जुलाई, 1996 | मानवता

मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



महीना: जुलाई 1996

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    5. विदेशी शिक्षा से हमे क्या मिला ?

    कश्मीर टाइम्स 26 जुलाई 1996  

    भारत पराधीन हो गया l कारण था – उस समय के महत्वाकांक्षी, अहंकारी राजनीतिज्ञों का अपने गर्व में चूर रहकर छोटी-छोटी बातों के लिए मात्र अपने हित में बदले की भावना से एक दूसरे को नीचा दिखाने हेतु आपस में लड़ते रहना l स्थान-स्थान पर आचार्यों तथा विद्वानों का अपमान करना l यहाँ-तहां उनकी विद्वता का उपहास उड़ाया जाना l ज्ञान-विद्या की निरंतर उपेक्षा करने से राजनीतिज्ञों को सही समय पर उचित मार्गदर्शन न मिलना l परिणाम स्वरूप भारत की आंतरिक कमजोरी देख अन्य राष्ट्र छल –फरेव वाली कूटनीति की चालों द्वारा आतंकित करने लगे व उसे दोनों हाथों से दिन-रत लूटने लगे और वह लंबे समय तक निरंतर लुटता रहा l
    एक बार फिर लोगों में जाग्रति आई और उनके द्वारा त्याग ओंर लाखों बलिदान देने के पश्चात् 15 अगस्त 1947 के दिन भारत की पुनः उसकी अमूल्य राजनैतिक स्वतंत्रता मिल गई l स्वाधीन देश का फिर से विकास होने लगा l गुरुकुल भाषा संस्कृत के स्थान पर अंग्रेजी ज्ञान-प्रचार होने लगा l अंग्रेजी शिक्षा जन-जन तक पहुंची l अंग्रेजी ज्ञान बढ़ा फिर भी वह सब पर्याप्त नहीं हो पाया जो कि होना चाहिए था l वास्तविक शिक्षा भारतीय जन मानस की मूल आवश्यकता है l उसे मात्र उसके अनुरूप तथा देश, काल और पात्र के अनुकूल अवश्य होना चाहिए l
    भारत एक कृषि प्रधान देश है l लोग मेहनत –मजदूरी करना सर्वश्रेष्ठ समझते है l अपना पेट भरते हैं l बच्चों का पालन-पोषण करते हैं l यही नहीं वे उनके भविष्य का निर्माण करने हेतु वे उन्हें अध्ययन करने के लिए घर से पाठशाला, पाठशाला से विद्यालय, विद्यालय से महाविद्यालय भी भेजते हैं l लेकिन दुर्भाग्य है, स्नातक बनने या विद्या ग्रहण करने के पश्चात् भी वे मात्र बाबु-नौकर ही बन पाते हैं l कुर्सी लेना , आदेश चलाना ही जानते हैं और हाथ से कोई कार्य करने के नाम पर कुछ नहीं सीख पाते हैं l सरकारी नौकरी का आभाव, बेरोजगारी कहलाती है फिर भी गैर सरकारी शिक्षण संस्थाएं एक के पश्चात् एक करके अनेकों निरंतर खुली हैं l उन्हें सरकारी मान्यताये मिली हैं l बेरोजगारी कम होने के स्थान पर बढती जा रही है l
    इन शिक्षण संस्थाओं में अध्ययन हेतु प्रवेश-शुल्क की राशि दिन-प्रतिदिन किसी विशाल, भयानक अजगर के समान निःसंकोच अपना मुंह फैलाये जा रही है l अन्य दैनिक उपयोगी वस्तुएं तो महंगी हो रही हैं, शिक्षा भी महंगी हुई है, शिक्षा शुल्क बढ़ रहे हैं l विभिन्न श्रेणियों के परिणाम निकलने के पश्चात् नित नई श्रेणियां विद्यार्थियों के लिए नये महंगे प्रवेश शुल्क का संदेश मिल जाता है l
    यह प्राकृतिक देन् है परन्तु आवश्यक नहीं कि प्रत्येक विद्यार्थी अपने हर विषय में मेघावी ही हो l बच्चे को उससे संबंधित कमजोर विषयों की ज्ञानपूर्ति करने के लिए किसी पाठशाला या विद्यालय में में मिलने वाला शिक्षक सहयोग और अध्ययन काल भी पर्याप्त नहीं होता है l

    कारणवश ज्ञानपूर्ति करने के लिए उसे किसी अन्य माध्यम का ही सहारा लेना पड़ता है l यदि अभिभावक शिक्षित हों तो उसे घर से बाहर कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं होती है l घर पर सहायता न मिलने पर ही उसे बाहर किसी की शरण लेने पड़ती है जो मुंह माँगा शिक्षण-शुल्क भी लेता है l इससे कई बार मेहनत मजदूरी पर आश्रित अभिभावकों की आर्थिक असमर्थता उनके होनहार बच्चों के भविष्य की निराशा भी बन जाती है l महंगी शिक्षा मेहनत मजदूरी के घर में प्रवेश नहीं कर पाती है l बच्चों का बड़ा होकर कुछ बनना, कुछ करके दिखना जो उनका दर्पण तुल्य स्वप्न होता है, टूट कर बिखर जाता है l
    समय-समय पर बच्चों को पाठशाला का बढ़िया पहनावा, ढेर सी पुस्तकें, पेंसिलें, रबड़, कापियां, उनके यातायात का खर्च, विद्यालय भवन निर्माण, सफाई और उसके रख – रखाव के लिए भवन अनुदान, खेलों में भाग लेने के लिए खेल अनुदान और परीक्षा में बैठने के लिए परीक्षा शुल्क की विभिन्न देय राशियाँ जो प्रति वर्ष देय की जाती हैं – विद्यार्थियों और उनके सीमित आय वाले अभिभावकों के लिए तब तक चिंता का विषय बनी रहती है, जब तक वह देय नहीं हो जाती हैं l
    इस प्रकार हम देख चुके हैं कि विकास के नाम पर भारतीय शिक्षा-क्षेत्र लार्ड मैकाले द्वारा व्यवस्थित शुल्क प्रधान आधुनिक शिक्षा-प्रणाली के कारण आर्थिक शोषण का अखाड़ा और धन सृजन करने का स्रोत मात्र बनकर रह गया है l वर्तमान विद्यालय, मदरसे, मिशनरियों से दिशाहीन शिक्षा प्रोत्साहन दे रही है, पैदा कर रही है – “बेरोजगारी” अर्थात दुःख, चिंता, रोग-शोक, और निराशा l “भ्रष्टाचार” अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, नीति, न्याय की अव्यवस्था l “दानवता” अर्थात उग्रवाद, आतंकवाद, अलगाववाद, पत्थरवाज, आगजनी, अपहरण, धर्मांतरण, बलात्कार, हिंसा और देशद्रोह l
    क्या यह सब भारत के किसी सम्मानित भद्र माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, परिवार, गाँव, शहर और उसके समग्र समाज के माथे लगा कलंक नहीं है ? क्या वर्तमान शिक्षा से भारत का उद्दार हो सकता है ? क्या इससे भारत के जन-जन की आवश्यकताएं पूर्ण हो सकती हैं ? क्या इससे रामराज्य का सपना पुनः साकार हो सकता है ? अगर नहीं तो देखो अपने अतीत को l उस समय भारत में कौन सी शिक्षा-प्रणाली प्रचलित थी ? जो वह आज तलक विश्वभर में जन-जन की जुवान पर चर्चा का विषय बनी हुई है और सकल जगत आज भी उसके नाम के आगे नतमस्तक होता है l

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    4. साधक मन और साधना

    आलेख - कश्मीर टाइम्स 9 जुलाई 1996
    साधना-प्रगति के अंतिम बिंदु तक पहुँचने के लिए जो जिज्ञासु प्रयत्नशील रहता है, वह कभी थकने या रुकने का नाम नहीं लेता है – साधक कहलाता है l वह भली प्रकार जानता है कि साधना के मार्ग पर फूल कम और कांटे अधिक मिलते हैं l फिर भी जिज्ञासु साधक अपने अदम्य साहस के साथ उन काँटों को अपने पैरों तले रौन्दता हुआ मात्र फूलों को ही चुनता है और अपनी विकास–यात्रा जारी रखता है l इस प्रकार अविलंब प्रयत्न करते हुए एकाएक उसके जीवन में वह भी सुअवसर आ जाता है जब वह विभिन्न प्रकार के फूल एकत्रित करके उन्हें किसी एक मनोहारी माला का स्वरूप प्रदान कर देता  है l साधक की साधना साकार हो जाती है l उसे उसकी निश्चित मंजिल मिल जाती है l  
    साधना मार्ग में यह बात सुनिश्चित है कि साधक मन उस समय अपनी रचनात्मक साधना प्रगति–मार्ग से भ्रमित हो जाता है जब उसकी बुद्धि मन के अधीन विषयासक्त होकर उचित निर्णय लेने में असमर्थ हो जाती है l विषय भोगी चंचल मन इच्छा वश होकर इन्द्रिय विषय – शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध का रसास्वादन करने हेतु दौड़ता है, ललायत रहता है l वह इन्द्रिय इच्छापूर्ति का माध्यम बनता है पर अल्पकालिक इन्द्रिय सुख उसके लिए दुःख का कारण बनता है l परिणाम स्वरूप बुद्धि का नाश होता है l साधक की साधना अवरुद्ध होने के कारण, आगे नहीं बढ़ पाती है l साधक पूर्णता प्राप्त करने से वंचित रह जाता है l इसी कारण इन्द्रिय विषय अल्पकालिक सुख देने वाले, साधना-मार्ग के शत्रु होते हैं l श्रीकृष्ण जी के कथनानुसार – “साधक को अपना मन अभ्यास या वैराग्य के द्वारा सयंत करके उसे सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय नीति के अंतर्गत रचनात्मक कार्यों में समर्पित करना चाहिए l”
    पांच ज्ञानेंद्रियाँ – त्वचा, रसना, आँख, कान और नाक स्पर्श करना, रस चखना, रूप देखना, शब्द सुनना, गंध सूंघना और पांच कर्मेन्द्रियाँ – हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर कर्म करना, भोजन करना, जनन, मल विच्छेदन, तथा चलना अपने स्वाभाविक गुणानुकुल कार्य करती हैं l इन्द्रियों का समयबद्ध अनुशासित और सयंत करके साधक पुरुष उन्हें बुद्धि द्वारा, अपने जीवन के प्रगति–पथ पर जीवन का निश्चित लक्ष्य पाने के लिए रचनात्मक कार्यों में लगाता है l इससे उसकी हर प्रकार की प्रगति होने के साथ-साथ उसे पूर्णता भी प्राप्त होती है
    कोई भी साधक पुरुष शरीर रूपी मकान को अंदर की अपेक्षा उसके बाहरी सौन्दर्य को निखारने में बिना कारण अपनी शारीरिक शक्ति, अमूल्य समय और धन कभी नष्ट नहीं करता है l वह दैवी गुणों से विमुख नहीं रहता है l वह नित गुरु की देख-रेख में, उनके मार्ग-दर्शन और आदेशानुसार अपने दैवी गुणों की सतत वृद्धि ही करता है l इनका सदुपयोग करने से उसका अपना तो भला होता है, साथ ही साथ दूसरों का भी भला होता है परन्तु दुरूपयोग करने से सबको पीड़ा और दुःख ही मिलते हैं l जो साधक पुरुष मान्यवर गुरु की उपेक्षा करते हैं, उनकी उन्नति पर ईर्ष्या करते हैं और उनसे अधिक स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं – वे अपने जीवन में विकास अथवा लाभ पाने के नाम पर पतन-हानि ही पाते हैं l कायर, आलसी, और चापलूस साधक पुरुष की साधना कभी साकार नहीं होती है l
    साधक पुरुष प्रायः सयंमित, शांत, त्यागी, समद्रष्टा, विनम्र और अनुशासित होता है l वह अध्यात्मिक तथा भौतिक प्रगति में संतुलन बनाये रखता है l वह मानसिक विकारों के वेगों के प्रति सदैव सचेत रहता है l वह जानता है कि मानसिक विकारों के वेग उसकी उन्नति में वाधक हैं l जो प्रगति की उंचाई की ओर बढ़ते हुए उसके क़दमों को लड़खड़ा देते हैं l परिणाम स्वरूप साधक का पतन होना आरम्भ हो जाता है l
    इसलिए पति-पत्नी के अतिरिक्त पराये नर-नारी का चिंतन-मनन, दर्शन और संग करना जैसे आचार-व्यवहारों से न केवल काम वासना जागृत होती है, बल्कि वह और अधिक बढ़ती है l इससे समाज में माँ, बहन, बहु, बेटी भरजाई और उनके समान अन्य की भी मान-मर्यादा नष्ट होती है l साधक पुरुष मान-मर्यादा के रक्षक होते हैं, भक्षक नहीं l वह ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जिनसे समाज में अपहरण, बलात्कार, देह प्रदर्शन, देह व्यपार, और गुंडागर्दी को बढ़ावा मिलता हो l वह स्वयं तो सयमित रहते हैं, समय समय पर दूसरों को भी सावधान करते रहते हैं l
    छोटी-छोटी बातों के पीछे बौखला जाना, अपशब्द कहना और लड़ाई-झगड़े करना जैसे आचार-व्यवहार क्रोध के ही विभिन्न रूप हैं l यह सब क्रोध को बढ़ावा देते हैं l विकराल रूप न धारण हो, इसी बात का ध्यान रखते हुए साधक पुरुषों के द्वारा शांतभाव में गंभीर से गंभीर समस्या का हल ढूँढना होता है l क्रोध किसी समस्या का हल नहीं है l साधक द्वारा क्रोध करने की आवश्यकता आ भी पड़े तो वह ज्ञान, कर्तव्य, नीति, और न्याय संगत होता है l इनके बिना किया गया क्रोध किसी को लाभान्वित करने के स्थान पर हानि ही पहुंचाता है l
    अपने लिए अपनी आवश्यकता से अधिक चल-अचल धन-संपदा, अन्न, वस्त्र का उत्पादन निर्माण, संग्रहण करना और उन पर मात्र अपना एकाधिकार जताना जैसे अचार-व्यवहार व्यक्तिगत स्वार्थ और लोभ ही के स्वरूप हैं l साधक पुरुष असंग्रही, बुद्धिमान, सदाचारी, न्यायप्रिय और कर्तव्य-परायण होते हैं l वह स्वयं उदाहरण बनकर, दूसरों को भी वैसा ही बनने का मार्ग प्रशस्त करते हैं l इससे चारों ओर प्रसन्नता, प्रेम और सुख-समृद्धि देखने को मिलती है l
    नशा–धुम्रपान जान-बुझकर मौत के कुएं में छलांग लगाने के समान है l इससे तन, मन, धन, और स्वयं का नाश होता है l तन के जर-जर हो जाने पर, उसे कई प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है l नशा–धुम्रपान करने वाले पुरुष की बुद्धि का नाश हो जाता है l उसकी विचार करने की शक्ति नष्ट हो जाती है l उसे आर्थिक संकट घेर लेता है l साधक पुरुष ऐसा करने से दूर रहते हैं और दूसरों को इस संकट से सावधान भी करते हैं l
    साधक पुरुष सृष्टि में – पति-पत्नी, संतान, धन-संपदा, सुख-सुविधा, पद, वेतन, सत्ता सुख को ही अपना सब कुछ नहीं मानते हैं l यह सब उन्हें भौतिक सुख तो दे सकते हैं पर आत्मिक शांति नहीं l साधक पुरुष को भौतिक सुख के साथ-साथ अध्यात्मिक सुख की भी आवश्यकता होती है l साधक पुरुष ऐसे आचार-व्यवहार जिनसे अशांति होने का भय या संदेह हो, उनमें अपने मन से कभी आसक्त नहीं होते हैं बल्कि निज मन को अभ्यास और वैराग्य के अंतर्गत उसे अध्यात्मिक उन्नति की साधना में व्यस्त रखते हैं l इससे उन्हें आत्मिक सुख और आनंद मिलता है l
    मैं और मैंने शब्दों का बात-बात पर उच्चारण, व्यवहार में प्रदर्शन करना ही अहंकारी पुरुष का अहंकार है l उसमें अपने से बड़ों के प्रति सम्मान की भावना का आभाव रहता है l वह छोटों के प्रति अप्रिय होता है l साधक पुरुष विनम्र होते हैं l विनम्रता के कारण वह सबको प्रिय होते हैं l विनम्रता ही मैं और मैने के के अहंकारी भावों का अस्तित्व मिटाती है l उससे आत्मसमर्पण का भाव जागृत होता है तथा आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है जिससे साधक पुरुष के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है l
    साधक पुरुष साधना में मग्न रहकर मानवता ही की सेवा करते हैं और समय-समय पर वे समाज तथा प्रशासन के द्वारा सम्मानित भी होते हैं l साधक पुरुषों का सुख-दुःख सबका अपना सुख-दुःख बन जाता है l साधक साधना से दूसरों को अपना बना लेते हैं l उनकी चिंता सभी करते हैं l वह हर मन प्यारे बन जाते हैं l सारा संसार उनका अपना घर होता है और वे होते हैं, विश्व परिवार के सदस्य – विश्व बंधू l
    साधक पुरुष सबको एक ही परमात्मा की संतान मानते हैं, देखते हैं, सुनते हैं, बोलते हैं और सबके लिए प्रिय ही कार्य कार्य करते हैं l उनका जीवन चिंता मुक्त होता है l वास्तव में चिंता मुक्त विकसित चिंतनशील मन ही साधक पुरुष के जीवन को सार्थक, पूर्ण, साकार, सफल, आत्मज्ञानी और सुखी-समृद्ध बनाने के साथ-साथ उसे मुक्ति भी प्रदान करता है l
    काश ! ऐसी प्रभु कृपा सभी पर हो l