मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



महीना: अक्टूबर 2013

  • भारतीय गुरुकुल परंपरा
    श्रेणी:

    भारतीय गुरुकुल परंपरा

    प्रकृति में आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान-विज्ञान प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। कोई जिज्ञासु-पुरुषार्थी विद्यार्थी ही नरेंद्र की तरह उसे जानने, समझने और पाने के लिए कृत संकल्प होता है और अपने सद्गुरु रामकृष्ण परमहंस जी के सान्निध्य और गुरुकुल में रहकर निरंतर प्रयास एवं अभ्यास करके स्वामी विवेकानन्द बनता है। आत्मा ईश्वर का अंश है। जल की बुंद सागर से जलवाष्प बनकर आकाश में अन्य के साथ मिलकर बादल बन जाती है। उस बादल से पहाड़ों पर वर्षा होती है। उसका नीर नदी के जल में लम्बे समय तक बहने के पश्चात फिर से सागर के पानी में एकाकार हो जाता है। उसे अपना खोया हुआ सर्वस्व पुनः मिल जाता है। जल-बूंद की तरह किसी जिज्ञासु-पुरुषार्थी व्यक्ति की आत्मा भी दिव्य पुंज परमात्मा के साथ मिलने के लिए सदा व्यग्र रहती है। यह ज्ञान-विज्ञान परमात्मा से पुरुषार्थी आचार्य, गुरु, शिक्षक और अध्यापकों के द्वारा निज गुण, स्वभाव, आचरण, प्रयास, और अभ्यास से अर्जित किया जाता है। पुरुषार्थी व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहता है –
    ‘‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
    त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
    त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
    त्वमेव सर्व मम देवदेव।।’’
    वह प्रभु से यह भी प्रार्थना करता है –
    ‘‘हे प्रभु! मुझे असत्य से सत्य में ले जा,
    अंधेरे से उजाले में ले जा,
    मृत्यु से अमरता में ले जा।।’’
    आचार्य और ब्रह्म्रगुरु योग, ध्यान एवं प्राणायाम करके ‘‘ब्रह्मज्ञान’’अर्जित करते हैं । उनकी शरण में आने वाले श्रद्धालु, जिज्ञासु, विद्यार्थी और साधकों को उनके द्वारा संचालित ‘‘वेद विद्या मंदिरों’’से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। उनकेे हृदय में आचार्य और गुरुजनों के प्रति अपार श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास होता है। वे गुरु की स्तुति करते हुए कहते हैं –
    ‘‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु
    गुरुर्देवो महेश्वरः
    गुरुर्साक्षात् परमब्रह्म,
    तस्मै श्रीगुरुवे नमः’’
    भौतिक ज्ञान-विज्ञान अर्जित करने के लिए राजगुरु,शिक्षक एवं अध्यापक अपने पुरुषार्थी शिष्य, शिक्षार्थियों के साथ मिल-बैठ कर ऐच्छिक एवं रूचिकर विषयक ज्ञान-विज्ञान के पठन-पाठन का कार्य करतेे हैं। उनमें वे उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करते हैं। उस समय वे दोनों अपनी पवित्र भावना के अनुसार परमात्मा से प्रार्थना करते हैं –
    ‘‘हे परमात्मा! हम दोनों – गुरु, शिष्य की रक्षा करें। हम दोनों का उपयोग करें। हम दोनों एक साथ पुरुषार्थ करें। हमारी विद्या तेजस्वी हो। हम एक दूसरे का द्वेष न करें। ओउम शान्ति शान्ति शान्ति।’’
    पुरुषार्थी शिष्य ‘‘गुरुकुल’’ अथवा ‘‘ज्ञान-विज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण केन्द्र’’से ब्रह्म्रगुरु और राजगुरु के सान्निध्य में रहकर तथा उनसे सहयोग पाकर विषयक ज्ञान-विज्ञान में शिक्षित-प्रशिक्षित होते हैं। इस प्रकार वे उनके समरूप, उनकी इच्छाओं के अनुरूप समग्र जीव-प्राणी एवं जनहित में सृष्टि के कल्याणार्थ कार्य करने के योग्य बनते हैं। वे मानवता की सेवा को ईश्वर की पूजा मानते हैं और मनोयोग से अपना कार्य करने लगते हैं।
    गुरुकुल में आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात मनोयोग से पुरुषार्थी नवयुवाओं के द्वारा किया जाने वाला कोई भी कार्य सफल, श्रेष्ठ और सर्वहितकारी होता है। इसी आधार पर साहसी पुरुषार्थी व्यक्ति, निर्माता, अन्वेषक , विशिष्ट व्यक्ति, कलाकार, वास्तुकार, शिल्पकार, साहित्यकार, रचनाकार, कवि, विशेषज्ञ, दार्शनिक, साधक, ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी, योगी और सन्यासी अपने जीवन प्रयंत प्रयास एवं अभ्यास करते हैं। इससे उनके द्वारा मानवता की तो सेवा होती है, सबका कल्याण भी होता है।
    चिरकाल से विशाल प्रकृति अभिभावकों की तरह समस्त प्राणी जगत का पालन-पोषण करती आ रही है। गुरुकुल में विद्यार्थी सीखता है, असीमित जल, धरती, वायु भंडार तथा अग्नि और आकाश प्रकृति के महाभूत हैं। इनसे उत्पन्न ठोस, द्रव्य और गैसीय पदार्थ मानव समुदाय को प्राप्त होते हैं जिनका वह अपनी सुख-सुविधाओं के रूप में सदियोें से भरपूर उपयोग करता आ रहा हैै। इनसे जीव-प्राणियों को आहार तो मिलता है, निरोग्यता भी प्राप्त होती है। किसान, गौ-पालक, व्यापारी, दुकानदार, उत्पादक, निर्माता और श्रमिकों के द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण को परंपरागत संतुलित, प्रदूषण एवं रोग-मुक्त तथा संरक्षित बनाए रखा जाता है। इसका अर्थ है, मानवता की सेवा करना। पुरुषार्थी विद्यार्थी, नागरिक ऐसा करने हेतु हर समय तैयार रहते हैं, अपना कर्तव्य समझते हैं और उसे कार्यरूप भी देते हैं।
    समर्थ विद्यार्थी एवं नागरिकों के द्वारा पुरुषार्थ करके मात्र धन अर्जित करना, अपने परिवार का पालन-पोषण करना और उसके लिए सुख-सुविधाएं जुटाना ही प्रयाप्त नहीं है बल्कि उनके द्वारा साहसी, वीर/वीरांगनां के रूप में निजी, सरकारी, गैर सरकारी संस्थान और कार्यक्षेत्र में भी जान-माल की रक्षा करना एवं सुरक्षा बनाए रखना नितांत आवश्यक है। गुरुकुल सिखाता है, व्यक्ति के द्वारा किसी समय की तनिक सी चूक से मानवता के शत्रु को मानवता पीड़ित करने, उसे कष्ट पहुंचने का अवसर मिलता है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और आक्रमण का सहारा लेता है। उसके द्वारा व्यक्तिगत, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, राजनैेतिक और राष्ट्रीय हानि पहुंचाई जाती है। आर्यजन भली प्रकार जानते हैं, समाज में बिना भेदभाव के, आपस में सुसंगठित, सुरक्षित, सतर्क रहना और निरंतर सतर्कता बनाए रखना नितांत आवश्यक है। ऐसा करना साहसी वीर, वीरांगनाओं का कर्तव्य है। वह हर चुनौति का सामना करने के लिए हर समय तैयार रहते हैं और उचित समय आने पर वे उसका मुंह तोड़ उत्तर भी देते हैं। अगर यह सब गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की देन है तो आइए! हम राष्ट्र में प्रायः लुप्त हो चुकी इस व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने का पुनः प्रयास करें ताकि आर्य समाज और राष्ट्र में तेजी से बढ़ रहे अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और भ्रष्टाचार का जड़ से सफाया हो सके। राष्ट्र में फिर से आदर्श समाज की संरचना की जा सके
    12 अक्टूबर 2013 दिव्य हिमाचल

  • युवा पीढ़ि और उसका दायित्व
    श्रेणी:

    युवा पीढ़ि और उसका दायित्व

    ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्माण्ड बड़ा विचित्र है। सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का द्योतक है कि समस्त ब्रह्माण्ड में कोेेई भी अमुक वस्तु किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है।
    युवाओं को जीवन के महान् उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण-संस्कार जीवन उद्देश्यों  के अनुकूल होते हैं। प्रतिकूल गुण -संस्कारों से किसी भी महान् उद्देश्य  की प्राप्ति नहीं होती है। बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है। जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात  उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण-संस्कार युक्त युवाओं के कर्माें की छाप भी सम्पूर्ण जनमानस पटल परअवश्य अंकित होती है जो युग-युगांतरों तक उसके द्वारा भुलाए नहीं भुलाई जाती है। अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है। यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति के स्वामी हैं।
    बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय नीति के आधार पर भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए। उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना। जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लगन, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराश  कर उसे मन चाही एक सुन्दर आकृति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार प्रयत्नशील युवाओं को स्वयं में छुपी हुई प्रभावी विद्या, कला के रूप में दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में, आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो। उन्हें सफलता अवश्य  मिलेगी। देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुरूप देश – कार्य क्षेत्र, काल – समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्गदर्शक अवश्य  मिल जाते हैं। उनसे उनका काम सहज होना निश्चित  हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है।
    किसी प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान् उद्देश्य  की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक  है जितना फूलों में सुगन्ध होना। सुगन्धित फूलों से मुग्ध होकर, फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण से प्रभावित होकर उनका अनुसरण करने के लिए, उनके अनुयायी भी बनते हैं। इसलिए वे उनके साथ रह कर, वह अच्छा बनने के लिए अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं।
    उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है। वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है। एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान  समझता है, दुराचार के कार्य करता है। इसलिए दोनों की प्रकृतियां आपस में कभी एक समान हो नहीं सकतीं। वह एक दिशा सूचकयंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा  में रहती हैं। उन दोनों में द्वंद् भी  होते हैं।
    कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार सदाचार को असहनीय कष्ट  और पीड़ा ही पहुंचाता है। जब यह दोनों प्रकृतियां सुसंगठित होकर धर्म, अधर्म के दो बड़े अलग-अलग समूहों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद् न रहकर, युद्ध होते हैं जिनसे उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है।
    समर्थ युवा वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थया एवं शक्ति रखता है। तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक  है। वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं। इसलिए युवा-शक्ति जन-शक्ति के रूप में लोक-शक्ति बन जाती है। अतः कहा जा सकता है कि –
    एकता और शक्ति का मूल आधार,
    जन, जन के उच्च गुण संस्कार।
    जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोक कर, बांध बना लिया जाता है, उसी प्रकार युवाओं में कुछ कर सकने की जो अपार तीव्र इच्छाशक्ति होती है, उसे ठहराव दे कर दिशा  देना अति आवश्यक  है। इससे युवाओं की तरुण-शक्ति को नई दिशा  मिल सकती है। उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं।
    अक्तूबर 2013
    मातृवन्दना