आलेख - हमारा पर्यावरण मातृवंदना जून
2008
विश्व में हमारी दैनिक आवश्यकताएं बहुत हैं l वह इस समय इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि उनसे हमें पल-पल सोचने ही के लिए नहीं बल्कि कुछ न कुछ करने के लिए भी बाध्य होना पड़ता है l हम जो भी कार्य करते हैं भले ही के लिए करते हैं परन्तु कभी-कभी यह भलाई के कार्य समाज हित के लिए वरदान सिद्ध होने के स्थान पर अभिशाप भी बन जाते हैं जिनसे हमें सतर्क रहना अति आवश्यक है l इस समय हमारी परंपरागत सर्वांगीण विकास करने वाली प्राचीन भारतीय संस्कृति पर काले बादल छा रहे हैं l अगर हमने समय रहते इस ओर तनिक ध्यान नहीं दिया तो वो दिन दूर नहीं कि वह हमें कहीं दिखाई नहीं देगी l
हमने किसी धातु, शीशा, गत्ता, कागज़, प्लास्टिक, पालीथीन, नायलन, और रबड़ से निर्मित लेकिन अनुपयोगी हो चुके घरेलू सामान को इधर-उधर नहीं फैंकना है बल्कि उन्हें इकट्ठा करके गाँव में आने वाले कबाड़ी को बेच देना है और बदले में उससे आर्थिक लाभ कमाना है l
हमने घर का प्रतिदिन का कूड़ा-कचरा जला देना है तथा साग-सब्जी, फलों के छिलकों को पालतु पशुओं को खिलाना है अथवा उसे भोजनालय के साथ लगती क्यारी में गड्ढा बनाकर उसमें दबा देना है ताकि वह वहां सड़-गलकर पौष्टिक खाद बन जाये और हम उसका खेती में उपयोग कर सकें l
हमने प्रतिदिन घर व गाँव के आस-पास की नालियों और गलियों में कूड़ा-कचरा फैंकने वालों पर कड़ी नजर रखनी है और आवश्यकता पड़ने पर हमने उन्हें गंदगी से फैलने वाली बिमारियों से भी अवगत करवाना है ताकि वे साफ-सफाई रखने की ओर ध्यान देकर हमारा सहयोग कर सकें l
हमने लघु-शंका व दीर्घ-शंका निवारण हेतु गाँव के खेत-खलिहानों, नदी-नालों का न तो स्वयं उपयोग करना है और न ही किसी को करने देना है l उसके स्थान पर हमने सदैव घरेलू व सार्वजनिक शौचालयों का ही प्रयोग करना है और ऐसा दूसरों को करने के लिए कहना है ताकि मल-मूत्र सीवरेज व्यवस्था के अंतर्गत विसर्जित हो सके l उससे कहीं पेयजल स्रोतों - बावड़ी, कुआं, हैण्ड-पंप और नलकूप का शुद्ध पानी दूषित न हो सके l
स्थानीय प्रदूषण एवं रोग प्रतिरोधक, रोग विनाशक तथा औषधीय गुण संपन्न पेड़-पौधे, झाड़, जड़ी-बूटियों और कंदमूलों को संरक्षित करके हमने जीव प्राणों की रक्षा हेतु उनकी सतत वृद्धि करनी है ताकि आवश्यकता पड़ने पर हम उनका भरपूर उपयोग कर सकें l
हमने गाँव में समाजिक, धार्मिक, विवाह और पार्टियों के शुभ अवसरों पर होने वाले हवन-यज्ञ, भोज या लंगर, भंडार से प्रसाद अथवा खाना खाने के लिए पत्तों की बनी पतलों व डुन्नों का ही उपयोग करना है l वहां से अपने घर प्रसाद या खाना ले जाने के लिए थाली अथवा टिफन का प्रयोग करना है ना कि पालीथीन लिफाफों का l इनसे अनाज की बर्बादी होती है और प्रदूषण फैलता है l
हमने ऐसी सब सुख-सुविधाओं का सर्वदा के लिए परित्याग कर देना है अथवा उनका दुरूपयोग नहीं करना है जिनसे जल, थल, वायु, अग्नि, आकाश, शब्द, वाणी, कार्य, विचार, चरित्र हृदय और वातावरण दूषित होते हों l
गाँव के मृत पशुओं को खुले में फैंकने से सतही जल, भूजल और वायुमंडल दूषित न हों इसलिए हमने किसी भी मृत पशु को ऐसी जगह फैंकवाना है जहाँ उसे मांसाहारी पशु-पक्षी तुरंत और आसानी से खा जाएँ l
ग्राहक सेवा में गाँव का कोई भी दुकानदार अपनी दुकान से बेचा हुआ सामान सदैव अखवार के ही बने हुए लिफाफों में डालकर देगा और ग्राहक किसी दुकान से पालीथीन लिफाफों में डाला हुआ सामान नहीं लेगा l वह बाजार जाते हुए अपने साथ घर से कपड़े का बना हुआ थैला अवश्य लेकर जायेगा ताकि सामान लाने में उसे कोई कठिनाई न हो l
कोई भी दुकानदार अपनी दूकान अथवा गोदाम के कूड़े-कचरे को सड़क पर, नाली में या कहीं-पास नहीं फैंकेगा l वह उसे कूड़ादान में डालेगा जिसकी नियमित सफाई होगी l वह उसे जला देगा या फिर कबाड़ी को बेच देगा l इससे बाजार देखने में अच्छा और सुंदर लगेगा l
दूषित जल विसर्जित करने वाले कल कारखानों, अस्पताल और बूचड़खाने के स्वामी यह सुनिश्चित करेंगे कि उनकी ओर से प्रवाहित होने वाला दूषित जल – शुद्ध भूजल, सतही जल और वायुमंडल को कभी दूषित नहीं करेगा l वह कोई रोग नहीं फैलाएगा l वहां से निकलने वाला कचरा धरती की उपजाऊ गुणवत्ता को नष्ट नहीं करेगा l
धूल, जहरीली गैसें और धुआं उगलने वाले मिल-कारखानों के स्वामी और वाहन मालिक सुनिश्चित करेंगे कि उनसे उत्सर्जित धूल, जहरीली गैसें और धुआं स्वच्छ एवं रोग मुक्त पर्यावरण को कोई हानि नहीं पहुंचाएगा क्योंकि जीवन की सुरक्षा, सुख-सुविधा से कहीं अधिक आवश्यक है l
प्रौद्योगिकी इकाइयां विभिन्न प्रकार से प्रदूषण एवं रोगों से मुक्ति दिलाने वाली जीवनोपयोगी सामग्री, वस्तुओं और उत्पादों का उत्पादन, निर्माण और उनकी सतत वृद्धि करेंगी ताकि प्राणियों का जीवन सुरक्षित एवं रोग मुक्त रह सके l
उपरोक्त परंपरागत प्राचीन भारतीय संस्कृति हमारी जीवनशैली रही है l आइये ! हम सब मिलकर इसे और अधिक समृद्ध, प्रभावशाली एवं सफल बनाने का अपना दायित्व निभाने हेतु प्रयत्नशील सरकार तथा स्वयं सेवी संस्थाओं को सहयोग दें और सफल बनाएं l
चेतन कौशल “नूरपुरी”
लेखक: चेतन कौशल
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आओ ! पर्यावरण स्वच्छ बनाएं
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हम वही हैं जो
सामाजिक बुराइयाँ व जन जागरण – 17
हिमाचल की दैनिक पंजाब केसरी 2 फरवरी 2008 में प्रकाशित समाचार लार्ड मैकाले ने कहा था – “भाजपा नेता केदारनाथ सहनी को अमरिका में बसे अडप्पा प्रसाद से मिला पत्र – उन्होंने लार्ड मैकाले द्वारा 1835 में ब्रिटिश संसद में दिए गये वक्तव्य की नकल भेजी है जिसके अनुसार लार्ड मैकाले ने 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हुए कहा था – “उन्होंने भारत में लंबी यात्रा की तथा उनको इसके दौरान देश में न तो कोई भिखारी मिला और न ही कोई चोर l उन्होंने देश में अपार धन-संपदा देखी है l लोगों के उच्च नैतिक चरित्र हैं तथा वे बड़े कार्य कुशल हैं l इसलिए सोचते हैं कि क्या वे ऐसे देश को कभी जीत पाएंगे ? लार्ड मैकाले ने यह भी व्यान दिया था – जब तक हम इस राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी जो कि उसकी अध्यात्मिक व सांस्कृतिक विरासत है, को तोड़ नहीं देते तब तक हम कामयाब नहीं होंगे l” उन्होंने ब्रिटिश संसद को सुझाव दिया था कि – “हमें भारत की पुरानी व परंपरागत शिक्षा-प्रणाली को बदलना होगा, उसकी संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिशें करनी होंगी l इस तरह भारतवासी अपनी संस्कृति भूल जायेंगे तथा वे वैसा बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं l”
विचारों से स्पष्ट है कि ब्रिटिश सरकार के अधिकारी लार्ड मैकाले के मन में भारत के प्रति दुर्भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी l उन्हें हमारे देश की सुख-शांति, समृद्धि और दिव्य ज्ञान फूटी कौड़ी नहीं सुहाया था l उनका भारत–भ्रमण संबंधी उद्देश्य मात्र ब्रिटिश सरकार के हित में भारतीय कमजोरियां ही ढूँढना और जुटाना था जो उनके हाथ नहीं लगीं l इसके विपरीत न चाहते हुए भी उन्हें भारत की प्रसंशा करनी पड़ी थी l यही नहीं, वह जो उस समय भारत में घुसपैठ, आतंक के जनक और आयोजक थे, अपनी वास्तविकता को भी अधिक देर तक नहीं छुपा सके l उन्होंने सुखी-समृद्ध भारतीय उप-महाद्वीप को हर प्रकार से लुटने, क्षीण-हीन और धनाभाव ग्रस्त करने का संकल्प ले लिया और उसे साकार करने हेतु साम, दाम, दंड, भेद नीतियों का भरपूर उपयोग भी किया l इससे भारतीय श्रमिकों के हाथ का कार्य छीन लिया गया l देश का विदेशी व्यापर-ढांचा तहस-नहस हो गया l इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्य की खुशहाली के लिए जो एक वार लहर चली तो वह फिर नहीं रुकी l
भारतीय जनता जो अपने निजी जीवन, परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व हित की कामना करती थी, को असुरक्षित, असहाय तथा ज्ञानहीन करने के पश्चात् उसे पहले तरह-तरह से आतंकित किया गया फिर उससे ब्रिटिश साम्राज्य हित की सेवाएं ली जाने लगी l जो ऐसा नहीं करते थे या उसका विरोध करते थे, उन्हें देश का गद्दार घोषित करके फांसी पर लटका दिया जाता था या गोलियों से भून दिया जाता था l यही नहीं उन्होंने देश की परंपरागत भारतीय शिक्षा-प्रणाली ही बदल दी जिससे कि भारत का कर्मठ, सदाचारी, संस्कारवान, बलवान और साहसी युवावर्ग तैयार होता था, बदले में पाश्चात्य संस्कृति पर आधारित नाम मात्र के काले अंग्रेज तैयार होने लगे l सस्ते बाबू प्राप्त करना उनकी आवश्यकता थी, पूरी होने लगी l इन अंग्रेजों का अब भारत में एक बहुत बड़ा समुदाय बन चुका है जो न तो पूर्ण रूप से भारतीय रह गया है और न अंग्रेज ही बन सका है l हाँ, वे दिन प्रतिदिन अपने आचार-व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान, भाषा, पहनावा और यहाँ तक कि निजी संस्कारों को भूलता जा रहा है l वह अभागा सेक्युलर बन रहा है – अव्यवसायी, निर्धन, चरित्रहीन और असंस्कारी l
भारत को स्वाधीन हुए साठ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परन्तु देश में लोह पुरुष के आभाव में आज तक भारत, भारतीय समाज, उसके परिवार और जन साधारण लार्ड मैकाले के ठोस संकल्प की पाश से मुक्त नहीं हो सका है l उससे मुक्ति दिलाने वाला हमारे बीच में आज कोई लोह पुरुष नहीं है l भारत को आज फिर से श्रमशील, सदाचारी, संस्कारवान और समर्थ युवा वर्ग की महती आवश्यकता है l यह कार्य परंपरागत भारतीय शिक्षा-प्रणाली ही कर सकती है, लार्ड मैकाले द्वारा प्रदत पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली तो कभी नहीं l
भारत की प्रांतीय सरकारों को केन्द्रीय सरकार से मिलकर एक सशक्त राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली की संरचना करनी चाहिए जो पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय एकता और अखंडता सुनिश्चित कर सके l क्या हमारा अपना, अपने परिवार , समाज और राष्ट्र के प्रति यह भी कर्तव्य नहीं है ? है तो सावधान, देशवासियो ! संगठित हो जाओ और काट डालो पाश्चात्य शिक्षा की उन समस्त बेड़ियों को जिन्होंने हमें सदियों से बंधक बना रखा है l लार्ड मैकाले द्वारा प्रदत शिक्षा–प्रणाली हम सबको परोस रही है अव्यवसाय, निर्धनता, चरित्रहीनता और असंस्कार l
मत भूलो ! लार्ड मैकाले ने सत्य ही कहा था –“भारत में उन्हें कोई भिखारी या चोर नहीं मिला है l” आओ हम आगे बढ़ें और अपनी खोई हुई परंपरागत भारतीय शिक्षा–प्रणाली का अनुसरण करके भारत को सुखी और समृद्ध बनाएं l इस पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली में ऐसा कोई दम नहीं है कि वह हमारी हस्ती मिटा दे या वह हमें अपने सत्य-मार्ग से विचलित कर सके l स्मरण रहे कि –
जो हमें मिटाने आये थे कभी,
मिटाते मिट गए हैं निशान उनके ही
पर नहीं मिटी है हमारी हस्ती,
हम हैं वही, जो थे कभी
और रहेंगे कल भी l
प्रकाशित 14 दिसंबर 2008 कश्मीर टाइम्स
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समाज के प्रति सजगता
सामाजिक चेतना – 16
नैतिक शक्ति से व्यक्तित्व निर्माण होता है जबकि अनुशासन से जन शक्ति, ग्राम शक्ति एवं राष्ट्र शक्ति का l इसी प्रकार कुशल नेतृत्व में अनुशासित संगठन शक्ति द्वारा संचालित जो शासन भेदभाव रहित सबके हित के लिए एक समान न्याय करता है, वह सुशासन होता है l
जन्म लेने के पश्चात् जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है उसे सबसे पहले माँ का परिचय मिलता है फिर बाप का l उसे पता चलता है कि उसकी माँ कौन है और बाप कौन ? उसके माता-पिता उसे हर पग पर उचित कार्य करने और गलत कार्य न करने के लिए उसका साथ देते हैं l इससे वह सीखता है कि उसे क्या अच्छा करना है और क्या बुरा नहीं ?
यही कारण है कि जब बालक बचपन छोड़कर किशोरावस्था में प्रवेश करता है तो वह अपने घर के लिए अच्छे या बुर कार्यों को भली प्रकार समझने लगता है l वह जान जाता है कि घर की संपत्ति पूरे परिवार की संपत्ति होती है l वह तब ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता है जिससे उसका अपना या अपने घर का कोई अहित हो l
जब वह रोजगार हेतु सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हो जाता है तब वह अपने घर में मिली उस बहुमूल्य शिक्षा को भूल जाता है कि जिस प्रकार माँ-बाप द्वारा बनाई गई सारी संपत्ति पूरे परिवार की अपनी संपत्ति होती है उसी प्रकार सरकारी या गैर सरकारी संस्थान की भी पूरे समाज या राष्ट्र की अपनी संपत्ति होती है तथा वह स्वयं उस संपत्ति का रक्षक भी होता है l
इसका कारण यह है कि उसे मिली शिक्षा अभी अधूरी है क्योंकि कभी-कभी वह अपने कार्य क्षेत्र में तरह-तरह के फेरबदल, हेराफेरी और गबन इतिआदि कार्य करने से ही नहीं हिचकचाता या डरता बल्कि अपने से नीचे कार्यरत कर्मचारियों का तन, मन, धन संबंधी शोषण और उन पर तरह-तरह के अत्याचार भी करता है, मानों वे उसके गुलाम हों l लालच उसकी नश-नश में भरा हुआ होता है l
मनुष्य की आवश्यकता है – संपूर्ण जीवन विकास l जीवन का विकास मात्र ब्रह्म विद्या कर सकती है l वह सिखाती है कि निष्काम भाव से कार्य कैसे करें और अपनी अभिलाषाएं कैसे कम करें ? जब हमारी इच्छायें कम होंगी तब हम और हमारा समाज सुखी अवश्य होगा l
वन्य संपदा में पेड़-पौधे, जंगल दिन प्रतिदिन कम हो रहे हैं l उनकी कमी होने से जंगली पशु-पक्षियों व जड़ी-बूटियों का आभाव हो रहा है l भूमि कटाव बढ़ रहा है l बाढ़ का प्रकोप सूरसा माई की तरह अपना मुंह निरंतर फैलाये जा रही है l वन्य संपदा के आभाव, धरती कटाव और बाढ़ रोकने के लिए आवश्यक है जंगलों का संरक्षण किया जाना l वन्य पशु-पक्षियों को मारने पर प्रतिबंध लगाना l जड़ी-बूटियों को चोरी से उखाड़ने वालों से कड़ाई से निपटा जाना l यह सब रचनात्मक कार्य ग्राम जन शक्ति से किये जा सकते हैं l
वर्तमान समय में विभिन्न राष्ट्रों के आपसी राजनैतिक मतभेद और संघर्षों के कारण हर राष्ट्र और राष्ट्रवादी दुखी व निराश है l जब भी युद्ध होते हैं, निर्दोष जीव व प्राणी मारे जाते हैं l राष्ट्रों का आपसी विरोध व शत्रुता कम होने के स्थान पर और अधिक बढ़ जाती है l ऐसे संघर्ष रोकने के लिए सारी धरती गोपाल की, भावना का विस्तार करना आवश्यक है l अगर हममें आपसी भाईचारा व बन्धुत्व भाव होगा तो हम अपना दुःख-सुख आपस में बाँटकर कम कर सकते हैं l
संसार में जहाँ प्रतिदिन, प्रतिक्षण के हिसाब से लाखों में जनसंख्या बढ़ रही है तो पौष्टिक पदार्थों के कम होने के साथ-साथ धरती भी सिकुड़ती जा रही है l नये-नये कारखाने, सड़क, बाँध, भवन बनते जा रहे हैं l युवावर्ग में शारीरिक दुर्बलता, विषय-वासनाओं के प्रति मानसिक दासता बढ़ रही है l हमें चाहिए कि सयंम रहित जनन क्रिया को सामाजिक समस्या समझा जाये l समाज की समस्या परिवार की और परिवार की समस्या अपनी समस्या होती है या वह समस्या बन जाती है l इसलिए परिवार का सीमित होना अति आवश्यक है l
कोई भी रोग किसी को हो सकता है l उसकी दवाई होती है या दवाई बना ली जाती है l रोगोपचार के लिए रोगी को दवाई दी जाती है l उसका उपचार किया जाता है और वह एक दिन रोग-मुक्त भी हो जाता है l विशाल समाज ऐसे विभिन्न रोगों से रोगग्रस्त हो गया है l सब रोगों की एक ही दवाई है ब्रह्म विद्या, जो मात्र सरस्वती विद्या मंदिरों के माध्यम से संस्कारों के रूप में. रोग निदान हेतु वितरित की जा सकती है l आइये ! हम विस्तृत समाज में ब्रह्म विद्या के सरस्वती विद्या मंदिरों की स्थापना करके इस पुनीत कार्य को संपूर्ण करें l
प्रकाशित 21 नवंबर 1996
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वैदिक वर्ण व्यवस्था का सत्य
सामाजिक चेतना – 15
इस लेख का मुख्य प्रेरणा-स्रोत लाला ज्ञान चंद आर्य द्वारा लिखित “वर्ण व्यवस्था का वैदिक रूप” पुस्तक है l यह पुस्तक उनका अपने आप में एक हृदय स्पर्शी और अनूठा प्रयास है l
पुस्तक में दर्शाया गया है – मानव शरीर के अवयव मुख-ब्राह्मण, बाहु-क्षत्रिय, उदर–वैश्य और पैर–शूद्र हैं l प्रत्येक मनुष्य अपने शरीर से चारों वर्णों का दैनिक कार्य करते हुए ही आर्य है l मानव जाति के पूर्वज आर्य थे l इसलिए समस्त मानव जाति मात्र आर्य पुत्र है l आर्य पुत्र जो कर्म करने के समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं, अपना-अपना कार्य करने के पश्चात् वे स्वयं आर्य हो जाते हैं l शारीरिक कार्य कर लेने के पश्चात् शरीर के अवयव पैर घृणित या अछूत नहीं हो जाते हैं और न ही उन्हें शरीर से अलग ही किया जा सकता है l समाज में कोई वैदिक शूद्र शिल्पकार या इंजिनियर भी अछूत या घृणित नहीं हो सकता l मुख, भुजा, पेट या पैर में किसी एक अवयव की पीड़ा संपूर्ण शरीर के लिए कष्टदायी होती है l वर्ण व्यवस्था में किसी एक वर्ण का कष्ट समस्त मानव समाज के लिए असहनीय होता है l ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण कर्म-मूलक हैं, जन्म-मूलक नहीं l समाज में सभी आर्य एक समान हैं l उनमें कोई ऊँच-नीच अथवा छुत-अछूत नहीं है l
आर्य वेद मानते हैं l वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते हैं l आर्य वही है जो संकट काल में महिला, बच्चे, वृद्ध और असहाय की जान-माल की रक्षा करते हैं, सुरक्षा बनाये रखते हैं l ब्राह्मण वर्ण शेष तीनों वर्णों का पथ प्रदर्शक, गुरु और शिक्षक है l वह उन्हें ज्ञान प्रदान करता है l क्षत्रिय वर्ण शेष तीनों वर्णों की रक्षा करके उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करता है l वैश्य वर्ण शेष तीनों वर्णों का कृषि-बागवानी, गौ पालन, व्यापार से पालन-पोषण करता है l शूद्र वर्ण शेष तीनों वर्णों ही के श्रम-साध्य शिल्पविद्या, हस्तकला द्वारा भांति-भांति की वस्तुओं का निर्माण, उत्पादन करके सुख-सुविधाएँ प्रदान करता है l
मानव समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कर्मगत चार प्रमुख वर्ण हैं l वर्ण व्यवस्था में मनुष्य जाति “मानव” है l जैसे गाये जाति को भैंस या भैंस को कभी बकरी नहीं समझा जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य जाति को किसी अन्य जाति का नहीं कहा जा सकता l
वर्ण व्यवस्था में एक व्यस्क लड़की को अपना मनपसंद का वर चुनने का पूर्ण अधिकार है l जो उसे पसंद होने के साथ-साथ उसके योग्य होता है l लोभ ग्रस्त, भ्रष्टचित होकर विपरीत वर्ण से विवाह करने से वर्णसंकर पैदा होते हैं l जिससे सनातन कुल, वर्ण-धर्म का नाश होता है l आत्म पतन होने के साथ-साथ समाज में पापाचार और व्यभिचार बढ़ता है l
वर्ण व्यवस्था में मानव जीवन के कल्याणार्थ चार प्रमुख आश्रम है – ब्रह्मचार्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और सन्यासाश्रम l वर्ण व्यवस्था के इन चारों आश्रमों में वेद सम्मत कार्य किये जाते हैं l ब्रह्मचार्याश्रम में गुरु विद्यार्थी को वैदिक शिक्षा प्रदान करता है l गृहस्थाश्रम में विवाह, संतानोत्पति, संतान का पालन-पोषण, शिक्षा और व्यवसाय आदि कार्य होते हैं l वानप्रस्थाश्रम में आत्मसुधार तथा ईश्वरीय तत्व का चिंतन – मनन और साक्षात्कार होता है और सन्यासाश्रम में जन कल्याणार्थ हितोपदेश दिया जाता है l
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी किसी गृहस्थाश्रम में जाकर अपने जीने के लिए भिक्षाटन करके खाते हैं न कि वे खाने के लिए जीते हैं l वे इसके बदले में गृहस्थ के कल्याणार्थ गृहस्थियों को उपदेश भी देते हैं l ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी का जीवन सदाचारी, सयंमी, जप, तप, ध्यान करने वाला होने के कारण गृहस्थाश्रम पर निर्भर रहता है l
वर्ण व्यवस्था में सबके लिए कार्य करना, सबका अपने-अपने कार्य में व्यस्त रहना, आपस में मेल-मिलाप रखना, आपसी हित-चिन्तन, आवश्यकता पूर्ति, पालन-पोषण, रक्षण, एक दुसरे का सम्मान करना, प्रेम स्नेह रखना, एक दुसरे का महत्व समझना, ऊँच-नीच रहित स्वरूप, अधिकार, कर्तव्य और सहयोग को बढ़ावा देना अनिवार्य है l वेद सम्मत किया जाने वाला कोई भी कार्य जन कल्याणकारी होता है l उससे लोक भलाई होती है l
वर्ण व्यवस्था गृहस्थाश्रम के लिए उपयोगी है l वह उसकी हर आवश्यकता पूरी करती है l वर्णों के कर्म गुण, संस्कार और स्वभाव अनुसार विभिन्न होते हैं l ब्राह्मण सहनशील और ज्ञानवान होता है तो क्षत्रिय विवेकशील तथा शूरवीर l वैश्य धनवान, मृदुभाषी और बुद्धिमान होता है तो शूद्र विद्वान् शिल्पकार और कर्मशील l एक वर्ण ऐसा कोई कार्य नहीं करता है जिससे दुसरे वर्ण को कष्ट अथवा उसकी किसी प्रकार की हानि हो l वर्णों का मूलाधार कर्मगत उनका अपना कार्यकौशल और सदाचार है l चारों वर्ण अपने-अपने गुण, संस्कार और स्वभाव से जाने जाते हैं l ब्राह्मण तत्विक ज्ञान से जाना जाता है तो क्षत्रिय बल-पराक्रम से l वैश्य धन, धर्म-कर्तव्य परायणता से जाना जाता है तो शूद्र शिल्पकला और कार्य कौशल से l वर्णों में किसी एक वर्ण का दुःख तीनों वर्णों के लिए अपना दुःख होता है l मानों पैर में कोई कांटा लगा हो और हृदय, मस्तिष्क तथा हाथ उसे निकालने के लिए व्याकुल एवं तत्पर हो गए हों l मानव समाज में माँ-बाप तथा गुरु का स्थान सर्वोपरि है, वन्दनीय है l जो बच्चे या विद्यार्थी उनका अपमान, निरादर या तिरस्कार करते हैं – वे दंडनीय पात्र हैं l
शिल्पकार शूद्र वर्ण भी उतने ही अधिक आदरणीय हैं जितना की ज्ञानदाता ब्राह्मण वर्ण l शिल्पकार शूद्र वर्ण ब्राह्मण वर्ण की तरह अपने कार्य में विद्वान् होता है l समाज में मानव जाति को जाति, धर्म, लिंग, ऊँच-नीच, भेदभाव उत्पन्न करना वेद विरुद्ध अपराध है l यज्ञ – श्रेष्ठ कार्य विहीन, मनन पूर्वक कार्य न करने वाला, व्रत, अहिंसा, सत्य आदि मर्यादाओं के अनुष्ठान से पृथक रहने वाला, जिसमें मनुष्यत्व न हो, वह दस्यु, अपराधी है l दस्यु व अपराधी भी आर्य बन जाते हैं, जब वे वेद मानते हैं और वेद सम्मत कार्य करते हैं l आर्य भी दस्यु या अपराधी बन जाते हैं, जब वे वेद मानना भूल जाते हैं और वेद सम्मत कार्य नहीं करते हैं l दस्यु या अपराधी – वेद नहीं मानते हैं वे वेद विरुद्ध कार्य करते हैं l मानव समाज में जातियां, उप जातियां उन लोगों की देन है जो वेद नहीं मानते थे l जो दम्भी, स्वार्थी, अज्ञानी एवं अहंकारी रहे और जो इस समय उनका अनुसरण भी कर रहे हैं l
पूर्व में स्थित हिमालय और उससे उत्पन्न गंगा, जमुना, कृष्णा, सरस्वती, नर्वदा, कावेरी, गोदावरी, और सिन्धु नदियाँ जिस भाग से होकर बहती हैं, वह क्षेत्र आर्यावर्त का है l जिस देश में नारी को नर की शक्ति, उसकी अर्धांगिनी और जग जननी माँ मानने के साथ-साथ उसे पूर्ण सम्मान भी दिया जाता है, उस राष्ट्र को आर्यावर्त कहते हैं l
आचार्य चाणक्य के अनुसार – “जिसके पास विद्या नहीं है, न तप है, न कभी उसने दान ही किया है, न उसमें कोई गुण है और न धर्म, न उसके पास शीतलता ही है – वह मनुष्य इस मृत्युलोक में उस मृग के समान भार मात्र है जो पूरा दिन घास खाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करता है l”
प्रकाशित जुलाई 2017 मातृवंदना
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विलुप्त होंगी राष्ट्रीय श्वेत धाराएँ
सामाजिक चेतना -14
“अब आसान नहीं होगा पशुओं को आवारा छोड़ना l विभाग ने बनाई योजना l पंचायतों के निमायंदों को किया जा रहा जागरुक l” जी हाँ, यही है दैनिक पंजाब केसरी में दैनिक दिनांक 14 जून 2008 का प्रकाशित समाचार l स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय इतिहास में वर्तमान हिमाचल प्रदेश की सरकार ने जनहित में लगाया एक और मील का पत्थर जो पड़ोसी राज्य सरकारों को अवश्य ही प्रेरणादायक सिद्ध होगा l
समाचार के अनुसार – “पशुओं को आवारा छोड़ना अब प्रदेश के किसानों को भारी पड़ सकता है l” संबंधित विभाग द्वारा शुरू की गई मुहीम में जहाँ किसानों को अपने पशु आवारा छोड़ने पर जुर्माना भरना पड़ सकता है वहां दुबारा गलती करने पर उनके विरुद्ध विभाग द्वारा कड़ी कार्रवाई भी की जाएगी l विभाग ने विस्तृत योजना बना ली है l पशु का रिजिस्ट्रेशन – “उसके बाएं कान पर प्रान्त व जिला कोड तथा दायें कान पर ब्लाक, पंचायत व पशु मालिक कोड सब मशीन द्वारा अंकित किये जायेंगे l” इस प्रकार पशु की पूर्ण पहचान होगी और पशु मालिकों के द्वारा अपना पशु कहीं आवारा छोड़ना आसान न होगा l
प्रायः देखने में आया है कि पशु मालिक दुधारू पशुओं का दूध निकाल लेने के पश्चात् या जब वे दूध देना बंद कर देते हैं तो वे उन्हें घर से बाहर निकाल देते हैं l वे आवारा होकर गाँव या शहर की सड़कों व गलियों में भटकना आरंभ कर देते हैं जिन्हें वहां कूड़ा-कचरा के अंबारों पर या कूड़ादानों से गंदगी में सने हुए लिफाफे व सड़ी-गली साग-सब्जी के छिलके खाते हुए देखा जा सकता है l आहार की तलाश में कभी-कभी उन्हें चलती बस, ट्रक या रेल से टकराकर अपनी जान भी गंवा देनी पड़ती है l
कुछ सिर फिरे लोगों ने तो पशुओं का जीना हराम कर दिया है l वे उन्हें आये दिन आवारा छोड़ देते हैं या अनजान लोगों को बेच देते हैं l पशु चोरों को समय मिले तो वे पशु चुराकर उन्हें कसाई घर में भी पहुंचा देते हैं l उनके लिए पशुओं का कोई महत्व नहीं होता है जिस कारण रोजाना बूचड़खानों में हजारों की संख्या में बड़ी क्रूरता पूर्ण पशुओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है l इससे लोगों को चमड़े की बनी वस्तुएं मिलती हैं l
भारत देश में जहाँ श्रीकृष्ण जी के द्वारा गौ-प्रेम से गौ-वंश वर्धन हुआ था, देश में दूध की हर नदियाँ बही थीं, वहीँ आज क्रूर मानव अपनी क्रूरता वश गौ-वंश वध करके गौ धनाभाव कर रहा है l प्रतिदिन सुबह-शाम मंदिरों में “गौमाता की जय हो” कहने वाला समाज आज स्वयं ही कथनी और करनी में समानता रखने में असमर्थ है l
सूरसा माँ-मुख की भांति बढ़ रही भारतीय जन संख्या और कल-कारखानों के बढ़ रहे साम्राज्य के आगे जहां कृषि प्रधान भारत की कृषि भूमि और जंगल सिकुड़ रहे हैं l वहां उसके गौ-वंश के भरण पोषण हेतु चरागाहों का भी क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है l इससे भारतीय परंपरागत गौ-वंश पालन व्यवस्था चरमरा गई है l
भारत में चिरकाल से ही गौ-वंश पशुओं के मल-मूत्र का कृषि उत्पादन में पौष्टिक खाद के रूप में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, के स्थान पर अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए रासायनिक खादों का धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है l पौष्टिकता में भारी गिरावट आ रही है l किसान बैलों से ह्ल जोतना छोड़ चुके हैं अथवा भूल गए हैं l उसका स्थान ट्रैक्टरों और भारी मशीनों ने ले लिया है l इससे पशु-वंश नकारा हुआ है l तस्करी वश पशु-वंश में कमी आने के कारण पौष्टिक खाद प्रभावित हुई है l
पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित वर्तमान भारतीय युवावर्ग पशु-प्रेम के अभाव में पशु-पालन व्यवसाय छोड़ता जा रहा है l वह गुणवत्ता के अभाव में भी लिफाफा बंद दूध खरीदना सर्वश्रेष्ठ समझता है l यह बात बुरी ही नहीं है बल्कि हानिकारक, रोग और दोषपूर्ण भी है l इससे उसे भविष्य में सदैव जागरूक रहना होगा l
राष्ट्रीय परंपरागत पशुपालन व्यवसाय युवावर्ग के लिए एक अच्छा रोजगार बन सकता है l इच्छुक, साहसी और पुरुषार्थी युवावर्ग को संगठित होकर एवं सहकारिता आन्दोलन के साथ जुड़कर पशुपालन के व्यवसाय को स्वरोजगार बनाना होगा l बाजार से लिफाफा बंद, महंगा, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक उपलब्ध दूध के स्थान पर वह स्थानीय गौशालाओं के माध्यम से ताजा शुद्ध और गुणवत्ता से भरपूर दूध उत्पादन करके एवं दुग्ध उत्पादों से स्थानीय लोगों की आवश्यकता सहज में पूर्ण कर सकता है l इससे वह अच्छा आर्थिक लाभ कमा सकता है l
उपरोक्त वर्तमान हिमाचल सरकार का प्रान्त तथा राष्ट्रहित में लिया गया एक सराहनीय और प्रशंसनीय निर्णय है जो युवावर्ग द्वारा राष्ट्र का नवनिर्माण करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है l इसके लिए युवावर्ग को कल-कारखानों व मशीनों पर पूर्णरूप से आश्रित न रहकर अधिक से अधिक स्वयं शरीर-श्रम प्रारंभ करना होगा l
भारतवर्ष में चिरकाल से श्वेत धाराएँ गौवंश से प्राप्त हुई हैं, प्राप्त हो रही हैं और आगे भी प्राप्त होंगी l स्मरण रहे अगर भविष्य में हमने स्वस्थ रहना है तो हमें गुण संपन्न दूध की आवश्यकता होगी l तब दूध पाने के लिए हमें मशीनों की नहीं, दुधारू गौ-वंश की आवश्यकता होगी l धरती पर गौ-वंश ही नहीं रहेंगे तो हमें दूध कहाँ से प्राप्त होगा ? जीवन की रक्षा गौ-वंश/गौ-धन की सुरक्षा पर निहित है l कल-कारखाने और मशीनें तो हमारे लिए भोग-विलास संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले साधन मात्र है l इनका हमें सदैव विवेक पूर्ण और सीमित ही उपयोग करना होगा l इसी में हम सबकी और भारत की भलाई है l
प्रकाशित 11 जनवरी 2009 कश्मीर टाइम्स