मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



महीना: जून 1996

  • श्रेणी:, ,

    सद्गुण संस्कार और हमारा दायित्व

    आलेख - मानव जीवन दर्शन असहाय समाज वर्ग जनवरी जून 1996 
    ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्मांड बड़ा विचित्र है l सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल के मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का का द्योतक है कि समस्त ब्रह्मांड में जो भी अमुक वस्तु विद्यमान है, वह अपने किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है l 
    बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मयूर का मस्त होकर नाचना और भोर के समय पक्षियों का चहचहाना किसी शुभ समाचार की ओर इंगित करता है l अगर ऐसा है तो प्राणियों में सर्व श्रेष्ठ, विवेकशील मनुष्य का जीवन नीरस और अंधकारमय कदाचित हो नहीं सकता l जब उसका जन्म होता है जो उसके जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य भी होता है l बिना उद्देश्य के उसे जन्म नहीं मिल सकता है l यह प्रकृति का नियम है l गुण और संस्कारों का जीवन के साथ जन्म-जन्मों का संबंध रहता है l जीवन उद्देश का उसने अपने इसी जीवन में पूरा अवश्य करना है जिसके लिए वह संघर्षरत है l ध्यान और सूक्षम दृष्टि से उसका अध्ययन करने की आवश्यकता रहती है l उसके भीतर लावा समान दबा और छुपा हुआ भंडार दिव्य गुण और संस्कारों के रूप में उसके जीवन का उद्देश्य पूरा करने में पर्याप्त होते हैं l वह समय पर बड़े और कठिन से कठिन भी कार्य कर सकने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं l आवश्यकता मात्र है तो नवयुवाओं को गुण और संस्कारों के आधार पर सुसंगठित करने की l उन्हें उचित दिशा निर्देशन की, सहयोग की और उनका उत्साह वर्धन करने की l
    युवा बहन-भाइयों को उनके जीवन के महान उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण – संस्कार जीवन उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं l प्रतिकूल गुणों से किसी भी महान जीवन उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है l बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है l जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात् उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण–संस्कार युक्त बहन-भाइयों के कर्मों की छाप भी संपूर्ण जनमानस पटल पर अवश्य अंकित होती है जो युग-युगान्तरों तक उसके द्वारा भुलाये नहीं भुलाई जाती है l अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है l यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति से संबंधित है l
    बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए l उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना l जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लग्न, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराशकर उसे मनचाही एक सुंदर आकृति और आकर्षक मूर्ति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार किसी भी प्रयत्नशील बहन-भाई को स्वयं में छुपी हुई किसी प्रभावी विद्या, कला तथा दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो l उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी l देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुकूल देश - कार्य क्षेत्र, काल - समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्ग दर्शक अवश्य मिल जाते हैं l उनसे उनका काम सहज होना निश्चित हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है l
    प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक है जितना फूलों में सुगंध होना l फूलों में सुगंध से मुग्ध होकर फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण का अनुसरण करने के लिए उनके अनुयायी ही बनते हैं l उनके साथ रहकर अच्छा बनने के लिए वह अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं l
    उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है l वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है l एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान समझता है, दुराचार के कार्य करता है l इसलिए दोनों की प्रकृतियाँ आपस में कभी एक समान हो नहीं सकती l वह एक दिशा सूचक यंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा में रहती हैं l उन दोनों में द्वंद्व भी होते हैं l कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार, सदाचार को असहनीय कष्ट और पीड़ा ही पहुंचाता है l जब यह दोनों प्रकृतियाँ सुसंगठित होकर किन्हीं बड़े-बड़े संगठनों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद्व न रहकर युद्ध ही होते हैं जिनमें उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह अपने प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है l
    समर्थ तरुणाई वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थ्या, शक्ति रखती है l तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक है l वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं l इसलिए तरुण–शक्ति जन शक्ति के रूप में लोक शक्ति बन जाती है l अतः कहा जा सकता है कि
    लोक शक्ति का मूल आधार,
    जन-जन के उच्च गुण संस्कार l
    जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोककर बांध बना लिया जाता है, युवाओं में कुछ कर सकने की जो तीव्र इच्छा-शक्ति होती है, उसे अवरुद्ध करना अति आवश्यक है l आवश्यकता पड़ने पर जलाशय के जल को कम या अधिक मात्र में नहरों के माध्यम द्वारा दूर खेत, खालिहान, गाँव-शहर तक पहुंचाया जाता है, उनसे खेती-बागवानी, साग-सब्जी की फसल में पानी लगाया जाता है और उससे अन्य आवश्यकताएं भी पूरी की जाती हैं - ठीक उसी प्रकार युवाओं की अद्भुत कार्य क्षमता को उनकी अभिरुचि अनुसार छोटी-बड़ी टोलियों में सुसंगठित करके उनसे लोक विकास संबंधी कार्य करवाए जा सकते हैं l युवा बहन–भाइयों की तरुण शक्ति को नई दिशा मिल सकती है l उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं l किसी परिवार, गाँव, तहसील, जिला, और राज्य से लेकर राष्ट्र तक का भी विकास किया जा सकता है l तरुण–शक्ति का मार्गदर्शन अवश्य किया जाना चाहिए l क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? यह हमारा दायित्व नहीं है क्या ?


    चेतन कौशल “नूरपुरी”

  • श्रेणी:, ,

    लोक विकास – समस्या और समाधान

    आलेख - असहाय समाज वर्ग जनवरी जून 1996 
    इस सृष्टि की संरचना कब हुई ? कहना कठिन है l सृष्टि के रचयिता ने जहाँ प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए आहार की व्यवस्था की है, वहां मनुष्य के जीवन से संबंधित हर पक्ष के साथ एक विपरीत पहलू भी जोड़ा है l जहाँ सुख है, वहां दुःख भी है l रात है तो दिन भी है l इसी प्रकार सृष्टि में उत्थान और पतन की अपनी-अपनी कार्य शैलियाँ हैं l उत्थान की सीढ़ी चढ़कर मनुष्य आकाश की ऊँचाइयां छूने लगता तो पतन की ढलान से फिसलकर वह इतना नीचे भी गिर जाता है कि एक दिन उसे अपने आप से लज्जा आने लगती है l मनुष्य विवेकशील, धैर्यवान और प्रयत्नशील प्राणी होने के कारण अपना प्रयत्न जारी रखता है l वह गिरता अवश्य है परन्तु कड़ी मेहनत करके वह पुनः पूर्वत स्थान की प्राप्ति भी कर लेता है l कई बार वह उससे भी आगे निकल जाता है l यह उसकी अपनी लग्न और मेहनत पर निर्भर करता है l 
    विकास प्रायः दो प्रकार के होते हैं – अध्यात्मिक तथा भौतिकी l जब वेद पथ प्रेमी साधक आंतरिक विकास करता है तो सत्य ही का विकास होता है – वह विकास जिसका कभी नाश नहीं होता है l शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा मरती नहीं है l अभ्यास और वैराग्य को आधार मानकर निरंतर साधना करके, साधक मायावी संसारिक बन्धनों से मुक्त अवश्य हो जाता है l
    साधक भली प्रकार जानता है कि देहांत के पश्चात् उसके द्वारा संग्रहित भौतिक सम्पदा का तो धीरे-धीरे परिवर्तन होने वाला है परन्तु अपरिवर्तनशील आत्मा अपनी अमरता के कारण, अपना पूर्वत अस्तित्व बनाये रखती है l नश्वर शरीर क्षणिक मात्र है जबकि आत्मा अनश्वर, अपरिवर्तनशील और चिरस्थाई है l
    जीवन यापन करने के लिए भौतिक विकास तो जरुरी है पर मानसिक प्रगति उस जीवन को आनंदमयी बनाने के लिए कहीं उससे भी ज्यादा जरुरी है l घर में सर्व सुख-सुविधाएँ विद्यमान हों पर मन अशांत हो तो वह भौतिक सुख-सुविधाएँ किस काम की ? मानसिक अप्रसन्नता के कारण ही संसार अशांति का घर दिखता है l
    भौतिक विकास में साधक जन, धन, जीव-जन्तु, बल, बुद्धि, विद्या, अन्न, पेड़-पौधे, जंगल, मकान, कल-कारखाने और मिल आदि की संरचना, उत्पादन और उनको वृद्धि करते हैं जो पूर्णतया नश्वर हैं l इनकी उत्पति धरती से होती है l धरती से उत्पन्न और धरती पर विद्यमान कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, परिवर्तनशील है l जो स्थिर नहीं है, वह सत्य कहाँ ? अस्थिर या असत्य वस्तु को साधक अपना कैसे कह सकता है ? उसका तो अपना वही है जो सत्य है, स्थिर है, अपरिवर्तनशील है, अमर है और कभी मिटता नहीं है l वह तो मात्र आत्मा है
    सृष्टि में भौतिक विकास, मानसिक कामनाओं की देन है l उसमें निर्मित कोई भी वस्तु, चाहे वह रसोई में प्रयोग करने वाली हो या शयन कक्ष की, कार्यालय-कर्मशाला की हो या खेल-मैदान की, धरती-जल की हो या खुले आकाश की – वह मात्र मनुष्य की विभिन्न भावनाओं, विचारों, और व्यवहारिक मानसिक प्रवृत्तियों की उपज है l जन साधारण लोग उनकी ओर आकर्षित होते हैं l वे उन्हें पाकर अति प्रसन्न होते हैं l साधकों को यह शक्ति, विकास की ओर उन्मुख मानसिक प्रवृत्ति से प्राप्त होती है l
    भोजन से शरीर, भक्ति-प्रेम से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन से आत्मा को बल मिलता है l इससे पराक्रम, वीर्य, विवेक और तेज वर्धन होने के साथ-साथ साधक की आयु लम्बी तो होती है पर साथ ही साथ उसके लिए लोक-परलोक का मार्ग भी प्रशस्त होता है l “जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” कहावत इस कार्य को पूरा करती है l इस प्रकार विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा – बुरा परिणाम या फल साधक की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है l वह जैसा चाहता और करता है – बन जाता है l
    जिस प्राणी ने मनुष्य जीवन पाया है, उसे जीवन लक्ष्य पाने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को पुरुषार्थी अवश्य बनना चाहिए l उसे जीवन का विकास, साधना, मेहनत और प्रयत्न करना चाहिए l बिना पुरुषार्थ के सृष्टि में रहकर उससे कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव है l उसमें सभी पदार्थ हैं पर वे मात्र पुरुषार्थी के लिए, पुरुषार्थ से उत्पन्न किये जाने वाले हैं l जो जिज्ञासु पुरुषार्थ करता है, उन्हें प्राप्त कर लेता है l
    ऐसा कोई भी जिज्ञासु तब तक किसी आत्म स्वीकृत कला के प्रति समर्पित एक सफल पुरुषार्थी नहीं बन सकता, जब तक वह प्राकृतिक गुण, संस्कारानुसार दृढ़ निश्चय करके कार्य आरम्भ नहीं कर देता l पुरुषार्थी को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समर्पित होना अति आवश्यक है l वह जीवनोपयोगी कलाओं में से किसी को भी अपनी सामर्थ्या एवम् रुचि अनुसार चुन सकता है – भले ही वह धार्मिक हो या राजनैतिक, आर्थिक हो या शैक्षणिक, पारिवारिक हो या सामाजिक – बिना सामर्थ्या एवम् अभिरुचि के, जीवन में सफल हो पाना असम्भव है l देखने में आया है कि प्रायः पुरुषार्थी का मन उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में नहीं लगता है जो उससे करवाए या किये जाते हैं l उसका ध्यान अन्य कार्यों की ओर आकृष्ट रहता है जिनमें उसकी अभिरुचि होती है l इसके पीछे उसकी आर्थिक विषमता, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, प्रोत्साहन का आभाव और उसे समय पर उचित मार्गदर्शन न मिल पाना – विवशता होती है l इस कारण अनचाहे उसका मन अशांत, परेशान और अप्रसन्न रहता है l
    आवश्यकता है – किसी भी कलामंच या कार्यक्षेत्र के किसी कलाकार या श्रमिक को कभी मानसिक पीड़ा ना हो l अतः उससे उसकी इच्छानुसार, मनचाह कार्य लिया जाना सर्वश्रेष्ठ है l भले ही उस कला साधना अथवा कार्य से संबंधित प्रशासन द्वारा उसका कार्यक्षेत्र ही क्यों न बदली करना पड़े l ऐसा कलाकार जो अपने श्रम के प्रति समर्पित न हो, उसमे उसकी लग्न न हो, तो क्या कभी दर्शक उसे एक अच्छा कलाकार या श्रमिक कहेंगे ? क्या वह अपनी कला अथवा श्रम में सफल हो पाएगा ? क्या दर्शक उसके प्रशसंक बन पाएंगे ?
    ऐसे कलाकारों या श्रमिकों से विकास का क्या अर्थ जो स्वयं ही को संतुष्ट नहीं कर सकते – समाज या राष्ट्र को संतुष्ट कौन करेगा ? कहने का तात्पर्य यह है कि वह न तो किया जाने वाला कार्य भली प्रकार कर सकते हैं और न ही उस कार्य को जिसे वह करना ही चाहते हैं l वह अपने जीवन में कुछ तो कर दिखाना चाहते हैं पर कर नहीं पाते हैं l इस प्रकार समाज ऐसे होनहार कलाकारों और श्रमिकों के नाम से वंचित और अपरिचित भी रह जाता है जिन्होंने उसे गौरवान्वित करना होता है l साधक के पास उसे जन्म से प्राप्त कोई भी प्राकृतिक अभिरुचि – प्रतिभा जो उसके गुण, संस्कार और स्वभाव से युक्त होती है – जीवन साध्य उद्देश्य को प्राप्त करने में पूर्ण सक्षम, समर्थ होती है l उसे सफलता के अंतिम बिंदु तक पंहुचाने के लिए उपयोगी और उचित संसाधनों का होना अति आवश्यक है l
    कला-क्षेत्र में, कला-सम्राटों के सम्राट संगीत-सम्राट तानसेन जैसे साधक कलाकार, कला-साधना की सेवा के लिए अपने तन, मन, धन और प्राणों से समर्पित होते हैं l वह स्वयं अपनी कला-साधना को न तो किसी बाजार की वस्तु बनाते हैं और न ही बनने देते हैं l उनकी कला में स्वतः ही आकर्षण होता है l वे अपनी लग्न और कड़ी मेहनत से कला का विकास करते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं कि विश्व में मात्र उनकी अपनी क्षेत्रीय कला विद्या, संस्कृति सभ्यता और साहित्य से राष्ट्र, क्षेत्र, गाँव, समाज, परिवार और उनकी अपनी भी पहचान होती है l तरुण साधक कला साधना में मग्न रहकर, उसकी गरिमा बनाये रखते हैं वह कला का प्रदर्शन करने से पूर्व, उसे समाज की पसंद नहीं बनाते हैं और न ही उसकी मांग की चिंता करते हैं अपितु वह साधना से समस्त समाज को अपनी कला की ओर आकर्षित करते हैं l समाज स्वयं ही उनकी कला का प्रेमी, प्रशंसक, सहयोगी और अनुयायी बनता है l इससे विकास की गाड़ी निश्चित मंजिल की ओर बढ़ती जाती है l



  • श्रेणी:

    दानवता का अहसास

    24 जून 1996 कश्मीर टाइम्स

    हिंसा करता मैं धर्म के नाम पर,
    धर्म पशुता में अंतर रहा क्या?
    इंसान हूँ कहलाता मैं मगर
    बन गया पशु, अर्थ रहा क्या?
    बस एक इंसान हूँ मैं मगर
    भेड़िये की खाल में रहता क्यों?
    बातें धर्म की करता मैं मगर
    लहू बेगुनाहों का बहाता क्यों?
    हिंसा है धर्म दानव का,
    सबको मरने की रह दिखाई है,
    हिंसा करना है काम हिंसक पशु का
    फिर ऐसी राह मैंने क्यों पाई है?
    बुरा सोचूं मैं किसी के लिये
    भला मेरा भी होगा क्या?
    खाई खोदूं मैं किसी के लिए
    पहले कुंआं मेरे लिए न बना होगा क्या?
    काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार
    सारे मात्र हैं नरक ही के द्वार,
    इधर बोल रहे सद्ग्रन्थ प्यारे,
    उधर गुर बता रहे हैं सद्गुरु के द्वार,


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

  • श्रेणी:

    शाख शाख पर

    24 जून 1996 कश्मीर टाइम्स

    जिधर देखूं,
    उधर अजगर,
    इधर अजगर,
    उधर अजगर,
    आगे अजगर,
    पीछे अजगर,
    नीचे अजगर,
    ऊपर अजगर,
    अंदर अजगर,
    बाहर अजगर,
    छोटा अजगर,
    बड़ा अजगर,
    जिधर देखूं,
    उधर अजगर,
    अजगर ही अजगर
    हो जायेंगे जब हर शाख पर,
    बता चेतन चहकेंगे पंछी,
    कैसे? शाख शाख पर,





  • श्रेणी:

    घृणा-फूट

    24 जून 1996 कश्मीर टाइम्स

    भड़कने नहीं देंगे, हम फिर
    घृणा-फूट की ज्वाला,
    अवरुध्द करेंगे, बढ़ती इस
    भयानक आंधी को,
    दुश्मनों का दिल तो है
    पहले से ही काला,
    सीने पर लगने नहीं देंगे, अब
    कोई गोली किसी गांधी को,