कश्मीर टाइम्स 10 अगस्त 1996
स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के पश्चात हमारे प्रिय जन नायकों ने लोकतंत्र – जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए “जनता राज” अथवा लोकतंत्र शासन प्रणाली की पुनर्स्थापना करने का प्रयास किया था l उसी रूप को साकार करने के लिए उन्होंने भारत का संविधान भी बनाया था ताकि उसे व्यवहारिक रूप में परिणत करके उससे जन साधारण से लेकर महत्वपूर्ण व्यक्तियों तक का कल्याण किया जा सके l राष्ट्र को समर्पित जननायक सेवक तथा स्वच्छ एवंम कुशल प्रशासन मिल सके जिससे जन साधारण परिवार, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र का भली प्रकार विकास हो सके l सबको उचित न्याय मिल सके l शोषण मुक्त समाज में सब लोग खुली साँस ले सकें l हमारा राष्ट्र एक बार फिर विश्व को सही राह दिखा सके l परन्तु लोकतांत्रिक देश भारत की भोली-भाली जनता नहीं जानती थी कि विदेशी लुटेरों को जिस दिन भारत में मुंह की खानी पड़ेगी और उन्हें लौटकर स्वदेश जाना पड़ेगा तो उस दिन से वह अपने ही घर में छुपे हुए विदेशी भाड़े के चमचे और गद्दारों के चुंगल में फंसकर पग-पग पर उनका शिकार भी होगी l
आज राष्ट्र की जागृत जनता को आवश्यकता नहीं है – मुट्ठी भर स्वार्थी, लोभी और महाचतुर उन लोगों की जो शासक बनकर उस पर भ्रष्ट शासन करें l सत्ता के उन भूखे भेड़ियों की जरूरत नहीं जो जनता का भांति-भांति का तो स्वयं शोषण करे पर दूसरों से भी करवायें l जनता में भय, आतंक, फैलाने वालों की आवश्यकता नहीं है जो चोरी-चुपके आक्रांताओं और घुसपैठियों का समर्थन तो करें पर अपने घर पर आतंक से संबंधित गतिविधियों का संचालन और नेतृत्व करने के लिए उन्हें शरण भी दें और उन्हें धनबल देकर उत्साहित भी करें l रक्षा-सुरक्षा के नाम पर जनता की जान और माल को ही दांव पर लगा दें l बे-वश, लाचार, निर्धन जनता को धन का लोभ, बाहुबल, बन्दुक का भय दिखाकर प्रशासनिक व्यवस्था से खिलवाड़ करें l राष्ट्र का विकास करने के नाम और उसे आत्म निर्भर बनाने के स्थान पर प्यारे भारत को ऋण के बोझ तले दबा दें और उसका स्वर्ण भंडार गिरवी रखवा दें l राष्ट्रीय कोष भंडार बढ़ाने और उससे विकास कार्य करने के स्थान पर घोटाला, गबन ही करें और सफेद धन को काला धन बनाकर उसे विदेशों में जमा करके उन्हें समृद्ध करें l देश के होनहार युव, श्रमिक, मनीषी, कलाकार, और विज्ञानिकों का विदेश गमन करने को बाध्य करें l क्या राष्ट्र के ऐसे शुभचिंतक, जननायक, प्रशासक, सेवक और उनका प्रशासन जनता को कभी सुख-समृद्धि प्रदान कर सकता है ?
आज राष्ट्र में पग-पग पर व्यक्तिगत, सार्वजनिक, ऐतिहासिक एवंम राष्ट्रीय संपदा ही असुरक्षित नहीं है, महत्वपूर्ण व्यक्तियों से लेकर जन साधारण तक के जीवन की रक्षा-एवं सुरक्षा के आगे भी प्रश्न चिह्न लग गया है l ऐसे किसी भी दिन की सुबह होती है जिस दिन यह सुनने, पढ़ने या देखने को न मिले कि अमुक घर, दूकान, या कोषालय में चोरी हो गई, डिकैती गई l अमुक महत्वपूर्ण या जन साधारण की किसी बेनाम नकाबपोश द्वारा हत्या कर दी गई और वह भाग गया l
इसी प्रकार अपने ही राष्ट्र और राज्य में आतंकित लोगों को सामूहिक रूप में अपनी मातृभूमि, धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर का भी त्याग कर देना पड़ता है l उन्हें दुसरे राज्यों में जाकर शरण लेने पड़ती है l वहां उन्हें शरणार्थी बनकर रहना पड़ता है l ऐतिहासिक, सार्वजनिक भवन, भंडार और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय लेखागार धू-धू करके जलते हुए दिखाई देते हैं l सीमावर्ती क्षेत्रों में विदेशी विमानों द्वारा युद्धक सामग्री ही नहीं गिराई जाती है अपितु विदेशी भाड़े के घुसपैठिये सैनिक भी उतारे जाते हैं और प्रशासन पीटता है मात्र उस लकीर को जो सांप के चले जाने से बनती है या जब कोई अनहोनी हो जाती है l स्पष्ट है कि इससे पूर्व प्रशासन सोया रहता है l
उन नेताओं को तो क्या कहें ! जो अपने ही घर, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र में रहते हुए भी शत्रु से अपनी ही जान-माल की आप रक्षा नहीं कर पाते हैं l स्पष्ट है कि वे उसके योग्य नहीं हैं l नेता जनता की रक्षा-सुरक्षा बनाये रखने में विफल रहते हैं l उसके प्रति अपनी कर्तव्य निष्ठा का ढोल पीटना हो और वे स्वयं उसकी रक्षा-सुरक्षा का कार्य करवाने के लिए दूसरे राष्ट्रों पर निर्भर रहते हों, उनसे मार्गदर्शन लेते हों l कोई उनसे पुछे कि दूसरे उनकी दुहाई क्यों सुनेंगे ? क्या पड़ी है उन्हें ऐसा करने की ? अपने राष्ट्र को दुखी, पीड़ित, बेसहारा, अपाहिज और अल्पवेतन भोगी लोग उनसे क्या आशा कर सकते हैं ? कौन करेगा उनकी रक्षा ? कैसे रह पाएंगे वे सुरक्षित, जब राष्ट्र का ही प्रशासन सोया हुआ हो l
जहां अन्यन्त्रित जनसंख्या बढ़ती है, वहाँ कृषि एवं वाणिज्य के नाम पर उत्पादन, निर्माण, और शिक्षण-प्रशिक्षण जैसे कार्यों में गति लानी आवश्यक होता है l जंगल सिकुड़ते जाते हैं l बाढ़ का प्रकोप बढ़ जाता है l पशु-पक्षियों की जातियों-प्रजातियों में भारी कमी आती है l बूचड़ खाने बनाये जाते हैं l पशुओं की हत्याएं की जाती हैं l पर्यावरण प्रदूषण फैलता है l खाद्य एवंम स्वास्थ्य वर्धक वस्तुओं में मिलावट होती है l जीवन उपयोगी वस्तुओं की गुणवत्ता में कमी होने के साथ-साथ उनका महंगा क्रय-विक्रय भी किया जाता है l अल्प समय में अत्याधिक लाभ कमाने हेतु असीमित भंडारण होता है l काला धन बढ़ता है l कालेधन से गैर-कानूनी कार्य होते हैं l
अत्याधिक लाभ कमाने हेतु असीमित भंडारण होता है l काला धन बढ़ाया जाता है l राजनेता काले धन से पथ भ्रष्ट होते हैं l गैर कानुनी कार्यं होते हैं l उच्च अधिकारियों को प्रसन्न रखने तथा अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए रिश्वत, घूस और कमीशन दी जाती है l जो न ले उसे बलात थमा दी जाती है l डराया धमकाया भी जाता है l ताकि वह उनका भंडा न फोड़ दे l माप-तोल और मोल में मनमानियाँ होती हैं l लाचार निर्धनों की अपर्याप्त. सीमित, चल-अचल सम्पदा पर प्रभावशाली लोगों के अवैध नियंत्रण, निर्माण, संबंधी कार्यं भी होते हैं पर फिर भी जन नायकों की दृष्टि में प्रशासन स्वच्छ एवंम कुशल ही होता है l मानो उपरोक्त कार्य राष्ट्रीय रक्षा-सुरक्षा, न्याय और सुव्यवस्था की मशीन को ग्रीस का काम करते हों l जननायकों के पास आवश्यक किये जाने वाले कार्य अधिक होते हैं l वे उनमें व्यस्त होते हैं l उन्हें प्रशासकों के द्वारा प्रशासन का कार्य ठीक चल रहा है, दिखाया जाता है, भले ही प्रशासन में ढेरों ही गलतियाँ और कमियां क्यों न हों l प्रशासक तो प्रशासन से संतुष्ट ही रहते हैं वह प्रशासन के स्वयं कर्ता-धर्ता जो होते हैं l प्रशासन उनकी इच्छा से चला आ रहा है और चलेगा भी l जननायकों का तो आना-जाना लगा रहता है l सरकारें बदलती रहती हैं l जन नायकों को प्रशासन से शिकायत कैसे हो सकती है ? उन्हें तो कुर्सी बचानी है, सरकार चलानी है l क्या पता वह आज है कल रहे या न रहे और सोई जनता आपनी आँखें खोले भी तो क्यों ? उसे राष्ट्र का शुभ चिन्तक जगाने का दुस्साहस भी क्यों करे ? परिस्थिति तो अभी ऐसी हुई नहीं है कि मेहनती पिसे चक्की, चापलूस मारे फक्के, राज करे महामूर्ख ज्ञानी खाए धक्के l
देश के प्रिय जननायकों ने राष्ट्र में लोकतंत्र की पुनार्स्थापना इस दृष्टि से की थी कि वह देश के लिए एक वरदान सिद्ध हो परन्तु उपरोक्त समस्त उपलब्धियों से विदित है कि प्रचलित लोकतंत्र देश के लिए अभिशाप के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है l हमसे कहीं भूल अवश्यं हुई है l क्या हम सब अभिभावक, शिक्षक, राजनीतिज्ञ और प्रशासक अब भी उस भूल को सुधारने का प्रयास करेंगे ? क्या वह एक कुशल एवंम स्वच्छ लोकतंत्र को साकार कर पाएंगे ? किसी विदेशी के पूछने पर कि भारत कैसा लोकतंत्र है ? उन्हें क्या वह उसकी यथार्थता बता पाएंगे ? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे हाथी के दान्त खाने के और, और दिखाने के और, मुहावरे को ही व्यक्त कर रहे हों !
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