मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



महीना: अप्रैल 2022

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    5. स्वातन्त्र्य आन्दोलन में आध्यत्मिक गुरुओं का योगदान

    मार्च-अप्रैल 2022 मातृवंदना 

    मनुष्य जीवन में गुरु मनुष्य जीवन में गुरु का महत्वपूर्ण और सर्वोच्च स्थान है l भारतीय संस्कृति में सबसे पहला गुरु माता को माना गया है l शिशु के बड़ा होने पर उसे अक्षर ज्ञान देने वाला गुरु उसके बाद आता है l अध्यात्म और भक्तिमार्ग में दिशा देने वाला गुरु उसके बाद आता है l विश्व की सभी मानव सभ्यताओं में व्यक्ति को गुरु की आवश्यकता रहती है l आप चाहे गुरु, टीचर, शिक्षक या उस्ताद जो भी कहें, उनका मुख्य धर्म है अपनी शरण में आये बालक को दिशा देना और उसकी जिज्ञासा का समाधान करना l
    भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान का दर्जा प्राप्त है l व्यक्ति के जीवन और सम्पूर्ण समाज पर छाए संकट के बादल के समय गुरु मार्गदर्शक बन ढाल बन जाता है l परतंत्रता काल में अध्यात्मिक गुरुओं ने समाज को देश और धर्म की रक्षा हेतु तथा अनेकों राष्ट्र भक्त और सैनिकों को बलिदान हेतु प्रेरित किया l मुगलकाल में छत्रपति शिवाजी समर्थ गुरु रामदास की प्रेरणा से मराठा सम्राज्य से हिन्दवी साम्राज्य की स्थापना करने में समर्थ हुए l इससे पूर्व आदि शंकराचार्य दशनामी समुदाय के शिष्यों ने आगे चलकर स्वतंत्रता आन्दोलन में ही सक्रिय भूमिका निभाई और अनेक राज-महाराजाओं को संघर्ष के लिए प्रेरित किया l आर्य समाज के संस्थापक महाऋषि दयानंद आजीवन मातृभूमि की रक्षा हेतु शस्त्र और शास्त्र दोनों तरह से समाज को प्रेरित करते रहे l अनेकों क्रन्तिकारी उनसे प्रेरणा प्राप्त करते थे l स्वामी श्रद्धानंद ने वैदिक प्रचार और धर्म, संस्कृति शिक्षा, और दलित समाज के उद्धार के लिए अनेकों देश भक्तों को प्रेरित किया और स्वयं भी आजीवन क्रन्तिकारी सन्यासी के रूप में जूझते रहे l
    स्वामी दयानंद सरस्वती जी -
    इनका बचपन का नाममूल शंकर था l इनका जन्म 12 फरवरी 1824 में टंकारा-काठियाबाड़मोरवी,राज्य-गुजरात में हुआ था l इनके पिता श्री करशन जी लाल जी तिवारी एक कलेक्टर होने के साथ-साथ शिव-भक्त, ब्राह्मण परिवार से धनी, समृद्ध और प्रभाव शाली व्यक्ति थे l उनके आदेशानुसार मूल शंकर ने शिवरात्रि के दिन व्रत रखा l आधी रात में शिव मूर्ति पर चूहों को प्रसाद खाते देख उनका मूर्ति पूजा का विश्वास टूट गया और इन्होंने सच्चे शिव को पाने की लग्न में 22 वर्ष की आयु में घर से निकल पड़े l दंडी स्वामी पूर्णानंद जी से इन्हें सन्यास की दीक्षा मिली और स्वामी दयानंद सरस्वती नाम से विख्यात हुए l इसके पश्चात् इन्होंने ज्वालानंद गिरी तथा शिवानन्द गिरी से क्रिया समेत पूर्ण योग विद्या प्राप्त की और गुरु विरजानंद सरस्वती से वेद एवं संस्कृत व्याकरण की शिक्षा प्राप्त की l गुरु दक्षिणा में शिष्य दयानंद ने आजीवन वेद तथा आर्ष ग्रन्थों के प्रचार-प्रसार का प्रण लिया जिसे इन्होंने आजीवन निभाया l वैदिक धर्म प्रचार-प्रसार करते हुए इन्होंने 10 अप्रैल 1875 में “आर्य समाज” की स्थापना की जिसने राष्ट्र निर्माण और देश की स्वतंत्रता के लिए सराहनीय कार्य किया l स्वामी जी अपने उपदेशों के माध्यम से युवाओं में देश-प्रेम और देश-भक्ति की भावना भरकर स्वतंत्रता के लिए मर मिटने की भावना पैदा किया करते थे l स्वामी दयानंद जी ने स्वराज का नारा दिया था जिसे माननीय लोकमान्य तिलक जी ने आगे बढाया था l शहीद भक्त सिंह, वीर सावरकर, मदन लाल ढींगरा, राम प्रसाद विस्मिल, अशफाक उल्ला खान तथा लाला लाजपतराय जैसे क्रांतिवीरों ने आर्य समाज से ही प्रेरणा पाई थी l स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने वेद मन्त्रों की व्याख्या की जिसकी मुक्त कंठ से प्रसंशा करते हुए महऋषि अरविन्द जी ने अपनी पुस्तक ”वेदों का रहस्य” में लिखा है दयानंद ने हमें ऋषियों के भाषा-रहस्य समझाने का सूत्र दिया तथा वैदिक धर्म के मूलभूत सिद्धांत को रेखांकित किया l विविध नामों वाले देवता एक ही ईश्वरीय सत्ता की विविध शक्तियों को दर्शाते हैं l l
    स्वामी दयानंद जी मानते थे कि ज्ञान की कमी ही हिन्दू धर्म में प्रक्षिप्त अंशों की मिलावट का कारण है l इन्होंने अपने शिष्यों को वेदों का ज्ञान सिखाने और उनके लिए ज्ञान का प्रचार करने के लिए अनेकों गुरुकुल स्थापित किये थे l इन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त समाजिक कुरीतियों, बाल विवाह, सती प्रथा, तथा अंध विश्वास और रुढियों, बुराइयों का निर्भयता पूर्वक विरोध किया था l इन्होंने महिलाओं के अधिकारों का और विधवा पुनर्विवाह का भरपूर समर्थन किया था l एक बार किसी चर्मकार के हाथों रोटी खाने पर किसी ने इनसे पूछा – आपने एक चर्मकार की रोटी क्यों खाई ? तब इन्होंने कहा – रोटी चर्मकार की नहीं, गेहूं की थी l इन्होंने अपने जीवन काल में अनेकों आर्ष ग्रंन्थों की रचना की थी l इन सबमें “सत्यार्थ प्रकाश” एक प्रमुख रचना है जो वेद सम्मत असत्य का खंडन और सत्य का मंडन करती है l इन्हें वर्तमान भारत में वेदों का उद्धारक भी कहा जाता है l इनका “आर्य समाज की स्थापना” करने के पीछे हिन्दू समाज में वेदों के प्रति जाग्रति लाना प्रमुख उद्देश्य था l
    महर्षि अरविन्द घोष जी -
    अरविन्द घोष जी एक योगी और दार्शनिक थे l उनका 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता में जन्म हुआ था l उनके पिता एक डाक्टर थे l वे इन्हें उच्च शिक्षा दिलाकर उच्च पद दिलाना चाहते थे l सात वर्ष की अल्पायु में इन्हें लन्दन भेजा गया था l अठारह वर्ष की आयु में इन्होंने आईसीएस की परीक्षा उतीर्ण कर ली थी l वे अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक और अटैलियन भाषाओँ में निपुण हो गए थे l देशभक्ति से प्रेरित होकर इस युवा ने घुड़सवारी की परीक्षा देने से मना कर दिया और देश सेवा करने की ठान ली l इनकी प्रतिभा से बड़ोदा नरेश बड़े प्रभावित हुए l इन्होंने उनके राज्य में शिक्षा के क्षेत्र में शास्त्री, प्राध्यापक, वाइस प्रिंसिपल, निजी सचिव आदि पदों पर रहकर अपनी योग्यता का प्रमाण दिया था और हजारों छात्रों को चरित्रवान, देश-भक्त भी बनाया था l 1896 से 1905 तक इन्होंने बड़ोदा के राजस्व अधिकारी से लेकर कालेज के फ्रेंच के अध्यापक और उपाचार्य रहने तक राज्य की सेना में क्रांतिकारियों को शिक्षण दिलाया और दीक्षा भी दिलाकर दीक्षित भी करवाया l इन्होंने राज्य मं0 रहकर उनके लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक योजना बनाई थी l
    लार्ड कर्जन द्वारा बंग भंग योजना रखने पर विरोध में एक आन्दोलन हुआ जिसमें इन्होंने सक्रीय रूप में भाग लिया l उन्हीं दिनों “नेशनल ला कालेज” की स्थापना हुई थी जिसमें इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा था l मात्र पचहतर रूपये मासिक वेतन पर इन्होंने अध्यापन कार्य आरम्भ किया l वे धोती, कुर्ता और चादर पहनते थे l बाद में वे राष्ट्रीय विद्यालय से अलग हो गए और “वन्दे मातरम पत्रिका” का सम्पादन करने लगे l ब्रिटिश सरकार इनके आन्दोलन से बड़ी आतंकित थी lइन्हें उनके समर्थक कुछ युवाओं सहित बंदी बना लिया गया और अलीपुर जेल भेज दिया l इनके मुकदमें की पैरवी बैरिस्टर चितरंजन दास ने की थी और उन्होंने इन्हें सभी आरोपों से मुक्त करवा लिया था l इन्होंने जीवन के अंतिम पड़ाव में पांडिचेरी में एक आश्रम की स्थापना की थी जहाँ पांच दिसम्बर 1950 को इनकी मृत्यु हो गईl
    इन्हें जेल में हिन्दू धर्म एवं हिन्दू राष्ट्र विषयक अध्यात्मिक अनुभूति हुई थी l वे गीता पढ़ा करते थे और श्रीकृष्ण जी की आराधना किया करते थे l कहा जाता है – जब वे जेल में थे तब उनको जेल में साधना के दौरान श्रीकृष्ण जी के साक्षात दर्शन भी हुए थे lउनकी प्रेरणा से ही वे क्रांतिकारी आन्दोलन छोड़कर योग और साधना में रम गए थे l जेल से बाहर आकर उन्होंने किसी भी आन्दोलन में भाग नहीं लिया l इन्होंने अपने जीवनकाल में अनेकों ग्रंथों की रचना की जो युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं l इनका मानना था कि “समग्र जीवन दृष्टि मानव के ब्रह्म में लीन या एकाकार होने पर विकसित होती है l ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण द्वारा मानव महामानव बन जाता है l अर्थात वह सत, रज और तम की प्रवृत्तिओं से ऊपर उठकर ज्ञानी बन जाता है l महामानव की स्थिति में व्यक्ति सभी प्राणियों को अपना ही रूप समझता है l” इनका कहना है कि “हमारा वास्तविक शत्रु कोई बाहरी ताकत नहीं है, बल्कि हमारी खुद की कमजोरियों का रोना, हमारी कायरता, हमारा स्वार्थ, हमारा पाखंड और हमारा पूर्वाग्रह है l”