मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



लेखक: चेतन कौशल

  • श्रेणी:

    कला-साधना जीवनोपयोगी है

    मानव जीवन विकास – 3

    जीना भी एक कला है l जो व्यक्ति भली प्रकार जीना सीख जाता है, वह मानों उसके लिए सोने पर सुहागा l भली प्रकार जीने के लिए व्यक्ति का किसी न किसी कला के साथ जुड़े रहना अति आवश्यक है भी l मनुष्य को मांस-मदिर और धुम्रपान से सदैव दूर रहना चाहिए l सत्सनातन धर्म इन्हें  सेवन करने की  किसी को आज्ञा नहीं देता है अपितु सावधान करता है l जिन्दगी से कला जोड़ो, नशा नहीं l कला से प्रेम करो, नशे से नहीं l नशे का त्याग करो, जिन्दगी का नहीं l नशे से नाता तोड़ो, जिन्दगी से नहीं l कला प्रेम से जिन्दगी संवरती है, नशे से नहीं l अतः कला-प्रेमी को नशा नहीं करना चाहिए l

    मानव शरीर उस मशीन के समान है जिसमें पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, मैं का भाव, मन और बुद्धि होती है l मुंह, उपस्थ गुदा, हाथ और पैर उसकी कर्मेन्द्रियाँ कर्म करती हैं जबकि जिह्वा, आँखें, नाक, कान, त्वचा ज्ञानेन्द्रियाँ उसके लिए ज्ञानार्जित करती हैं l यह सब कार्य एक इंटरनैट की तरह मात्र बुद्धि के नियंत्रण में होते हैं l

    प्राचीन काल से ही भारत की गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित सर्वश्रेष्ठ विश्वसनीय कला-सृजन करने वाली वैदिक शिक्षा-प्रणाली अंग्रेजी साम्राज्य तक प्रभावी रही थी l इतिहास में श्रीकृष्ण–बलराम जी के गुरु का संदीपनी, श्रीराम-लक्ष्मण के गुरु का विश्वामित्र, लव-कुश के गुरु बाल्मीकि के आश्रम जैसे अनेकों आश्रमों का उल्लेख मिलता है l स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बोट बैंक और दलगत राजनीति के कारण उसे भारी हानि पहुंची है l गुरुओं में पहला गुरु माता, दूसरा पिता और तीसरा विद्यालय के गुरु एवं अध्यापक माने जाते हैं l जीवन निर्माण में इनकी महान भूमिका रहती है l माँ-बाप तो मात्र बच्चे को जन्म देते हैं जबकि जीवन में उसे गुरु ही योग्य पात्र बनाते हैं l माँ के गर्भ में विकसित हो रहा शिशु जन्म लेने से पूर्व अपने कानों से  दूसरों की बातें श्रवण करना आरम्भ कर देता है l महाभारत के पात्र वीर अभिमन्यु इसका जीता-जागता उदाहरण है l उन्होंने जन्म लेने से पूर्व ही अपने पिता अर्जुन से माता सुभद्रा को सुनाई गई गाथा के माध्यम से चक्रव्यूह बेधने की कला सीख ली थी और उससे महाभारत में द्रोणाचार्य द्वारा रचाया गया चक्रव्यूह भी बेध डाला था l माँ के द्वारा प्रसंग पूरा न सुन पाने के कारण वे चक्रव्यूह बेधना/उससे बाहर निकलना नहीं जान सके थे l उनकी माँ गाथा सुनते-सुनते बीच में सो गई थी l अतः वे वीरगति को प्राप्त हुए थे l इसलिए कहा जाता है कि किसी भी गर्भवति महिला/स्त्री को ज्ञान-रस, वीर-रस की गाथाएँ सुनाने के साथ-साथ उससे धार्मिक और सदाचार ही की बातें करनी चाहियें l उसके शयन-कक्ष में धार्मिक और महान पुरुषों के चित्र लगाने चाहिए l इससे अच्छा और संस्कारवान बच्चा पैदा होता है l

    जन्म लेने के पश्चात् बच्चा धीरे-धीरे अपने गुरु माता–पिता से खाना-पीना, बोलना, खड़े होना, चलना, दौड़ना सब कुछ सीख लेता है l ज्यों-ज्यों बच्चा बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों वह बालक या बालिका के रूप में तीन-चार वर्ष की आयु में पाठशाला जाना आरम्भ कर देता है l वहां वह लिखना, पढ़ना, बोलना संवाद करना, नाचना, गाना, अनुशासन व शिष्टाचार इत्यादि अन्य कलाएं भी सीखता है l यही नहीं, परंपरागत गुरुकुलों में तो आत्म-रक्षा हेतु छात्र-छात्राओं को युद्ध कला भी सिखाई जाती थी l कोई भी कला साधना आत्म साक्षात्कार करने का संसाधन है, साध्य नहीं l वही कला तब तक जीवित रहती है, जब तक उसका किसी के द्वारा एकलव्य की भांति सृजन, पोषण, और वर्धन हेतु अभ्यास किया जाता है l वही व्यक्ति कला का सफलता पूर्वक सृजन, पोषण और वर्धन हेतु अभ्यास कर सकता है जिसके पास कला के प्रति आत्म समर्पण की भावना, धैर्य, एकाग्रता और आत्म विश्वास होता है l जीवन में सफलता की ऊँचाइयाँ छूने और कला में प्रवीणता पाने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति का होना अति आवश्यक है l कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l

    कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग लेने से व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है l लोकहित में कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग, सुख और यश प्राप्त होता है l कला संस्कृति से ही किसी व्यक्ति, परिवार, समाज, क्षेत्र, प्रान्त और देश की पहचान होती है l कला संस्कृति को जीवित रखने का एक मात्र सरल उपाय यह है कि गुरु की उपस्थिति में प्रशिक्षित प्रशिक्षु के द्वारा नये प्रशिक्षु को शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जाये l उनके द्वारा समय-समय पर कला अभ्यास हो और निश्चित स्थान पर उनकी कला-प्रदर्शन का आयोजन भी किया जाये l किसी कला का सम्मान कलाप्रेमी ही करते हैं, कोई बाजार नहीं l कला का सम्मान करने से ही किसी कलाकार का वास्तविक सम्मान होता है l जिस स्थान पर कला का सम्मान न हो, वहां आयोजक को भूलकर भी किसी कलाकार से उसकी कला का प्रदर्शन नहीं करवाना चाहिए और न ही किसी कलाकार को उसमें भाग लेना चाहिए l कला प्रेमियों के हृदय में कहीं न कहीं कला के प्रति सम्मान अवश्य होता है जिस कारण वे उससे संबंधित कलामंच की ओर आकर्षित होते हैं l किसी भी कला को जिवंत बनाये रखने के लिए दर्शकों, कला प्रेमियों को उस कला का सम्मान अवश्य करना चाहिए l

    समय-समय पर नालंदा, तक्षशिला, विश्वविद्यालयों और उनकी शाखाओं, उप-शाखाओं की तरह वर्तमान सरकारी अथवा गैर सरकारी शिक्षण-संस्थाओं द्वारा अपने विभिन्न कलाकार छात्र-छात्राओं का उत्साह बढ़ाने के लिए उससे संबंधित मंचों का आयोजन करवाकर उन्हें सम्मानित भी करना चाहिए l जो युवाजन अपने जीवन में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियों का विकास करना चाहते हैं, उन्हें स्वयं में छिपी हुई किसी न किसी कला (वादक-यंत्र वादन, नृत्य, संगीत, अभिनय, भाषण, साहित्य लेखन, जैसी अन्य कला) से प्रेम अवश्य करना चाहिये l जीवन निर्वहन करने के साथ-साथ उनके पास अपना मानव जीवन संवारने के लिए इससे बढ़िया अन्य और संसाधन क्या हो सकता है !

    प्रकाशित जुलाई अगस्त 2020 मातृवंदना


  • श्रेणी:

     आत्म-शांति पाने के उपाए

    मानव जीवन विकास - 2

    मानव जीवन में व्यक्ति की ओर से अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए उचित यह है कि उसके अपने अमूल्य जीवन का कोई ना कोई बड़ा उद्देश्य अवश्य हो l उससे भी अधिक जरुरी है, उसकी ओर से उस उद्देश्य को अपने दायित्व के साथ पूरा करने की चेष्टा करना l वह अपने प्रगतिशील मार्ग में आने वाले कष्टों को फूल और मृत्यु को जीवन समझे और अपना प्रयत्न तब तक जारी रखे जब तक वह उसे पूरा न कर ले l जीवन उद्देश्यों को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता है – अध्यात्मिक और वैश्विक l

    आत्म-कल्याण या आत्म-शांति की कामना करते हुए यहाँ जिन-जिन उपायों की चर्चा की जाएगी, वह हमारे लिए नये नहीं हैं क्योंकि प्राचीनकाल से ही हमारे ऋषि-मुनियों, संतों, महात्माओं, आचार्यों और समाज सुधारकों ने अपने-अपने प्रयासों और अनुभवों से देश, काल और पात्र देखकर उनका कई बार मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार किया है l यह उसी कड़ी को आगे बढ़ाने का एक छोटा सा प्रयास है l

    जिस प्रयास या चेष्टा से जीवन में उन्नति करने के लिए अपने मन से गुण और दोषों का परिचय मिलता है, सद्गुणों को अपने भीतर सुरक्षित रखकर दोषों को दूर किया जाता है, आत्म निरिक्षण कहलाता है l

    दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ) अपने-अपने गुणों के अनुकूल कर्म करती हैं l उनकी ओर से ऐसी कुचेष्टाएँ जो मन को अध्यात्मिक मार्ग से भटकाने में समर्थ हों, उनसे मन को बचाने के लिए समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित किया जाता है l इसके साथ-साथ आत्म-साक्षात्कार का प्रयास भी जारी रखा जाता है – आत्म संयमन कहलाता है l

    समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित करके, हृदय और मष्तिष्क को रोककर उसे ईश्वरीय भाव में टिकाकर, मन से प्रभु का ध्यान किया जाता है – आत्म-चिंतन कहलाता है l   

    अपनी आत्मा को महाशक्ति मानकर नेक कमाई से अपना निर्वहन करने के साथ कर्तव्य समझकर यथा शक्ति दूसरों की सहायता की जाती है – आत्मावलंबन कहलाता है l

    अपने हृदय से कर्मफल का मोह छोड़कर, हर कार्य जिससे अपने जैसा दूसरों का भी भला होता हो, को करना कर्तव्य समझा जाता है  – आत्मानुशासन कहलाता है l 

    संयमित जीवन में बाहरी विरोद्ध होने पर भी अपने पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ मन, वाणी और कर्म में दृढ़ आस्था रखी जाती है – आत्म सम्मान कहलाता है l

    अपनी आत्मा में ध्यान मग्न रहकर दूसरे प्राणियों में भी अपनी ही आत्मा के दिव्यदर्शन करके उनके साथ अपने जैसा व्यवहार किया जाता है – आत्मीय भावना कहलाती है l

    अपने अन्दर और बाहर एक जैसे भाव में आत्म स्वरूप का दर्शन करते हुए समाधि लगाई जाती है तथा श्रद्धालुओं व जिज्ञासुओं में आत्मज्ञान का अपेक्षित प्रसाद बांटा जाता है – आत्मज्ञान कहलाता है l 

    निराभिमान द्वारा अपने मन को आत्मज्ञान में स्थिर रखकर, यथा संभव विश्व का कल्याण और आत्मचिंतन करते हुए समाधि में ही शरीर का त्याग किया जाता है – आत्म-मुक्ति कहलाता है l

    भले ही उपलिखित उपाय आत्म-कल्याण करने वाले या आत्म-शांति पाने वाले विभिन्न हैं पर इनका प्रभाव या परिणाम एक ही जैसा है l  

    देखने में आया है कि हर मनुष्य का अपने जीवन में कोई न कोई उद्देश्य तो होता ही है पर जिन उद्देश्यों को हमने सबके सामने लाने का प्रयास किया है, उनमें से किसी एक को अवश्य चुन लेना चाहिए l वह इसलिए कि जो उद्देश्य संसारिक दृष्टि से चुने जाते हैं, वह सब चंचल मन के किसी न किसी विकार से प्रेरित/ग्रसित और प्रभावित होकर क्षण-भान्गुरिक, अल्पायु, नाशवान सुख देने वाले ही होते हैं l कई बार हम उनका नाश भी अपने सामने होता देखते हैं l उन्हें देख हमें मानसिक दुखों के साथ-साथ और कई कष्ट भी सहन करने पड़ते हैं l  

    पर अध्यात्मिक उद्देश्य अनश्वर, दीर्घायु, वाला अमरता की ओर ले जाने वाला एक साधन, उपाय या मार्ग है l जैसे बर्फ की सिल्ली का पिघला हुआ पानी पहाड़ी से ढलान की ओर बहकर नाला या नदी के मार्ग में अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए अंत में समुद्र से मिलकर एकाकार हो जाता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि  वह दुःख में दुखी और सुख में प्रसन्न न हो l सुख दुःख दोनों मन के विकार हैं l उसे स्थित-प्रज्ञ या एक भाव में स्थिर होना आवश्यक है l इससे वह ईश्वर दर्शन कर सकता है l

    इसलिए हमें न केवल अपने नश्वर देह सुख के लिए अल्पकालिक सुख देने वाले उद्देश्यों की पूर्ति करनी चाहिए बल्कि उसके साथ-साथ आत्म-शांति देने या आत्म-कल्याण करने वाले उद्देश्य पुरे करने का भी प्रयत्न करना चाहिये l इससे हम स्वयं तो सुखी होंगे ही इसके साथ ही साथ दूसरों को भी सुख पहुंचा सकते हैं l

    प्रकाशित 3 दिसम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स

  • श्रेणी:

    अनुच्छेद 370 तब और अब



    आलेख – राष्ट्रीय भावना – मातृवंदना
    सितम्बर 2019

    भारत को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात 15 अगस्त 1947 को जम्मू-कश्मीर भी स्वतंत्र हो गया था l उस समय यहाँ के शासक महाराजा हरि सिंह अपने प्रान्त को स्वतंत्र राज्य बनाये रखना चाहते थे l लेकिन 20 अक्तूबर 1947 को कबालियों ने पकिस्तानी सेना के साथ मिलकर कश्मीर पर आक्रमण करके उसका बहित सा भाग छीन लिया था l इस परिस्थिति में महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर की रक्षा हेतु शेख अब्दुल्ला की सहमति से जवाहर लाल नेहरु के साथ मिलकर 26 अक्तूबर 1947 को भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के अस्थाई विलय की घोषणा करके हस्ताक्षर किये थे l  इसके साथ ही भारत से तीन विषयों रक्षा, विदेशी मुद्दे और संचार के आधार पर अनुबंध किया गया कि जम्मू-कश्मीर के लोग अपने संविधान सभा के माध्यम से राज्य के आंतरिक संविधान का निर्माण करेंगे और जब तक राज्य की संविधान सभा शासन व्यवस्था और अधिकार क्षेत्र की सीमा निर्धारित नहीं कर लेती है तब तक भारत का संविधान केवल राज्य के बारे में एक अंतरिम व्यवस्था प्रदान कर सकता है l

    उस समय डा० अम्बेडकर देश के पहले कानून मंत्री थे l उन्होंने शेख अब्दुल्ला से कहा था – “तो आप चाहते हैं कि भारत आपकी सीमाओं की सुरक्षा करे, आपके यहाँ सड़कें बनवाये, आपको अनाज पहुंचाए, देश में बराबर का दर्जा भी दे लेकिन भारत की सरकार कश्मीर पर सीमित शक्ति रखे. भारत के लोगों का कश्मीर पर कोई अधिकार न हो ! इस तरह के प्रस्ताव पर भारत के हितों से धोखाधड़ी होगी l देश का कानून मंत्री होने के नाते मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता l” वर्ष 1951 में महिला सशक्तिकरण का हिन्दू संहिता विधेयक पारित करवाने के प्रयास में असफल रहने पर स्वतंत्र भारत के इस प्रथम कानून मंत्री ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था l देश का स्वरूप बिगाड़ने वाले इस प्रावधान का डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कड़ा विरोध किया था l 1952 में उन्होंने नेहरु से कहा था, “आप जो करने जा रहे हैं, वह एक नासूर बन जयेगा और किसी दिन देश को विखंडित कर देगा l वह प्रावधान उन लोगों को मजबूत करेगा, जो कहते हैं कि भारत एक देश नहीं, बल्कि कई राष्ट्रों का समूह है l” अनुच्छेद 370 को भारत के संविधान में इस मंशा के साथ मिलाया गया था, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में प्रावधान केवल अस्थाई हैं l उसे 17 नवम्बर 1952 से लागु किया गया था l   

    डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी को यह सब स्वीकार्य नहीं था l वे जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत का अभिन्न अंग बनाना चाहते थे l उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य का अलग झंडा और अलग संविधान था l संसद में डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की जोरदार बकालत की थी l अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने संकल्प व्यक्त किया था “या तो मैं आपको भारत का संविधान प्राप्त करवाऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा l” वे जीवन प्रयन्त अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे l वे अपना संकल्प पूरा करने के लिए 1952 में बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े l वहां पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार करके नजरबंद कर दिया गया l वहां पर 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई l    

    अनुच्छेद 370 के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का राज्य तो है लेकिन वह राज्य के लोगों को विशेष अधिकार और सुविधाएँ प्रदान करता है l जो अन्य राज्यों से अलग हैं l भारत पाक मध्य क्रमशः 1965, 1971, 1999 में कारगिल युद्ध हो चुके हैं और उसने हर बार मुंह की खाई है l इन सबके पीछे चाहे वह हिंसा, बालात्कार, आगजनी, घुसपैठ, आतंक, पत्थरवाजी ही क्यों न हो, उसकी मात्र एक यही मनसा रही है किसी न किसी तरह भारत को कमजोर करना है l

    जम्मू-कश्मीर में प्रयोजित आतंक का मुख्य कारण वहां के कुछ अलगाववादी नेताओं के निजी हित रहे हैं l वे अलगाववादी नेता पाकिस्तान के निर्देशों पर जम्मू-कश्मीर के गरीब नौजवानों को देश विरुद्ध भड़काते हैं और उन्हें आतंक का मार्ग चुनने को बाध्य करते हैं l जबकि वे नेता अपने लड़कों को विदेशों में पढ़ाते हैं l यह सिलसिला 5 जुलाई 2019 तक निरंतर चलता रहा है और प्रसन्नता की बात यह है कि इसके आगे प्रधान मंत्री श्री नरेंदर मोदी जी के अथक प्रयासों से  डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी का संकल्प पूरा होने जा रहा है l मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य के लद्दाख क्षेत्र को 31 जुलाई 2019 को अलग से केंद्र शासित राज्य घोषित कर दिया है l समय की आवश्यकता है – कश्मीर के लोग इन अलगाववादी नेताओं के निजी हितों को समझें और भारत का लघु स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले इस प्रदेश में पुन: सुख-शांति की स्थापना हो l  

    चेतन कौशल “नूरपुरी “


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    आइये ! राष्ट्रभाव की जोत जगाएं

    आलेख – राष्ट्रीय
    भावना मातृवंदना मार्च अप्रैल 2019
    हम भारतवासी भारत के नागरिक हैं तो हमारा यह भी दायित्व बन जाता है कि हम देशहित में ही कार्य करें l हम जो भी कार्य कर रहे हैं, देश हित में कर रहे हैं l इस सोच के साथ हर कार्य करने से देश का विकास होना निश्चित है l हम अपने घर को अच्छा बना सकते हैं तो अपने देश भारत को क्यों नहीं ? अगर देश और समाज में कहीं अशांति हो तो हम शांति से कैसे रह सकते हैं ? भारतीय होने का दम भरने वाले ही किसी कारगर रणनीति के अंतर्गत भारत विरोधी शक्तियों को अलग-थलग कर सकते हैं l 
    राष्ट्रीय भावना हर व्यक्ति के हृदय में जन्म से ही विद्यमान होती है l उसे आवश्यकता होती है तो मात्र सही मार्ग दर्शन की l ताकि उसे किसी ढंग से सही दिशा का ज्ञान हो सके l सही दिशा-बोध होने पर ही वह व्यक्ति अपने जीवन में अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक हो पता है l ऐसे में एक सजग नागरिक का हृदय कह सकता है l
    हमारा उन माताओं को शत-शत नमन है जो राष्ट्रहित सोचती हैं और अपनी संतानों को राष्ट्रहित के कार्य करने के योग्य बनती हैं l गुरुओं को हमारा कोटि-कोटि नमन जो विद्यार्थियों में राष्ट्रीय भाव जागृत करते हैं और उन्हें जीवन की हर चुनौति का सामना करने में सक्षम बनाते हैं l उन नेताओं को हमारे शत-शत प्रणाम जो क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र को अपना समझते हैं और और जनता के साथ बिना भेद-भाव, एक समान व्यवहार करते हैं l हम उनका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं जो मातृभूमि की रक्षा हेतु अपना शीश न्योछावर करते हैं l किसान देश का अन्नदाता है, उसको शत-शत नमन l विविध क्षेत्रों में कार्यरत एवं कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठ देशवासियों को नमन जो राष्ट्र के विकास में सतत क्रियाशील हैं तथा ज्ञात-अज्ञात सभी शहीदों और सीमा की रक्षा में तत्पर शत्रुओं के दांत खट्टे करने में सक्षम वीर सैनिकों को शत-शत नमन l
    देश के प्रति दुर्भावना  :-
    दुर्भाग्य से देश भर में कुछ धर्म और जातियों के ठेकेदारों के द्वारा देश को धर्म और जातियों में विभक्त करने का षड्यंत्र जारी है l वे देश को बाँटने के नित नये-नये हथकंडे व बहाने ढूंढ रहे हैं l उन्हें धर्म और जातियों की आढ़ में उनका उद्देश्य लोगों को एक दुसरे के विरुद्ध भडकाना है, देश को खंडित करना है l वे भूल गए हैं कि हमने जो आजादी प्राप्त की है उसकी हमें कितनी कीमत चुकानी पड़ी है ? कोई व्यक्ति जिस थाली में खा रहा हो, अगर वह उसी थाली में छेड़ करना शुरू कर दे तो उसे देश का शत्रु नहीं तो और क्या कहें ? जिनके मुंह से कभी “जयहिंद”, “वन्दे मातरम्”, “भारत माता की जय”नहीं निकलता – वे देश के हितैषी कैसे हो सकते हैं ?
    शत्रु छोटा हो या बड़ा, भीतर हो या बाहर उसे कभी कम नहीं आंका जा सकता l तुम हमारे संग “भारत माता की जय“, “जय भारत”, “जयहिंद”, “वन्दे मातरम्” बोलकर दिखाओ, हम मान जायेंगे कि तुम भी भारतीय हो l देश ने आजादी वीर/वीरांगनाओं का खून देकर पाई है l किसी के द्वारा देश को धर्म या जातियों में बांटना अब हमें स्वीकार नहीं है l
    आजादी मिलने के पश्चात् देश भर में जहाँ राष्ट्रीय भावना में वृद्धि होनी चाहिए थी, वहां उसमें भारी गिरावट देखी जा रही है l स्थिति गंभीर ही नहीं, अति चिंतनीय है l अब तो देश के समझदार एवं सजग नागरिकों के मन में अनेकों प्रश्न पैदा होने लगे हैं जिनका उन्हें किसी से सन्तोष जनक उत्तर नहीं मिल रहा l देशहित की भावना देशभक्तों में नहीं होगी तो क्या गद्दारों में होगी ? व्यक्ति परिवार के बिना, परिवार समाज के बिना और समाज सुव्यवस्था के बिना सुखी नहीं रह सकते l
    तिनका-तिनका जोड़ने से घोंसला बनता है तो राष्ट्रहित में देशवासियों द्वारा दिया गया योगदान राष्ट्र निर्माण में सहायक होगा l शिक्षित एवं सभ्य अभिभावक बच्चों को संस्कारवान बना सकते हैं तो भावी नागरिकों को “जिम्मेदार नागरिक” देश की एक सशक्त शिक्षा–प्रणाली क्यों नहीं ? भवन का निर्माण ईंटों के बिना, राष्ट्र का विकास जन सहयोग के बिना संभव किस हो सकता है ? धर्म व  जाति के नाम पर समाज को क्षति पहुँचाने वाले, क्या कभी रष्ट्र के हितैषी बन सकते हैं ? देश की सीमाएं सजग सेना के बिना और समाज आत्मरक्षा किये बिना सुरक्षित कैसे रह सकता है ?
    आवश्यकता है पुनः विचार करने की  :-
    हर युग में राम आते हैं, रावण होते हैं l वही लोग अपने जीवन में एक नया इतिहास रच जाते हैं जो इतिहास रचने की क्षमता रखते हैं l सक्षम बनो, अक्षम नहीं l समाज में शांति बनाये रखना भी धर्म का ही कार्य है, उसकी रक्षा हेतु हम सबको हरपल तैयार रहना चाहिए l वीर पुरुष शेर की तरह जिया करते हैं l वे शहीद हो जाते हैं या फिर एक नया इतिहास रच देते हैं l जुड़ा हुआ है जो निज काम से, उम्मीद है देश को उसी से l  हमेशा सजग रहो और स्वयं सुरक्षित रहो l सक्षम लोग ही अक्षमों को सक्षम बना सकते हैं l समाज की आपसी एकता ही उसके राष्ट्र की अखंडता होती है l राष्ट्र है तो हम हैं, राष्ट्र नहीं तो हम नहीं, तुम भी नहीं l
    आइये ! राष्ट्रीय भावना की अखंड जोत जगायें, असामाजिक तत्वों को दूर भगाएं l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”







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    अपने प्रति अपनी सजगता  

    मानव जीवन विकास – 1

    मानव का मन जो उसे नीच कर्म करने से रोकता है, विपदा आने से पूर्व सावधान भी करता है, वह स्वयं बड़े रहस्यमयी ढंग से एक ऐसे आवरण में छुपा रहता है जिसके चारों ओर विषय वासना और विकार रूपी एक के पश्चात् एक पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी परत के पश्चात् परत चढ़ी रहती है l जब मनुष्य अपनी निरंतर साधना, अभ्यास और वैराग्य के बल से उन सभी आवरणों को हटा देता है, आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है, उसे पहचान लेता है और यह जान लेता है कि वह स्वयं कौन है ? क्यों है ? तो वह समाज का सेवक बन जाता है l उसकी मानसिक स्थिति एक साधारण मनुष्य से भिन्न होती है l  

    मनुष्य का मन उस जल के समान है जिसका अपना कोई रंग-रूप या आकर नहीं होता है l कोई उसे जब चाहे जैसे बर्तन में डाले वह अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं को उसमें व्यवस्थित कर लेता है l ठीक यही स्थिति मनुष्य के मन की है l चाहे वह उसे अज्ञान के गहरे गर्त में धकेल दे या ज्ञानता के उच्च शिखर पर ले जाये l यह उसके अधीन है l उसका मन दोनों कार्य कर सकता है, करने में सक्षम है l  इनमें अंतर मात्र ये है कि एक मार्ग से उसका पतन होता है और दुसरे से उत्थान l इन्हें मात्र सत्य पर आधारित शिक्षा से जाना जा सकता है l  

    संसार में भोग और योग दो ऐसी सीढ़ियाँ हैं जिन पर चढ़कर मनुष्य को भौतिक एवम् अध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती हैं l ये तो उसके द्वारा विचार करने योग्य विषय है कि उसे किस सीढ़ि पर चढ़ना है और किस सीढ़ि पर चढ़कर उसे दुःख मिलता है और किससे सुख l 

    महानुभावों का अपने जीवन में यह भली प्रकार विचार युक्त जाना पहचाना दिव्य अनुभव रहा है कि बुराई संगत करने योग्य वस्तु नहीं है l बुरी संगत करने से बुरी भावना, बुरी भावना से बुरे विचार, बुरे विचारों से बुरे कर्म पैदा होते हैं जिनसे निकलने वाला फल भी बुरा ही होता है l

    कुसंगत से दूर रहो, इसलिए नहीं की आप उससे भयभीत हो l वह इसलिए कि दूर रहकर आप उससे संघर्ष करने का अपना साहस बढ़ा सको l मन को बलशाली बना सको l इन्द्रियों को अनुशासित कर सको l फिर देखो, बुराई से संघर्ष करके l उससे निकलने वाले परिणाम से, आपको ही नहीं आपके परिवार, गाँव, शहर, समाज और राष्ट्र के साथ-साथ विश्व का भी कल्याण होगा l वास्तविक मानव जीवन यही है l  

    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना सम्भवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l ये उसकी अपनी दुर्बलता है l जब तक वह अपने मन को बलशाली नहीं बना लेता, तब तक वह स्वयं ही बुराई का शिकार नहीं होगा बल्कि उससे उसका कोई अपना हितैषी बन्धु भी चैन की नींद नहीं सो सकता l  

    मनुष्य भोग बिना योग और योग बिना भोग सुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे भोग में योग और योग में भोग सुख का व्यवहारिक अनुभव होना नितांत आवश्यक है l वह चाहे पढ़ाई से जाना गया हो या क्रिया-अभ्यास से ही सिद्ध किया गया हो l अगर जीवन में इन दोनों का मिला-जुला अनुभव हो जाये तो वह एक अति श्रेष्ठ अनुभव होगा l इसके लिए कोरी पढ़ाई जो आचरण में न लाई जाये, नीरस है और कोरा क्रिया-अभ्यास जिसका पढ़ाई किये बिना, आचरण किया गया हो – आनंद रहित है l जिस प्रकार साज और आवाज के मेल से किसी नर्तकी के पैर न चाहते हुए भी अपने आप थिरकने आरम्भ हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार अध्यन के साथ-साथ उसका आचरण करने से मनुष्य जीवन भी स्वयं ही सभी सुखों से परिपूर्ण हो जाता है l

    प्राचीनकाल में ही क्यों आज भी हमारे बीच में ऐसे कई महानुभाव विद्यमान हैं जो आजीवन अविवाहित रहने का प्रण किये हुए हैं और दूसरे गृहस्थ जीवन से निवृत होकर उच्च सन्यासी हो गये हैं या जिन्होंने तन, मन, और धन से वैराग्य ले लिया है l उनका ध्येय स्थितप्रज्ञा की प्राप्ति अथवा आत्म-शांति प्राप्त करने के साथ-साथ सबका कल्याण करना होता है l इनके रास्ते भले ही अलग-अलग हों पर मंजिल एक ही है l  

    वह ब्रह्मचारी या सन्यासी जिसकी बुद्धि किसी इच्छा या वासना के तूफ़ान में कभी अडिग न रह सके,  वह न तो ब्रह्मचारी हो सकता है और न ही सन्यासी l उसे ढोंगी कहा जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा – क्योंकि ब्रह्मचारी किसी रूप को देखकर कभी मोहित नहीं होता है और सन्यासी किसी का अहित अथवा नीच बात नहीं सोच सकता जिससे उसका या दूसरे का कोई अहित हो l इनमें एक अपने सयम का पक्का होता है और दूसरा अपने प्रण का l

    अपमानित तो वह लोग होते हैं जो इन दोनों बातों से अनभिज्ञ रहते हैं या वे उनकी उपेक्षा करते हैं l इसलिए समाज में कुछ करने के लिए आवश्यक है अपने प्रति अपनी निरंतर सजगता बनाये रखना और ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे जीवन आत्मोन्मुखी बन सके

    प्रकाशित 1 अक्तूबर 1996 कश्मीर टाइम्स