कश्मीर टाइम्स 24 अगस्त 1996
मानव शरीर उस सुंदर मकान के समान जिसमें आवश्यकता अनुसार दरवाजे, खिड़कियाँ, अलमारियां, रोशनदान, और नालियां सब कुछ उपलब्ध होता है l उसमें घर की प्रत्येक वस्तु उचित स्थान पर उचित और सुसज्जित ढंग से रखी हुई होती है l मानव शरीर मुख्यतः कान, नाक, आँख, जिह्वा, त्वचा, हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैरों के ही कारण परिपूर्ण और मनमोहक है l वह अपना प्रत्येक कार्य करने में हर प्रकार से सक्षम है l
भारतीय विद्वानों ने मनुष्य के इन महत्वपूर्ण अंगों को इन्द्रियां नाम प्रदान किया है l इन इन्द्रियों की कर्मशीलता के ही कारण मनुष्य शरीर गतिशील है l यह इन्द्रियां दो प्रकार की हैं – ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ l ज्ञानेन्द्रियों में कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा आती हैं और कर्मेन्द्रियों में हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर l इन सबके अपने-अपने कार्य हैं जो अपना विशेष महत्व रखते हैं l
पांच ज्ञानेन्द्रियों में जो मनुष्य के शरीर में सुशोभित हैं, वह समय-समय पर आवश्यकता अनुसार मनुष्य को विभिन्न प्रकार के ज्ञान से स्वर्ग तुल्य आनंद व सुख की अनुभूति करवाती हैं l इन ज्ञानेन्द्रियों कान से शब्द ज्ञान, आँख से दृश्य ज्ञान, नाक से गंध ज्ञान, जिह्वा से स्वाद ज्ञान और त्वचा से स्पर्श ज्ञान सुख प्राप्त होते हैं l सृष्टि में पांच महाभूत आकाश, आग, मिटटी, पानी और वायु पाए जाते हैं जो क्रमशः कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा से शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श के रूप में अनुभव किये जाते हैं l
आकाश के माध्यम से कान के द्वारा शब्द सुनने से शब्द ज्ञान होता है l यह शब्द कई प्रकार के होते हैं, जैसे – गाने का शब्द, बजाने का शब्द, नाचने का शब्द, हंसने का शब्द, रोने का शब्द, बड़बड़ाने का शब्द, पढ़ने-पढ़ाने का शब्द, शंख फूंकने का शब्द, गुनगुनाने का शब्द, बतियाने का शब्द, चलने का शब्द, तैरने का शब्द, लकड़ी काटने का शब्द इतियादि l
आग या प्रकाश के माध्यम से आँख के द्वारा देखने से दृश्य-ज्ञान होता है l उन्हें मुख्यतः चार भागों में विभक्त किया जा सकता है – रंगों के आधार पर, बनावट के आधार पर, रूप के आधार पर और क्रिया गति के आधार पर l
रंगों में – नीला, पीला, काला, हरा, सफेद, और लाल रंग पमुख हैं तथा अन्य प्रकार के रंग उपरोक्त रंगों के मिश्रण से जो विभिन्न अनुपात में मिलाये जाते हैं, से मन चाहे रंग तैयार किये जा सकते हैं l
बनावट आकर में – गोलाकर, अर्ध गोलाकार, त्रिभुजाकार, आयताकार, वर्गाकार, सर्पाकार, आयताकार, लम्बा, छोटा, मोटा, नुकीला और धारदार आदि l
रूप प्रकार में – प्रकाश, ज्योति, आग, शरीर, पवन का स्पर्श, जल, वायु की सर-सराहट, मिटटी आदि l
क्रिया गति में – दो प्रकार हैं, सजीव तथा निर्जीव l सजीव स्वयं ही क्रियाशील हैं जबकि निर्जीव को क्रियाशील किया जाता है और उसे गति प्रदान की जातीहै l
मिटटी और उससे उत्पन्न जड़ी बूटियों, पेड़ पोधों, फूल-वनस्पतियों और फलों से विभिन्न प्रकार की उड़ने वाली गंधों – का नाक के द्वारा सूंघने से गंध–ज्ञान होता है l गंधे कई प्रकार की हैं जिनमें कुछ इस प्रकार हैं – जलने की गंध, सड़ने की गंध, पकवान पकने की गंध, फूल-वनस्पति की गंध, पेड़ छाल की गंध, मल-मूत्र की गंध तथा मांस मदिरा की गंध आदि l
जल या रस के रूप में – पेय वस्तुओं का जिह्वा द्वारा स्वाद चखने से स्वाद-ज्ञान होअता है l यह भी कई प्रकार के हैं – खट्टा, मीठा, फीका, नमकीन, तीक्षण, कसैला और कड़वा आदि l
वायु के स्पर्श से त्वचा पर पड़ने वाले प्रभावों से त्वचा के जिन जिन रूपों में अनुभव होता है उनमें ठंडा, गर्म, नर्म, ठोस मुलायम और खुरदरा प्रमुख अनुभव हैं l
पांच कर्मेन्द्रियाँ मनुष्य को कर्म करने में सहायता करती हैं l यह इन्द्रियां इस प्रकार हैं – मुंह, हाथ, उपस्थ, गुदा और पैर l मुंह से होने वाले कार्य इस प्रकार है – फल खाना, बातें करना, गाना, हँसना, रोना, बड़बड़ाना, बांसुरी बजाना, शंख फूंकना, गुनगुनाना और पानी पीना आदि l
हाथों से किये जाने वाले कार्य इस प्रकार हैं – पैन पकड़ना, पत्र लिखना, सिर खुजलाना, कपड़ा निचोड़ना, खाना पकाना, ढोल बजाना, मशीन चलाना, भाला फैंकना, तैरना, धान कूटना, स्वेटर बुनना, दही बिलोना, कपडा सिलना, फूल तोडना, कढ़ाई करना, मूर्ति तराशना, चित्र बनाना, हल चलाना, अनाज तोलना, नोट गिनना, आँगन बुहारना, बर्तन साफ करना, पोंछा लगाना, गोबर लीपना, चिनाई करना, कटाई करना, पिंजाई करना आदि l
मूत्र विच्छेदन करना उपस्थ का कार्य है l
गुदा मल विच्छेदन का कार्य करता है l
पैरों से चलना, खड़ा होना, दौड़ना, नाचना, कूदना आदि कार्य किये जाते हैं l
इस प्रकार हम देख चुके हैं कि ज्ञानेन्द्रियाँ मनुष्य को ज्ञान की ओर और कर्मेन्द्रियाँ कर्म की ओर आकर्षित करती हैं l यही उनका अपना स्वभाव है l
महीना: अगस्त 1996
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9. मानव इन्द्रियां – स्वाभाविक गुण
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8. यह कैसा लोकतंत्र है ?
कश्मीर टाइम्स 10 अगस्त 1996
स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के पश्चात हमारे प्रिय जन नायकों ने लोकतंत्र – जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए “जनता राज” अथवा लोकतंत्र शासन प्रणाली की पुनर्स्थापना करने का प्रयास किया था l उसी रूप को साकार करने के लिए उन्होंने भारत का संविधान भी बनाया था ताकि उसे व्यवहारिक रूप में परिणत करके उससे जन साधारण से लेकर महत्वपूर्ण व्यक्तियों तक का कल्याण किया जा सके l राष्ट्र को समर्पित जननायक सेवक तथा स्वच्छ एवंम कुशल प्रशासन मिल सके जिससे जन साधारण परिवार, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र का भली प्रकार विकास हो सके l सबको उचित न्याय मिल सके l शोषण मुक्त समाज में सब लोग खुली साँस ले सकें l हमारा राष्ट्र एक बार फिर विश्व को सही राह दिखा सके l परन्तु लोकतांत्रिक देश भारत की भोली-भाली जनता नहीं जानती थी कि विदेशी लुटेरों को जिस दिन भारत में मुंह की खानी पड़ेगी और उन्हें लौटकर स्वदेश जाना पड़ेगा तो उस दिन से वह अपने ही घर में छुपे हुए विदेशी भाड़े के चमचे और गद्दारों के चुंगल में फंसकर पग-पग पर उनका शिकार भी होगी l
आज राष्ट्र की जागृत जनता को आवश्यकता नहीं है – मुट्ठी भर स्वार्थी, लोभी और महाचतुर उन लोगों की जो शासक बनकर उस पर भ्रष्ट शासन करें l सत्ता के उन भूखे भेड़ियों की जरूरत नहीं जो जनता का भांति-भांति का तो स्वयं शोषण करे पर दूसरों से भी करवायें l जनता में भय, आतंक, फैलाने वालों की आवश्यकता नहीं है जो चोरी-चुपके आक्रांताओं और घुसपैठियों का समर्थन तो करें पर अपने घर पर आतंक से संबंधित गतिविधियों का संचालन और नेतृत्व करने के लिए उन्हें शरण भी दें और उन्हें धनबल देकर उत्साहित भी करें l रक्षा-सुरक्षा के नाम पर जनता की जान और माल को ही दांव पर लगा दें l बे-वश, लाचार, निर्धन जनता को धन का लोभ, बाहुबल, बन्दुक का भय दिखाकर प्रशासनिक व्यवस्था से खिलवाड़ करें l राष्ट्र का विकास करने के नाम और उसे आत्म निर्भर बनाने के स्थान पर प्यारे भारत को ऋण के बोझ तले दबा दें और उसका स्वर्ण भंडार गिरवी रखवा दें l राष्ट्रीय कोष भंडार बढ़ाने और उससे विकास कार्य करने के स्थान पर घोटाला, गबन ही करें और सफेद धन को काला धन बनाकर उसे विदेशों में जमा करके उन्हें समृद्ध करें l देश के होनहार युव, श्रमिक, मनीषी, कलाकार, और विज्ञानिकों का विदेश गमन करने को बाध्य करें l क्या राष्ट्र के ऐसे शुभचिंतक, जननायक, प्रशासक, सेवक और उनका प्रशासन जनता को कभी सुख-समृद्धि प्रदान कर सकता है ?
आज राष्ट्र में पग-पग पर व्यक्तिगत, सार्वजनिक, ऐतिहासिक एवंम राष्ट्रीय संपदा ही असुरक्षित नहीं है, महत्वपूर्ण व्यक्तियों से लेकर जन साधारण तक के जीवन की रक्षा-एवं सुरक्षा के आगे भी प्रश्न चिह्न लग गया है l ऐसे किसी भी दिन की सुबह होती है जिस दिन यह सुनने, पढ़ने या देखने को न मिले कि अमुक घर, दूकान, या कोषालय में चोरी हो गई, डिकैती गई l अमुक महत्वपूर्ण या जन साधारण की किसी बेनाम नकाबपोश द्वारा हत्या कर दी गई और वह भाग गया l
इसी प्रकार अपने ही राष्ट्र और राज्य में आतंकित लोगों को सामूहिक रूप में अपनी मातृभूमि, धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर का भी त्याग कर देना पड़ता है l उन्हें दुसरे राज्यों में जाकर शरण लेने पड़ती है l वहां उन्हें शरणार्थी बनकर रहना पड़ता है l ऐतिहासिक, सार्वजनिक भवन, भंडार और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय लेखागार धू-धू करके जलते हुए दिखाई देते हैं l सीमावर्ती क्षेत्रों में विदेशी विमानों द्वारा युद्धक सामग्री ही नहीं गिराई जाती है अपितु विदेशी भाड़े के घुसपैठिये सैनिक भी उतारे जाते हैं और प्रशासन पीटता है मात्र उस लकीर को जो सांप के चले जाने से बनती है या जब कोई अनहोनी हो जाती है l स्पष्ट है कि इससे पूर्व प्रशासन सोया रहता है l
उन नेताओं को तो क्या कहें ! जो अपने ही घर, गाँव, तहसील, जिला, राज्य और राष्ट्र में रहते हुए भी शत्रु से अपनी ही जान-माल की आप रक्षा नहीं कर पाते हैं l स्पष्ट है कि वे उसके योग्य नहीं हैं l नेता जनता की रक्षा-सुरक्षा बनाये रखने में विफल रहते हैं l उसके प्रति अपनी कर्तव्य निष्ठा का ढोल पीटना हो और वे स्वयं उसकी रक्षा-सुरक्षा का कार्य करवाने के लिए दूसरे राष्ट्रों पर निर्भर रहते हों, उनसे मार्गदर्शन लेते हों l कोई उनसे पुछे कि दूसरे उनकी दुहाई क्यों सुनेंगे ? क्या पड़ी है उन्हें ऐसा करने की ? अपने राष्ट्र को दुखी, पीड़ित, बेसहारा, अपाहिज और अल्पवेतन भोगी लोग उनसे क्या आशा कर सकते हैं ? कौन करेगा उनकी रक्षा ? कैसे रह पाएंगे वे सुरक्षित, जब राष्ट्र का ही प्रशासन सोया हुआ हो l
जहां अन्यन्त्रित जनसंख्या बढ़ती है, वहाँ कृषि एवं वाणिज्य के नाम पर उत्पादन, निर्माण, और शिक्षण-प्रशिक्षण जैसे कार्यों में गति लानी आवश्यक होता है l जंगल सिकुड़ते जाते हैं l बाढ़ का प्रकोप बढ़ जाता है l पशु-पक्षियों की जातियों-प्रजातियों में भारी कमी आती है l बूचड़ खाने बनाये जाते हैं l पशुओं की हत्याएं की जाती हैं l पर्यावरण प्रदूषण फैलता है l खाद्य एवंम स्वास्थ्य वर्धक वस्तुओं में मिलावट होती है l जीवन उपयोगी वस्तुओं की गुणवत्ता में कमी होने के साथ-साथ उनका महंगा क्रय-विक्रय भी किया जाता है l अल्प समय में अत्याधिक लाभ कमाने हेतु असीमित भंडारण होता है l काला धन बढ़ता है l कालेधन से गैर-कानूनी कार्य होते हैं l
अत्याधिक लाभ कमाने हेतु असीमित भंडारण होता है l काला धन बढ़ाया जाता है l राजनेता काले धन से पथ भ्रष्ट होते हैं l गैर कानुनी कार्यं होते हैं l उच्च अधिकारियों को प्रसन्न रखने तथा अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए रिश्वत, घूस और कमीशन दी जाती है l जो न ले उसे बलात थमा दी जाती है l डराया धमकाया भी जाता है l ताकि वह उनका भंडा न फोड़ दे l माप-तोल और मोल में मनमानियाँ होती हैं l लाचार निर्धनों की अपर्याप्त. सीमित, चल-अचल सम्पदा पर प्रभावशाली लोगों के अवैध नियंत्रण, निर्माण, संबंधी कार्यं भी होते हैं पर फिर भी जन नायकों की दृष्टि में प्रशासन स्वच्छ एवंम कुशल ही होता है l मानो उपरोक्त कार्य राष्ट्रीय रक्षा-सुरक्षा, न्याय और सुव्यवस्था की मशीन को ग्रीस का काम करते हों l जननायकों के पास आवश्यक किये जाने वाले कार्य अधिक होते हैं l वे उनमें व्यस्त होते हैं l उन्हें प्रशासकों के द्वारा प्रशासन का कार्य ठीक चल रहा है, दिखाया जाता है, भले ही प्रशासन में ढेरों ही गलतियाँ और कमियां क्यों न हों l प्रशासक तो प्रशासन से संतुष्ट ही रहते हैं वह प्रशासन के स्वयं कर्ता-धर्ता जो होते हैं l प्रशासन उनकी इच्छा से चला आ रहा है और चलेगा भी l जननायकों का तो आना-जाना लगा रहता है l सरकारें बदलती रहती हैं l जन नायकों को प्रशासन से शिकायत कैसे हो सकती है ? उन्हें तो कुर्सी बचानी है, सरकार चलानी है l क्या पता वह आज है कल रहे या न रहे और सोई जनता आपनी आँखें खोले भी तो क्यों ? उसे राष्ट्र का शुभ चिन्तक जगाने का दुस्साहस भी क्यों करे ? परिस्थिति तो अभी ऐसी हुई नहीं है कि मेहनती पिसे चक्की, चापलूस मारे फक्के, राज करे महामूर्ख ज्ञानी खाए धक्के l
देश के प्रिय जननायकों ने राष्ट्र में लोकतंत्र की पुनार्स्थापना इस दृष्टि से की थी कि वह देश के लिए एक वरदान सिद्ध हो परन्तु उपरोक्त समस्त उपलब्धियों से विदित है कि प्रचलित लोकतंत्र देश के लिए अभिशाप के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है l हमसे कहीं भूल अवश्यं हुई है l क्या हम सब अभिभावक, शिक्षक, राजनीतिज्ञ और प्रशासक अब भी उस भूल को सुधारने का प्रयास करेंगे ? क्या वह एक कुशल एवंम स्वच्छ लोकतंत्र को साकार कर पाएंगे ? किसी विदेशी के पूछने पर कि भारत कैसा लोकतंत्र है ? उन्हें क्या वह उसकी यथार्थता बता पाएंगे ? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे हाथी के दान्त खाने के और, और दिखाने के और, मुहावरे को ही व्यक्त कर रहे हों !
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7. भारतीय शिक्षा की परंपरा
आलेख - दैनिक कश्मीर टाइम्स 9.8.1996
जिस प्रकार निवार से किसी लकड़ी की चारपाई को कलात्मक ढंग से बुनकर तैयार किया जाता है ठीक उसी प्रकार किसी देश का मानचित्र उसके अनुकूल उपयोगी शिक्षा पर निर्भर करता है l इस काम में अभिभावक, शिक्षक, राजनीतिज्ञ और प्रशासकों के आपसी प्रेम, सहयोग त्याग और बलिदान की भूमिका प्रमुख रहती है l इससे भाषा, विद्या-कला, सभ्यता, संस्कृति और साहित्य का विकास होता है तथा उनकी सदियों-सदियों तक पहचान भी बनी रहती है l
पुराने समय से ही भारतवर्ष गुरुकुलों का स्वामी रहा है, वह जगत कहलाया है l गुरुकुलों में गुरुजन शिष्यों को शिक्षा देने से पूर्व स्वयं आचरण करके जीवन चरित्रार्थ करते थे l वे विद्यार्थी को आत्मज्ञान देने के साथ-साथ उसे कार्य एवं व्यवहार करने हेतु रचनात्मक तथा सकारात्मक शिक्षण भी देते थे l वह लोक भ्रमण व अनुसन्धान करके दिव्य अनुभव प्राप्त करते थे l वह गुरुकुलों में समय-समय पर कला- प्रतियोगिताओं का आयोजन करते थे जिनसे विद्यार्थियों की कला-निपुणता का पता चलता था l
महऋषि व्यास जी द्वारा रचित महाभारत के अनुसार – एक बार गुरु द्रोणाचार्य जी ने अपने शिष्यों की धनुर्विद्या की परीक्षा लेनी थी l उन्होंने काष्ठ की एक चिड़िया पेड़ पर रखवा दी थी l सभी शिष्यों को बारी-बारी से चिड़िया की आँख में निशाना लगा कर अपनी-अपनी धनुर्विद्या का परिचय देना था l इस प्रतियोगिता में वीर अर्जुन को छोड़ कोई भी शिष्य सफल नहीं हो पाया था l इस कारण वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाये थे l
शिक्षा पूरी होने पर गुरु-इच्छा अनुसार हर विद्यार्थी के द्वारा गुरु जी को गुरु दक्षिणा देना अति आवश्यक होता था l जंगल में भ्रमण करते हुए गुरु द्रोणाचार्य जी ने एक कुत्ते का मुंह घाव रहित तीरों से भरा हुआ देखा l वे सब उस कुत्ते का साथ, उस एकांत स्थान पर जा पहुंचे जहाँ द्रोणमूर्ति के आगे एकलव्य एकाग्रचित होकर अपनी धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था l उसी ने विद्या अभ्यास में विघ्न डाल रहे (भौकते हुए) कुत्ते के मुंह में एक साथ अनेकों तीर भर दिए थे l
अचानक अपने समक्ष साक्षात् गुरूजी को देख एकलव्य ने उनके आगे ससम्मान अपना सर झुका दिया l गुरूजी के पूछने पर उसने अपना परिचय दिया और बताया कि वे स्वयं द्रोण ही उसके गुरु हैं l गुरु दक्षिणा के रूप में गुरूजी ने एकलव्य से उसका दायें हाथ का अंगूठा माँगा जिसे उसने सहर्ष काटकर उन्हें भेंट कर दिया l
शिक्षा पूरी हो जाने के पश्चात विद्यार्थी गुरु-इच्छा अनुसार मन, कर्म, वचन का जीवन पर्यंत पालन करते थे l
इस काम में उनके अभिभावकों का भी पूर्ण योगदान रहता था l गुरुकुलों से विद्यार्थियों का प्रस्थान इस बात की पहचान करवाता था कि वह अपने जीवन, परिवार, सार्वजनिक जीवन की हर कठिनाई का सामना और समस्याओं का समाधान करने में पूर्ण समर्थ हैं और सक्षम भी l वह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवंम आत्मिक रूप से बलशाली, प्रेमी-भक्त, बुद्धिमान और आत्मीयता के धनी हो गये हैं l
जब कोई विद्यार्थी अपने जीवन की कठिनाइयों और समस्याओं के भय से भयभीत अथवा हताश भी हो जाता तो उसके लिए उसे गुरु आश्रम के कपाट सदा खुले ही मिलते थे l वह गुरूजी से विचार-विमर्श करने और मार्गदर्शन पाने के लिए वहां किसी भी समय आ-जा सकता था l
गुरुकुल में हर विद्यार्थी के हृदय और मस्तिष्क एक विशेष ज्ञानामृत भर दिया जाता था l “हे प्रभु ! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले जा l अँधेरे से उजाले की ओर ले जा l मृत्यु से अमरता की ओर ले जा l” परिणाम स्वरूप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करना उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य होता था l
भारतीय समाज में आदरणीय माता-पिता व गुरुजी का देव तुल्य पूजनीय स्थान है l उनकी सेवा ईश्वर की पूजा समझी जाती है l माँ-बाप अच्छी सुसंस्कृत सन्तान के जनक हैं तो गुरुजन अच्छे राजनेता प्रशासक और सेवकों के निर्माता, प्रणेता और पोषक भी हैं l
स्वयं सीखना और योग्य बनना तथा दूसरों को सिखाना और उन्हें योग्य बनाना भारतीय शिक्षा की परंपरा रही है l उस समय देशभर में अभिभावक, गुरु, राजनेता, प्रशासकों के आपसी ताने-बाने में कमी आ गई थी l महामना आचार्य चाणक्य जी ने पुरानी चारपाई समान चरमराता हुआ राष्ट्र स्वरूप देखा l उन्होंने नन्हें परन्तु योग्य शिष्य चन्द्रगुप्त को शिक्षित करके न्यायप्रिय, दूरदर्शी, कुशल राजनीतिज्ञ बनाया और उसके मन में राष्ट्रीय एकता, अखंडता, देशप्रेम, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना का बीज रोपित किया l उन्होंने साम, दाम, दंड और भेद पर आधारित राजनीति की भारत में लोकतान्त्रिक नींव रख दी जिस पर चन्द्रगुप्त ने विशाल भवन निर्माण करके उसे उच्च शिखर तक पहुँचाने में अथक प्रयास किये ताकि अखंड भारत का सपना साकार हो सके l काश मार्गदर्शन करने हेतु आज हमारे बीच में कोई आचार्य चाणक्य जैसा किसी माँ का लाल और शिष्यों का गुरु होता ! सावधान ! स्थान-स्थान पर पैदा हो रहे हैं – लार्ड मैकाले l उस जैसा सोचने वाले, देखने वाले, बोलने वाले और सुनने वाले l वही लूट रहे हैं अपने ही राष्ट्र को, समाज को और गांवों को l दे रहे हैं धोखा भी अपने ही आपको दिन-रात एक करके l वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की अव्यवस्था आज किसी राष्ट्रभक्त को दिखाई नहीं दे रही है क्या ?
ज्ञान-विज्ञान, धन संपदा, सुख-समृद्धि और शांति का सृजन, पोषण, रक्षा और विकास करने के लिए आज देश भक्तों से राष्ट्र को चाहिए – प्रेम, सहयोग, त्याग, और बलिदान l ये कार्य मात्र देशभक्त अभिभावक, गुरु, राजनीतिज्ञ और प्रशासक ही कर सकते हैं l जो सोये हुए हैं, उन्हें जगाना होगा और जो जागे हुए हैं, उनको अपने जीवन में उच्च आदर्श अपनाकर स्वयं बनने का प्रयास करना चाहिए l पति श्री राम – चिंतन करे जो मात्र अपनी पत्नी का l पत्नी सीता – दिन-रात मग्न रहे पति-प्रेम में l पुत्र श्रवण कुमार – नित सेवा करे माता-पिता की l सेवक हनुमान - व्यस्त रहे सेवा में, स्वामी की l भक्त प्रहलाद – भक्ति ही शक्ति माने l शिष्य एकलव्य – गुरु में अटूट श्रद्धा रखे l भ्राता लक्ष्मण – भाई संग बराबर दुःख-सुख बाँट सके l त्यागी भरत – राजपाट रज सम समझे l गुरु चाणक्य – सबको सही राह दिखा सके l विदेही जनक – मोह देह का छोड़ सके l लोक नायक सुभाष, भगत, शेखर - देश हित अपना सर्वस्व बलिदान कर सके l दूर नहीं हैं सब, अब भी तुमसे, हैं बीच में वे छुपे हुए l प्रयत्न करो तुम सब मिलकर, बेड़ा पार हो जाये भारत का l
मत भूलो ! भारतीय शिक्षा सर्व गुण संपन्न, सर्व शक्तिमान, सर्व सुख दायक है l उसकी दृष्टि में विश्व का गूढ़ से गूढ़ रहस्य मात्र रहस्य बनकर न तो कभी रहा है और न रह ही सकता है l आओ ! हम सब मिलकर प्रभु से प्रार्थना करें कि इस लोक कल्याणकारी संकल्प को साकार करने हेतु वो हमें दृढ़ता, साहस, निर्भयता और शक्ति दें और हमें सफल भी बनाएं l चैन की बंशी बजेगी, जब भ्रष्टाचार का दूर होगा अँधेरा, सदाचार का पालन करेगा बच्चा बच्चा, तब होगा फिर नया सवेरा l शिक्षा ही एक ऐसा दिव्य अस्त्र-शस्त्र है जिससे अशिक्षा, अज्ञानता, और विश्व की किसी भी बुराई का सहजता से सामना किया जा सकता है l इस कार्य में मात्र भारतीय शिक्षा अपने आप में ग्यानी-विज्ञानी, आचार्यों के कुशल नेतृत्व में पूरी सक्षम और समर्थ है l
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6. लार्ड मैकाले और भारतीय शिक्षा
कश्मीर टाइम्स 4.8.1996
इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि भारतीय परंपरागत जन उपयोगी शिक्षा-प्रणाली ने विश्व की विशाल धरती पर मानव समाज, स्थानीय भाषा, विद्या, कला, ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति और साहित्य सृजन, पोषण और उसका विकास किया l उसके सामने आई समस्या व्यक्तिगत विकास की रही हो या समाजिक. आर्थिक हो या राजनैतिक, सभ्यता, कला–सांस्कृतिक हो या राष्ट्रीय – भारतीय शिक्षा-प्रणाली को मिली हर क्षेत्र में पूर्ण सफलता उसके अपने अस्तित्व का प्रमाण रही है l वह अपने आप में पूर्ण थी, सक्षम थी और समर्थ भी l
प्रमाणिकता के अनुसार भारतीय इतिहास उन महान विभूतियों के vls Hkjk gqvk gS अदम्य साहस, पराक्रम, न्याय प्रियता, दूरदर्शिता, सद्चरित्रता, धीरता-वीरता, त्याग, सेवाभाव, बलिदान, परोपकार सादगी, सत्य, प्रेम-भक्ति, तपस्या, जप-तप, योग साधना की पवित्र गाथाओं से भरा हुआ है जिनका गुण-गान व्यख्यान करती कलम कभी रूकती नहीं है l वाणी कहते, कान सुनते थकते नहीं हैं और आँखें सोना भूल जाती हैं l यह सब भारतीय शिक्षा-प्रणाली ही की बात है l जिससे विश्व भर में “सोने की चिड़िया” के नाम से, भारत की पहचान बनी l
“सारी धरती गोपाल की है l” अथवा “धरती पर रहने वाले सभी प्राणियों का स्वामी एक है l” कहने वाला अगर विश्व में कोई राष्ट्र है तो वह भारतवर्ष ही है l इससे उसके सत्य ज्ञान सर्वोदयी भावना और शुद्ध संकल्प का पता चलता है l ऐसा विश्व ने माना है l
विश्व में हर कोई किसी का शत्रु नहीं है और हर कोई सदा मित्र भी नहीं रहता है l जो आज शत्रु है, कल मित्र हो सकता है और आज का मित्र कल का शत्रु बन सकता है l पतन के पश्चात् उत्थान और उत्थान के बाद पतन का होना निश्चित है जो धुप-छाँव के समान हैं l बात सर्व विदित है कि किसी घर की कमजोरी का लाभ कोई बुद्धिमान, महाचतुर, कुटनीतिज्ञ शत्रु ही उठाता है l वह पहले उस घर में फूट की ज्वाला प्रज्वलित करता है फिर उस खेल का दृश्य भी देखता है l समय या असमय पर सोने की चिड़िया भारत वर्ष के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है l
महाचतुर, कुटनीतिज्ञ, बुद्धिमान मैकाले ने भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा करने के पश्चात् यह भली प्रकार जान लिया था कि जिस प्रकार उसके अपने राष्ट्र में सुख-समृद्धि के लिए एक लोक प्रिय सरकार और उसे दीर्घ काल तक अपने अस्तित्व में बनाये रखने के लिए एक स्वच्छ पारदर्शी एवंम कुशल प्रशासन अनिवार्य है – ठीक उसी प्रकार शांतिप्रिय, ज्ञान-विज्ञान, अपार सुख समृद्धि से संपन्न भारतवर्ष “सोने की चिड़िया” को हर प्रकार से खोखला व कमजोर करने और उसे लूटने के लिए एक ऐसी उद्देश्यहीन, दिशाहीन, शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता है जो भारत की सर्वोच्च ब्रह्म विद्या, कला, ज्ञान-विज्ञान धर्म संस्कृति, साहित्य और सभ्यता का समूल विनाश कर दे l वह फिर कभी पनपे भी तो वह भारत के हित के लिए नहीं मात्र ब्रिटिश साम्राज्य के हित ही में समर्पित हो l
इसी भावना के साथ 2 अक्तूबर 1835 के दिन वह भारत के किसी भू-भाग पर गोरों द्वारा गोरों के लिए आयोजित एक गुप्त सम्मेलन में उपस्थित हुआ था l वहां उसने गोरों को संबोधित करते हुए कहा था – “हमने शिक्षा द्वारा भारत में एक ऐसा नया वर्ग तैयार करना है जो हाड-मांस और रक्त से भले ही भारतीय हो परन्तु वह ह्रदय और मस्तिष्क से अंग्रेज अवश्य होगा l”
जहाँ पन्द्रह अगस्त 1947 के दिन भारत स्वतंत्र हुआ था वहीँ उसे धरोहर रूप में भी मिली थी पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली l उसका हम आज भी उसी प्रकार अनुसरण किये जा रहे हैं जैसा कि अपने शासन-काल में अंग्रेज किया करते थे l हमें चाहिए था - पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली का पूर्णतया त्याग कर देते और उसके स्थान पर फिर से अपनी परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली अपनाते परन्तु ऐसा हुआ नहीं l इसकी जमने आवश्यकता ही नहीं समझी l भारतवासी आज भी अपने हृदय और मस्तिष्क से भारतीय बनने को तैयार नहीं हैं l