1996 | मानवता - Part 2

मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



साल: 1996

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    14. क्या स्वराज ही लोकराज की इकाई है ?

    आलेख - कश्मीर टाइम्स  8.11.1996

    जब कभी हम एकाकी जीवन में निराशा अनुभव करते हैं तब उस समय हमारी ऐसी भी भावना पैदा हो जाती है कि चलो कहीं किसी सज्जन के पास हो आयें या कहीं किसी रमणीय स्थल पर घूम आयें l यही नहीं हम थोड़ी देर पश्चात् वहां चल भी देते हैं l ऐसा क्यों होता है ? यहाँ पहले हम इसी बात पर विचार करेंगे l

    जब हम अपने घर से बाहर निकलते हैं तो उससे कुछ समय पूर्व जहाँ हमने जाना होता है, उस स्थान का दृश्य हमारे मानस पटल पर उभरता है l


    वह कोई गाँव होता है या शहर, व्यक्ति होता है या जन सभा l सिनेमा घर होता है या कोई अन्य स्थान l उसका हमारे साथ अपना कोई पुराना संबंध होता है या हमने उससे नया ही संबंध बनाना होता है l वह हमारा पुराना संबंध हो या नया, पुराने के साथ पुरातन और नये साथ नवीनतम संबंध के आकर्षण का ही समावेश होता है l भावना के अनुसार किसी वाधा के कारण जब कभी ऐसा न हो सके तो हमें अशांति का ही मुंह देखना पड़ता है l


    जब हममें से कोई व्यक्ति किसी दूरस्थ महानुभाव से मिलता है तो वह उससे उसकी दो बातें सुनता है जबकि अपनी चार सुनाता भी है l ऐसा मात्र ख़ुशी के समय में या विचार विमर्श के समय में ज्ञान के आधार पर होता है l परन्तु जब वहां रोगी होता है तो उस समय आगंतुक अपनी कोई बात न करके मात्र रोगी की द्वा-दारु, सेवा-श्रुषा या उसके स्वास्थ्य से संबंधित बातें करता है l इस प्रकार किन्हीं दो प्रेमियों में उनका प्रेम ही नहीं बनता है बल्कि बढ़ता भी है l वह एक दुसरे से बात कह, सुनकर अपना दुःख-सुख आपस में बाँट लेते हैं l


    नेता के रूप में जब कभी हम में से किसी व्यक्ति को किसी जन सभा में बोलने का सुअवसर मिलता है तो वह तब तक बोलता है जब तक सुनने वालों का झुकाव उसके भाषण की ओर रहता है l वह भाषण का आनंद लेते हैं l सिनेमा या रमणीय स्थलों को देखने वाला कोई भी प्रेमी महानुभाव तो उसे देखता ही रहता है l जब वह उन्हें देखकर लौटता है तब राह में या उसके घर में मिलने वालों के साथ वह अपनी पसंद के दृश्यों के बारे में बातें करता है कि उसे वहां क्या अच्छा लगा और क्यों ? तब उसे मिलने वाले उसकी बात का अनुमोदन करते हैं या कोई तर्क देकर ही उसे समझाते हैं l


    बाढ़, सुखा, आकाल, अग्निकांड, भूकंप जैसे दुखद समय में आस-पड़ोस, गाँव, शहर और राष्ट्र की यही एक भावना होती है कि किसी तरह पीड़ा ग्रस्त लोगों का दुःख दूर हो l वे यथा शक्ति तन, मन से धन, विस्तर, वस्त्र का दान देकर उनकी सहायता करते हैं l


    युद्ध काल में किसी राष्ट्र, समाज के हर व्यक्ति की यही एक भावना होती है कि किसी तरह शत्रु पक्ष हार जाये और उसके अपने ही पक्ष की जीत हो l


    विश्व में हर महानुभाव का मन उसका अपना मन होता है l इस कारण विभिन्न मन के स्वामियों की आपनी-अपनी आस्थायें होती हैं l वह आस्थायें सुख के समय भले ही अलग-अलग हों पर दुःख के समय पर वे सब एक समान हो जाती हैं l उस समय ऐसा भी लगने लगता है मानों चारों ओर से ऐसा सुनाई दे रहा हो कि हमें इसी समानता को सदैव स्थिर बनाये रखना है l इसलिए कि हम किसी का दुःख बाँट सकें l दुखिया भी दुःख से राहत अनुभव कर सके l दुखियों तक सुख-सुविधाएँ पहुँच सकें l वे भी सुख का आनंद ले सकें l वे यह जान सकें कि उन्हें दुखी ही नहीं रहना है, वह भी सुखी हो सकते हैं l यह सत्य है कि अगर हम ऐसा कुछ करते हैं तो हमें अपने राष्ट्र, समाज और परिवार का सदस्य कहलाने का अधिकार स्वयं ही प्राप्त हो जाता है l


    मन के अधीन रहना हर मानव का अपना स्वभाव है l मन का स्वामी बनने के लिए उसे अभ्यास या वैराग्य की शरण लेनी होती है, कड़ी मेहनत करनी पड़ती है l अपनी पवित्र भावना, सद्गुण और संस्कारों के विपरीत अन्य कार्य किया जाना उचित नहीं है l इसी बात को ध्यान में रखकर जिन-जिन महानुभावों के द्वारा पवित्र लोकतंत्र की कल्पना और उसकी पुनर्स्थापना की गई है, उसका संबंध स्वराज ही से है जिसका नियंत्रण अंतरात्मा से होता है l


    स्वराज्य का अर्थ है – अपने शरीर पर अपना राज्य l यह कार्य अपनी सजगता, सतर्कता, तत्परता और अपनी सुव्यवस्था द्वारा संचालित होता है l स्व तथा राज्य इन दोनों शब्दों के आपसी मेल से तो अर्थ स्पष्ट है ही पर इसे यहाँ और स्पष्ट करने की नितांत आवश्यकता है l


    बुद्धि के द्वारा मन को अपनी दस इन्द्रियों के विषयों से बचाना जिनसे कि मन अपने पांच अश्व रूपी विकारों पर चढ़कर पल-पल में पथ-भ्रष्ट होता रहता है, बुद्धि को भी भ्रमित कर देता है – इन्द्रिय दमन कहलाता है यह क्रिया मन को इन्द्रियों के विषयों में भागीदार न बनाने से होती है l बुद्धि द्वारा मन की बहुत सी इच्छाओं पर नियंत्रण करके या उनका त्याग करके किसी एक अति बलशाली इच्छा को ही पूर्ण करने का योगाभ्यास करने से मनोनिग्रह होता है l इससे मन की भटकन समाप्त होती है l उसे कोई एक कार्य करने के लिए असीमित बल मिल जाता है जिसमें वह मग्न रहता है और उसे सफलता भी मिलती है l


    अंत में हमें अपनी बुद्धि का भी जो कभी-कभी मन के विकारों में फंसकर चंचल हो जाती है, उसे स्थितप्रज्ञ बनाये रखने के लिए अपनी आत्मा का ही सहारा लेना चाहिए l उसे आत्म-चिंतन के रूप में मग्न रखना आवश्यक है l अन्यथा विषयों और विकारों का बुद्धि द्वारा चिंतन होने से स्वराज्य या आत्मा का अपना प्रशासन भ्रष्ट होने लगता है l उसकी सुव्यवस्था और सुरक्षा के लिए स्थिर बुद्धि ही की आवश्यकता पड़ती है l हमें अपनी बुद्धि को स्थिर बनाये रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए l इसके लिए हमें सत्संग अर्थात जो सत्य है – उसकी संगत करना अनिवार्य है l सत्संग करने से सत्य की भावना, सत्य की भावना से सत्य विचार, सत्य विचारों से सत्कर्म और सत्कर्मों से निकलने वाला परिणाम भी सत्य ही होता है l इससे नैतिक शक्ति को बल मिलता है l


    वर्तमान काल में स्वराज्य के साथ – साथ लोकराज को भी जोड़ दिया गया है अर्थात आत्म सयंम द्वारा संचालित समाज की भलाई l स्वराज्य में कोई भी व्यक्ति स्वयं का निर्माता, पालक और संहारक भी होता है l उसे अपने लिए करना क्या है ? यह निर्णय पर पाना उसकी अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है l लोकराज तो बहुत लोगों का जनसमूह है जिसमें विभिन्न अंतरात्माओं के द्वारा सर्वसम्मत भिन्न-भिन्न कार्य करने की व्यवस्था होती है जो मात्र स्वतन्त्रता पर आधारित होती है l


    अगर कभी किसी प्रकार की कोई त्रुटि लोकराज्य में आ जाती है तो हमें स्वराज्य ही का निरीक्षण करना चाहिए l अगर स्वराज्य दोषपूर्ण है तो लोकराज में दोष का आना स्वभाविक ही है l लोकतंत्र को दोषमुक्त बनाये रखने के लिए स्वराज्य या आत्म नियंत्रित प्रशासन व्यवस्था पर कड़ी दृष्टि रखना आवश्यक है l ऐसा किये बिना न तो स्वराज्य और न ही लोकतंत्र की सुरक्षा सुनिश्चित रह सकती है l भ्रष्टाचार फ़ैलने और अव्यवस्था होने का मात्र यही एक कारण है l यह सब व्यक्ति और समाज की व्यवहारिक बातें हैं जिनका उन्हें ध्यान रखना अनिवार्य है l



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    13. अपने प्रति अपनी सजगता

    आलेख - कश्मीर टाइम्स 21.10.1996 
    मानव मन जो उसे नीच कर्म करने से रोकता है, विपदा आने से पूर्व सावधान भी करता है, वह स्वयं बड़े रहस्यमय ढंग से एक ऐसे आवरण में छुपा रहता है जिसके चारों ओर विषय, वासना और विकार रूपी एक के पश्चात् एक पहली, दूसरी तीसरी और चौथी परत के पश्चात् परत चढ़ी रहती है l जब मनुष्य अपनी निरंतर साधना, अभ्यास और वैराग्य के बल से उन सभी आवरणों को हटा देता है , आत्मा का साक्षात् कर लेता है उसे पहचान लेता है और ये जान लेता है कि वह स्वयं कौन है ? क्यों है ? तो वह समाज का सेवक बन जाता है l उसकी मानसिक स्थिति एक साधारण मनुष्य से भिन्न हो जाती है l 
    मनुष्य का मन उस जल के समान है जिसका अपना कोई रंग-रूप या आकार नहीं है l कोई उसे जब चाहे जैसे वर्तन में डाले, वह अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं को उसमें व्यवस्थित कर लेता है l ठीक यही स्थिति मनुष्य के मन की है l चाहे वह उसे अज्ञानता के गहरे गर्त में धकेल दे या ज्ञानता के उच्च शिखर पर ले जाये, ये उसके अधीन है l उसका मन दोनों कार्य कर सकता है, सक्षम है l इनमें अंतर मात्र ये है कि एक मार्ग से उसका पतन होता है और दूसरे से उत्थान l इन्हें मात्र सत्य पर आधारित शिक्षा से जाना जा सकता है l
    संसार में भोग और योग दो ऐसी सीढियाँ हैं जिन पर चढ़कर मनुष्य को भौतिक एवंम अध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है l यह तो उसके द्वारा विचार करने योग्य बात है कि उसे किस सीढ़ी पर चढ़ना है और किस सीढ़ी पर चढ़कर उसे दुःख मिलता है और किससे सुख ?
    महानुभावों का अपने जीवन में यह भली प्रकार विचार युक्त जाना-पहचाना दिव्य अनुभव रहा है कि बुराई संगत करने योग्य वस्तु नहीं है l भोग-चिंतन कुसंगति का बुलावा है l भोग-चितन करने से मनुष्य बुरी संगत में पड़ता है l बुरी संगत करने से बुरी भावना, बुरी भावना से बुरे विचार, बुरे विचारों से बुरे कर्म पैदा होते हैं जिनसे निकलने वाला फल भी बुरा ही होता है l
    बुराई से दूर रहो ! इसलिए नहीं कि आप उससे भयभीत हो l वह इसलिए कि दूर रहकर आप उससे संघर्ष करने का अपना सहस बढ़ा सको l मन को बलशाली बना सको l इन्द्रियों को अनुशासित कर सको l फिर देखो, बुराई से संघर्ष करके l इससे निकलने वाले परिणाम से आपको ही नहीं आपके परिवार, गाँव, शहर,समाज और राष्ट्र के साथ-साथ विश्व का भी कल्याण होगा l वास्तविक मानव जीवन यही है l
    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना सम्भवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l
    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना संभवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l ये उसकी अपनी दुर्बलता है l जब तक वह अपने आप को बलशाली नहीं बना लेता, तब तक वह स्वयं ही बुराई का शिकार नहीं होगा बल्कि उससे उसका कोई अपना हितैषी बन्धु भी चैन की नींद नहीं सो सकता l
    मनुष्य भोग बिना योग और योग बिना भोग सुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे भोग में योग और योग में भोग का व्यवहारिक अनुभव होना नितांत आवश्यक है l वह चाहे पढ़ाई से जाना गया हो या क्रिया अभ्यास से ही सिद्ध किया गया हो l अगर जीवन में इन दोनों का मिला-जुला अनुभव हो जाये तो वह एक अति श्रेष्ठ अनुभव होगा l इसके लिए कोरी पढ़ाई जो आचरण में न लाई जाये, नीरस है और कोरा क्रिया अभ्यास जिसका पढ़ाई किये बिना आचरण किया गया हो - आनंद रहित है l
    जिस प्रकार साज और आवाज के मेल से किसी नर्तकी के पैर न चाहते हुए भी अपने आप थिरकने आरम्भ हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार अध्यन के साथ-साथ उसका आचरण करने से मनुष्य जीवन भी स्वयं ही सस्भी सुखों से परिपूर्ण होता जाता है l
    प्राचीन काल में ही क्यों आज भी हमारे बीच में ऐसे कई महानुभाव विद्यमान हैं जो आजीवन अविवाहित रहने का प्रण किये हुए हैं और दूसरे गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर उच्च सन्यासी हो गए हैं या जिन्होंने तन, मन और धन से वैराग्य ले लिया है l उनका ध्येय स्थित प्रज्ञ की प्राप्ति अथवा आत्मशांति प्राप्त करने के साथ-साथ सबका कल्याण करना होता है l इनके मार्ग भले ही अलग-अलग हों पर मंजिल एक ही है l
    वह ब्रहमचारी या सन्यासी जिसकी बुद्धि किसी इच्छा या वासना के तूफान में कभी अडिग न रह सके, वह न तो ब्रह्मचारी हो सकता है और न ही सन्यासी l उसे ढोंगी कहा जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा – क्योंकि ब्रहमचारी किसी रूप को देखकर कभी मोहित नहीं होता है और सन्यासी किसी का अहित अथवा नीच बात नहीं सोच सकता जिससे उसका या दूसरे का कोई अहित हो l इनमें एक अपने सयंम का पक्का होता है और दूसरा अपने पर्ण का l अपमानित तो वाही होते हैं जो इन दोनों बातों से अनभिज्ञ रहते हैं या वे उनकी उपेक्षा करते हैं l इसलिए समाज में कुछ करने के लिए आवश्यक है अपने प्रति अपनी निरंतर सजगता बनाये रखना और ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे जीवन आत्मोन्मुखी बना रहे l




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    11. राष्ट्र का नेतृत्व किनके हाथ है ?

    कश्मीर टाइम्स 19.9.1996

    जब कभी समुद्र की विशाल छाती को चीरते हुए अपनी मंजिल की ओर अग्रसित हो रहे किसी बड़े के तल में कोई अचानक छिद्र हो जाता है और उस बड़े के कर्मचारी जाने या अनजाने में उससे अनभिज्ञ रहते हैं या उसकी सुरक्षा हेतु समय रहते कोई उचित ठोस पग नहीं उठा पाते हैं, मालूम है तब क्या होता है ? समुद्र का पानी धीरे–धीरे उस छिद्र से रिसकर बेड़े में प्रविष्ठ हो जाता है और उसमें सवार महानुभावों को यह भी देखने को मिल जाता है कि हालत नियंत्रण से बाहर हैं और बेड़ा समुद्र की शांत गहराइयों में समाता हुआ चला जा रहा है l इससे पूर्व बेड़े के बचाव हेतु उसके कर्मचारियों को सतर्क रहना अति आवश्यक है l
    इसी प्रकार किसी व्यक्ति के जीवन, परिवार, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र को आंतरिक या बाह्या आपत्ति से बचाने के लिए किसी महानुभाव के द्वारा सचेत करना या सचेत रखना भी आवश्यक है l सदियों से हमारे प्यारे जननायक, महात्मा, संत, मनीषी, विद्वान् लोग ऐसा करते आये हैं, अब कर रहे हैं और आगे भी करेंगे l उनके इस पुनीत कार्य में भले ही लाख बाधाएं आयें पर वे अपना प्रयत्न जारी रखते हैं l जो लोग उनका पहले विरोध करते हैं, वही लोग एक दिन उनकी सफलता पर चकित होकर धन्य-धन्य कहने लगते हैं l
    प्रशासन में एक साधारण से चौकीदार से लेकर उससे संबंधित विभाग के उच्च पदाधिकारी और मंत्री तक उन सबकी अपनी कुछ न कुछ जिम्मेदारियां होती हैं, कर्तव्य होते हैं जिन्हें कुशलता और जिम्मेदारी से पूरा करना उन सबका अपना धर्म होता है l अगर उनमें तनिक सी भी उपेक्षा रह जाये या मलिनता आ जाये तो मानो राष्ट्र रूपी बेड़े के तल छेद हो गया l उसे तुरंत निष्क्रिय कर देना समुद्री बेड़े की मुरम्मत कर देने के समान होगा l अन्यथा “हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे” l कहावत साकार हो जाएगी l
    राष्ट्र में व्यक्तिगत, सार्वजनिक और राष्ट्रीय सीमाओं, भवनों, पुलों, कोषालयों, लेखागारों तथा भंडारों पर जब कभी भीषण आक्रमण, तोड़फोड़, अग्निकांड या डाका जैसी कोई अनहोनी घटना हो जाती है और वह लापरवाही अथवा बे-वशी जो वास्तव में किन्हीं महानुभावों की होती है – क्या उसे उनकी उपेक्षा माना जाता है ? उसके आगे उनकी जीविका का प्रश्न उठाकर तब क्या राष्ट्रहित को भी तिलांजली दे दी जाती है ? किसी उपेक्षा से जन्य दर्दनाक घटना को क्या प्राकृतिक घटना का रूप दे दिया जाता है ? अपराधी व्यक्ति तो घटना का जिम्मेदार, दंडनीय होता है l किसी कारण उसे दंड का भय होने के स्थान पर अपराधिक अपेक्षा, अभय स्वछंदता पूर्वक विचरण करने को बल अथवा प्रोत्साहन तो नहीं मिलता है ?
    दंड व्यवस्था संविधान की धाराओं तक सीमित होकर तो नहीं रह जाती है ? अपराध भले ही साधारण हो या गंभीर, पारिवारिक हों या सार्वजनिक, धार्मिक हों या आर्थिक, न्यायिक हों या राजनैतिक, राष्ट्रीय हों या अंतर्राष्ट्रीय दंड तो दंड ही है l उसकी कार्यशैली निष्पक्ष, दंडनीय होती है l उसके लिए न तो कोई अपना होता है न बेगाना, न साधारण होता है न महत्वपूर्ण, न ऊँचा होता है न नीचा न राजा होता है न रंक l अपराधी तो सदा अपराधी ही होता है और दण्डनीय होता है l क्या उसे दंड मिलता है ? क्या पीड़ित को न्याय मिलता है ?
    कहीं कानून के रखवालों की लालच, शोषण स्वार्थ और भेदभाव की प्रवृत्ति के कारण राष्ट्रीय भावना आहात तो नहीं हो रही ? अगर ऐसा है तो वह जीवित कैसे रह सकती है ? राष्ट्रीय भावना और देशभक्ति की ज्वाला को परखने के लिए उनके द्वारा उस स्थान पर नाके तो नहीं लगा दिये जाते हैं, जहाँ सत्य बोलना अपराध समझा जाता हो l झूठ की जय होती हो l सत्य झूठ बन जाता हो l सत्य को दंड मिलता हो l झूठ अपराध मुक्त हो जाता हो l क्योंकि वर्तमान दंड व्यवस्था देखती है प्रमाण l वह प्रमाण झूठ, मनगढंत, किसी भयभीत करके, बलपूर्वक जबरन जुटाए हुए, पक्षपात पूर्ण खरीदे हुए हो सकते हैं l क्या विधान उन सभी की भली प्रकार जांच, परख, पहचानकर अपराधी को दंडनीय सिद्ध कर पाता है ? कहीं किसी निर्दोष को दंड तो नहीं मिलता है ? कहीं राष्ट्रहित की बात सोचना और बात करने का अर्थ किसी के लिए भय, कारावास और मौत का कारण तो नहीं बन जाता है ? आज देशभक्ति, राष्ट्रीय भावना भ्रष्टाचारी लोगों से भयभीत क्यों है ? भ्रष्टाचारियों का हमारे चारों ओर बोलवाला कैसा है ? लोकतंत्र पर भष्ट तन्त्र का सिकंजा सुदृढ़ क्यों है ? इन सबके लिए आज उत्तरदायी कौन है ?
    लगता है हमारी देशभक्ति और राष्ट्रीय भावना का दिवाला निकल गया है l क्या इसी समय के लिए हमारे राष्ट्र के असंख्य देशभक्त नर-नारियों, बुजुर्गों और बच्चों ने भारत मां की पराधीनता की बेड़ियों का काटा था, देश के शत्रुओं के दान्त खट्टे करते हुए अपने प्राण न्योछावर किये थे, हंसते हुए फांसियों के फंदे अपनी गर्दनों में डाले थे, शत्रुओं की दनदनाती हुई गोलियों को अपने सीनों पर झेला था और वन्दे मातरम, भारत माता की जय करते हुए मां की गोदी में सदा के लिए सो गए थे l
    ऐसा लगता है हमारे समाज ने देशभक्ति और राष्ट्रीय भावना को अपने जीवन से पूर्णरूप से निकालकर उसे ताक पर रख दिया है l वह आज भी जातिवाद, धर्मवाद, भाषावाद, सीमावाद, रंग तथा लिंग आदि भेदभावों तक ही सीमित है l हमारा इतिहास साक्षी है कि विदेशी आक्रान्ताओं ने इन वादविवादों, भेदभावों से जन्य हमारी बौद्धिक दुर्बलताओं को ही अपना प्रयोजन सिद्ध करने का माध्यम बनाया था l हमारे राष्ट्र की सुख-समृद्धि एवंम शांति को नष्ट किया था जो राष्ट्र की स्वतंत्रता के पश्चात आज भी जारी है l
    कौन हैं वे लोग जो इसका नेतृत्व संभाले हुए हैं ? कहनी वे भाड़े के लोभी विदेशी नीति पर चलने वाले विदेशी चमचे देश के स्वार्थी गद्दार तो नहीं जो हमारे देश में रहकर विदेशियों के इशारों पर राष्ट्र एवं समाज की व्यवस्था के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं l देश के विकास में बाधा डाल रहे हैं और देश की नींव का चूहों की भांति भीतर ही भीतर खोखला करने में दिन-रात सक्रिय हैं l उन्हें पता नहीं है क्या ?
    दे सकते हैं सत्ता, हम जिन शासकों को,
    हटा सकते हैं, हम उन्हें भी शासन से,
    लोकतांत्रिक हैं, हम कहेंगे उन शासकों से,
    गद्दारी मत करना, तुम भूलकर भी स्वशासन से,
    दे सकते हो, कुशल स्वच्छ प्रशासन देना,
    सुख-समृद्धि देना कल्याणकारी प्रशासन देना,
    नहीं तो फिर हमने तुम्हारा स्थान खाली कर देना,
    चाहेंगे हम तुम्हारा स्थान खाली कर देना,
    आज राष्ट्र को आवश्यकता है ऐसे शिक्षक, अभिभावक, राजनीतिज्ञ और प्रशासकों की जो मिलकर ये विचार करें कि भ्रष्टतंत्र से मुक्त लोकतंत्र का विकास कैसे हो सकता है ? अपराधी बिन देर किये दंडित कैसे हों और निर्दोष भय मुक्त होकर अपना जीवन यापन कैसे करें ? राष्ट्रीय सुरक्षा और न्याय व्यवस्था को हम सबकी रक्षा और सुरक्षा के लिए सुदृढ़ और सक्रिय होना चाहिए, नहीं तो उसके होने का अर्थ ही क्या है ?

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    9. मानव इन्द्रियां – स्वाभाविक गुण

    कश्मीर टाइम्स 24 अगस्त 1996 

    मानव शरीर उस सुंदर मकान के समान जिसमें आवश्यकता अनुसार दरवाजे, खिड़कियाँ, अलमारियां, रोशनदान, और नालियां सब कुछ उपलब्ध होता है l उसमें घर की प्रत्येक वस्तु उचित स्थान पर उचित और सुसज्जित ढंग से रखी हुई होती है l मानव शरीर मुख्यतः कान, नाक, आँख, जिह्वा, त्वचा, हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैरों के ही कारण परिपूर्ण और मनमोहक है l वह अपना प्रत्येक कार्य करने में हर प्रकार से सक्षम है l
    भारतीय विद्वानों ने मनुष्य के इन महत्वपूर्ण अंगों को इन्द्रियां नाम प्रदान किया है l इन इन्द्रियों की कर्मशीलता के ही कारण मनुष्य शरीर गतिशील है l यह इन्द्रियां दो प्रकार की हैं – ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ l ज्ञानेन्द्रियों में कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा आती हैं और कर्मेन्द्रियों में हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर l इन सबके अपने-अपने कार्य हैं जो अपना विशेष महत्व रखते हैं l
    पांच ज्ञानेन्द्रियों में जो मनुष्य के शरीर में सुशोभित हैं, वह समय-समय पर आवश्यकता अनुसार मनुष्य को विभिन्न प्रकार के ज्ञान से स्वर्ग तुल्य आनंद व सुख की अनुभूति करवाती हैं l इन ज्ञानेन्द्रियों कान से शब्द ज्ञान, आँख से दृश्य ज्ञान, नाक से गंध ज्ञान, जिह्वा से स्वाद ज्ञान और त्वचा से स्पर्श ज्ञान सुख प्राप्त होते हैं l सृष्टि में पांच महाभूत आकाश, आग, मिटटी, पानी और वायु पाए जाते हैं जो क्रमशः कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा से शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श के रूप में अनुभव किये जाते हैं l
    आकाश के माध्यम से कान के द्वारा शब्द सुनने से शब्द ज्ञान होता है l यह शब्द कई प्रकार के होते हैं, जैसे – गाने का शब्द, बजाने का शब्द, नाचने का शब्द, हंसने का शब्द, रोने का शब्द, बड़बड़ाने का शब्द, पढ़ने-पढ़ाने का शब्द, शंख फूंकने का शब्द, गुनगुनाने का शब्द, बतियाने का शब्द, चलने का शब्द, तैरने का शब्द, लकड़ी काटने का शब्द इतियादि l
    आग या प्रकाश के माध्यम से आँख के द्वारा देखने से दृश्य-ज्ञान होता है l उन्हें मुख्यतः चार भागों में विभक्त किया जा सकता है – रंगों के आधार पर, बनावट के आधार पर, रूप के आधार पर और क्रिया गति के आधार पर l
    रंगों में – नीला, पीला, काला, हरा, सफेद, और लाल रंग पमुख हैं तथा अन्य प्रकार के रंग उपरोक्त रंगों के मिश्रण से जो विभिन्न अनुपात में मिलाये जाते हैं, से मन चाहे रंग तैयार किये जा सकते हैं l
    बनावट आकर में – गोलाकर, अर्ध गोलाकार, त्रिभुजाकार, आयताकार, वर्गाकार, सर्पाकार, आयताकार, लम्बा, छोटा, मोटा, नुकीला और धारदार आदि l
    रूप प्रकार में – प्रकाश, ज्योति, आग, शरीर, पवन का स्पर्श, जल, वायु की सर-सराहट, मिटटी आदि l
    क्रिया गति में – दो प्रकार हैं, सजीव तथा निर्जीव l सजीव स्वयं ही क्रियाशील हैं जबकि निर्जीव को क्रियाशील किया जाता है और उसे गति प्रदान की जातीहै l
    मिटटी और उससे उत्पन्न जड़ी बूटियों, पेड़ पोधों, फूल-वनस्पतियों और फलों से विभिन्न प्रकार की उड़ने वाली गंधों – का नाक के द्वारा सूंघने से गंध–ज्ञान होता है l गंधे कई प्रकार की हैं जिनमें कुछ इस प्रकार हैं – जलने की गंध, सड़ने की गंध, पकवान पकने की गंध, फूल-वनस्पति की गंध, पेड़ छाल की गंध, मल-मूत्र की गंध तथा मांस मदिरा की गंध आदि l
    जल या रस के रूप में – पेय वस्तुओं का जिह्वा द्वारा स्वाद चखने से स्वाद-ज्ञान होअता है l यह भी कई प्रकार के हैं – खट्टा, मीठा, फीका, नमकीन, तीक्षण, कसैला और कड़वा आदि l
    वायु के स्पर्श से त्वचा पर पड़ने वाले प्रभावों से त्वचा के जिन जिन रूपों में अनुभव होता है उनमें ठंडा, गर्म, नर्म, ठोस मुलायम और खुरदरा प्रमुख अनुभव हैं l
    पांच कर्मेन्द्रियाँ मनुष्य को कर्म करने में सहायता करती हैं l यह इन्द्रियां इस प्रकार हैं – मुंह, हाथ, उपस्थ, गुदा और पैर l मुंह से होने वाले कार्य इस प्रकार है – फल खाना, बातें करना, गाना, हँसना, रोना, बड़बड़ाना, बांसुरी बजाना, शंख फूंकना, गुनगुनाना और पानी पीना आदि l
    हाथों से किये जाने वाले कार्य इस प्रकार हैं – पैन पकड़ना, पत्र लिखना, सिर खुजलाना, कपड़ा निचोड़ना, खाना पकाना, ढोल बजाना, मशीन चलाना, भाला फैंकना, तैरना, धान कूटना, स्वेटर बुनना, दही बिलोना, कपडा सिलना, फूल तोडना, कढ़ाई करना, मूर्ति तराशना, चित्र बनाना, हल चलाना, अनाज तोलना, नोट गिनना, आँगन बुहारना, बर्तन साफ करना, पोंछा लगाना, गोबर लीपना, चिनाई करना, कटाई करना, पिंजाई करना आदि l
    मूत्र विच्छेदन करना उपस्थ का कार्य है l
    गुदा मल विच्छेदन का कार्य करता है l
    पैरों से चलना, खड़ा होना, दौड़ना, नाचना, कूदना आदि कार्य किये जाते हैं l
    इस प्रकार हम देख चुके हैं कि ज्ञानेन्द्रियाँ मनुष्य को ज्ञान की ओर और कर्मेन्द्रियाँ कर्म की ओर आकर्षित करती हैं l यही उनका अपना स्वभाव है l

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    8. यह कैसा लोकतंत्र है ?

    कश्मीर टाइम्स 10 अगस्त 1996 

    स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के पश्चात हमारे प्रिय जन नायकों ने लोकतंत्र – जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए “जनता राज” अथवा लोकतंत्र शासन प्रणाली की पुनर्स्थापना करने का प्रयास किया था l उसी रूप को साकार करने के लिए उन्होंने भारत का संविधान भी बनाया था ताकि उसे व्यवहारिक रूप में परिणत करके उससे जन साधारण से लेकर महत्वपूर्ण व्यक्तियों तक का कल्याण किया जा सके l राष्ट्र को समर्पित जननायक सेवक तथा स्वच्छ एवंम कुशल प्रशासन मिल सके जिससे जन साधारण परिवार, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र का भली प्रकार विकास हो सके l सबको उचित न्याय मिल सके l शोषण मुक्त समाज में सब लोग खुली साँस ले सकें l हमारा राष्ट्र एक बार फिर विश्व को सही राह दिखा सके l परन्तु लोकतांत्रिक देश भारत की भोली-भाली जनता नहीं जानती थी कि विदेशी लुटेरों को जिस दिन भारत में मुंह की खानी पड़ेगी और उन्हें लौटकर स्वदेश जाना पड़ेगा तो उस दिन से वह अपने ही घर में छुपे हुए विदेशी भाड़े के चमचे और गद्दारों के चुंगल में फंसकर पग-पग पर उनका शिकार भी होगी l
    आज राष्ट्र की जागृत जनता को आवश्यकता नहीं है – मुट्ठी भर स्वार्थी, लोभी और महाचतुर उन लोगों की जो शासक बनकर उस पर भ्रष्ट शासन करें l सत्ता के उन भूखे भेड़ियों की जरूरत नहीं जो जनता का भांति-भांति का तो स्वयं शोषण करे पर दूसरों से भी करवायें l जनता में भय, आतंक, फैलाने वालों की आवश्यकता नहीं है जो चोरी-चुपके आक्रांताओं और घुसपैठियों का समर्थन तो करें पर अपने घर पर आतंक से संबंधित गतिविधियों का संचालन और नेतृत्व करने के लिए उन्हें शरण भी दें और उन्हें धनबल देकर उत्साहित भी करें l रक्षा-सुरक्षा के नाम पर जनता की जान और माल को ही दांव पर लगा दें l बे-वश, लाचार, निर्धन जनता को धन का लोभ, बाहुबल, बन्दुक का भय दिखाकर प्रशासनिक व्यवस्था से खिलवाड़ करें l राष्ट्र का विकास करने के नाम और उसे आत्म निर्भर बनाने के स्थान पर प्यारे भारत को ऋण के बोझ तले दबा दें और उसका स्वर्ण भंडार गिरवी रखवा दें l राष्ट्रीय कोष भंडार बढ़ाने और उससे विकास कार्य करने के स्थान पर घोटाला, गबन ही करें और सफेद धन को काला धन बनाकर उसे विदेशों में जमा करके उन्हें समृद्ध करें l देश के होनहार युव, श्रमिक, मनीषी, कलाकार, और विज्ञानिकों का विदेश गमन करने को बाध्य करें l क्या राष्ट्र के ऐसे शुभचिंतक, जननायक, प्रशासक, सेवक और उनका प्रशासन जनता को कभी सुख-समृद्धि प्रदान कर सकता है ?
    आज राष्ट्र में पग-पग पर व्यक्तिगत, सार्वजनिक, ऐतिहासिक एवंम राष्ट्रीय संपदा ही असुरक्षित नहीं है, महत्वपूर्ण व्यक्तियों से लेकर जन साधारण तक के जीवन की रक्षा-एवं सुरक्षा के आगे भी प्रश्न चिह्न लग गया है l ऐसे किसी भी दिन की सुबह होती है जिस दिन यह सुनने, पढ़ने या देखने को न मिले कि अमुक घर, दूकान, या कोषालय में चोरी हो गई, डिकैती गई l अमुक महत्वपूर्ण या जन साधारण की किसी बेनाम नकाबपोश द्वारा हत्या कर दी गई और वह भाग गया l
    इसी प्रकार अपने ही राष्ट्र और राज्य में आतंकित लोगों को सामूहिक रूप में अपनी मातृभूमि, धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर का भी त्याग कर देना पड़ता है l उन्हें दुसरे राज्यों में जाकर शरण लेने पड़ती है l वहां उन्हें शरणार्थी बनकर रहना पड़ता है l ऐतिहासिक, सार्वजनिक भवन, भंडार और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय लेखागार धू-धू करके जलते हुए दिखाई देते हैं l सीमावर्ती क्षेत्रों में विदेशी विमानों द्वारा युद्धक सामग्री ही नहीं गिराई जाती है अपितु विदेशी भाड़े के घुसपैठिये सैनिक भी उतारे जाते हैं और प्रशासन पीटता है मात्र उस लकीर को जो सांप के चले जाने से बनती है या जब कोई अनहोनी हो जाती है l स्पष्ट है कि इससे पूर्व प्रशासन सोया रहता है l
    उन नेताओं को तो क्या कहें ! जो अपने ही घर, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र में रहते हुए भी शत्रु से अपनी ही जान-माल की आप रक्षा नहीं कर पाते हैं l स्पष्ट है कि वे उसके योग्य नहीं हैं l नेता जनता की रक्षा-सुरक्षा बनाये रखने में विफल रहते हैं l उसके प्रति अपनी कर्तव्य निष्ठा का ढोल पीटना हो और वे स्वयं उसकी रक्षा-सुरक्षा का कार्य करवाने के लिए दूसरे राष्ट्रों पर निर्भर रहते हों, उनसे मार्गदर्शन लेते हों l कोई उनसे पुछे कि दूसरे उनकी दुहाई क्यों सुनेंगे ? क्या पड़ी है उन्हें ऐसा करने की ? अपने राष्ट्र को दुखी, पीड़ित, बेसहारा, अपाहिज और अल्पवेतन भोगी लोग उनसे क्या आशा कर सकते हैं ? कौन करेगा उनकी रक्षा ? कैसे रह पाएंगे वे सुरक्षित, जब राष्ट्र का ही प्रशासन सोया हुआ हो l
    जहां अन्यन्त्रित जनसंख्या बढ़ती है, वहाँ कृषि एवं वाणिज्य के नाम पर उत्पादन, निर्माण, और शिक्षण-प्रशिक्षण जैसे कार्यों में गति लानी आवश्यक होता है l जंगल सिकुड़ते जाते हैं l बाढ़ का प्रकोप बढ़ जाता है l पशु-पक्षियों की जातियों-प्रजातियों में भारी कमी आती है l बूचड़ खाने बनाये जाते हैं l पशुओं की हत्याएं की जाती हैं l पर्यावरण प्रदूषण फैलता है l खाद्य एवंम स्वास्थ्य वर्धक वस्तुओं में मिलावट होती है l जीवन उपयोगी वस्तुओं की गुणवत्ता में कमी होने के साथ-साथ उनका महंगा क्रय-विक्रय भी किया जाता है l अल्प समय में अत्याधिक लाभ कमाने हेतु असीमित भंडारण होता है l काला धन बढ़ता है l कालेधन से गैर-कानूनी कार्य होते हैं l
    अत्याधिक लाभ कमाने हेतु असीमित भंडारण होता है l काला धन बढ़ाया जाता है l राजनेता काले धन से पथ भ्रष्ट होते हैं l गैर कानुनी कार्यं होते हैं l उच्च अधिकारियों को प्रसन्न रखने तथा अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए रिश्वत, घूस और कमीशन दी जाती है l जो न ले उसे बलात थमा दी जाती है l डराया धमकाया भी जाता है l ताकि वह उनका भंडा न फोड़ दे l माप-तोल और मोल में मनमानियाँ होती हैं l लाचार निर्धनों की अपर्याप्त. सीमित, चल-अचल सम्पदा पर प्रभावशाली लोगों के अवैध नियंत्रण, निर्माण, संबंधी कार्यं भी होते हैं पर फिर भी जन नायकों की दृष्टि में प्रशासन स्वच्छ एवंम कुशल ही होता है l मानो उपरोक्त कार्य राष्ट्रीय रक्षा-सुरक्षा, न्याय और सुव्यवस्था की मशीन को ग्रीस का काम करते हों l जननायकों के पास आवश्यक किये जाने वाले कार्य अधिक होते हैं l वे उनमें व्यस्त होते हैं l उन्हें प्रशासकों के द्वारा प्रशासन का कार्य ठीक चल रहा है, दिखाया जाता है, भले ही प्रशासन में ढेरों ही गलतियाँ और कमियां क्यों न हों l प्रशासक तो प्रशासन से संतुष्ट ही रहते हैं वह प्रशासन के स्वयं कर्ता-धर्ता जो होते हैं l प्रशासन उनकी इच्छा से चला आ रहा है और चलेगा भी l जननायकों का तो आना-जाना लगा रहता है l सरकारें बदलती रहती हैं l जन नायकों को प्रशासन से शिकायत कैसे हो सकती है ? उन्हें तो कुर्सी बचानी है, सरकार चलानी है l क्या पता वह आज है कल रहे या न रहे और सोई जनता आपनी आँखें खोले भी तो क्यों ? उसे राष्ट्र का शुभ चिन्तक जगाने का दुस्साहस भी क्यों करे ? परिस्थिति तो अभी ऐसी हुई नहीं है कि मेहनती पिसे चक्की, चापलूस मारे फक्के, राज करे महामूर्ख ज्ञानी खाए धक्के l
    देश के प्रिय जननायकों ने राष्ट्र में लोकतंत्र की पुनार्स्थापना इस दृष्टि से की थी कि वह देश के लिए एक वरदान सिद्ध हो परन्तु उपरोक्त समस्त उपलब्धियों से विदित है कि प्रचलित लोकतंत्र देश के लिए अभिशाप के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है l हमसे कहीं भूल अवश्यं हुई है l क्या हम सब अभिभावक, शिक्षक, राजनीतिज्ञ और प्रशासक अब भी उस भूल को सुधारने का प्रयास करेंगे ? क्या वह एक कुशल एवंम स्वच्छ लोकतंत्र को साकार कर पाएंगे ? किसी विदेशी के पूछने पर कि भारत कैसा लोकतंत्र है ? उन्हें क्या वह उसकी यथार्थता बता पाएंगे ? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे हाथी के दान्त खाने के और, और दिखाने के और, मुहावरे को ही व्यक्त कर रहे हों !