मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



लेखक: चेतन कौशल

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    लाकडाउन पर भारी निस्वार्थ सेवा

    सामाजिक चेतना – 13

    वैश्विक कोविड-19 संक्रमण का प्रादुर्भाव कब और कहाँ हुआ ? यह महत्व पूर्ण नहीं है l इसे नियंत्रित कैसे किया जा सकता है ? यह ज्यादा महत्वपूर्ण है l जब से भारत कोविड-19 संक्रमण की पाश से बंधा है तब से भारत सरकार देशवासियों को अविलम्ब जागरूक कर रही है और उसके द्वारा इस भयानक रोग से लोगों के लिए बचाव के निरंतर प्रयास जारी हैं l

    1. अपने-अपने घर की छतों पर थालियाँ बजाओ, दीप जलाओ जिससे चिकित्सा कार्य में लगे डाक्टर/नर्सों को अहसास हो कि वे ही इस बचाव कार्य में अकेले नहीं हैं, देश की 130 करोड़ की जनता भी उनके साथ है l
    2. सभी जन अपने-अपने घर में रहो, सुरक्षित रहो l
    3. आप अपने घरों में रहो और घर का ही बना खाना खाओ l
    4. पुनः उपयोग होने वाला, घर का बना फेस कवर/मास्क पहनो l
    5. सार्वजनिक स्थलों पर सदा दूसरों से 2 गज (6 फुट) की दूरी बनाकर रखें l
    6. सार्वजनिक व अधिक भीड़–भाड़ वाले स्थलों पर जब आप दूसरों से सुरक्षित दूरी बनाकर न रख सकें, तो अपना मुंह और नाक फेस मास्क से ढक लें l
    7. खांसते और छींकते समय मुंह को कोहनी या टिशु से ढक लें l
    8. अपने हाथ साबुन और पानी से नियमित तौर पर बार-बार अच्छी तरह धोयें l घर पर उन जगहों को कीटाणु रहित रखें जहाँ अक्सर आपके हाथ लगते रहते हैं l
    9. घर से बाहर सार्वजनिक स्थलों पर कभी अपनी आँखें, नाक और मुंह न छुएं l
    10. दस वर्ष से कम आयु वाले बच्चे और 65 वर्ष से अधिक आयु वाले वृद्ध अनावश्यक घर से बाहर न निकलें l बाहर कोविड -19 संक्रमण महामारी है, घर में नहीं l
    11. बदलकर अपना व्यवहार, करो सदा कोरोना पर वार l
    12. घर पर रहने के बारे में अपनी स्थानीय सरकार के निर्देशों का सदैव पालन करें l
    13. इसमें कोई दो राय नहीं कि निजी रक्षा–सुरक्षा के उपायों का पालन करके ही हम, आप, सब कोविड -19 के संक्रमण से खुद को सुरक्षित रख सकते हैं l

     सरकार का मानना है कि अभी तक यह साफ नहीं हो सका है कि पर्यावरण में होने वाले किसी बदलाव का असर कोरोना के संक्रमण पर पड़ता है या नहीं l दुनियां भर के विज्ञानिकों के द्वारा कोरोना के संक्रमण पर शोध कार्य अभी जारी है l लोकतंत्र की सफलता सरकार की जनहित नीतियों के प्रति देशवासियों के द्वारा अमुक प्रतिशत में मिलने वाले समर्थन से आंकी जा सकती है l देशभर में लाक डाउन लगने के पश्चात् देश की सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं का मात्र एक ही उद्देश्य रहा है कि लाक डाउन में कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, भूखा न सोये l

    इस कार्य में फेसबुक व सोशल मिडिया भी पीछे नहीं रहा l देश का युवा वर्ग जो कल तक प्यार मुहबत में डूबा था, की अचानक सोच बदल गई और उसने सोशल मिडिया को ही समाज सेवा का माध्यम बना लिया l देखते ही देखते सोशल मिडिया पर देशभर के कई समाज सेवी ग्रुप उभर आये और वे समाज सेवा कार्य में सक्रिय हो गए l

    इसी क्रम में हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा, गाँव सुल्याली का युवा वर्ग भी पीछे नहीं रहा l उसे सोशल मिडिया में देश की सक्रिय “युवा शक्ति” से प्रेरणा मिली कि सुल्याली गाँव व उसके आस-पास के क्षेत्रों में भी जिनमें कुछ दैनिक कमाने वाले परिवारों की हालत बड़ी दयनीय है, उनके लिए कुछ किया जाये l एक तरफ लाक डाउन से सब बंद पड़ा है और दूसरी ओर उन निर्धन परिवारों के लिए मुसीबतों का पहाड़ खड़ा है l उनके पास आवश्यक खान-पान का सामान भी उपलब्ध नहीं है l वे बाजार से खाद्य पदार्थ खरीदने में असमर्थ हैं l

    अल्प समय में सुल्याली गाँव के युवाओं ने सोशल मिडिया के अंतर्गत फेसबुक पर “सुल्याली विकास मंच” के नाम से एक ग्रुप बनाया और अपनी इच्छा से गाँव के धनाड्डय व समर्थवान परिवारों से धन-राशि और आवश्यक खाद्द्य पदार्थ एकत्रित किये l उन्होंने लाक डाउन में बड़े साहस के साथ सुल्याली गाँव व उसके आस-पास के क्षेत्रों में 40 से अधिक निर्धन परिवारों में उस धन-राशि और खाद्द्य पदार्थों का वितरण किया जो निर्धन परिवार बे-वशी से जूझ रहे थे और काफी हद तक खाद्द्य पदार्थ जुटा पाने में भी असमर्थ थे l

    प्रकाशित नवंबर 2020 मातृवंदना 


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    बोलने की अपेक्षा

    सामाजिक चेतना – 12

    धर्म की जय हो l अधर्म का नाश हो l प्राणियों में सद्भावना हो l विश्व का कल्याण हो l गौमाता की जय हो l यह उपदेश देश के गाँव-गाँव व शहर-शहर के मन्दिरों में सुबह – शाम सुनाई देते हैं l यहाँ यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि हम वहां कौन सा उद्घोष कितने जोर से उच्च स्वर में उचारण करते हैं बल्कि वह यह है कि हम उसे आत्मसात भी करते हैं/आचरण में भी लाते हैं कि नहीं l 

    धर्म और अधर्म दोनों एक दूसरे के विपरीतार्थक शब्द हैं l जहाँ धर्म होता है वहां अधर्म किसी न किसी रूप में अपना अस्तित्व जमाने का प्रयास अवश्य करता है पर जहाँ अधर्म होता है वहां धर्म तभी साकार होता है जब वहां के लोग स्वयं जागृत होते हैं l लोगों की जाग्रति के बिना अधर्म पर धर्म की विजय हो पाना कठिन है l धर्म दूसरों को सुख-शांति प्रदान करता है, उनका दुःख-कष्ट हरता है जबकि अधर्म सबको दुःख-अशांति और पीड़ा ही पहुंचता है l

    सद्भावना सत्संग करने से आती है l सत्संग का अर्थ यह नहीं है कि भजन, कीर्तन, और प्रवचन करने के लिए बड़े-बड़े पंडाल लगा लिए जाएँ l लोगों की भारी भीड़ इकट्ठी कर ली जाये l स्पीकरों व डैक्कों से उच्च स्वर में सप्ताह या पन्द्रह दिनों तक खूब बोल लिया और फिर उसे भूल गए l सत्संग अर्थात सत्य का संग या उसका आचरण करना जो हमारे हर कार्य, बात और व्यवहार में दिखाई दिया जाना अनिवार्य है l जहाँ सत्संग होता है वहां सद्भावना अपने आप उत्पन्न हो जाती है l

    इस प्रकार जहाँ सद्भावना होती है वहां दूसरों की भलाई के कार्य होना आरम्भ हो जाते हैं l इसी विस्तृत कार्य-प्रणाली को परोपकार कहा गया है l जिस व्यक्ति में परोपकार की भावना होती है और वह परोपकार भी करता है, उससे उसका परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व प्रभावित अवश्य होता है l परोपकार से विश्व कल्याण होना निश्चित है l

    गौ माता की जय करने के लिए गाये के आहार हेतु चारा, पीने के लिए पानी के साथ-साथ रहने के लिए गौशाला और उसकी उचित देखभाल भी करना जरूरी है l उसे  कसाई घर और कसाई से बचाना धर्म है l जो व्यक्ति और समाज ऐसा करता है, उसे उद्घोषणा करने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ती है बल्कि वह गौ-सेवा कार्य को अपने कार्य प्रणाली से प्रमाणित करके दिखाता है l

    वास्तव में धर्म की जय, अधर्म का नाश, प्राणियों में सद्भावना, विश्व का कल्याण और गौ माता की जय तभी होगी जब हम सब सकारात्मक एवं रचनात्मक कार्य करेंगे l यदि विश्व में मात्र बोलने से सब कार्य हो जाते तो यहाँ हर कोई बोलने वाला ही होता, कार्य करने वाला नहीं l संसार में कभी किसी को कोई कार्य करने की आवश्यकता न पड़ती l 

    प्रकाशित 6 फरवरी 2009 कश्मीर टाइम्स


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    बलि का बकरा

    समाजिक चेतना – 11  

    आज तक हमने देव स्थानों पर बकरों की बलि दिया जाना सुना था पर यह नहीं सुना था कि सड़क के किनारे बस की सवारियों को भी बलि का बकरा बनाया जाता है l जी हाँ, ठीक सुना आपने, ऐसा अब खुले आम हो रहा है l अगर हम अन्य स्थानों को छोड़ मात्र जम्मू से लखनपुर तक की बात करें तो राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे बने ढाबों, भोजनालयों और चाय की दुकानों को कसाई घरों के रूप में देख सकते हैं l वहां सवारियों को प्रति चपाती पांच रूपये के साथ नाम मात्र की फराई दाल दस रूपये में और चाय का प्रति कप पांच रूपये के साथ एक कचोरी तीन रूपये के हिसाब से धड़ल्ले से बेची जाती है l वहां कहीं मूल्य सारिणी दिखाई नहीं देती है l शायद उन्हें प्रशासन की ओर से पूछने वाला कोई नहीं है l क्या यह दुकानदार सरकारी मूल्य सूचि के अंतर्गत निर्धारित मूल्यानुसार सामान बेचते हैं ? संबंधित विभाग पर्यटक वर्ग अथवा सवारी हित की अनदेखी क्यों कर रहा है ?

     राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारों पर ढाबों और चाये की दुकानों पर लम्बे रुट की बसें रूकती हैं l वहां पर चालक और परिचालकों को तो खाने-पीने के लिए मूल्य विहीन बढ़िया और उनका मनचाहा खाना-पीना मिल जाता है, मानों जमाई राजा अपने ससुराल पधारे हों l पर बस की सवारियों को उनकी सेवा के बदले में दुकानदारों मनमर्जी का शिकार होना पड़ता है l अंतर मात्र इतना होता है कि कोई कटने वाला बकरा तो गर्दन से कटता है पर सवारियों की जेब दुकानदारों द्वारा बढ़ाई गई जबरन मंहगाई की तेज धार छुरी से काटी जाती है l कई बार सवारियों के पास गन्तव्य तक पहुँचने के मात्र सीमित पैसे होते हैं l अगर रास्ते में भूख-प्यास लगने पर उन्हें कुछ खाना-पीना पड़ जाये तो वह खाने-पीने की वस्तुएं खरीदकर न तो कुछ खा सकते हैं और न पी सकते हैं l क्या लोकतंत्र में उन्हें जीने का भी अधिकार शेष नहीं बचा है ?

    यह पर्यटक एवं सवारी वर्ग भी तो अपने ही समाज का एक अंग हैं जो हमारे साथ कहीं रहता है l स्वंय समाज सेवी और इससे संबंधित सरकारी संस्थाओं को प्रशासन के साथ इस ओर विशेष ध्यान देना होगा और सहयोग भी देना पड़ेगा l उसके हित में उन्हें राष्ट्रीय राजमार्ग तथा बस अड्डों पर खाने-पीने और अन्य आवश्यक सामान खरीदने हेतु उचित मूल्य की दुकानों व ठहरने या विश्राम करने के लिए सुख-सुविधा संपन्न सस्ती सरायों की व्यवस्था करनी होगी ताकि स्थानीय दुकानदारों द्वारा सवारियों और पर्यटकों से मनमाना मूल्य न वसूला जाये और कोई किसी के निहित स्वार्थ पूर्ति के लिए कभी बलि का बकरा न बन सके l

    प्रकाशित 13 जुलाई 2008 कश्मीर टाइम्स 


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    “प्रत्याशी” जीतने की चाह !

    सामाजिक चेतना – 10

    भारत लोकतान्त्रिक देश में 18 वर्ष से ऊपर के हर नागरिक के द्वारा किसी भी प्रत्याशी को अपना मतदान करने का अधिकार प्राप्त है l चुनाव काल में मतदाता देश में अपनी पसंद के प्रत्याशी को अपना अमूल्य मतदान करके उसे चुनाव में विजय दिलाने का भरसक प्रयास करते हैं और प्रत्याशी को विजयी भी बनाते हैं l 

    लोकतान्त्रिक देश में किसी नेता, दल या दल की विचारधारा को लेकर उस बारे में मतदाता के द्वारा अपनी राय रखना, मत कहलाता है l इस समय देशभर में राजनीति से संबंधित कई विचार धाराएँ विद्यमान हैं l देखा जाये तो सभी विचारधाराओं के अपने-अपने राजनैतिक दल हैं और उनके विभिन्न उद्देश्य भी हैं l पर उन दलों में बहुत से नेता परिवार हित या दलहित के ही कार्य करने तक सीमित हैं l फिर भी देश हित में राष्ट्रहित में राष्ट्रवादी सोच रखने वाला, देश का मात्र एक बड़ा स्वयं सेवी संगठन और एक राजनैतिक दल भी है जो दोनों अपनी-अपनी लोकप्रिय कार्यशैली के धनी होने के कारण विश्वभर में सबसे बड़े सामाजिक और राजनैतिक संगठन माने जाते हैं l 

    लम्बे समय से मतदाता के द्वारा मतदान करने का अपना एक बहुत बड़ा महत्व रहा है l मतदाता अपना मतदान करके अपने ही पसंद के प्रत्याशी को चुनते हैं l उनके द्वारा चुने हुए प्रत्याशी आगे चलकर स्थानीय निकाय ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, नगर पालिका, जिला परिषद् का ही नहीं विधान सभा और लोक सभा का भी गठन करते हैं l इस व्यवस्था से सरकार के द्वारा प्रारम्भ किये गये विकास कार्यों का लाभ व सुविधाएँ जन-जन तक पहुंचाई जाती हैं l

    मतदान दो प्रकार के होते हैं – पहला सबसे अच्छा चुनाव वह होता है जो निर्विरोध एवं सर्व सम्मति से सम्पन्न होता है l इसमें प्रतिस्पर्धा के लिए कोई स्थान नहीं होता है और दूसरा जो मतपेटी में प्रत्याशी के समर्थन में उसके चुनाव चिन्ह पर अपनी ओर से चिन्हित की गई पर्ची डालकर या ईवीएम में किसी प्रत्याशी के पक्ष में चुनाव चिन्ह का बटन दबाकर अपना समर्थन प्रकट किया जाता है, मतदान कहलाता है l लेकिन प्रतिस्पर्धा मात्र दो ही प्रत्याशी प्रति द्वद्वियों में अच्छी होती है जिसमें अधिक अंक लेने वाले की जीत और कम अंक लेने वाले की हार निश्चित होती है l इसके आगे एक पद और उसके लिए कई प्रतिद्वद्वी प्रत्याशियों के होने को चुनाव-प्रणाली का मजाक उड़ाना ही कहें तो ज्यादा अच्छा होगा l

    जब भी देश में ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, नगर पालिका या जिला परिषद् के चुनाव होते हैं l उन चुनावों में देखने को मिलता है – “पद एक और प्रत्याशी अनेक” l प्रत्याशियों की भारी भीड़ देखकर लोग निर्णय नहीं कर पाते हैं कि वे अपना मत किसे दें ? एकल पद प्रधान, उप प्रधान तथा सात पद पंचों के, अनेकों प्रत्याशी जिनमें अपराध/भ्रष्ट प्रवृत्ति के लोग भी विद्यमान होते हैं, खड़े हो जाते हैं परन्तु वे समाज और राष्ट्रहित में क्या सोचते व करना चाहते हैं उनका घोषणा पत्र क्या है ? उसे लोग चुनाव हो जाने तक नहीं जान पाते हैं l किसी प्रत्याशी की मंशा जाने बिना, लोग उसे अपना मत कैसे दें ?

    ऐसे वातावरण में हर जागरूक मतदाता के मन में मतदान हेतु “मैं मत किसे दूँ?” से संबंधित अनेकों प्रश्न पैदा हो जाते हैं और वह निश्चय भी करता है कि मैं लहर नहीं, पहले व्यक्ति देखूंगा l मैं प्रचार नहीं, छवि देखूंगा l मैं धर्म नहीं, विजन देखूंगा l मैं दावे नहीं, समझ देखूगा l मैं नाम नहीं, नियत देखूंगा l मैं प्रत्याशी की प्रतिभा देखूंगा, मैं पार्टी को नहीं, प्रत्याशी को देखूंगा l मैं किसी प्रलोभन में नहीं आऊंगा l इस तरह मतदाता का जागरूक होना परम आवश्यक है और स्वभाविक भी l 

    चुनाव प्रचार के समय विभिन्न प्रत्याशियों के द्वारा गाँव की गलियों के मकानों व बाजार की दुकानों की दीवारों पर बड़े-बड़े पोस्टर लगवा दिए जाते हैं l जिन पर लिखा होता है – हमने काम किया है, काम करेंगे l आप अपना कीमती वोट विकास व समृद्धि के लिए कर्मठ, मेहनती, योग्य, जुझारू समाज सेवक को देकर कामयाब करें l आप अपना वोट शिक्षित, इमानदार, एवं सशक्त उम्मीदवार ही को दें l “एक कदम विकास की ओर” नेता नहीं, जन सेवक चुने l अगर यही प्रत्याशी चुनाव जीतकर अपने-अपने क्षेत्रों में इसी भावना, सोच एवं विचार से कार्य करें तो कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत कुछ ही वर्षों में विश्व में पुनः सोने की चिड़िया बन सकता है, पर ऐसा होगा कब ?

    वर्तमान काल में बहुत से प्रत्याशियों के लिए राजनैतिक विषय समाज सेवा नहीं, मात्र एक व्यवसाय बनकर रह गया है l जितनी अधिक भीड़ किसी मेले में नहीं होती है, कहीं उससे अधिक चुनाव के समय प्रत्याशियों की देखी जा सकती है l ऐसे समय में वे मियां मिट्ठू अधिक दिखाई देते हैं, जबकि उनमें राष्ट्रीय भावना, धर्म-संस्कृति और देश से प्रेम का अभाव रहता है, उन्हें समाज सेवा कम और निजहित तथा परिवार हित अधिक दिखाई देता है l जिनसे आगे चलकर मानसिक कुवृत्तियों और अन्य अनेक प्रकार की सामाजिक विसंगतियों का जन्म होता है जो देश, धर्म और समाज किसी के लिए भी अहितकारी होती हैं l 

    स्थानीय चुनाव के इस सामाजिक पर्व में हर किसी मतदाता को अपना अमूल्य मतदान उसी प्रत्याशी को करना चाहिए जिस प्रत्याशी को देश, धर्म-संस्कृति का अच्छा ज्ञान हो l जिसमें देश, धर्म-संस्कृति की रक्षा और सेवा करने का दम हो l वही युवा प्रत्याशी राष्ट्र की रीढ़ है जो सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्य कुशल हो l एक कदम “ग्राम स्वराज” की ओर, बढ़ने वाला नेता नहीं, जन सेवक होना चाहिये l चुनाव दलगत होकर भी निर्विरोध /सर्वसम्मति से संपन्न होने चाहियें l ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, नगर पालिका, जिला परिषद्, विधान सभा और लोक सभा के चुनावों में प्रत्याशियों की संख्या आम सहमति से कम से कम हो, उनमें से किसी एक प्रत्याशी की हार या एक की जीत रोमांचित तो अवश्य होनी ही चाहिए l

    प्रकाशित फरवरी 2021 मातृवंदना


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    निःस्वार्थ सेवा हेतु सद्भावना की आवश्यकता !

    सामाजिक चेतना – 9

    साधू भूखा भाव का धन का भुखा नाहीं,

    धन का भूखा जो फिरे वो तो साधू नाहीं ll

    संत कवीर जी के इस कथनानुसार सज्जन या सत्पुरुष वही होता है जिसे किसी प्रकार का कोई लोभ न हो l लोभी पुरुष कभी साधू नहीं हो सकता l अगर धन संग्रह करने के उद्देश्य से कोई व्यक्ति लघु मार्ग से, सेवक का चोला धारण करके जनसेवा के पथपर चलता है तो उससे जनसेवा नहीं, निज की सेवा होती है जैसे कमीशन का जुगाड़ करना, रिश्वत लेना, घूस खाना और गवन करना l क्योंकि जन सेवा हेतु सीमित दृष्टिकोण या संकीर्ण विचारधारा की नहीं बल्कि विशाल हृदय, शांत मस्तिष्क और मात्र राष्ट्र एवम् जनहित के कार्य करने की आवश्यकता होती है l यह सब गुण सज्जन एवम् सत्पुरुषों में विद्द्यमान होते हैं l  

    जिस व्यक्ति का मन परहित के लिए दिन-रात तड़पता हो, बुद्धि परहित का चिंतन करती हो और हाथ परहित के कार्य करने हेतु सदैव तत्पर रहते हों – उसके लिए यह सारा संसार अपना और वह स्वयं सारे संसार का अपना होता है l इस प्रकार एक दिन वह व्यक्ति श्रीराम, या श्रीकृष्ण जी के समान भी गुणवान बन सकता है l परन्तु जो व्यक्ति मात्र दिखावे का सेवक बनकर मन से नित निजहित के लिए परेशान रहता हो, बुद्धि से निजहित सोचता हो और जिसके हाथ निजहित के कार्य करने हेतु व्याकुल रहते हों – उसके लिए जनसेवा का कोई अर्थ नहीं होता है l वह विश्व में किसी का अपना नहीं होता है और जो उसके अपने होते हैं वो भी दुःख में उसे अकेला छोड़ने वाले होते हैं l

    राष्ट्रहित, समाजहित और जनहित के लिए वह मुद्दे जो भारत के समक्ष उसकी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय उजागर हुए थे, वह आज भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं l वह हमसे टस से मस इसलिए नहीं हो पाए हैं क्योंकि हमने उन्हें समाज या जन का सेवक बनकर कम और निज सेवक होकर अधिक निहारा है l सौभाग्य वश हमारा भारत लोकतान्त्रिक देश है जिसमें जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए सरकार बनाने का हमें संवैधानिक अधिकार प्राप्त है l हम अपने मतदान द्वारा अपना मनचाहा प्रतिनिधि चुनकर विधानसभा या लोकसभा तक भेज सकते हैं l अगर हम उसके माध्यम से अपनी आवाज संसद भवन तक नहीं पहुंचाते हैं तो हमें किसी अन्य को दोष नहीं देना चाहिए l

    वर्तमान राष्ट्रहित में देश की एक ऐसी सशक्त एवम् सकारात्मक “राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली” होनी चाहिए जिसमें कलात्मक कृषि-बागवानी एवम् रोजगार प्रशिक्षण, व्यवहारिक, आत्मनिर्भरता, आत्मरक्षा एवम् जन सुरक्षा प्रशिक्षण, सृजनात्मक पठन-पाठन और रचनात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था हो l इससे भारत की दूषित शिक्षा-प्रणाली से जन साधारण को अवश्य ही राहत मिल सकती है l जनहित में जन साधारण को विश्वसनीय स्थानीय जन स्वास्थ्य सेवा मिलनी चाहिए l इसके लिए सुविधा सम्पन्न चिकित्सालय, सर्वसुलभ प्रसूति-गृह, उचित चिकित्सा सुविधाएँ, पर्याप्त औषध भंडार, योग्य डाक्टर व रोग विशेषज्ञ, रोगी की उचित देखभाल, स्वास्थ्य कर्मचारी वर्ग और त्वरित चिकित्सा-वाहन सेवा का होना अनिवार्य है l वह इसलिए कि त्रुटिपूर्ण और अभावग्रस्त जन स्वास्थ्य सेवा समाप्त हो सके l 

    जनहित देखते हुए आज बारह मासी स्थानीय व्यवसायिक व्यवस्था की महती आवश्यकता है l इसके लिए सहकारीता आन्दोलन को पुनः जीवित किया जा सकता है जिसके अंतर्गत पशुधन, पौष्टिक खाद, पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ, जल, जंगल, जमीन का सरंक्षण सहकारी वाणिज्य-व्यापार, स्वरोजगार, सहकारी ग्रामाद्द्योग तथा सहकारी सम्पदा का संवर्धन हो सके ताकि सहकारी खेती को बढ़ावा मिल सके l जन साधारण को मात्र 100, 200 दिनों तक का नहीं बल्कि पुरे 365 दिनों का व्यवसाय मिल सके l

    जन-जन हित में स्थानीय जानमाल की रक्षा-सुरक्षा को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए जरूरी है पीने का स्वच्छ पानी, पौष्टिक खाद्द्य वस्तुएं व पेय पदार्थ, रसोई गैस, मिटटी का तेल, विद्दुत ऊर्जा, स्थानीय नागरिकता की विश्वसनीय पहचान और स्थानीय जानमाल की रक्षा-सुरक्षा समितियों का गठन किया जाना ताकि जन साधारण की जीवन रक्षक आवश्यकताएँ पूर्ण हो सकें और उसे आतंकवाद, उग्रवाद जिहाद, अपहरण, धर्मांतरण, बलात्कार तथा हिंसा से अभय प्राप्त हो सके l इस प्रकार राष्ट्रीय जनहित में आवश्यक है – सशक्त एवम् सकारात्मक राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली, विश्वसनीय जन स्वास्थ्य सेवा, बारह मासी स्थानीय व्यवसायिक व्यवस्था और जानमाल रक्षा-सुरक्षा की सुनिश्चितता l ऐसा कार्य मात्र परहित चाहने वाले न्याय प्रिय, दूरदर्शी राजनीतिज्ञ, नीतिवान और धर्मात्मा लोग ही कर सकते हैं l अगर हम परहित करना चाहते हैं तो हमें सत्पुरुषों और परमार्थियों को ही अपना प्रतिनिधि बनाना होगा l उन्हें उनके क्षेत्र से विजयी करवाने हेतु अपनी ओर से उनकी हर संभव सहायता करनी होगी l अन्यथा निजहित चाहने वालों के मायाजाल से हमें कभी मुक्ति नहीं मिलेगी l बस हमें मिलती रहेगी मात्र दूषित शिक्षा, त्रुटिपूर्ण व अभावग्रस्त जन स्वास्थ्य सेवा, 100, 150 और 200 दिनों का व्यवसाय की लालीपाप l

    देशवासियो ! यदि सोये हुए हो तो जाग जाओ और स्वयं जागने के साथ-साथ दूसरों को भी जगा लो l निजहित चाहने वाले बेचारे अपनी आदत से बड़े मजबूर हैं l बे मजबूर ही रहेंगे क्योंकि उन्होंने निजहित में कमीशन जुटाना है, रिश्वत लेनी है, घूस खानी है, राष्ट्र तथा समाज की सम्पदा डकारनी है तथा भ्रष्टाचार ही फैलाना है l आप उनसे राष्ट्रहित, जनहित और समाजहित की चाहना रखना छोड़ दो l यह आपकी आशा पूर्ण होने वाली नहीं है l उनके पास अतिरिक्त कार्य करने का समय नहीं है l इसका निर्णय अब आपने मतदान करके करना है l निडर होकर मतदान कीजिये और अपनी पसंद के उम्मीदवार को विजयी बनाइए l देखना कहीं आपसे चूक न हो जाये l

    प्रकाशित 19 जनवरी 2022@ फरवरी 2022 मातृवंदना