मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



साल: 2020

  • श्रेणी:

    लाकडाउन पर भारी निस्वार्थ सेवा

    सामाजिक जन चेतना – 13

    वैश्विक कोविड-19 संक्रमण का प्रादुर्भाव कब और कहाँ हुआ ? यह महत्व पूर्ण नहीं है l इसे नियंत्रित कैसे किया जा सकता है ? यह ज्यादा महत्वपूर्ण है l जब से भारत कोविड-19 संक्रमण की पाश से बंधा है तब से भारत सरकार देशवासियों को अविलम्ब जागरूक कर रही है और उसके द्वारा इस भयानक रोग से लोगों के लिए बचाव के निरंतर प्रयास जारी हैं l

    1. अपने-अपने घर की छतों पर थालियाँ बजाओ, दीप जलाओ जिससे चिकित्सा कार्य में लगे डाक्टर/नर्सों को अहसास हो कि वे ही इस बचाव कार्य में अकेले नहीं हैं, देश की 130 करोड़ की जनता भी उनके साथ है l
    2. सभी जन अपने-अपने घर में रहो, सुरक्षित रहो l
    3. आप अपने घरों में रहो और घर का ही बना खाना खाओ l
    4. पुनः उपयोग होने वाला, घर का बना फेस कवर/मास्क पहनो l
    5. सार्वजनिक स्थलों पर सदा दूसरों से 2 गज (6 फुट) की दूरी बनाकर रखें l
    6. सार्वजनिक व अधिक भीड़–भाड़ वाले स्थलों पर जब आप दूसरों से सुरक्षित दूरी बनाकर न रख सकें, तो अपना मुंह और नाक फेस मास्क से ढक लें l
    7. खांसते और छींकते समय मुंह को कोहनी या टिशु से ढक लें l
    8. अपने हाथ साबुन और पानी से नियमित तौर पर बार-बार अच्छी तरह धोयें l घर पर उन जगहों को कीटाणु रहित रखें जहाँ अक्सर आपके हाथ लगते रहते हैं l
    9. घर से बाहर सार्वजनिक स्थलों पर कभी अपनी आँखें, नाक और मुंह न छुएं l
    10. दस वर्ष से कम आयु वाले बच्चे और 65 वर्ष से अधिक आयु वाले वृद्ध अनावश्यक घर से बाहर न निकलें l बाहर कोविड -19 संक्रमण महामारी है, घर में नहीं l
    11. बदलकर अपना व्यवहार, करो सदा कोरोना पर वार l
    12. घर पर रहने के बारे में अपनी स्थानीय सरकार के निर्देशों का सदैव पालन करें l
    13. इसमें कोई दो राय नहीं कि निजी रक्षा–सुरक्षा के उपायों का पालन करके ही हम, आप, सब कोविड -19 के संक्रमण से खुद को सुरक्षित रख सकते हैं l

     सरकार का मानना है कि अभी तक यह साफ नहीं हो सका है कि पर्यावरण में होने वाले किसी बदलाव का असर कोरोना के संक्रमण पर पड़ता है या नहीं l दुनियां भर के विज्ञानिकों के द्वारा कोरोना के संक्रमण पर शोध कार्य अभी जारी है l लोकतंत्र की सफलता सरकार की जनहित नीतियों के प्रति देशवासियों के द्वारा अमुक प्रतिशत में मिलने वाले समर्थन से आंकी जा सकती है l देशभर में लाक डाउन लगने के पश्चात् देश की सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं का मात्र एक ही उद्देश्य रहा है कि लाक डाउन में कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, भूखा न सोये l

    इस कार्य में फेसबुक व सोशल मिडिया भी पीछे नहीं रहा l देश का युवा वर्ग जो कल तक प्यार मुहबत में डूबा था, की अचानक सोच बदल गई और उसने सोशल मिडिया को ही समाज सेवा का माध्यम बना लिया l देखते ही देखते सोशल मिडिया पर देशभर के कई समाज सेवी ग्रुप उभर आये और वे समाज सेवा कार्य में सक्रिय हो गए l

    इसी क्रम में हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा, गाँव सुल्याली का युवा वर्ग भी पीछे नहीं रहा l उसे सोशल मिडिया में देश की सक्रिय “युवा शक्ति” से प्रेरणा मिली कि सुल्याली गाँव व उसके आस-पास के क्षेत्रों में भी जिनमें कुछ दैनिक कमाने वाले परिवारों की हालत बड़ी दयनीय है, उनके लिए कुछ किया जाये l एक तरफ लाक डाउन से सब बंद पड़ा है और दूसरी ओर उन निर्धन परिवारों के लिए मुसीबतों का पहाड़ खड़ा है l उनके पास आवश्यक खान-पान का सामान भी उपलब्ध नहीं है l वे बाजार से खाद्य पदार्थ खरीदने में असमर्थ हैं l

    अल्प समय में सुल्याली गाँव के युवाओं ने सोशल मिडिया के अंतर्गत फेसबुक पर “सुल्याली विकास मंच” के नाम से एक ग्रुप बनाया और अपनी इच्छा से गाँव के धनाड्डय व समर्थवान परिवारों से धन-राशि और आवश्यक खाद्द्य पदार्थ एकत्रित किये l उन्होंने लाक डाउन में बड़े साहस के साथ सुल्याली गाँव व उसके आस-पास के क्षेत्रों में 40 से अधिक निर्धन परिवारों में उस धन-राशि और खाद्द्य पदार्थों का वितरण किया जो निर्धन परिवार बे-वशी से जूझ रहे थे और काफी हद तक खाद्द्य पदार्थ जुटा पाने में भी असमर्थ थे l

    प्रकाशित नवंबर 2020 मातृवंदना 


  • श्रेणी:

    जिंदगी से कला जोड़ो, नशा नहीं

    मानव जीवन दर्शन – 5

    जीना भी एक कला है। जो युवा कलात्मक विधि से जीना सीख जाता है, वह मानों उसके लिए सोने पर सुहागा। कलात्मक विधि से जीने के लिए युवा का किसी न किसी कला के साथ जुड़े रहना अति अवश्यक है। इसके लिए युवा को मांस-मदिरा सेवन और धू्रम्रपान करने से सदैव दूर रहना चाहिए। इन वस्तुओं का सेवन करने से मानव जीवन में दुष्प्रभाव पड़ता है, तरह-तरह की विसंगतियां उत्पन्न होती हैं जो जीवन विकास के लिए वाधक होती हैं। वैसे भी सनातन धर्म इनका सेवन करने की किसी को आज्ञा नहीं देता है अपितु सावधान ही करता है।

     किसी ने ठीक ही कहा है कि “जिंदगी से कला जोड़ो, नशा नहीं।” जिंदगी में जब कोई भी व्यक्ति खाद्य पदार्थ या पेय रस का निर्धारित मात्रा या आवश्यकता से अधिक सेवन करता है तो उससे उसके शरीर का पाचन तंत्र अव्यवस्थित होता है और इससे आगे जिन पदार्थों का वह बार-बार सेवन करता है, उन्हें एक पल के लिए भी भूलता नहीं है, मात्र नशा करना कहलाता है। उनमें दारू या शराब प्रमुख है। इतना ही नही, किसी पार्टी, विवाह-शादी, स्वागत या विदाई समारोह के समय पर शराब का वितरण करना भी एक फैशन बन गया है। जिस समारोह के आयोजन में शराब वितरण न हो, उसे एक अच्छा आयोजन नहीं कहा जाता है।

    इसके लिए बालीवुड सिनेमा उद्योग भी कम उत्तरदायी नहीं है। उसमें देश, धर्म-संस्कृति के हित की कोई भी बात ना होकर मात्र पैसा ही कमाना उसका उद्देश्य बनकर रह गया है। यही नहीं वह समाज को नशा करने हेतु प्रेरित भी कर रहा है जिससे निरंतर अपराध प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है।

    देशभर में जहां लोग सुवह-शाम मंदिरों में जाते थे, घंटियां बजाकर देवी-देवताओं की आरती किया करते थे। आज शायद ही कोई ऐसा गांव बचा होगा जहां शराब की दुकान ठेका ना खुला हो। साएं होते ही वहां शराब खरीदने वालों की लंबी कतारें देखी जा सकती हैं। उनमें अधिकतर वे ही लोग अधिक दिखाई देते हैं जो दिहाड़ीदार होते हैं।

    आधुनिक काल विकासवाद का युग है। संस्कार और शिक्षा की सुगंध जो विद्यार्थी के आचरण और व्यवहार में दिखाई देनी चाहिए थी, के स्थान पर नवयुवा/नवयुवतियां जीवन की दिशा से अनभिज्ञ या जीवन दिशा से भ्रमित होकर कैफे, रैस्टोरैंट, या होटलों में आयोजित होने वाली छोटी या बड़ी पार्टियों में जाकर पवित्र रिस्तों की धज्ज्यिां उड़ाते दिखाई देते हैं। वे वहां अनैतिक संबंध बनाकर पलभर में ही अपना सब कुछ खो बैठते हैं जो उन्हें जीवन में भविष्य के लिए सम्भाल कर रखना होता है।

    गांजा, सुलफा, सुमैग, हेरोइन, पोस्त, हफीम, चर्स, और चिट्टा जो नशे के विभिन्न रूप हैं, ने आज दारू या शराब को भी पीछे छोड़ दिया है। इन पदार्थाें का युवावर्ग में तेजी से प्रचलन बढ़ रहा है। ऐसे व्यवसाय का साम्राज्य फैलाने में राज्य या क्षेत्र स्तरीय “नशा अपराध तंत्र” की गैंग में सक्रिय स्मगलरों और उनके अजैंटों के रूप में आपसी बड़ी भूमिका रहती है जो किसी न किसी प्रकार नशा-पदार्थों को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। इस कार्य में उनके सिर पर हर समय संकट की घंटी बजती रहती है। फिर भी वह इस अपराधिक कार्य को अवश्य करते हैं। या तो वह पुलिस टीम द्वारा पकड़े जाते हैं, जेल की सलाखों के पीछे पड़े सड़ते रहते हैं या उसकी गोली ही का शिकार बनते हैं।

    श्री मद् भगवद्गीता के अनुसार जीवन का यह भी एक कड़वा सत्य है कि मनुष्य अच्छाई की अपेक्षा बुराई की ओर अतिशीघ्र आकृष्ट होता है। कोई भी व्यक्ति जो जैसी संगत करता है, उसकी वैसी भावना पैदा होती है। उसकी जैसी भावना होती है, उसके वैसे विचार पैदा होते हैं। उसके जैसे विचार हों, वह वैसा ही कर्म करता है और वह जैसे कर्म करता है, उसे वैसा फल अवश्य मिलता है।

    इसमें कोई दो राय नहीं कि आज का मनुष्य अपनी जीवन शैली से पूर्णरूप से अनभिज्ञ है या जीवन दिशा से भ्रमित हो गया है। उसका जीवन निरंतर आत्म पतन की ओर अग्रसर हो रहा है। वह इस अंधकूप से बाहर निकल कर पुनः सुख-समृद्धि से परिपूर्ण अवश्य हो सकता है अगर वह जीने के लिए कला प्रेमी बन सके और कलात्मक विधि से जीना सीख जाए। उसे अपना आनंददायक जीवन जीने के लिए विधि पूर्वक अपनी किसी न किसी मन पसंद कला (संगीत, वादन, नृत्य, निर्माण, अभिनय, लेखन, भाषण या चित्रकला) के साथ जुड़ना अति आवश्यक है।

    प्रकाशित अक्तूबर 2020 मातृवंदना


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    आतताई नहीं, मानवतावादी बनो


    आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दना सितम्बर 2020


    “मनु व्यवस्था का वास्तविक स्वरूप” लेख में डा० बीसी चौहान ने लिखा है l मनुस्मृति के अध्याय 3 के श्लोक 167 और 168 के अनुसार – चारों वर्णों के पितर वैदिक ऋषि थे l ब्राह्मण वर्ण के पितर भृगु ऋषि के पुत्र सोम थे l क्षत्रिय अंगीरा ऋषि के पुत्र हविष्मन्त थे l वैश्य वर्ण के पितर वर्ण के पितर पुलत्स्य ऋषि के पुत्र आज्यप थे l शूद्र वर्ण के पितर वशिष्ठ ऋषि के पुत्र सुकालिन थे l इससे स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के रचनाकार जो ऋषि थे, उनके द्वारा वैदिक ग्रन्थों की संरचना जाति, पंथ, भाषा, व भूगोल को केन्द्रित कर नहीं हुई थी बल्कि समस्त मानव जाति और विश्व के कल्याणार्थ ध्यान में रखकर उनकी रचना की गई थी l

    विश्व में आखंड भारत से कौन अपरिचित है ? वेद अनुसार – विश्व में मात्र एक जाति मानव है, नर-नारी उसके दो रूप हैं l धर्म मानवता है l सत्य की पताका भगवा है l भाषा संस्कृत या देवनागरी है l राज्य सत्य, धर्म, न्याय और नीति के प्रति समर्पित हैं l सत्ता का राज्य के प्रति समर्पण आवश्यक है l राष्ट्र “अखंड भारत” है और विश्व “एक परिवार” है l  

    जिस काल में भारत सोने की चिड़िया के नाम से विश्व विख्यात हुआ था और विश्वगुरु बना था, वह वैदिक काल ही था l लोग प्रकृति से प्रेम किया करते थे l उनके हर हाथ कुछ करने के लिए कोई न कोई कार्य अवश्य मिलता था l लोग कला प्रेमी और मेहनती थे l वे कृषि-बागवानी किया करते थे l वे गौवंश को माता कहना अधिक पसंद करते थे और उसकी सेवा किया करते थे l धरती पर कहीं वर्षा या पीने के लिए जल की और खाने के लिए अन्न, दाल, सब्जी, तिलहन, कंदमूल और फलों की कोई कमी नहीं रहती थी l चारों ओर सुख समृद्धि दिखाई देती थी l 

    इतिहास साक्षी है कि हम शौर्यता-पराक्रम में भी किसी से कभी कम नहीं रहे l हमने किसी पर पहले कभी आक्रमण नहीं किया बल्कि हर बार आक्रमणकारी को मुंहतोड़ उत्तर दिया है l हमसे जब-जब जिसने लड़ने का दुस्साहस किया है, तब-तब उसने हमसे मुंह की खाई है l 

    प्रकृति परिवर्तनशील है l उसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है l हम बहुत से लोगों का सोचने का ढंग बदल गया है l सेवा, त्याग की हमारी भावना स्वार्थ पूर्ण होती जा रही है l हमारे परमार्थ के कार्यों ने स्वार्थ का स्थान ले लिया है l पहले हमें परमार्थ कार्य करने में काफ़ी आनंद आता था l हम उसे करने में सदा प्रसन्न/उद्यत्त रहते थे, पर हमें अब स्वार्थ पूर्ण कार्य करने में अधिक आनंद आने लगा है l हम सत्य, न्याय, धर्म, सदाचार और परमार्थ को निरंतर भूलते जा रहे हैं l हम असत्य, अन्याय, अधर्म और अनीति की राह पर चल पड़े हैं l हम महत्वाकांक्षी लोगों ने समाज को अपनी-अपनी इच्छाओं के अनुरूप साम, दाम, दंड और भेद के बल पर वेद विरूद्ध बलात विभिन्न जाति, पंथ, भाषा, खगोल व भूगोल के नाम पर बाँट लिया है और हम उसे बांटने का यह कर्म परोक्ष या अपरोक्ष रूप में अनवरत जारी रखे हुए हैं l

    गीता के पहले अध्याय में 36 वें श्लोक की व्यख्या करते हुए स्वामी प्रभुपद जी महाराज कहते हैं – वैदिक आदेशानुसार आततायी छः प्रकार के होते हैं – 1. विष देने वाला 2. घर में अग्नि लगाने वाला 3. घातक हथियार से आक्रमण करने वाला 4. धन लुटने वाला 5. दूसरों की भूमि हड़पने वाला तथा 6. पराई स्त्री का अपहरण करने वाला और इस कर्म में आधुनिक काल के तीन और आततायी जुड़ गए हैं 7. वाहन और सवारी को क्षति पहुँचाने वाला 8. भवन अथवा पुल को बम से उड़ाने वाला 9. तस्करी करने वाला l 

    आतंकवाद का कार्य आततायी ही करते हैं, सज्जन पुरुष नहीं l वे अनेकों रूप धारण कर चुके हैं l लगभग 1400 वर्षों से लेकर आजतक आततायियों ने सदैव अन्याय, असत्य, अधर्म और अनीति का ही सहारा लिया है और उससे मात्र सज्जन पुरुषों को ही निशाना बनाया है, उन्हें हर प्रकार से हानि पहुंचाई है, जबकि आर्य पुरुष न्याय, सत्य, नीति और धर्म प्रेमी रहे हैं और उन्होंने आततायियों के द्वारा प्रायोजित अन्याय, असत्य, अधर्म और अनाचार के विरुद्ध किये जा रहे समस्त कार्यों का डटकर बड़ी वीरता से सामना किया है और अपनी विजय का परचंम लहराया है l

    हमें अपने आतीत को कभी नहीं भूलना चाहिए l हम सब ऋषियों की संतानें हैं l हम आर्य पुरुष न्याय, सत्य, सदाचार और धर्म प्रेमी वीर पुरुष थे, हैं और रहेंगे l वेदों के रचनाकार ऋषि थे l वैदिक ग्रन्थों की संरचना समस्त मानव जाति और विश्व के कल्याणार्थ ध्यान में रखकर की गई थी l यही हमारी विरासत है उसकी रक्षा करने के लिए लाख बाधाएं होते हुए भी हमें सत्य, न्याय, सदाचार, धर्म और परमार्थ की राह पर निरंतर चलना होगा ताकि विश्व स्तर पर आततायियों के द्वारा प्रायोजित अन्याय, असत्य, अनाचार एवंम अधर्म के विरुद्ध हम अनुशासित एवं संगठित हो सकें और वीरता के साथ डटकर उनका सामना कर सकें l


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    कला-साधना जीवनोपयोगी है

    आलेख – मातृवन्दना जुलाई अगस्त 2020 

    जीना भी एक कला है l जो व्यक्ति भली प्रकार जीना सीख जाता है, वह मानों उसके लिए सोने पर सुहागा l भली प्रकार जीने के लिए व्यक्ति का किसी न किसी कला के साथ जुड़े रहना अति आवश्यक है भी l मनुष्य को मांस-मदिर और धुम्रपान से सदैव दूर रहना चाहिए l सनातन धर्म इन्हें सेवन करने की किसी को आज्ञा नहीं देता है अपितु सावधान करता है l जिन्दगी से कला जोड़ो, नशा नहीं l कला से प्रेम करो, नशे से नहीं l नशे का त्याग करो, जिन्दगी का नहीं l नशे से नाता तोड़ो, जिन्दगी से नहीं l कला प्रेम से जिन्दगी संवरती है, नशे से नहीं l अतः कला प्रेमी को नशा नहीं करना चाहिए l

    मानव शरीर उस मशीन के समान है जिसमें पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, मैं का भाव, मन और बुद्धि होती है l मुंह, उपस्थ गुदा, हाथ और पैर उसकी कर्मेन्द्रियाँ कर्म करती हैं जबकि जिह्वा, आँखें, नाक, कान, त्वचा ज्ञानेन्द्रियाँ उसके लिए ज्ञानार्जित करती हैं l यह सब कार्य एक इंटरनैट की तरह मात्र बुद्धि के नियंत्रण में होते हैं l

    प्राचीन काल से ही भारत की गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित सर्वश्रेष्ठ विश्वसनीय कला-सृजन करने वाली वैदिक शिक्षा-प्रणाली अंग्रेजी साम्राज्य तक प्रभावी रही थी l इतिहास में श्रीकृष्ण–बलराम जी के गुरु का संदीपनी, श्रीराम-लक्ष्मण के गुरु का विश्वामित्र, लव-कुश के गुरु वाल्मीकि के आश्रम जैसे अनेकों आश्रमों का उल्लेख मिलता है l स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बोट बैंक और दलगत राजनीति के कारण उसे भारी हानि पहुंची है l गुरुओं में पहला गुरु माता, दूसरा पिता और तीसरा विद्यालय के गुरु एवं अध्यापक माने जाते हैं l जीवन निर्माण में इनकी महान भूमिका रहती है l माँ-बाप तो मात्र बच्चे को जन्म देते हैं जबकि जीवन में उसे गुरु ही योग्य पात्र बनाते हैं l माँ के गर्व में विकसित हो रहा शिशु जन्म लेने से पूर्व अपने कानों से दूसरों की बातें श्रवण करना आरम्भ कर देता है l महाभारत के पात्र वीर अभिमन्यु इसका जीता-जागता उदाहरण है l उन्होंने जन्म लेने से पूर्व ही अपने पिता अर्जुन से माता सुभद्रा को सुनाई गई गाथा के माध्यम से चक्रव्यूह बेधने की कला सीख ली थी और उससे महाभारत में द्रोणाचार्य द्वारा रचाया गया चक्रव्यूह भी बेध डाला था l माँ के द्वारा प्रसंग पूरा न सुन पाने के कारण वे चक्रव्यूह बेधना/उससे बाहर निकलना नहीं जान सके थे l उनकी माँ गाथा सुनते-सुनते बीच में सो गई थी l अतः वे वीरगति को प्राप्त हुए थे l इसलिए कहा जाता है कि किसी भी गर्ववति महिला/स्त्री को ज्ञान-रस, वीर-रस की गाथाएँ सुनाने के साथ-साथ उससे धार्मिक और सदाचार ही की बातें करनी चाहियें l उसके शयन-कक्ष में धार्मिक और महान पुरुषों के चित्र लगाने चाहिए l इससे अच्छा और संस्कारवान बच्चा पैदा होता है l

    जन्म लेने के पश्चात् बच्चा धीरे-धीरे अपने गुरु माता–पिता से खाना-पीना, बोलना, खड़े होना, चलना, दौड़ना सब कुछ सीख लेता है l ज्यों-ज्यों बच्चा बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों वह बालक या बालिका के रूप में तीन-चार वर्ष की आयु में पाठशाला जाना आरम्भ कर देता है l वहां वह लिखना, पढ़ना, बोलना संवाद करना, नाचना, गाना, अनुशासन व शिष्टाचार इत्यादि अन्य कलाएं भी सीखता है l यही नहीं, परंपरागत गुरुकुलों में तो आत्म-रक्षा हेतु छात्र-छात्राओं को युद्ध कला भी सिखाई जाती थी l कोई भी कला साधना आत्म साक्षात्कार करने का संसाधन है, साध्य नहीं l वही कला तब तक जीवित रहती है, जब तक उसका किसी के द्वारा एकलव्य की भांति सृजन, पोषण, और वर्धन हेतु अभ्यास किया जाता है l वही व्यक्ति कला का सफलता पूर्वक सृजन, पोषण और वर्धन हेतु अभ्यास कर सकता है जिसके पास कला के प्रति आत्म समर्पण की भावना, धैर्य, एकाग्रता और आत्म विश्वास होता है l जीवन में सफलता की ऊँचाइयाँ छूने और कला में प्रवीणता पाने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति का होना अति आवश्यक है l कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l

    कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग से व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है l लोकहित में कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग, सुख और यश प्राप्त होता है l कला-संस्कृति से ही किसी व्यक्ति, परिवार, समाज, क्षेत्र, प्रान्त और देश की पहचान होती है l कला संस्कृति को जीवित रखने का एक मात्र सरल उपाय यह है कि गुरु की उपस्थिति में प्रशिक्षित प्रशिक्षु के द्वारा नये प्रशिक्षु को शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जाये l उनके द्वारा समय-समय पर कला-अभ्यास हो और निश्चित स्थान पर उनकी कला-प्रदर्शन का आयोजन भी किया जाये l किसी कला का सम्मान कलाप्रेमी ही करते हैं, कोई बाजार नहीं l कला का सम्मान करने से ही किसी कलकार का वास्तविक सम्मान होता है l जिस स्थान पर कला का सम्मान न हो, वहां आयोजक को भूलकर भी किसी कलाकार से उसकी कला का प्रदर्शन नहीं करवाना चाहिए और न ही किसी कलाकार को उसमें भाग लेना चाहिए l कला-प्रेमियों के हृदय में कहीं न कहीं कला के प्रति सम्मान अवश्य होता है जिस कारण वे उससे संबंधित कलामंच की ओर आकर्षित होते हैं l किसी भी कला को जीवंत बनाये रखने के लिए दर्शकों, कला प्रेमियों को उस कला का सम्मान अवश्य करना चाहिए l

    समय-समय पर नालंदा, तक्षशिला, विश्वविद्यालयों और उनकी शाखाओं व उप-शाखाओं की तरह वर्तमान सरकारी अथवा गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं द्वारा अपने विभिन्न कलाकार छात्र-छात्राओं का उत्साह बढ़ाने के लिए उससे संबंधित मंचों का आयोजन करवाकर उन्हें सम्मानित भी करना चाहिए l जो युवाजन अपने जीवन में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियों का विकास करना चाहते हैं, उन्हें स्वयं में छिपी हुई किसी न किसी कला (वादक-यंत्र वादन, नृत्य, संगीत, अभिनय, भाषण, साहित्य लेखन, जैसी अन्य कला) से प्रेम अवश्य करना चाहिये l जीवन निर्वहन करने के साथ-साथ उनके पास अपना मानव जीवन संवारने के लिए इससे बढ़िया अन्य और संसाधन क्या हो सकता है !



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    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में समरसता

    आलेख – धर्म संस्कृति मातृवन्दना मार्च अप्रैल 2020  

    ऋषि-मुनि, सिद्ध, सन्यासी, साधु-सन्त, महात्मा और परमात्मा के साथ जुड़े माणिकों एवं अलंकारों से सुशोभित, भारत माता के सरताज, देव और वीरभूमि हिमाचल प्रदेश की तराई में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है जिला कांगड़ा, का प्रवेश द्वार नूरपुर, के उत्तर में सहादराबान से सर्पाकार एवं घुमावदार सड़क द्वारा लेतरी, खज्जन, हिंदोरा-घराट, सदवां से घने निर्जन चीड़ के जंगल पार, गांव सिम्बली से होते हुए नूरपुर से लगभग चोदह किलोमीटर के अंतराल पर स्थित है - सुल्याली गांव।

    अपनी हरियाली की अपार सुंदरता एवं स्वच्छता के कारण भारत की देव भूमि हिमाचल प्रदेश विश्व विख्यात है। यहां पर स्थित विभिन्न प्रसिद्ध धार्मिक स्थल देश व विदेश में अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। प्रदेश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में सुल्याली गांव का डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर अथवा प्राकृतिक शिवाला डिह्बकेश्वर धाम अत्यंत सुंदर, शांत तथा रमणीय स्थल है।


    यह प्राकृतिक शिवाला अपने अस्तित्व में कब आया? कोई नहीं जानता है। परंतु यहां विराजित साक्षात देवों के देव महादेव परिवार की गांव सुल्याली में वसने वाले लोगों पर असीम कृपा अवश्य है। लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम व सदभावना कूटकूट कर भरी हुई है।


    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर के स्नानों में स्नान सोमवार की अमावसया, वैसाखी की अमावसया, बुध पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, पितर तर्पण, सावन मास के सोमवारों के स्नान होते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी, शीतला पूजन के साथ-साथ यहां शिवरात्रि हर वर्ष बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है जिसमें हर वर्ण के लोग यथाशक्ति बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।


    यहां पर गृह शांति हेतु हवन करवाये जाते हैं। बच्चों के मुंडन संस्कार होते हैं। यहां मास के हर रविवार को लंगर लगवाने की व्यवस्था भी है जिसमें कोई भी गृहस्थी अपनी इच्छा से यहां की व्यवस्था के अनुसार हवन, संकीर्तन करवाने के साथ-साथ लंगर भी लगवा सकता है।


    भरमौर निवासी गद्दी समुदाय के लोग अंधेरा होने पर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में शिव विवाह जिसे वे अपनी स्थानीय भाषा में नवाला कहते हैं, का हर वर्ष जनवरी मास में आयोजन करते हैं। वे शिव पूजन करके लोक-नृत्य सहित शिव विवाह के भजन गाते हैं। जो देखने योग्य होता है। इसे देखने हेतु यहां पर दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे यहां आए हुए श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते है जिसे लोग सप्रेमपूर्वक प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।


    स्व0 मास्टर गिरीपाल शर्मा जी ने अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नी की याद में पादुका स्थित सुल्याली गांव में शिवरात्रि के दिन इस यज्ञ का शुभारम्भ किया था। जो वहां हर वर्ष किया जाता था। इसे बाद में बंद कर दिया गया और फिर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में आरम्भ कर दिया गया। स्व0 मास्टर हंस राज शर्मा, जी ने सन् 1967.68 ई0 से शिवरात्रि पर्व से लोगों को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। यज्ञ में दाल, चावल, खट्टा, मीठा, मह्दरा आदि बनना आरम्भ हो गया। इससे पूर्व यहां आषाढ़ मास की संक्रांति को चपाती, आम की लाहस तथा माश की दाल बना कर सहभोज करने की प्रथा प्रचलित थी। जिसे ग्रहण करके सभी लोग आनन्द उठाते थे।
    यहां हर वर्ष शिवरात्रि से दो - तीन दिन पूर्व ही उसकी तैयारी होना आरम्भ हो जाती है। शिवरात्रि से एक दिन पूर्व यहां हवन-यज्ञ किया जाता है। रात को भजन कीर्तन होता है और दूसरे दिन सहभोज-भण्डारा किया जाता है जिसका आयोजन एवं समापन बिना किसी भेदभाव से संपूर्ण होता है। इन दिनों डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में बहुत ज्यादा चहल-पहल रहती है। यहां स्थानीय लोग ही नहीं दिल्ली, पंजाब और जम्मू-कश्मीर राज्यों के दूर-दूर से आए हुए श्रद्धालू-भक्त जन भी अपनी-अपनी यथाशक्ति से अन्न, तन, मन और धन द्वारा सेवा कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।


    यहां आने वाले आस्थावान भक्तों पर भोलेनाथ सदा दयावान रहते हैं। जन धारणा के अनुसार शिवरात्रि को शिवभोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजमान रहते हैं तथा यहां पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद भी देते हैं। स्थानीय लोगों की धारणा है कि शिवरात्रि के पश्चात् शिव भोले नाथ सपरिवार, मणिमहेश कैलाश की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।


    शिव भोले नाथ के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाले भक्तजन बारह मास - सर्दी, गर्मी और बरसात में शिव दर्शन और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वे शिवलिंगों को दूध लस्सी से नहलाते हैं तथा उन पर बिल्व-पत्री चढ़ा कर उनकी धूप-दीप, नैवेद्यादि से पूजा अर्चना करके, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।


    साहिल ग्रुप पठानकोट, के सदस्य मिलकर यहां हर वर्ष दिन में पहले सुल्याली बाजार से होते हुए डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर तक संगीत सहित शिवविवाह की मनोरम झांकियां निकालते हैं और फिर देर रात तक शिव विवाह से संबंधित धर्म-सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता रहता है जिसे देखने हेतु दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे वहां आने वाले श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते हैं। लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।


    सुल्याली गांव के आसपास के क्षेत्र से अनेकों महिलाएं डिह्बकेश्वर महादेव परिसर में आकर सोमवार की अमावसया, वैसाखी की बड़ी सोमी अमावसया को पीपल वृक्ष का पूजन करती हैं। इस पूजन में पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमायें की जाती हैं जिसके अंतर्गत फल, चावल व दाल के दाने, द्रब, दक्षिणा, कच्चा सू़त्र की लड़ियां और जोतें सभी गिनती में 108-108 एक समान नग होते हैं। इसके अतिरिक्त सुहागी, वर्तन और कपड़ा भी होता है जो दान किया जाता है। कच्चा सू़त्र की लड़ियों को पीपल वृक्ष के चारों ओर परिक्रमा करके लपेटा जाता है जो देखने योग्य होता है। इस तरह डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में अध्यात्मिकता देखने को मिलती है जो समरसता से परिपूर्ण होती है।

    चेतन कौशल “नूरपुरी”