2007 | मानवता - Part 3

मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



साल: 2007

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    7. हमारी राष्ट्रीय भाषा

    9 अक्तूबर 2007 दैनिक जागरण

    यह सत्य है कि हमारे देश के लोग, उनका रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार, राष्ट्रीय भौगोलिक स्थिति, जलवायु और उत्पादन से देश की सभ्यता और संस्कृति को बल मिलता है। उससे भारत की पहचान होती है। अगर कभी इसमें विद्यमान गुण व दोशों को समाज के सम्मुख अलिखित रूप में व्यक्त करना पड़े तो हम उस माध्यम को भाषा का नाम दे सकते हैं ।
    सर्वसुलभ भाषा का यथार्थ ज्ञान हमारी राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति का संसाधन हो सकता है, चाहे वह हिन्दी ही क्यों न हो? उसका देश के प्रत्येक बच्चे से लेकर अभिभावक, गुरु, प्रशासक और राजनेता तक को भली प्रकार ज्ञान होना अति आवश्यक हैं।
    समय की मांग के अनुसार भारत के विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने के लिए सरकारी या स्वयं सेवी संगठनों द्वारा जो प्रयास हो रहे हैं उनमें हिन्दी सप्ताह या हिन्दी पखवाड़ा सर्वोपरि रहा है। इससे लोगों में हिन्दी के प्रति नव चेतना जागृत हुई है। निरन्तर प्रयास जारी रखने की महती आवश्यकता है।
    हिन्दी भाषा, अन्तराष्ट्रीय भाषा में परिणत हो कर अंग्रेजी भाषा के कद तुल्य बने, इसमें भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटलबिहारी वाजपयी का योगदान सराहनीय रहा है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के सभा मंच पर हिन्दी में भाषण देकर विश्व में हिन्दी का मान बढ़ाया है। इसे और प्रभावी बनाने के लिए अनिवार्य है कि देश के सरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-ज्ञान का समुचित विकास हो। लोगों में शुध्द हिन्दी लेखन-अभ्यास रुके बिना जारी रहे। लोग आपस में प्रिय हिन्दी भाषी संबोधनों का निःसंकोच प्रयोग करें और वे जब भी आपस में वार्तालाप करें, शुध्द हिन्दी भाषा का उच्चारण करें।
    हिन्दी भाषा को राजभाषा का ससम्मान स्थान दिलाने की कल्पना वर्षों पूर्व हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने की थी। उनका सपना तभी साकार हो सकता है जब हम अपने बच्चों को अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी माध्यम की पाठशालाओं में भी प्रविष्ठ करेंगे। वहां से उन्हें हिन्दी का ज्ञान दिलाएंगे। वे शुध्द हिन्दी लिखना, पढ़ना और उच्चारण करना सीखेंगे। वे पारिवारिक रिस्तों में मिठास घोलने वाले प्रिय हिन्दी भाषी संबोधनों से जैसे माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहन, भाभी-भाई, बहन-जीजा, चाची-चाचा, तायी-ताया, मामी-मामा, मौसी-मौसा कह कर पुकार सकेंगे और समाज में उनसे मिलने-जुलने वाले प्रिय बन्धुओं से भी उन्हीं जैसा व्यवहार करेंगे। क्या हम प्राचीनकाल की भांति आज भी समर्थ हैं? इस ओर हम क्या प्रयास कर रहे हैं?
    भारत की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति से प्रेरित होकर आज का कोई भी नौजवान सहर्ष कह सकता है कि हम हिन्दी भाषी लोग विभिन्न भाषी क्षेत्रों के लोगों का इसलिए सम्मान करते हैं कि हम उन्हें अधिक से अधिक जान-पहचान सकें और हमारी राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता पहले से कई गुणा अधिक सुदृढ़ बन सके।

    9 अक्तूबर 2007 दैनिक जागरण

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    6. विद्यार्थी जीवन आदर्श

    25 सितम्बर 2007 दैनिक जागरण

    अगर कोई स्थानीय व्यक्ति अच्छा खाता-पीता, सोता है और उसके बारे में लोग कहें कि उसका जीवन सर्वश्रेष्ठ है तो एक विद्यार्थी भी उनकी हां में हां मिलाए क्या? नहीं, वह जानता है कि सुखी जीना मात्र खाने-पीने, सोने तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह जीवन की एक कला है। कलात्मक गुणों के कारण ही सुखी जीवन की पहचान होती है। उनसे उसे लौकिक व अलौकिक सुख-शांति प्राप्त होती है। मगर गुण विहीन होने पर उसका वह सब कुछ समाप्त हो जाता है।
    गुणों से ही विद्यार्थी जीवन का विकास होता है। उसके जीवन को स्वतः ही चार चाँद लग जाते हैं । अपने लक्ष्य से भटका हुआ कोई भी विद्यार्थी अपनी आवश्यकता अनुसार प्रयास करके स्वयं को सन्मार्ग पर ले आता है अथवा उसकी आवश्यकता देखते हुए माता-पिता और गुरुजन (अपने बच्चों और विद्यार्थियों को) ऐसा करने में उसे अपना योगदान देते हैं जो अनिवार्य है भी।
    यह सत्य है कि जीना जीवन की कला है। कैसे जिया जाता हैं? जीने की कला को जीवन में चरित्रार्थ करने के लिए अनिवार्य है। विद्यार्थी द्वारा किसी आदर्श जीवन का अनुकरण करना। इसके बिना उसका जीवन नीरस रहता है। किसी भी विद्यार्थी को स्नातक बनने के पश्चात उसके व्यक्तित्व को मात्र उसके अपने बल, बुद्धि, विद्या और गुणों से जाना और पहचाना जाता है। अगर वह समर्थवान अपनी सामर्थया का प्रयोग जन हित कार्य में करता है तो वह सोने पर सुहागा सावित होता है। क्या वर्तमान विद्यार्थी ऐसा करने का प्रयत्न करते हैं? क्या उन्हें ऐसा करना अनिवार्य है?
    25 सितम्बर 2007 दैनिक जागरण

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    5. कर्तव्य विमुखता का काला साया

    आलेख - सामाजिक चेतना दैनिक जागरण 6 सितंबर 2007 

    आज बुराई का प्रतिरोध करने वाला हमारे बीच समाज में कोई एक भी साहसी, वीर, पराक्रमी, बेटा, जन नायक, योद्धा अथवा सिंहनाद करने वाला शेर नौजवान दिखाई नहीं दे रहा है l मानों जननियों ने ऐसे शेरों को पैदा करना छोड़ दिया है l गुरुजन योद्धाओं को तैयार करना भूल गये हैं अथवा वे समाज विरोधी तत्वों के भय से भयभीत हैं l
    उचित शिक्षा के आभाव में आज समस्त भारत भूमि भावी वीरों से विहीन हो रही है l उद्दमी युवा जो एक वार समाज में कहीं किसी के साथ अन्याय, शोषण अथवा अत्याचार होते देख लेता था, अपराधी को सन्मार्ग पर लाने के लिए उसका गर्म खून खौल उठता था, उसका साहस पस्त हो गया है l यही कारण है कि जहाँ भी दृष्टि जाती है, मात्र भय, निराशा अशांति और अराजकता का तांडव-नृत्य होता हुआ दिखाई देता है l धर्माचार्यों के उपदेशों का बाल-युवा वर्ग पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ रहा है l
    बड़ी कठिनाई से पांच% युवाओं को छोड़कर आज का शेष भारतीय नौजवान वर्ग भले ही बाहर से अपने शरीर, धन, और सौन्दर्य से ही सही अपना यश और नाम कमाने के लिए बढ़-चढ़कर लोक प्रदर्शन करता हो परन्तु वह भीतर से आत्म रक्षा-सुरक्षा की दृष्टि से तो है विवश और असमर्थ ही l उचित शिक्षा के आभाव में वह सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्य क्षेत्र में कोरा होने के साथ-साथ वह अधीर भी है l वह सन्मार्ग भूलकर स्वार्थी, लोभी, घमंडी और आत्म विमुख होता जा रहा है l उसमें सन्मार्ग पर चलने की इच्छा शक्ति भी तो शेष नहीं बची है l वह भूल गया है कि वह स्वयं कौन है और क्या कर सकता है ?
    आज का कोई भी विद्यार्थी, स्नातक, बे-रोजगार नौजवान मानसिक तनाव के कारण आत्म विमुख ही नहीं हताश-निराश भी हो रहा है जिससे वह जाने-अनजाने में आत्म हत्या अथवा आत्मदाह तक कर लेता है l प्राचीन काल की भांति क्या माता-पिता बच्चों में आज अच्छे संस्कारों का सृजन कर पाते हैं ? क्या गुरुजन विद्यार्थी वर्ग में विद्यमान उनके अच्छे गुण व संस्कारों का भली प्रकार पालन-पोषण, संरक्षण और संवर्धन करते हैं ? वर्तमान शिक्षा से क्या विद्यार्थी संस्कारवान बनते हैं ? नहीं तो ऐसा क्या है जिससे कि हम अभिभावक और गुरुजन अपना कर्तव्य भूल रहे हैं ? हम अपना कर्तव्य पालन नहीं कर रहे l




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    4. “विद्यार्थी जीवन कल्याण मंच”

    दैनिक जागरण 2.9.2007 

    प्राचीन काल की तरह माता-पिता व गुरुजनों को आज मात्र स्वयं ही को नहीं जगाना है बल्कि स्वयं जागकर बाल, विद्यार्थी, स्नातक और युवा वर्ग को भी जगाना है l वे अब भी स्वयं और परहित के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं l उनमें लौकिक एवं अलौकिक कार्य कर सकने की अपार क्षमताएं तथा शक्तियां विद्यमान हैं जिन्हें वे मात्र महान पुरुषों के जीवन चरित्र से प्रेरणा लेकर स्वयं अखंड एवं निरंतर प्रयास करके अवश्य प्रकट कर सकते हैं l इनसे आत्म कल्याण एवं परहित के लिए सृजनात्मक तथा रचनात्मक कार्य किये जा सकते हैं l
    अतः आज स्वयं जीवन से भ्रमित और निराश - हताश हो रहे बाल, विद्यार्थी, स्नातक और युवा वर्ग को चाहिए कि अभिभावक, गुरुजन, कर्मठ, उद्यमी, अनुभवियों से योग साधना युक्त “जीवन मार्ग दर्शन” ग्रहण करें जिससे वे स्वयं को तनावमुक्त, संस्कारवान और कठिन से कठिन कार्य करने के योग्य उद्यमी साहसी और जीवन की समस्त चुनौतियों का सामना कर सकने वाले शूरवीर बनने के साथ - साथ अपना भविष्य भी उज्ज्वल बना सकें l स्थानीय अभिभावक, गुरु, राजनेता और प्रशासक जन अपने कर्मठ जीवन अनुभवों से सर्वमान्य, जनहित और संयुक्त आधार पर “बाल सभा” की भाँति, बृहत रूप में, विद्यालय में अपेक्षाकृत गठित किये जाने वाले “विद्यार्थी जीवन कल्याण मंच” के माध्यम द्वारा इस उत्तरदायित्व को भली प्रकार से निभाने का अनवरत एवं अखंड प्रयास कर सकते हैं l इससे बाल एवं विद्यार्थी वर्ग में एक आशा की नई किरण जाग सकती है l इससे स्नातक एवं नौजवान वर्ग को अपना “जीवन कल्याण” करने तथा सफल गृहस्थ जीवन यापन करने की प्रेरणा मिलेगी l इससे समर्थ कर्मवीरों को अपेक्षित ग्रामसेवा, ग्राम विकास करने अपेक्षाकृत राष्ट्र सेवा में सहयोग देने और विश्व परिवार में भाई - बंधुत्व भाव बनाये रखने में महत्व पूर्ण योगदान भी मिलेगा l

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    1. जय राष्ट्रीय निशान

    मातृवन्दना अगस्त 2007  

    जय राष्ट्रीय निशान
    रहे सदा तेरी पहचान
    केसरिया वीरता उत्साह त्याग का सूचक
    आन शान मान का पूजक
    नहीं था तू अनादर करने के योग्य
    जलते देखते हैं यहां वहां हमारे प्राण
    जय राष्ट्रीय निशान
    श्वेत सत्य पवित्रता शांति का प्रतीक
    नहीं है आज यहां सब दिखता ठीक
    गए कहां गुरु देते थे जो हमें सीख
    कर्तव्य अपना भूल गए होता नहीं भान
    जय राष्ट्रीय निशान
    हरा श्रद्धा विश्वास वैभव का द्योतक
    तू तो था दुखसुख का बोधक
    ह्रास त्रास दिखता यहां वहां अत्याचार
    अनाचार नहीं करना था परहित परत्राण
    जय राष्ट्रीय निशान
    काली छाया ने आ ढक लिया है
    तुझे सहने हर संताप दिया है
    फड़कती हैं भुजाएं हमारीे टकराने को
    देकर भी शीश तेरा करेंगे त्राण
    जय राष्ट्रीय निशान