कश्मीर टाइम्स 19.9.1996
जब कभी समुद्र की विशाल छाती को चीरते हुए अपनी मंजिल की ओर अग्रसित हो रहे किसी बड़े के तल में कोई अचानक छिद्र हो जाता है और उस बड़े के कर्मचारी जाने या अनजाने में उससे अनभिज्ञ रहते हैं या उसकी सुरक्षा हेतु समय रहते कोई उचित ठोस पग नहीं उठा पाते हैं, मालूम है तब क्या होता है ? समुद्र का पानी धीरे–धीरे उस छिद्र से रिसकर बेड़े में प्रविष्ठ हो जाता है और उसमें सवार महानुभावों को यह भी देखने को मिल जाता है कि हालत नियंत्रण से बाहर हैं और बेड़ा समुद्र की शांत गहराइयों में समाता हुआ चला जा रहा है l इससे पूर्व बेड़े के बचाव हेतु उसके कर्मचारियों को सतर्क रहना अति आवश्यक है l
इसी प्रकार किसी व्यक्ति के जीवन, परिवार, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र को आंतरिक या बाह्या आपत्ति से बचाने के लिए किसी महानुभाव के द्वारा सचेत करना या सचेत रखना भी आवश्यक है l सदियों से हमारे प्यारे जननायक, महात्मा, संत, मनीषी, विद्वान् लोग ऐसा करते आये हैं, अब कर रहे हैं और आगे भी करेंगे l उनके इस पुनीत कार्य में भले ही लाख बाधाएं आयें पर वे अपना प्रयत्न जारी रखते हैं l जो लोग उनका पहले विरोध करते हैं, वही लोग एक दिन उनकी सफलता पर चकित होकर धन्य-धन्य कहने लगते हैं l
प्रशासन में एक साधारण से चौकीदार से लेकर उससे संबंधित विभाग के उच्च पदाधिकारी और मंत्री तक उन सबकी अपनी कुछ न कुछ जिम्मेदारियां होती हैं, कर्तव्य होते हैं जिन्हें कुशलता और जिम्मेदारी से पूरा करना उन सबका अपना धर्म होता है l अगर उनमें तनिक सी भी उपेक्षा रह जाये या मलिनता आ जाये तो मानो राष्ट्र रूपी बेड़े के तल छेद हो गया l उसे तुरंत निष्क्रिय कर देना समुद्री बेड़े की मुरम्मत कर देने के समान होगा l अन्यथा “हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे” l कहावत साकार हो जाएगी l
राष्ट्र में व्यक्तिगत, सार्वजनिक और राष्ट्रीय सीमाओं, भवनों, पुलों, कोषालयों, लेखागारों तथा भंडारों पर जब कभी भीषण आक्रमण, तोड़फोड़, अग्निकांड या डाका जैसी कोई अनहोनी घटना हो जाती है और वह लापरवाही अथवा बे-वशी जो वास्तव में किन्हीं महानुभावों की होती है – क्या उसे उनकी उपेक्षा माना जाता है ? उसके आगे उनकी जीविका का प्रश्न उठाकर तब क्या राष्ट्रहित को भी तिलांजली दे दी जाती है ? किसी उपेक्षा से जन्य दर्दनाक घटना को क्या प्राकृतिक घटना का रूप दे दिया जाता है ? अपराधी व्यक्ति तो घटना का जिम्मेदार, दंडनीय होता है l किसी कारण उसे दंड का भय होने के स्थान पर अपराधिक अपेक्षा, अभय स्वछंदता पूर्वक विचरण करने को बल अथवा प्रोत्साहन तो नहीं मिलता है ?
दंड व्यवस्था संविधान की धाराओं तक सीमित होकर तो नहीं रह जाती है ? अपराध भले ही साधारण हो या गंभीर, पारिवारिक हों या सार्वजनिक, धार्मिक हों या आर्थिक, न्यायिक हों या राजनैतिक, राष्ट्रीय हों या अंतर्राष्ट्रीय दंड तो दंड ही है l उसकी कार्यशैली निष्पक्ष, दंडनीय होती है l उसके लिए न तो कोई अपना होता है न बेगाना, न साधारण होता है न महत्वपूर्ण, न ऊँचा होता है न नीचा न राजा होता है न रंक l अपराधी तो सदा अपराधी ही होता है और दण्डनीय होता है l क्या उसे दंड मिलता है ? क्या पीड़ित को न्याय मिलता है ?
कहीं कानून के रखवालों की लालच, शोषण स्वार्थ और भेदभाव की प्रवृत्ति के कारण राष्ट्रीय भावना आहात तो नहीं हो रही ? अगर ऐसा है तो वह जीवित कैसे रह सकती है ? राष्ट्रीय भावना और देशभक्ति की ज्वाला को परखने के लिए उनके द्वारा उस स्थान पर नाके तो नहीं लगा दिये जाते हैं, जहाँ सत्य बोलना अपराध समझा जाता हो l झूठ की जय होती हो l सत्य झूठ बन जाता हो l सत्य को दंड मिलता हो l झूठ अपराध मुक्त हो जाता हो l क्योंकि वर्तमान दंड व्यवस्था देखती है प्रमाण l वह प्रमाण झूठ, मनगढंत, किसी भयभीत करके, बलपूर्वक जबरन जुटाए हुए, पक्षपात पूर्ण खरीदे हुए हो सकते हैं l क्या विधान उन सभी की भली प्रकार जांच, परख, पहचानकर अपराधी को दंडनीय सिद्ध कर पाता है ? कहीं किसी निर्दोष को दंड तो नहीं मिलता है ? कहीं राष्ट्रहित की बात सोचना और बात करने का अर्थ किसी के लिए भय, कारावास और मौत का कारण तो नहीं बन जाता है ? आज देशभक्ति, राष्ट्रीय भावना भ्रष्टाचारी लोगों से भयभीत क्यों है ? भ्रष्टाचारियों का हमारे चारों ओर बोलवाला कैसा है ? लोकतंत्र पर भष्ट तन्त्र का सिकंजा सुदृढ़ क्यों है ? इन सबके लिए आज उत्तरदायी कौन है ?
लगता है हमारी देशभक्ति और राष्ट्रीय भावना का दिवाला निकल गया है l क्या इसी समय के लिए हमारे राष्ट्र के असंख्य देशभक्त नर-नारियों, बुजुर्गों और बच्चों ने भारत मां की पराधीनता की बेड़ियों का काटा था, देश के शत्रुओं के दान्त खट्टे करते हुए अपने प्राण न्योछावर किये थे, हंसते हुए फांसियों के फंदे अपनी गर्दनों में डाले थे, शत्रुओं की दनदनाती हुई गोलियों को अपने सीनों पर झेला था और वन्दे मातरम, भारत माता की जय करते हुए मां की गोदी में सदा के लिए सो गए थे l
ऐसा लगता है हमारे समाज ने देशभक्ति और राष्ट्रीय भावना को अपने जीवन से पूर्णरूप से निकालकर उसे ताक पर रख दिया है l वह आज भी जातिवाद, धर्मवाद, भाषावाद, सीमावाद, रंग तथा लिंग आदि भेदभावों तक ही सीमित है l हमारा इतिहास साक्षी है कि विदेशी आक्रान्ताओं ने इन वादविवादों, भेदभावों से जन्य हमारी बौद्धिक दुर्बलताओं को ही अपना प्रयोजन सिद्ध करने का माध्यम बनाया था l हमारे राष्ट्र की सुख-समृद्धि एवंम शांति को नष्ट किया था जो राष्ट्र की स्वतंत्रता के पश्चात आज भी जारी है l
कौन हैं वे लोग जो इसका नेतृत्व संभाले हुए हैं ? कहनी वे भाड़े के लोभी विदेशी नीति पर चलने वाले विदेशी चमचे देश के स्वार्थी गद्दार तो नहीं जो हमारे देश में रहकर विदेशियों के इशारों पर राष्ट्र एवं समाज की व्यवस्था के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं l देश के विकास में बाधा डाल रहे हैं और देश की नींव का चूहों की भांति भीतर ही भीतर खोखला करने में दिन-रात सक्रिय हैं l उन्हें पता नहीं है क्या ?
दे सकते हैं सत्ता, हम जिन शासकों को,
हटा सकते हैं, हम उन्हें भी शासन से,
लोकतांत्रिक हैं, हम कहेंगे उन शासकों से,
गद्दारी मत करना, तुम भूलकर भी स्वशासन से,
दे सकते हो, कुशल स्वच्छ प्रशासन देना,
सुख-समृद्धि देना कल्याणकारी प्रशासन देना,
नहीं तो फिर हमने तुम्हारा स्थान खाली कर देना,
चाहेंगे हम तुम्हारा स्थान खाली कर देना,
आज राष्ट्र को आवश्यकता है ऐसे शिक्षक, अभिभावक, राजनीतिज्ञ और प्रशासकों की जो मिलकर ये विचार करें कि भ्रष्टतंत्र से मुक्त लोकतंत्र का विकास कैसे हो सकता है ? अपराधी बिन देर किये दंडित कैसे हों और निर्दोष भय मुक्त होकर अपना जीवन यापन कैसे करें ? राष्ट्रीय सुरक्षा और न्याय व्यवस्था को हम सबकी रक्षा और सुरक्षा के लिए सुदृढ़ और सक्रिय होना चाहिए, नहीं तो उसके होने का अर्थ ही क्या है ?