश्यकता पड़ती है l सात्विक गुण उसके विशुद्ध विवेक से प्राप्त होते हैं l विशुद्ध विवेक साधक द्वारा प्रकृति के प्रत्येक कार्य-व्यवहार, वस्तु में ज्ञान खोजने से बनता है - ज्ञान पोषक है l
वह ज्ञान संसार की अल्पकालिक सुख देने वाली वस्तुओं का भोग करने के साथ-साथ उनका तात्विक अर्थ मात्र जानकार शिक्षार्थी को अपने मन से त्याग करने के पश्चात् ही प्राप्त होता है l किसी विषय या विकार में बनी शिक्षार्थीया साधक के मन की आसक्ति अज्ञान की जननी है – ज्ञान ढक देती है l
तात्विक ज्ञान धारण करने वाला साधक सत्पुरुष ही पुरुषार्थी ज्ञानवीर धीर श्रीकृष्ण है l ज्ञान सत्य है और सत्य ही ज्ञान है l
ज्ञानवीर सत्पुरुष जल में कमल के पत्ते के समान प्रकृति में कार्य करता हुआ भी निर्लिप्त रहता है l इसी कारण जन साधारण मनुष्य अपनी विभिन्न दृष्टियों से दैवी गुण सम्पन्न साधक, सत्पुरुष को अपना नायक, रक्षक, मार्ग-दर्शक, युग निर्माता, गुरु, दार्शनिक, योगी, सिद्ध, महात्मा और अवतार पुरुष भी मानते है l वह उनके लिए एक रहस्यमय जीवन होता है l
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1. भारतीय शिक्षा की महक
असहाय समाज वर्ग 1995 अक्तूबर दिसम्बर
प्राचीन भारतीय निशुल्क शिक्षा-प्रणाली अपने आप में विशाल हृदयी होने के कारण विश्वभर में जानी और पहचानी गई थी l भारत विश्व गुरु कहलाया था l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परम्परा पर आधारित थी जिसमें सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोक अनुदान की पवित्र भावना सद्विचार,सत्कर्मो से विश्व का कल्याण होता था l गुरुकुल कभी किसी का शोषण नहीं, मात्र पोषण ही करते थे l तभी तो “सारी धरती गोपाल की है l“ भारत मात्र उद्घोष ही नहीं करता है, सारे विश्व को एक परिवार भी मानता है l
गुरुकुल में राजा, रंक और भिखारी सभी के होनहार बच्चों को अपने जीवन में आगे बढ़ने का एक समान सुअवसर प्राप्त होता था l उनके साथ एक समान व्यवहार होता था l गुरु व आचार्य जन शिष्यों के अँधेरे जीवन में तात्विक विषय ज्ञान-विज्ञान, ध्यान, लग्न, मेहनत, योग्यता, निपुणता, प्रतिभा और शुद्ध आचार-व्यवहार जैसे सद्गुणों का प्रकाश करके उन्हें दीप्तमान करते थे l इससे बच्चों के जीवन की नींव ठोस होती थी l उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था l बच्चे विश्व-बंधु बनते थे जो गुरु व आचार्यों के आशीर्वाद और बच्चों की लग्न तथा मेहनत का ही प्रतिफल होता था l
भारतीय गुरुकुलों में शिक्षण-शुल्क प्रथा का अपना कोई भी महत्व नहीं था l गुरुकुलों में शुल्क रहित शिक्षण-प्रथा से ही गुरु तथा शिष्य का निर्वहन, साधना, समृद्धि और विकास होता था l स्वेच्छा से सामर्थ्यानुसार, बिना किसी भय के ख़ुशी-ख़ुशी से दिया जाने वाला लोक अनुदान बच्चों के जीवन का निर्माण करता था l
कोई भी प्राचीन गुरुकुल एक वह दिव्य कर्मशाला थी जहाँ बच्चों में योग्यता पनपती थी l वहां उन्हें दुःख-सुख का सामना करने का अनोखा साहस मिलता था l जीवन के हर क्षेत्र में आत्म सम्मान के साथ सर उठाकर चलने और समय पड़ने पर शेर की तरह दहाड़ करने के साथ-साथ जीने और मरने की भी एक अनोखी मस्ती प्राप्त होती थी l इन गुणों को प्रदान करता था – आचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का योगदान l गुरुकुलों की गरिमा अविरल जलधारा समान प्रवाहित होती रहती थी l गुरुकुलों को अनुदान से प्राप्त अन्न, धन, वस्त्र और भूमि आदि पर मात्र गुरुकुल में कार्यरत मान्य आचार्यों का जितना स्वामित्व होता था, अध्ययनरत, अध्ययनकाल तक उस पर शिष्यों का भी उतना ही स्वामित्व रहता था l दोनों में प्रेम, सहयोग, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना होती थी l आचार्य शिष्यों के जीवन का निर्माण करते थे , उनका मार्गदर्शन करते थे जबकि शिष्य पूर्ण ज्ञानार्जित करने के पश्चात् मात्र कर्तव्य परायण होकर अपने माता-पिता, गाँव, समाज, शहर, और राष्ट्र ही की सेवा करते थे l
भारतीय शिक्षा–क्षेत्र मात्र निःस्वार्थ सेवा-क्षेत्र रहा है जिसमें निष्कामी आचार्य तथा ज्ञान पिपासु विद्यार्थियों की महती आवश्यकता बनी रहती थी l वह तो सदैव सबके लिए ज्ञान का प्रणेता और मार्ग दर्शक ही था l आचार्य भली प्रकार जानते थे – उन्हें विद्यार्थियों को किस प्रकार का शिक्षण देने के साथ-साथ प्रशिक्षण भी देना है l
वैसे शिक्षण-प्रशिक्षण लेने की कोई आयु नहीं होती है l आवश्यकता है तो मात्र विद्यार्थी के दृढ़ निश्चय की कि वह क्या करना चाहता है, क्या कर रहा है ? वह क्या बनना चाहता है, क्या बन गया है ? वह क्या पाना चाहता है, उसने अभी तक पाया क्या है ? अगर वह अपना उद्देश्य पाने में बार-बार असफल रहा हो, उसके लिए उसे किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो, किसी शंका का समाधान ही करवाना चाहता हो तो आ जाये उसका निवारण करवाने को l गुरुकुल के आचार्यों की शरण ले l वहां उसे हर समस्या का समाधान मिलेगा l वह जब भी आये, अपने साथ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास अवश्य लाये, भूल नहीं जाना l हमारे आचार्य यही शुल्क लेते हैं l इनके बिना किसी को वहां उनसे कुछ भी नहीं है, मिलने वाला l
आज भारत माता के तन पर लिपटा सुंदर कपड़ा जगह-जगह से कटा हुआ है l भारतीय शिक्षा सदियों से आकंताओं, अत्याचारियों की बर्बरता, क्रूरता का शिकार हुई है l उसकी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी है l कपड़ा तो ठोस है, घिसा नहीं है, मात्र कटा हुआ है l वह तो अब भी हर मौसम का सामना करने में सक्षम है l भारतीय शिक्षा अव्यवस्थित होते हुए भी किसी अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली की तुलना में अब भी कम नहीं, श्रेष्ठ ही है l जरुरी है – उस कपड़े की सिलाई करना l उसे पुनः साफ-सुथरा करके फिर से उपयोगी बनाना l गुरुकुल शिक्षा का पुनर्गठन करना उसे उचित नेतृत्व प्रदान करना l
क्या हमें किसी अन्य तन का मात्र सुंदर कपड़ा देख अपने तन का उपयोगी एवं सुखदायी कपड़े का त्याग कर देना चाहिए ? हमें अपनी जीवनोपयोगी भारतीय शिक्षा प्रणाली को भुला देना चाहिए ? उसके स्थान पर किसी अन्य राष्ट्र से उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली को स्वीकार कर लेना चाहिए ? नहीं, कभी नहीं l हमें गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को पुनः समझना होगा l उसे आधुनिक नई कसौटी पर परखना होगा l तभी वह एक दिन देश, काल, और पात्र के अनुकूल तथा जन मानस के अनुरूप, उपयोगी सिद्ध होगी l वैसे किसी कमजोर रोगी के तन से लिया हुआ कोई भी कपड़ा एक हृष्ट-पुष्ट निरोगी काया को मात्र रोगों के अतिरिक्त कुछ और दे भी क्या सकता है ? ऐसे कपड़े की तरह ली गई अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली भारत वर्ष के लिए किसी भयानक संक्रामक रोग से कम नहीं है l इससे उसे दूर रखने में ही हम सबका हित है l
आज हम वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को अँधेरे का कारण मान रहे हैं लेकिन अँधेरे को दोष देने से कहीं अच्छा है – कोई एक दीप जला देना l कभी-कभी भारतीयन शिक्षा का मंद गति से प्रवाहित होने वाला मदमाती महक का मधुर झोंका न जाने कहाँ से आकर कोमल मन को स्पर्श कर जाता है ? मन आनंदित हो जाता है l लगता है वह कुछ कह रहा हो -
गुण छुपाये छुप नहीं पाता, गुण का स्वभाव है यही,
फुलवारी अपनी फूलों भरी, सुगंध रोके, रूकती है नहीं l