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महीना: मई 2016

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    मैकाले की सोच का भारतीय शिक्षा-प्रणाली पर कुठाराघात

    आलेख शिक्षा दर्पण  - पंजाब सौरभ मई 2016 

    हिमाचल की मासिक पत्रिका “मातृवंदना” अगस्त 2010 में पृष्ठ संख्या 19 पर प्रकाशित आलेख “मैकाले की सोच-1835 ई० में” के अनुसार – यह एक वास्तविक लेख है l इसकी प्रति मद्रास हाईकोर्ट के अभिलेखों से प्राप्त हुई है l ब्रिटिश पार्लियामेंट के रिकार्ड में सुरक्षित है l लार्ड मैकाले को भारत में तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड विलियम वेंटिंग की कौंसिल का सदस्य नामजद कर भारत भेजा गया था l अपने भारत–भ्रमण के अनुभवों एवं अध्ययन के पश्चात् उसने ब्रिटिश पार्लियामेंट को यह रिपोर्ट भेजी थी –
    “मैंने पुरे भारत की एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा की है पर मुझे एक भी भिखारी नहीं मिला, जो चोर हो l ऐसे धनी देश के अपने ऊँचे सामाजिक मूल्य हैं l यहाँ लोगों के पास बड़ी दृढ़ शक्ति है l इस देश को हम कभी जीतने की सोच भी नहीं सकते l हम इसे तब तक नहीं जीत सकते, तब तक हम विरासत इस देश की रीढ़, आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक को नहीं तोड़ देते l इसलिए मैं इसकी प्राचीन अध्यात्मिक शिक्षा पद्धति को हटाने का सुझाव देता हूँ l जब भारतीय सोचने लगेंगे कि विदेशी चीजें और अंग्रेजी भाषा अपने से अच्छी हैं, तब वे अपना आत्मसम्मान और अपनी संस्कृति को खो देंगे l उसे भूल जाएँगे और तब वे वैसा बन जायेंगे जैसा अधिपत्य राष्ट्र हम चाहते हैं l
    यह उसका एक ऐसा सुझाव था जो आगे चलकर भारतीय सभ्यता-संस्कृति, धर्म–संस्कार और परम्परागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के लिए महा-घातक सिद्ध हुआ l मैकाले के उपरोक्त सुझाव के आधार पर अंग्रेजों ने सन 1840 में कानून बनाकर भारत की जनोपयोगी गुरुकुल प्रधान शिक्षा-प्रणाली को हटा दिया, जो भारतीय छात्र-छात्राओं एवम् साधकों में वैदिक धर्म, ज्ञान कर्मनिष्ठा, शौर्यता और वीरता जैसे संस्कारों का संचार करने के कारण राष्ट्रीय एकता एवम् अखंडता के रूप में उसकी रीढ़ थी l उसके स्थान पर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक अंग्रेजी भाषी शिक्षा-प्रणाली लागु की, जो भविष्य में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने में अत्यंत कारगर सिद्ध हुई l
    स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सत्तासीन राजनेताओं को यह भी ध्यान नहीं रहा कि उन्होंने सशक्त भारत का निर्माण करना है l इसके लिए उन्हें जनप्रिय स्थानीय भाषा, हिंदी, संस्कृत के आधार पर गुरुकुलों की स्थापना करनी है, उन्हें बढ़ावा भी देना है l देखने में आ रहा है कि निहित स्वार्थ में डूबे हुए, देश को भीतर ही भीतर दीमक की तरह खोखला एवम् खंड-खंड करने के कार्य में सक्रीय अमुक देशद्रोही, अंग्रेजी पिट्ठू प्रशासकों के द्वारा देश के गाँव-गाँव और शहर–शहर में मात्र मैकाले की सोच के आधार पर अंग्रेजी भाषी पाठशालाएं, विद्यालय एवम् महाविद्यालय ही खोले जा रहे हैं l उनके द्वारा राष्ट्रीय जनहित-अहित का विचार किये बिना उन्हें धडाधड़ सरकारी मान्यताएं भी दी जा रही हैं l जबकि वे न कभी भारतीय सभ्यता एवम् संस्कृति के अनुकूल रहे और ना कभी हुए l उनमें गुरुकुलों जैसी कहीं कोई गरिमा भी नहीं दिखाई देती l
    युगों से सोने की चिड़िया – भारत की पहचान बनाये रखने में समर्थ रह चुके गुरुकुल उच्च संस्कारों के संरक्षक, पोषक, संवर्धक होने के साथ-साथ मानव जीवन की कार्यशालाओं के रूप में छात्र-छात्राओं एवम् साधकों के नव जीवन निर्माता भी थे l नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला और उनके सहायक विद्यालय तथा महाविद्यालयों से भारतीय सभ्यता-संस्कृति, धर्म संस्कार और शिक्षा न केवल भली प्रकार से फूली-फली थी बल्कि उनसे जनित उसकी सुख-समृद्धि की महक विदेशों तक भी पहुंची थी l इस बात को कौन नहीं जानता है कि आतंक फैलाकर आपर धन-संपदा लूटना, भारतीय सभ्यता-संस्कृति नष्ट करना और फुट डालकर सम्पूर्ण भारतवर्ष पर ब्रिटिश साम्राज्य का अधिपत्य स्थापित करना ही आक्रान्ता ईष्ट इण्डिया कम्पनी का मूल उद्देश्य था l
    आज भारतीय राजनेता भारतीय संस्कृति की सुगंध की कामना करते हैं पर उनके पास उसकी जननी गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली उपलब्ध नहीं है l इसलिए हम सब जागरूक अभिभावकों, गुरुजनों, प्रशासकों और राजनेताओं को एक मंच पर एकत्र होकर होनहार बच्चों छात्र-छात्राओं एवम् साधकों के संग अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली के स्थान पर जनोपयोगी एवम् परम्परागत भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की पुनर्स्थापना करके उसे अपने जीवन में समझना और जांचना होगा क्योंकि बच्चों और विद्यार्थियों के जीवन का नव निर्माण राजनीति, भाषण, या उससे जुड़े ऐसे किसी आन्दोलन से कभी नहीं हुआ है और न हो ही सकता है l बल्कि एक सशक्त शिक्षा प्रणाली के द्वारा ज्ञानार्जित करने से ही ऐसा होता रहा है और आगे होगा भी l इसकी पूर्ति करने में भारतीय परम्परागत गुरुकुल शिक्षा–प्रणाली पूर्णतया सक्षम और समर्थ रही है l इसका भारतीय इतिहास साक्षी है जिसे पढ़कर सत्य जाना जा सकता है l
    अगर मैकाले सन 1840 में अपने संकल्प से भारत में परम्परागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली समाप्त करवाकर अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली जारी करवा सकता था तो हम भी सब मिलकर राष्ट्रीय जनहित में न्यायलय तक अपनी संयुक्त आवाज पहुंचा सकते हैं l वहां से अध्यादेश पारित करवाकर भारतीय आशाओं के विपरीत अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली को निरस्त करवा सकते हैं l क्या हम इस योग्य भी नहीं रहे कि हम उसके स्थान पर फिर से भारतीय गुरुकुल शिक्षा–प्रणाली को लागू करवा सकें ? अतीत में हम सब सार्वजनिक रूप से सुसंगठित और जागरूक रहे हैं – अब हैं और भविष्य में भी रहेंगे l विश्व में कोई भी शक्ति भारत को विश्वगुरु बनने से नहीं रोक सकती l ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है l
    आइये ! हम सब मिलकर प्रण करें और इस पुनीत कार्य को सफल करने का प्रयास करें l यह तो सत्य है कि बबूल के बीज से कभी आम के पेड़ की आशा नहीं की जा सकती l हम पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली के बल पर भारत के पुरातन गौरव एवम् सुख – समृद्धि की मनोकामना कैसे कर सकते हैं ?