कश्मीर टाइम्स 1 नवम्बर 2009
विदेशों में कालाधन पहुंचाने से,
चंद सिक्कों में स्वयं बिक जाने से,
सस्ते में राष्ट्रीय सुख-शांति बिकवाने से,
क्या भारत बना महान है?
आज़ादी लेने हेतु रात-दिन तड़पने से,
भूखे रहकर फांसी पर चढ़ जाने से,
गोलियां खाकर शहीद हो जाने से,
क्या भारत बना महान है?
जगह जगह भाषा-भाषी मधुर संम्पर्क से,
पग-पग पर धार्मिक सौहार्द से,
मानव जाति सम्मान करने से,
क्या भारत बना महान है ?
कुपोषितों को स्वस्थ बनाने से,
बेरोजगारों तक रोजगार पहुंचाने से,
उत्तम शिक्षा, सुरक्षा वातावरण बनाने से,
क्या भारत बना महान है?
चेतन कौशल "नूरपुरी"
लेखक: चेतन कौशल
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श्रेणी:कवितायें
क्या भारत ?
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श्रेणी:आलेख
भारतीय संस्कृति का संरक्षण आवश्यक
यह बात सर्व विदित है कि भारत ऋषि मुनियों का देश रहा है। मनीषियों ने मानव जीवन को मुख्यता चार आश्रमों में विभक्त किया था। उनमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासाश्रमों के अपने विशेष सिद्धांत थे।, उच्च आदर्श थे। उनके अनुसार मनुष्य अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता हुआ अपार शक्तियों का स्वामी बन जाता था। भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी। जब मैकाले ने ऐसा भारत में देखा और जाना तो वह ईर्ष्यावश तिलमिला उठा। उसने भारत की इस उच्चस्तरीय जीवन पद्धति को हर प्रकार से नष्ट -भ्रष्ट करने तथा उसके स्थान पर निम्नतम स्तरीय शैली स्थापित करने का मन बना लिया। उसने ब्रिटिश संसद में जाकर एक वक्तव्य दिया जो भारत विरुद्ध महाशड्यंत्र था। वही वक्तव्य आगे चलकर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को लम्बे समय तक हरा-भरा बनाए रखने तथा उसका विस्तार करने हेतु भारत की नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शक्तियों का हृास करने वाला ब्रिटिश शासकों का सहायक नीतिशास्त्र बना।
मैकाले का उद्देश्य भारत को हर प्रकार से क्षीण-हीन, अपंग और निःसहाय बना कर उसमें ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को मजबूत करना था। समय-समय पर भारतीय संत-महात्माओं, समाज सुधारकों, नवयुवाओं, धार्मिक व राजनेताओं ने मैकाले की भारत विरोधी नीतियों का डट कर विरोध किया और अनेकों बलिदान दिए। उनके द्वारा लम्बे समय तक अथक प्रयासों और त्याग से ही बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय तथा हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई ताकि भारतीय संस्कृति की अखंड पहचान बनी रहे। उसका भली प्रकार विस्तार भी हो सके।
इस प्रकार 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश भर में सरकारी, गैर सरकारीविद्यालयों महाद्यिालयों और विश्वविद्यलयों से हमें जो दिव्य प्रकाश मिलने की आशा बनी थी वह एक बार फिर धूमिल हो गई। सरकार द्वारा इस ओर कोई प्रयास नहीं हुआ बल्कि उन अंग्रेजी फैक्टरियों व कारखानों से पहले की तरह निरंतर सस्ते बाबू और काले अंग्रेज बन कर निकलते रहे जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य की अवश्यकता मानी जाती थी।
इससे स्पष्ट होता है कि हम जिस गरिमा के साथ स्वतंत्रता को अंगिकार करने आगे बढ़े थे, वह गरिमा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् और अधिक तीव्र होने के स्थान पर लुप्तप्रायः हो गई है। स्वदेशी सस्कारों के स्थान पर पाश्चात्य संस्कार हमारी रग-रग में समा रहे हैं। अगर इस बढ़ती प्रवृत्ति को अतिशीघ्र रोका न गया तो भारत का एक बार फिर पराधीन होना निश्चित है। मत भूलो कि राष्ट्रीय सांस्कृतिक सदभावना, सहकार, प्रेम और एकता ही अखंड भारत के प्राण हैं।
वर्तमान में बहुत से कार्य मशीनों से किए जाते हैं। कार्य में असफल होने बाली मशीनों को कार्यशालाओं में ले जाकर मिस्त्री से ठीक भी करवा लिया जाता है, पर हमें देश भर में कहीं कोई ऐसी कार्यशाला दिखाई नहीं देती है जहां हमारी संस्कृति की त्रुटियों का अवलोकन व सुधार करके उसे पुष्ट भी किया जाता हो। हां पाश्चात्य संस्कृति बड़ी तेजी के साथ किसी बाधा के बिना भारतीय संस्कृति पर अवश्य छा रही है।
राष्ट्रीय संस्कृति के पोषक रह चुके गुरुकुलों के देश में -- विद्यालयों से लेकर विश्व विद्यालयों तक भारतीय संस्कृति की उपेक्षा होने के कारण पाश्चात्य संस्कृति के भरण पोषण को ही निर्विवाद रूप में बढ़ावा मिल रहा है। रही सही कसर वर्तमान सरकार द्वारा पूरी की जा रही है। इसके द्वारा विदेशियों का शिक्षा में प्रवेष के लिए अब रंगमंच तैयार किया जा चुका है। क्या इस तरह हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर पाएंगे? क्या हमारी संस्कृति दूसरों के लिए पुनः आदर्श बन पाएगी?
उपरोक्त बातों से स्पष्ट होता है कि एक ओर जहां आज भारत को मजबूत सीमाओं की आवश्यकता है तो दूसरी ओर उसके भीतर सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्यकुशल नवयुवाओं की भी आवश्यकता है जो भारतीय संस्कृति के संवाहक रूप में उसका पुनरुत्थान करने में पूर्णत्या सक्षम और समर्पित हों।
नवम्बर 2009
मातृवन्दना
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श्रेणी:कवितायें
प्रदूषण का उद्गम
कश्मीर टाइम्स 4 अक्तूबर 2009
मकान, अस्पताल से बाहर आता प्रदूषण है,
इंडस्ट्रीज, फैक्ट्रीज से बाहर आता प्रदूषण है,
दुकान, गोदाम से बाहर आता प्रदूषण है,
पशुशाला, बूचड़खानों से बाहर आता प्रदूषण है,
डालते हैं कहां? हम उस प्रदूषण को,
फैंकते है हम कहां? उस प्रदूषण को,
क्या हम जलधारा में बहा देते हैं प्रदूषण?
या सीमा से बाहर फैंक देते हैं प्रदूषण?
अगर बहाते रहेंगे ऐसे ही प्रदूषण जलधारा में,
तो रह पाएंगे कैसे? जलचर जलधारा में,
फैलाते रहेंगे अगर प्रदूषण यहां वहां पर,
तो रह पाएंगे हम सब कैसे? धरा पर
चेतन कौशल "नूरपुरी"
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श्रेणी:कवितायें
विषधर जानो
सितम्बर 2009 मातृवंदना
समझ सके, समझ ले भाई!
चापलूस सांप दोनों हैं सगे भाई,
चापलूस चापलूसी करता है,
जहर सांप उगला करता है,
चापलूस नहीं साथी किसी का,
मतलब निकाला करता है,
दूध पिलाओ चाहे जितना
सांप डंक मारा करता है,
बात जान ले, सारा यह जहान!
चापलूस और सांप दोनों एक समान,
चेतन कौशल "नूरपुरी"
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श्रेणी:आलेख
आदर्श समाज की कल्पना
आलेख - सामाजिक चेतना कश्मीर टाइम्स 6 सितम्बर 2009
आओ हम ऊँच नीच का भेद मिटाएं
सब समान हैं, चहुं ओर संदेश फैलाएं
भारतीय समाज में कोई जाति से बड़ा है तो कोई धर्म से, कोई पद से ऊँचा है तो कोई धनबल से। प्रश्न उठता है कि क्या ऐसा पहले भी होता था? हां, होता था! पर अब उसमें अंतर आ गया है। पहले हमारी सोच विकसित थी, हम हृदय से विशाल थे, हम संसार का हित चाहते थे परंतु वर्तमान में हमारी सोच बदल गई है। हमारा हृदय बदल गया है, हम निजहित चाहने लगे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि हम अध्यात्मिक जीवन त्यागकर निरंतर संसारिक भोग विलास की ओर अग्रसर हुए हैं। हमने योग मूल्य भुला दिए हैं जिनसे हमें सुख के स्थान पर दुख ही दुख प्राप्त हो रहे हैं।
देखा जाए तो यह बड़प्पन या ऊँचापन मिथ्या है। पर जो लोग इसे सच मानते हैं अगर उनमें से किसी एक बड़े को उसके माता-पिता के सामने ले जाकर यह पूछा जाए कि वह कितना बड़ा बन गया है तो उनसे हमें यही उत्तर मिलेगा – वह अभी बच्चा है। उसके जीवनानुभवों की उसके माता-पिता के जीवनानुभवों से कभी तुलना नहीं की जा सकती। माता पिता की निष्काम भावना की तरह उसकी सोच का भी जन कल्याणकारी होना अति आवश्यक है। अगर वह ऐसा नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में उसे बड़ा या ऊँचा स्थान कदाचित नहीं मिल सकता।
हमारा समाज मिथ्याचारी बड़प्पन और ऊँचेपन की दलदल में धंसा हुआ है। वह तरह-तरह के शोषण, अत्याचार, जातिवाद, छुआछूत, अमीर-गरीब और बाहुबली व्यक्तियों के द्वारा बल के दुरुपयोग से पीड़ित है, जो अत्याधिक चिंता का विषय है।
वास्विकता तो यह है कि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं, उसका दिव्यांश हैं। वह कण-कण में समाया हुआ है। प्राणियों में मानव हमारी जाति है। भले ही हमारे कार्य विभिन्न हैं पर हमारा धर्म मानवता है। इसलिए वश्विक भोग्य सम्पदा पर हम सबका अपनी-अपनी योग्यता एवं गुणों के अनुसार अधिकार होना चाहिए। किसान और मजदूर खेतों में कार्य करते हैं तो विद्वान उनका मार्गदर्शन भी करते हैं। जिस व्यक्ति का जितना ऊँचा स्थान होता है उसके अनुसार उसकी उतनी बड़ी जिम्मेदारी भी होती है। उसे पूरा करना उसका कर्तव्य होता है। उससे वह भ्रष्टाचार, किसी का शोषण, किसी पर अत्याचार करने हेतु कभी स्वतंत्र नहीं होता है। बलशाली मनुष्य द्वारा उसके बल-पराक्रम का वहीं प्रयोग करना उचित है जहां समाज विरोधी तत्व सक्रिय हों या अनियंत्रित हों।
मनुष्य का बड़प्पन या ऊँचापन उसके कार्य से दिखता है न कि उसके जन्म या खानदान से। मनुष्य को चाहिए कि वह मानव जाति के नाते सब प्राणियों के साथ मनुष्यता ही का व्यवहार करे। उससे न तो किसी का शोषण होता है न किसी से अन्याय, न किसी पर अत्याचार होता है और न किसी का अपमान। सबमें बिना भेदभाव के समानता बनी रहती है। वैश्विक संपदा पर यथायोग्यता अनुसार स्वतः अधिकार बना रहता है। प्रशासनिक व्यवस्था सबके अनुकूल होती है। लोग उसका आदर करते हैं। इससे लोक संस्कृति की संरचना, संरक्षण और संवर्धन होता है।
मनुष्य जाति में पाया जाने वाला अंतर मात्र मनुष्य द्वारा किए जाने वाले कर्मों व उसके गुणों के अनुसार होता है। सद्गुण किसी में कम तो किसी में अधिक होते हैं। वे आपस में कभी एक समान नहीं होते हैं। इसलिए हमें एक दूसरे का सदा सम्मान करना चाहिए।
इससे हम छुआछूत, सामाजिक, आर्थिक एवं न्यायिक असमानता को बड़ी सुगमता से दूर कर सकते हैं। हमारा हर कदम राम-राज्य की ओर बढ़ता हुआ एक आदर्श समाज की कल्पना को साकार कर सकता है।चेतन कौशल “नूरपुरी”