मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



महीना: सितम्बर 2007

  • श्रेणी:

    कर्तव्य विमुखता का काला साया

    आज बुराई का प्रतिरोध करने वाला हमारे बीच में कोई एक भी साहसी, वीर, पराक्रमी, बेटा, जन नायक, योद्धा अथवा सिंहनाद करने वाला शेर नौजवान दिखाई नहीं दे रहा है। मानों जननियों ने ऐसे शेरों को पैदा करना छोड़ दिया है। गुरु जन योद्धाओं को तैयार करना भूल गए हैं अथवा वे समाज विरोधी तत्वों केे भय से भयभीत हैं।
    उचित शिक्षा के अभाव में आज समस्त भारत भूमि भावी वीरों से हीन होने जा रही है। उद्यमी युवा जो एक बार समाज में कहीं किसी के साथ अन्याय, शोषण अथवा अत्याचार होते देख लेता था, अपराधी को सन्मार्ग पर लाने के लिए उसका गर्म खून खौल उठता था, उसका साहस परास्त हो गया है। यही कारण है कि जहां भी दृष्टि जाती है, मात्र भय, निराशा अशांति और अराजकता का तांडव होता हुआ दिखाई देता है। धर्माचार्यों के उपदेशों का बाल-युवावर्ग पर तनिक भी प्रभाव नही पड़ रहा हैै।
    बड़ी कठिनाई से पांच प्रतिशत युवाओं को छोड़ कर आज का शेष भारतीय नौजवान वर्ग भले ही बाहर से अपने बल, धन, सौंदर्य और जवानी से अपना यश और नाम कमाने के लिए बढ़चढ़ कर लोक प्रदर्शन करता हो परन्तु वह भीतर से तो है विवश और असमर्थ ही। इसी कारण सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्य क्षेत्र में कोरा होने के साथ-साथ वह अधीर भी हैै। वह सन्मार्ग भूल कर स्वार्थी, लोभी, घमंडी और आत्म विमुख होता जा रहा है। उसमें सन्मार्ग पर चलने की इच्छा-शक्ति भी तो शेष नही बची है। वह भूल गया है कि वह स्वयं कौन है?
    आज का कोई भी विद्यार्थी, स्नातक, बे-रोजगार नौजवान मानसिक तनाव के कारण आत्म विमुख ही नहीं हताष-निराश भी हो रहा है जिससे वह जाने-अनजाने में आत्महत्या अथवा आत्मदाह तक कर लेता है। प्राचीन काल की भांति क्या माता-पिता बच्चों में आज अच्छे संस्कारों का सृजन कर पाते हैं? क्या गुरुजन विद्यार्थी वर्ग में विद्यमान उनके अच्छे गुण व संस्कारों का भली प्रकार पालन-पोषण, संरक्षण और संवर्धन करते हैं? वर्तमान शिक्षा से क्या विद्यार्थी संस्कारवान बनते हैं? नहीं तो ऐसा क्या है जिससे कि हम अपना कर्तव्य भूल रहे हैं? हम अपना कर्तव्य पालन नहीं कर रहे।
    26 सितम्बर 2007 दैनिक जागरण

  • श्रेणी:

    विद्यार्थी जीवन आदर्श

    अगर कोई स्थानीय व्यक्ति अच्छा खाता-पीता, सोता है और उसके बारे में लोग कहें कि उसका जीवन सर्वश्रेष्ठ है तो एक विद्यार्थी भी उनकी हां में हां मिलाए क्या? नहीं, वह जानता है कि सुखी जीना मात्र खाने-पीने, सोने तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह जीवन की एक कला है। कलात्मक गुणों के कारण ही सुखी जीवन की पहचान होती है। उनसे उसे लौकिक व अलौकिक सुख-शांति प्राप्त होती है। मगर गुण विहीन होने पर उसका वह सब कुछ समाप्त हो जाता है।
    गुणों से ही विद्यार्थी जीवन का विकास होता है। उसके जीवन को स्वतः ही चार चाँद लग जाते हैं । अपने लक्ष्य से भटका हुआ कोई भी विद्यार्थी अपनी आवश्यकता अनुसार प्रयास करके स्वयं को सन्मार्ग पर ले आता है अथवा उसकी आवश्यकता देखते हुए माता-पिता और गुरुजन (अपने बच्चों और विद्यार्थियों को) ऐसा करने में उसे अपना योगदान देते हैं जो अनिवार्य है भी।
    यह सत्य है कि जीना जीवन की कला है। कैसे जिया जाता हैं? जीने की कला को जीवन में चरित्रार्थ करने के लिए अनिवार्य है। विद्यार्थी द्वारा किसी आदर्श जीवन का अनुकरण करना। इसके बिना उसका जीवन नीरस रहता है। किसी भी विद्यार्थी को स्नातक बनने के पश्चात उसके व्यक्तित्व को मात्र उसके अपने बल, बुद्धि, विद्या और गुणों से जाना और पहचाना जाता है। अगर वह समर्थवान अपनी सामर्थया का प्रयोग जन हित कार्य में करता है तो वह सोने पर सुहागा सावित होता है। क्या वर्तमान विद्यार्थी ऐसा करने का प्रयत्न करते हैं? क्या उन्हें ऐसा करना अनिवार्य है?
    25 सितम्बर 2007 दैनिक जागरण