कश्मीर टाइम्स 6 दिसंबर 2009
आने वाले आते हैं,
जाने वाले जाते हैं,
आना, जाना खेल दुनियां का,
खेल है, पल दो पल का,
दुनियां का जाना पहचाना है,
मुसाफिर हो, जाना है
सभी संग प्रेम करने वाले,
हर काम बखूबी करने वाले,
कुछ खट्टी यादें,
कुछ मीठी यादें,
बस यहां यादों ने रह जाना है,
मुसाफिर हो, जाना है
कहने वाले कहते रहेंगे,
सुनने वाले सुनते रहेंगे,
गिले शिकवे होते रहेंगे,
मन मुटाव होते रहेंगे,
पर कड़वी बात भूल जाना है,
मुसाफिर हो, जाना है
जाने वाले खुशी से जाना,
मन अपना मैला न ले जाना,
जहां भी रहना, खुशी से रहना,
काम अपना खुशी से करना,
निज जीवन में, आगे बहुत जाना है,
मुसाफिर हो, जाना है
चेतन कौशल "नूरपुरी"
लेखक: चेतन कौशल
-
श्रेणी:कवितायें
मुसाफिर हो
-
श्रेणी:कवितायें
स्वदेश प्रेम
मातृवंदना दिसम्बर 2009
स्वदेशी पका, पौष्टिक, ताजा खाने वालो!
तुम फास्ट-फूड खाते हो क्यों ?
पहले सदा अरोग्य ओर स्वस्थ रहते थे,
अब तुम रोगी बन रहे हो क्यों?
फास्ट-फूड है विदेशी खाना,
कोई नहीं कहता, यह भारत के हैं पकवान,
पकवान स्वदेशी छोड़, तुम खाते विदेशी पकवान
कोई नही कहेगा,तुम्हें स्वदेश से है ममता महान
चेतन कौशल "नूरपुरी"
-
श्रेणी:आलेख
विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति
Paragraph
प्राचीन भारतवर्ष विश्व मानचित्र पर आर्यावर्त देश रहा है। आर्य वेदों को मानते थे। वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते थे। वेद जो देव वाणी पर आधारित हैं, उन्हें ऋषि मुनियों द्वारा श्रव्य एवं लिपिबद्ध किया हुआ माना जाता है। वेदों में ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद प्रमुख हैं । वे सब सनातन हैं वेद पुरातन होते हुए भी सदैव नवीन हैं उनमें परिवर्तन नहीं होता है। वे कभी पुराने नहीं होते हैं।
समय परिवर्तनशील है जिसके साथ-साथ नश्वर संसार की हर वस्तु बदल जाती है। नहीं बदलता है तो वह मात्र सत्य है। सत्य सनातन है। वेद सत्य पर आधारित होने के कारण सदा नवीन, अपरिवर्तनशील और सनातन हैं। वेदों के अनुगामी और हमारे पूर्वज आर्य सत्यप्रिय, कर्मनिष्ठ , धार्मिक और शूरवीर थे। सत्यप्रियता, कर्मनिष्ठा , धार्मिकता और शूरवीरता ही वेदों का आधार है, उनका सार है। यही हमारी पुरातन संस्कृति तथा आध्यात्कि धरोहर है जिसे विश्व ने माना है।
सत्य ही ब्रह्म है, वह ब्रह्म जिसका किसी के द्वारा कभी कोई विघटन नहीं किया जा सकता। वह सदैव अबेध्य, अकाटय और अखंडित है। ब्रह्म-ज्ञान और विषयक तात्विक ज्ञान प्राप्त करना ही विवेकशील पुरुष का परम कर्तव्य है जो उन्हें भली प्रकार समझ लेता है, जान जाता है, उसे सत्य-असत्य में भेद अथवा अंतर कर पाना सहज हो जाता है। कोई कहे कि रात बड़ी काली होती है। रात को हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है। यह पहला सत्य है। अगर काली रात में कोई एक दीपक प्रज्जवलित कर लिया जाए तो घोर अंधकार भी दिन के उजाले की तरह प्रकाश में बदल जाता है ओर तब हमें सब कुछ दिखाई देने लगता है। यह दूसरा सत्य है। इसी तरह मन, कर्म तथा वाणी से ब्रह्ममय हो जाने से मनुष्य सत्यवादी हो जाता है। तदोपरांत उसमें सत्यप्रियता, सत्यनिष्ठा जैसे अनेकों गुण स्वाभाविक ही पैदा हो जाते हैं ।
ब्रह्म-ज्ञान से मनुष्य की अपनी पहचान होती है। वह जान जाता है कि उसमें क्या कर सकने की क्षमताएं विद्यमान हैं ? वह स्वयं क्या-क्या कार्य कर सकता है? उनके संसाधन क्या है? उन्हें अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य बेधन हेतु उनका धारण और प्रयोग कैसे किया जाता है? उन क्षमताओं के द्वारा जीवन में उन्नति कैसे की जा सकती है? जब वह ऐसा सब कुछ जान जाता है तब वह अपने गुण व संस्कार ओर स्वभाव से वही कार्य करता है जो उसे आरम्भ में कर लेना होता है। देर से ही सही, वह वैसा करके अपने कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है। उसे कार्य कौशल प्राप्त हो जाता है जो उसकी अपनी आवश्यकता होती है।
ब्रह्म-ज्ञान से मनुष्य को उचित-अनुचित और निषिद्ध कार्याें का ज्ञान होता है। जनहित में उचित कार्य करना वह अपना कर्तव्य समझता है। वह नैतिक, व्यवहारिक कार्य करता हुआ सदाचार का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार उसके गुण-संस्कारों से दूसरों को प्रेरणा मिलती है। दूसरों के लिए वह एक आदर्श बन जाता है। वे उसका अनुसरण करते हैं और अपना जीवन सफल बनाते हैं।
ब्रह्म-ज्ञान से ही मनुष्य जागरूक होता है। उसका हृदय एवं मष्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है। जब वह इस स्थिति पर पहंच जाता है तब वह स्वयं के शौर्य और पराक्रम को भी पहचान लेता है। वह समाज को संगठित करके उसमें नवजीवन का संचार करता है जिससे समाज और उसकी धन-सम्पदा की रक्षा एवं सुरक्षा होती है।
ब्रह्म-ज्ञान मनुष्य जीवन को पुष्ट करता है। उसे अजेयी शक्ति प्रदान करता है। शायद इन पंक्तियों में इसी प्रकार के भाव भरे हुए हैं ।
सुगंध बिना पुष्प का क्या करें?
तृप्ति बिना प्राप्ति का क्या करें?
ध्येय बिना कर्म निरर्थक है,
प्रसन्नता बिना जीवन व्यर्थ है।
प्रष्न पैदा होता है कि ऐसे गुण-संस्कारों के प्रेरणा स्रोत क्या है? यह गुण-संस्कार जन साधारण तक कैसे पहुंचाए जा सकते हैं? इसका उत्तर आर्याें ने सहज ही युगों पूर्व गुरुकुलों की स्थापना करके दे दिया है जिसे भारत, भारतीय समाज ही नहीं
20 दिसम्बर 2009
दैनिक कष्मीर टाइम्स
-
श्रेणी:कवितायें
रक्षा-सुरक्षा
कश्मीर टाइम्स 22 नवम्बर 2009
मेहनती पिसे चक्की,
चापलूस मारे फक्के,
राज करे महामूर्ख,
ज्ञानी खाए धक्के
अत्याचार शोषण के साए में,
जनहित दीखता है कहां?
भय अन्याय के साम्राज्य में,
जानमाल सुरक्षित होता है कहां?
चेतन कौशल "नूरपुरी"
-
श्रेणी:कवितायें
मेहनती
कश्मीर टाइम्स 15 नवंबर 2009
पहाड़ों को समतल करने वाले,
बाधाओं से कब डरते हैं?
खुद करते है हाथ, कार्य करने वाले,
निर्धनता, बेरोजगारी दूर करते हैं
मेहनती हाथों से कार्य करने वाले,
जिंदगी में मौत से कहां डरते है?
मन से राम नाम जपते हैं,
ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं
चेतन कौशल "नूरपुरी"