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5. भारत जोड़ो – यह आज का नारा है

मातृवंदना अक्तूबर 2017 

अर्थात देश तोड़ने की बात बीते कल की हो गई है l अब देश जोड़ने की बात हो रही है l युगों से हमारा भारतवर्ष जो एक अध्यात्म प्रिय देश रहा है, आज भी वैसा ही है l सदियों पूर्व सोने की चिड़िया - अखंड भारत की अपार सुख-समृद्धि देख कुछ गिने-चुने आतताइयों ने हमारी अध्यात्म प्रियता, उदारता को ललकारा था, उसे हमारी कमजोरी समझा था l उन्होंने हिंसा, धर्मांतरण और आतंकवाद जैसे घृणित कार्यों को अपनी रणनीति का आधार बनाया था l उससे उन्होंने भारतवर्ष को लूटने आरंभ किया था l हमारा देश जब उनके द्वारा एक बार लुटना आरंभ हो गया तो वह बार-बार लुटता चला गया l यह निरंतर चलने वाला सिलसिला अभी तक थमा नहीं है l
सन 1857 के सर्वप्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हम सभी भारतीयों ने मिलकर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष किया था ताकि सभी स्वतन्त्र होकर सुखी जीवन यापन कर सकें, परन्तु समय-समय पर उन सांप्रदायिकवादी, विस्तारवादी, साम्राज्यवादी शक्तियों की विघटनकारी नीतियों से प्रेरित ऐसे अनेकों संगठनों का उदय हुआ, जिनकी सोच कार्यशैली भारतीय उदारवादी सोच “सबके सुख में अपना सुख और सबके दुःख में अपना दुःख“ समझने के स्थान पर सकुचित विचारधारा मात्र “अपनाहित”, “परिवारहित” और “राजनीतिक दलहित” सिद्ध करने तक सिकुड़कर रह गई l मानव समाज को जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर षड्यंत्र होने लगे और बांटा जाने लगा l परिणाम स्वरूप अखंड भारत के अभिन्न अंग माने जाने वाले तिब्बत, नेपाल, बर्मा, भूटान, पाकिस्तान, जैसे अन्य कई बड़े भू-भाग भारतवर्ष से अलग कर दिए गये और उन्हें विश्व मानचित्र पर नए राष्ट्र बना दिया गया l 15 अगस्त 1947 को आजादी पाने के पश्चात हम यह भूल गए कि हमने सन 1857 का सर्व प्रथम स्वतंत्रता संग्राम किसलिए लड़ा था ? दुर्भाग्यवश देश में आज भी विद्यमान ऐसे अनेकों असामाजिक तत्व संगठित हैं जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाति, धर्म, भाषा के नाम पर सांप्रदायिकवाद, उग्रवाद, अलगवाद, नक्सलवाद, और आतंकवाद जैसे अनेकों संगठन बनाये हुए हैं l वह सदियों पूर्व आतताइयों के दिखाए हुए पद चिन्हों पर ही चल रहे हैं l उनके लिए जनहित, समाजहित और राष्ट्रहित का कोई भी महत्व नहीं है l उनका राष्ट्रीय भावना से कुछ भी लेना-देना नहीं है l
सनातन कर्म-कांड और ज्योतिष विद्या को हर स्थान पर संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है l विद्वानों के विद्या सृजन के स्थलों की सीमायें दिन-प्रतिदिन सिकुड़ती जा रही हैं l विद्या अभ्यास, प्रतियोगिताएं और प्रयास घुट-घुटकर जीने के लिए बाध्य हैं l वैदिक विद्याओं के सृजन, पोषण और संवर्धन पर संकट के बादल छा रहे हैं l
पाश्चात्य शिक्षा की विषलता आज सुनियोजित ढंग से निश्चिन्त होकर फ़ैल-फूल रही है l भ्रष्ट प्रशासन के द्वारा उसका बढ़-चढ़कर पोषण भी किया जा रहा है l देशभर में शिक्षा का व्यापारीकरण जोरों पर हैं l किसी समय अपने आप में सशक्त, सक्षम और विश्वभर में अपनी तूती का डंका बजा चुकी सुव्यवस्था, संस्कार प्रदान करने वाली, जन उपयोगी परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को आज अनावश्यक, अनुपयोगी समझा जा रहा है l
वर्तमान पाश्चात्य शिक्षा–प्रणाली देश, समाज और जन साधारण को एक दूसरे से अलग करती जा रही है l घर में बच्चे माता-पिता, दादी-दादा, ताई-ताया, चाची-चाचा जैसे परम प्रिय संबोधनों को लगभग भूल चुके हैं, मात्र माता-पिता को ममी-पापा और अन्य सभी को आंटी-अंकल ही कहते हैं l बच्चों के द्वारा अपने माँ-बाप की आज्ञा न मानना, बात-बात पर उनका निरादर करना, नशा करना, आवश्यकता पूरी न हो तो माँ-बाप को आँख दिखाना और उनकी मारपीट भी करना वर्तमान में साधारण बात हो गई है l क्या यह भारतीय संस्कृति है ? क्या हम भारत वासी हैं ? क्या भारतीय संस्कृति की रक्षा पश्चिम वाले लोग करेंगे ? देश में भारतीय संस्कृति की रक्षा कैसे होगी ? क्या भारत का विश्वगुरु बनने या बनाने का हम सबका सपना मात्र सपना ही रह जायेगा ?

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