2022 | मानवता - Part 4

मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



साल: 2022

  • श्रेणी:,

    2. कर्तव्य – सेवा ज्ञान का महत्व

    आलेख – मातृवंदना 2022 फरवरी

    ईश्वर अजर, अमर, अविकारी, सर्वव्यापक और निराकार है l वह निर्जीव में भी है और सजीव में भी l वह सबके भीतर भी है और बाहर भी l अर्थात वह कण-कण में विद्यमान है l जीव ईश्वर का अंश है l मानव शरीर की आकृति का प्रादुर्भाव परिवर्तनशील प्रकृति जल, वायु, मिट्टी, अग्नि और आकाश से होता है l मनुष्य के जन्म का पहला साँस और मृत्यु के अंतिम साँस का मध्यकाल, उसका जीवन काल होता है l हर प्राणी की मृत्यु होना निश्चित है, मृत्यु अवश्य होती है, प्रकृति नाशवान है l

    ऋषियों ने मानव जीवन काल को चार अवस्थाएं प्रदान की हैं – ब्रह्मचर्य जीवन, गृहस्थ जीवन, वानप्रस्थ जीवन, और सन्यास जीवन l इनके सबके अपने -अपने दायित्व हैं l ब्रह्मचर्य जीवन में ज्ञान अर्जित करना, गृहस्थ जीवन में संतानोत्पत्ति करना, वानप्रस्थ जीवन में यम नियमों का पालन करते हुए शरीर, मन, बुद्धि का शुद्धिकरण करना एवंम सत्सनातन तत्व जानना और सन्यास जीवन में सत्सनातन तत्वका मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार करना दायित्व है l मानव जीवन का उद्देश्य-जीवन में चार फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति करना है l


    जीव को मानव शरीर में इन्द्रियां, मन, बुद्धि अज्ञान वश अपने अधीन करके रखती हैं, उनसे मनुष्य द्वारा जीव को सहज में मुक्त नहीं किया जा सकता, उसकी मुक्ति के लिए मनुष्य को वेद विधि-विधानानुसार यत्न करना पड़ता है l ऋषियों का मानना है कि परिवर्तनशील प्रकृति तीन सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों से युक्त है l नाशवान प्रकृति में रहते हुए जीव समय-समय पर इन त्रिगुणों से प्रभावित होता रहता है l

    त्रिगुण संपन्न प्रकृति से मनुष्य जाति के गुण, संस्कार और स्वभाव में समय-असमय पर बदलाव होते रहते हैं l अपनी मनोवृत्ति अनुसार मनुष्य कभी सात्विक ,कभी राजसिक और कभी तामसिक संगत करता है l ऐसी किसी संगत के ही अनुसार उसकी वैसी भावना उत्पन्न होती है l उस भावना अनुसार उस का वैसा विचार उत्पन्न होता है, अपने विचार के अनुसार वह वैसा कर्म करता है और फिर अंत में उसके द्वारा किये हुए कर्मानुसार ही उसे वैसा फल भी मिलता है l यही प्रकृति का अटूट नियम और
    सका कटु सत्य हैl

    सृष्टि में हर पहलु के अपने दो पक्ष होते हैं – अच्छा और बुरा l अच्छे कार्य का जनमानस पर अच्छा प्रभाव होता है l इसलिए समाज में उसकी हर स्थान पर प्रसंशा होती है और बुरे का बुरा प्रभाव होता है जिस कारण उसकी सर्वत्र निंदा होती है l अतः मनुष्य जाति का सदैव पहले वाले पक्ष का साथ देने और दूसरे का विरोध करना चाहिए l


    घर परिवार के आपसी व्यवहार में वाणी बहुत महत्वपूर्ण होती है l बोलचाल के ढंग ने जहाँ कई घरों को जोड़ा है, वहां अनेकों को तोड़ा भी है l रिश्ते निभाने में शब्द अमृत भी बन जाते हैं और जहर भी l शब्दों में आत्मीयता होनी चाहिए जिसमें भावनाएं भरी हों l हृदय से बोले और हृदय से सुने गए शब्द ही अमृत समान होते हैं l घर परिवार में एक दूसरे के प्रति विश्वास होना चाहिए l नहीं तो यह वो भूकंप है जो मधुर रिश्तों में दरार पैदा कर देता है और एक दिन उन्हें समाप्त भी कर देता है l सदा मीठा नहीं खाया जा सकता पर कुछ खट्टा, कुछ मीठा दोनों के स्वाद से हम अपनी परिवार रूपी बगिया को अवश्य महका सकते हैं l


    प्रेम, त्याग, समर्पण, सहयोग, सहभागिता और सेवा की भावना परिवार के मुख्य गुण है, परिवार को संगठित और सशक्त करते हैं l जिस परिवार में ऐसे गुण विद्यमान होते हैं, उस परिवार के किसी भी व्यक्ति को अन्यत्र स्वर्ग ढूंढने की आवश्यकता नहीं होती है l सशक्त परिवार अर्थात माता-पिता ही बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकते हैं, उन्हें सशक्त बना सकते हैं l


    माँ के गर्भ में पोषित होने से लेकर, बच्चे का जन्म लेने के पश्चात् पाठशाला जाने तक पहला और दूसरा गुरु माता-पिता ही होते हैं l माता-पिता बच्चों को संस्कार देते हैं l तीसरा गुरु विद्यालय में गुरुजन होते हैं जो उन्हें तात्विक या विषयक शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उनका भविष्य निर्माण करते हैं l तीनों गुरु पूजनीय हैं l माता-पिता के रहते हुए घर और गुरु के रहते हुए विद्यालय दोनों विद्या मंदिर होते हैं l घर में माता-पिता के सान्निध्य में रहकर बच्चे संस्कारवान बनते हैं जबकि विद्यालय में गुरु के सान्निध्य में रहने से शिष्य अपने विषय में पारंगत, समर्थ, सशक्त युवा बनते हैं l सशक्त युवाओं के कन्धों पर ही भारत का भविष्य टिका हुआ है l


    सशक्त युवाओं को उनके गुण, संस्कार और स्वभाव से जाना जाता है l सशक्त युवाओं से सशक्त परिवार बनता है l सशक्त परिवार सशक्त गाँव का निर्माण करते हैं l सशक्त गाँवों से सशक्त राज्य बनते हैं l सशक्त राज्यों से देश सशक्त होता है l सशक्त देश से सशक्त विश्व की आशा की जा सकती है l यह बात किसी को नहीं भूलनी चाहिए कि मनुष्य को उसके कर्मों से जाना जाता है, उसके परिवार से नहीं l


    ब्रह्म भाव में स्थिर रहकर ब्रह्मतत्व का विश्व कल्याण हेतु प्रचार-प्रसार करने वाला कोई भी युवा ब्रह्मज्ञानी ज्ञानवीर हो सकता है l क्षत्रिय भाव में स्थिर रहकर जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा शूरवीर हो सकता है l वैश्य भाव में स्थिर रहकर गौ-सेवा, कृषि और व्यापार से जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा धर्मवीर हो सकता है l शूद्र्भाव में स्थिर रहकर हस्त-ललित कला, लघु एवंम कुटीर उद्योग से जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा कर्मवीर हो सकता है l


    संसार में हर युवा को उसके गुण, स्वभाव और संस्कार से जाना जाता है l इसी कारण ज्ञानवीर की तत्वज्ञान से, रणवीर की पराक्रम से, धर्मवीर की कर्तव्य परायणता से और कर्मवीर की कर्मशीलता से पहचान होती है l वह अपने गुण, संस्कार और स्वभाव के अनुसार अपने माता-पिता, गुरु, समाज, राष्ट्र और संसार की सेवा/कल्याणकारी कार्य करता है और बदले में उसे धन, बल व यश की प्राप्ति होती है l



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    1. स्वाधीनता – हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है

    मातृवंदना जनवरी 2022 

    लोकमान्य तिलक जी ने कहा था - स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, हम उसे लेकर रहेंगे l 15 अगस्त 1947 से राजनीतिक दृष्टि से विश्व मानचित्र पर भारतवर्ष एक स्वतंत्र राष्ट्र है l उसका एक अपना संविधान है l दुसरे राष्ट्रों की भांति भारतवासी भी हर वर्ष अपना स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं l क्या स्वाधीनता जन साधारण तक पहुंच पाई है ?
    सदियों पूर्व हमारे देश भारतवर्ष को कमजोर करने के लिए आतताइयों ने अपने हित में साम, दाम, दंड और भेद से अनेकों षड्यंत्र आरम्भ किए थे l स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में संगठित राष्ट्र विरोधी शक्तियां आज भी सक्रिय हैं l ऐसा लगता है कि हमें अभी स्वतंत्रता की एक और लड़ाई लड़ना बाकी है l हमारे अपने जीवन से संबंधित संबोधन, वाचन, और श्रवण, पहनावा, दिनचर्या, खाना-पीना, रहन-सहन सब विदेशी हैं l शायद इसलिए कि हम लम्बे समय तक पराधीन रहे हैं, हम विदेशी सभ्यता-संस्कृति के प्रभाव में आकर उसके उपासक बन गए हैं l
    भारत की पाठशालाओं से लेकर विद्द्यालय, महा विद्द्यालय, विश्व विद्द्यालय तक सभी का शिक्षा माध्यम अंग्रेजी भाषा है l देश के हजारों विद्द्यार्थी अंग्रेजी में पढ़ने के लिए विदेशों में जाते हैं और काले अंग्रेज बनकर लौटते हैं l हमें ज्ञान–विज्ञान विकसित करने के लिये विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है l चिकित्सालयों में हम हर रोग का निदान अंग्रेजी चिकित्सा पद्दति से करवाना अच्छा समझते हैं l युगों से भारतवर्ष गौवंश का पोषक रहा है लेकिन हम गौवंश के स्थान पर मशीनों के सहारे खेती का कार्य करते हैं, यह जानते हुए भी कि गौवंश खेती के लिए कितना उपयोगी है ? अधिक पैदावार चाहने की लालसा से हम खेती में घातक कीटनाशक दवाईयों का छिड़काव, रासायनी खाद का धुंआंधार प्रयोग, दुधारू पशुओं एवम् फल-सब्जियों का टीकाकरण करते हैं l इससे खाद्द्य, पेय पदार्थों से पौष्टिकता विलुप्त हो रही है l अब खेत घातक दवाईयों व रासायनी खाद के कुप्रभाव से जहर उगलने लगे हैं l अन्न, दूध, फल, साग-सब्जियां खाद्द्य और पेय पदार्थ सब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो गए हैं l ऐसा जानकर भी हम अनजान बने हुए हैं, समाज में अनेकों समस्याएं और घातक रोग उत्पन्न हो रहे हैं l देशभर में पर्याप्त मानवी ऊर्जा होते हुए भी हम उसके स्थान पर मशीनों और मशीनी उत्पादन को बढ़ावा दे रहे हैं l युवावर्ग अपने परम्परागत कार्यों से निरंतर कट रहा है l वह हर जगह बेरोजगार दिखाई दे रहा है l उसमें दिन-प्रतिदिन अपराध की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं l
    स्वतंत्रता की दृष्टि से भारतवर्ष कभी अपने स्वाभिमान के लिए विश्व विख्यात था l देश इतना समृद्ध एवम् वैभवशाली था कि वह सोने की चिड़िया के नाम से सर्वत्र जाना जाता था l भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों के द्वारा जिन जग-हितकारी कार्यों का शुभारम्भ किया गया था, उन्हें निरंतर जारी रखने की आवश्यकता थी, पर हम आये दिन उन्हें भूलते जा रहे हैं l बच्चों को गुरुकुलों में सत्य पर आधारित वैदिक शिक्षा दी जाती थी l संस्कृत भाषा शिक्षा का माध्यम थी l अपना हर ज्ञान-विज्ञान सम्पूर्ण विकसित था जिसे पढ़ने और सीखने के लिए विदेशों से हजारों विद्द्यार्थी हमारे देश में आते थे l चिकित्सालयों में आयुर्वेदाचर्यों द्वारा हर रोगी की चिकित्सा आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्दति से करवाई जाती थी l
    सावधान ! 15 अगस्त 1947 से भारत स्वाधीन है मगर क्या वह स्वाधीनता जन साधारण तक पहुँच पाई है, नहीं ना ? आज हर कोई किसी न किसी रूप से पराधीन अवश्य है l देशभर में अब भी ऐसे अनेकों षड्यंत्र जारी हैं जिनसे देश की अखंडता पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं l अगर हमने विदेशी सभ्यता-संस्कृति का परित्याग करने में देरी की, अपने घर में छिपे हुए गद्दारों को पहचानकर उन्हें अलग-थलग नहीं किया और भारतीय वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों द्वारा दर्शाए गए दिव्य मार्ग को अपने जीवन में नहीं अपनाया तो वह दिन दूर नहीं कि हम विदेशियों के द्वारा रचे गए चक्कर-व्यूह में फंसकर अपने ही घर में अपने आप राजनैतिक दृष्टि से पुनः पराधीन हो जायेंगे l अनेकों सदियाँ बीत जाने के पश्चात् ही बड़ी कठिनता से डूबते हुए बेड़े को किनारे लगाने हेतु किसी एक महान, कुशल मल्लाह का जन्म होता है l अगर हम समय रहते उसे शीघ्रता से नहीं पहचान पाए, हमने उसका साथ नहीं दिया तो यह भी निश्चित है कि हमसे पुनः एक और बहुत बड़ी चूक हो जाएगी l