मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



लेखक: चेतन कौशल

  • श्रेणी:

    स्वामी विवेकानंद

    विचारकों के कथन :-

    जीवन में ज्यादा रिश्ते होने जरूरी नहीं हैं, पर जो रिश्ते हैं उनमें जीवन जीवन होना जरूरी है l


  • श्रेणी:

    रोमा रोला

     विचारकों के कथन :-

    विवेकानंद के द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है l वे जहाँ भी गए, सर्वप्रथम रहे l हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था l वे ईश्वर के प्रतिनीधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी l

  • श्रेणी:

    स्वामी विवेकनन्द

    विचारकों के कथन :-

    हम जितना बाहर जाएँ और दूसरों का भला करें, हमारा हृदय उतना ही शुद्ध होगा और परमात्मा उसमें बसेंगे l

  • श्रेणी:

    छोटी छोटी असावधानियों से भूजल स्तर जाएगा पाताल!

    मातृवंदना अगस्त 2015

    हमारी अनेकों समस्याएं हैं, वह थमने का नाम नहीं ले रही हैं। उन समस्याओं में गहरा होता जा रहा भूजल का स्तर वर्तमान में राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गया है। हम हर क्षण राष्ट्र के अधिकांश भूजल संसाधनों का कदम-कदम पर दुरुपयोग कर रहे हैं, परिणाम स्वरूप भूजल स्तर नीचे जा रहा है।

    हम दैनिक उपयोग में अपनी आवष्यकता से कहीं अधिक भूजल दोहन करते हैं। हम रसोई में खाद्य पदार्थों की धुलाई एवं वर्तनों की सफाई के समय नल खुला रखते है। व्यर्थ और गंदा जल क्यारी में न डालकर, नाली में गिरा देते हैं। आइस ट्रे से बर्फ छुड़वाने के लिए हम खुले नल का प्रयोग करते हैं।


    हम भूमिगत जल टंकी भरने के लिए उसमें टोंटी नहीं लगाते हैं। टोंटी लगी हो तो उसे खोल देते हैं या ढीली रखते हैं।


    छत पर 500 या 1000 लीटर वाली पानी की टंकी भरने के लिए हम नल से सीधे जल उठाऊ मोटर का प्रयोग करते हैं। पानी से भर जाने के पष्चात् जल की टंकी से व्यर्थ में पानी बाहर बहता रहता है या उसमें दिन-रात जल का रिसाव होता रहता है।


    घर अथवा सार्वजनिक स्नानगृह में हम खुले नल या शावर के नीचे लम्बे समय तक स्नान करते रहते हैं। खुले नल के आगे कपड़े धोते हैं, दंत-मंजन करते हैं, दाढ़ी बनाते हैं।


    घर अथवा सार्वजनिक शौचालयों में नल का पानी बहता हुआ छोड़ देते हैं, बहता हुआ दिखे तो भी हम उसे बंद नहीं करते ।


    नल से रबर पाइप लगाकर हम घर, पशुशाला ही की नहीं गाड़ी की भी सफाई करते हैं। रबर पाइप से जगह-जगह जल रिसाव भी होता रहता है।


    नल से रबर पाइप लगाकर हम क्यारी व पौधों की सिंचाई करते हैं। खेत में सिंचाई हेतु यूं ही पटवन करते रहते हैं, उसे उचित समयक्रम से नहीं करते हैं। लान को बार-बार पाटते हैं। नलकूप द्वारा आवश्यकता से कहीं अधिक दोहन करते हैं। हम जलवायु के आधार पर परंपरागत खेती करना, फल, चारा व इमारती लकड़ी प्राप्त करने के लिए नई पौध लगाना, दिन प्रतिदिन भूलते जा रहे हैं। सिंचाई की पाइप के जोड़ों/कपलिंगों से जल रिसाव होता रहता है।


    इस तरह थोड़ा-थोड़ा करके हम भूजल भंडार का कई हजार लीटर पानी यूं ही व्यर्थ में नष्ट कर देते हैं। जल को अमूल्य संसाधन समझने पर भी हम यह नहीं सोचते कि पानी न होगा तो क्या होगा?


    वर्षाकाल में अपने मकान की छतों से गिरने वाले पानी के संग्रह की हमे व्यवस्था कर लेनी चाहिए। सदाबहार बहते नाले में चैकडैम बनवाकर जल संग्रहण करना चाहिए। पुराने तालाब, पोखर, कुंओं का पुनरोद्वार करना चाहिए।


    परिवार नियोजन की उपेक्षा में जनसंख्या बढ़ने, प्रौद्योगिकी के विस्तार और शहरीकरण होने के कारण प्रतिदिन भूजल की मांग में अत्याधिक वृद्धि हुई है जबकि भूजल पुनर्भरण की प्रतिशत मात्रा कम रही है। नव निर्माण कार्यों में हम भूजल का बहुत ज्यादा प्रयोग करते हैं। अगर हम समय रहते स्वयं जागरूक नहीं हुए, स्वेच्छा और आवश्यकता से अधिक भूजल का युं ही दोहन एवं दुरुपयोग करते रहे तो वह दिन दूर नहीं कि भूजल स्तर पाताल गमन अवश्य करेगा। ऐसी स्थिति में क्या हम उसे रोकने के लिए प्रयासरत हैं? क्या हम उसे सहजता से रोकने में सफल हो पाएंगे?

    चेतन कौशल “नूरपुरी”


  • श्रेणी:

    भारतीय शिक्षा की महक

    असहाय समाज वर्ग 1995 अक्तूबर दिसम्बर 

    प्राचीन भारतीय निशुल्क शिक्षा-प्रणाली अपने आप में विशाल हृदयी होने के कारण विश्वभर में जानी और पहचानी गई थी l भारत विश्व गुरु कहलाया था l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परम्परा पर आधारित थी जिसमें सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोक अनुदान की पवित्र भावना सद्विचार,सत्कर्मो से विश्व का कल्याण होता था l गुरुकुल कभी किसी का शोषण नहीं, मात्र पोषण ही करते थे l तभी तो “सारी धरती गोपाल की है l“ भारत मात्र उद्घोष ही नहीं करता है, सारे विश्व को एक परिवार भी मानता है l


    गुरुकुल में राजा, रंक और भिखारी सभी के होनहार बच्चों को अपने जीवन में आगे बढ़ने का एक समान सुअवसर प्राप्त होता था l उनके साथ एक समान व्यवहार होता था l गुरु व आचार्य जन शिष्यों के अँधेरे जीवन में तात्विक विषय ज्ञान-विज्ञान, ध्यान, लग्न, मेहनत, योग्यता, निपुणता, प्रतिभा और शुद्ध आचार-व्यवहार जैसे सद्गुणों का प्रकाश करके उन्हें दीप्तमान करते थे l इससे बच्चों के जीवन की नींव ठोस होती थी l उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था l बच्चे विश्व-बंधु बनते थे जो गुरु व आचार्यों के आशीर्वाद और बच्चों की लग्न तथा मेहनत का ही प्रतिफल होता था l


    भारतीय गुरुकुलों में शिक्षण-शुल्क प्रथा का अपना कोई भी महत्व नहीं था l गुरुकुलों में शुल्क रहित शिक्षण-प्रथा से ही गुरु तथा शिष्य का निर्वहन, साधना, समृद्धि और विकास होता था l स्वेच्छा से सामर्थ्यानुसार, बिना किसी भय के ख़ुशी-ख़ुशी से दिया जाने वाला लोक अनुदान बच्चों के जीवन का निर्माण करता था l
    कोई भी प्राचीन गुरुकुल एक वह दिव्य कर्मशाला थी जहाँ बच्चों में योग्यता पनपती थी l वहां उन्हें दुःख-सुख का सामना करने का अनोखा साहस मिलता था l जीवन के हर क्षेत्र में आत्म सम्मान के साथ सर उठाकर चलने और समय पड़ने पर शेर की तरह दहाड़ करने के साथ-साथ जीने और मरने की भी एक अनोखी मस्ती प्राप्त होती थी l इन गुणों को प्रदान करता था – आचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का योगदान l गुरुकुलों की गरिमा अविरल जलधारा समान प्रवाहित होती रहती थी l गुरुकुलों को अनुदान से प्राप्त अन्न, धन, वस्त्र और भूमि आदि पर मात्र गुरुकुल में कार्यरत मान्य आचार्यों का जितना स्वामित्व होता था, अध्ययनरत, अध्ययनकाल तक उस पर शिष्यों का भी उतना ही स्वामित्व रहता था l दोनों में प्रेम, सहयोग, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना होती थी l आचार्य शिष्यों के जीवन का निर्माण करते थे , उनका मार्गदर्शन करते थे जबकि शिष्य पूर्ण ज्ञानार्जित करने के पश्चात् मात्र कर्तव्य परायण होकर अपने माता-पिता, गाँव, समाज, शहर, और राष्ट्र ही की सेवा करते थे l


    भारतीय शिक्षा–क्षेत्र मात्र निःस्वार्थ सेवा-क्षेत्र रहा है जिसमें निष्कामी आचार्य तथा ज्ञान पिपासु विद्यार्थियों की महती आवश्यकता बनी रहती थी l वह तो सदैव सबके लिए ज्ञान का प्रणेता और मार्ग दर्शक ही था l आचार्य भली प्रकार जानते थे – उन्हें विद्यार्थियों को किस प्रकार का शिक्षण देने के साथ-साथ प्रशिक्षण भी देना है l
    वैसे शिक्षण-प्रशिक्षण लेने की कोई आयु नहीं होती है l आवश्यकता है तो मात्र विद्यार्थी के दृढ़ निश्चय की कि वह क्या करना चाहता है, क्या कर रहा है ? वह क्या बनना चाहता है, क्या बन गया है ? वह क्या पाना चाहता है, उसने अभी तक पाया क्या है ? अगर वह अपना उद्देश्य पाने में बार-बार असफल रहा हो, उसके लिए उसे किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो, किसी शंका का समाधान ही करवाना चाहता हो तो आ जाये उसका निवारण करवाने को l गुरुकुल के आचार्यों की शरण ले l वहां उसे हर समस्या का समाधान मिलेगा l वह जब भी आये, अपने साथ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास अवश्य लाये, भूल नहीं जाना l हमारे आचार्य यही शुल्क लेते हैं l इनके बिना किसी को वहां उनसे कुछ भी नहीं है, मिलने वाला l
    आज भारत माता के तन पर लिपटा सुंदर कपड़ा जगह-जगह से कटा हुआ है l भारतीय शिक्षा सदियों से आकंताओं, अत्याचारियों की बर्बरता, क्रूरता का शिकार हुई है l उसकी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी है l कपड़ा तो ठोस है, घिसा नहीं है, मात्र कटा हुआ है l वह तो अब भी हर मौसम का सामना करने में सक्षम है l भारतीय शिक्षा अव्यवस्थित होते हुए भी किसी अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली की तुलना में अब भी कम नहीं, श्रेष्ठ ही है l जरुरी है – उस कपड़े की सिलाई करना l उसे पुनः साफ-सुथरा करके फिर से उपयोगी बनाना l गुरुकुल शिक्षा का पुनर्गठन करना उसे उचित नेतृत्व प्रदान करना l


    क्या हमें किसी अन्य तन का मात्र सुंदर कपड़ा देख अपने तन का उपयोगी एवं सुखदायी कपड़े का त्याग कर देना चाहिए ? हमें अपनी जीवनोपयोगी भारतीय शिक्षा प्रणाली को भुला देना चाहिए ? उसके स्थान पर किसी अन्य राष्ट्र से उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली को स्वीकार कर लेना चाहिए ? नहीं, कभी नहीं l हमें गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को पुनः समझना होगा l उसे आधुनिक नई कसौटी पर परखना होगा l तभी वह एक दिन देश, काल, और पात्र के अनुकूल तथा जन मानस के अनुरूप, उपयोगी सिद्ध होगी l वैसे किसी कमजोर रोगी के तन से लिया हुआ कोई भी कपड़ा एक हृष्ट-पुष्ट निरोगी काया को मात्र रोगों के अतिरिक्त कुछ और दे भी क्या सकता है ? ऐसे कपड़े की तरह ली गई अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली भारत वर्ष के लिए किसी भयानक संक्रामक रोग से कम नहीं है l इससे उसे दूर रखने में ही हम सबका हित है l


    आज हम वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को अँधेरे का कारण मान रहे हैं लेकिन अँधेरे को दोष देने से कहीं अच्छा है – कोई एक दीप जला देना l कभी-कभी भारतीयन शिक्षा का मंद गति से प्रवाहित होने वाला मदमाती महक का मधुर झोंका न जाने कहाँ से आकर कोमल मन को स्पर्श कर जाता है ? मन आनंदित हो जाता है l लगता है वह कुछ कह रहा हो -


    गुण छुपाये छुप नहीं पाता, गुण का स्वभाव है यही,
    फुलवारी अपनी फूलों भरी, सुगंध रोके, रूकती है नहीं l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”