मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



साल: 1996

  • श्रेणी:

    आत्म-शान्ति पाने के उपाय

    आलेख - कश्मीर टाइम्स 3.12.1996
    मानव जीवन में व्यक्ति की ओर से अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए उचित यह है कि उसके अपने अमूल्य जीवन का कोई ना कोई बड़ा उद्देश्य अवश्य हो l उससे भी अधिक जरुरी है, उसकी ओर से उस उद्देश्य को अपने दायित्व के साथ पूरा करने की चेष्टा करना l वह अपने प्रगतिशील मार्ग में आने वाले कष्टों को फूल और मृत्यु को जीवन समझे और अपना प्रयत्न तब तक जारी रखे जब तक वह उसे पूरा न कर ले l जीवन उद्देश्यों को मुख्यतः भागों में विभक्त किया जा सकता है – अध्यात्मिक और वैश्विक l 
    आत्म-कल्याण या आत्म-शांति की कामना करते हुए यहाँ जिन-जिन उपायों की चर्चा की जाएगी, वह हमारे लिए नये नहीं हैं क्योंकि प्राचीनकाल से ही हमारे ऋषि-मुनियों, संतों, महात्माओं, आचार्यों और समाज सुधारकों ने अपने-अपने प्रयासों और अनुभवों से देश, काल और पात्र देखकर उनका कई बार मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार किया है l यह उसी कड़ी को आगे बढ़ाने का एक छोटा सा प्रयास है l
    1. जिस प्रयास या चेष्टा से जीवन में उन्नति करने के लिए अपने मन से गुण और दोषों का परिचय मिलता है, सद्गुणों को अपने भीतर सुरक्षित रखकर दोषों को दूर किया जाता है, आत्म निरिक्षण कहलाता है l
    2. दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ) अपने-अपने गुणों के अनुकूल कर्म करती हैं l उनकी ओर से ऐसी कुचेष्टाएँ जो मन को अध्यात्मिन मार्ग से भटकाने में समर्थ हों, उनसे मन को बचाने के लिए समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित किया जाता है l इसके साथ-साथ आत्म-साक्षात्कार का प्रयास भी जारी रखा जाता है – आत्म संयमन कहलाता है l
    3. समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित करके हृदय और मष्तिष्क को रोककर उसे ईश्वरीय भाव में टिकाकर, मन से प्रभु का ध्यान किया जाता है – आत्म-चिंतन कहलाता है l
    4. अपनी आत्मा को महाशक्ति मानकर नेक कमाई से अपना निर्वहन करने के साथ कर्तव्य समझकर यथा शक्ति दूसरों की सहायता की जाती है – आत्मावलंबन कहलाता है l
    5. अपने हृदय से कर्मफल का मोह छोड़कर, हर कार्य जिससे अपने जैसा दूसरों का भी भला होता हो, को करना कर्तव्य समझा जाता है – आत्मानुशासन कहलाता है l
    6. संयमित जीवन में बाहरी विरोद्ध होने पर भी अपने पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ मन, वाणी और कर्म में दृढ़ आस्था राखी जाती है – आत्म सम्मान कहलाता है l
    7. अपनी आत्मा में ध्यान मग्न रहकर दूसरे प्राणियों में भी अपनी ही आत्मा के दिव्यदर्शन करके उनके साथ अपने जैसा व्यवहार किया जाता है – आत्मीय भावना कहलाती है l
    8. अपने अन्दर और बाहर एक जैसे भाव में आत्म स्वरूप का दर्शन करते हुए समाधि लगाई जाती है तथा श्रधालुओं व जिज्ञासुओं में आत्मज्ञान का अपेक्षित प्रसाद बांटा जाता है – आत्मज्ञान कहलाता है l
    9. निराभिमान द्वारा अपने मन को आत्मज्ञान में स्थिर रखकर, यथा संभव विश्व का कल्याण और आत्मचिंतन करते हुए समाधि में ही शरीर का त्याग किया जाता है – आत्म-मुक्ति कहलाता है l
    भले ही उपलिखित उपाय आत्म-कल्याण करने वाले या आत्म-शांति पाने वाले विभिन्न हैं पर इनका प्रभाव या परिणाम एक ही जैसा है l
    देखने में आया है कि हर मनुष्य का अपने जीवन में कोई न कोई उद्देश्य तो होता है पर जिन उद्देश्यों को हमने सबके सामने लाने का प्रयास किया है उनमें से किसी एक को अवश्य चुन लेना चाहिए l वह इसलिए कि जो उद्देश्य संसारिक दृष्टि से चुने जाते हैं, वह सब चंचल मन के किसी न किसी विकार से प्रेरित/ग्रसित और प्रभावित होकर क्षण-भान्गुरिक, अल्पायु, नाशवान सुख देने वाले ही होते हैं l कई बार हम उनका नाश भी अपने सामने होता देखते हैं l उन्हें देख हमें मानसिक दुखों के साथ-साथ और कई कष्ट सहन करने पड़ते हैं l
    पर अध्यात्मिक उद्देश्य अनश्वर, दीर्घायु, वाला अमरता की ओर ले जाने वाला एक साधन, उपाय या मार्ग है l जैसे बर्फ की सिल्ली का पिघला हुआ पानी पहाड़ी से ढलान की ओर बहकर नाला या नदी के मार्ग में अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए अंत में समुद्र से मिलकर एकाकार हो जाता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह दुःख में दुखी और सुख में प्रसन्न न हो l सुख दुःख दोनों मन के विकार हैं l उसे स्थित-प्रज्ञ या एक भाव में स्थिर होना आवश्यक है l इससे वह ईश्वर दर्शन कर सकता है l
    हम इसके बारे में कुछ अधिक न कहते हुए मात्र इतना ही कहेंगे कि हमें न केवल अपने नश्वर देह सुख के लिए अल्पकालिक सुख देने वाले उद्देश्यों की पूर्ति करनी चाहिए बल्कि उसके साथ-साथ आत्म-शांति देने या आत्म-कल्याण करने वाले उद्देश्य भी पुरे करने का प्रयत्न करना चाहिये l इससे हम स्वयं तो सुखी होंगे ही इसके साथ ही साथ दूसरों को भी सुख पहुंचा सकते हैं l



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    समाज के प्रति सजगता

    आलेख - कश्मीर टाइम्स 21.11.1996 
    नैतिक शक्ति से व्यक्तित्व निर्माण होता है जबकि अनुशासन से जन शक्ति, ग्राम शक्ति एवं राष्ट्र शक्ति का l इसी प्रकार कुशल नेतृत्व में अनुशासित संगठन शक्ति द्वारा संचालित जो शासन भेदभाव रहित सबके हित के लिए एक समान न्याय करता है, वह सुशासन होता है l 
    जन्म लेने के पश्चात् जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है उसे सबसे पहले माँ का परिचय मिलता है फिर बाप का l उसे पता चलता है कि उसकी माँ कौन है और बाप कौन ? उसके माता-पिता उसे हर कदम पर उचित कार्य करने और गलत कार्य न करने के लिए उसका साथ देते हैं l इससे वह सीखता है कि उसे क्या अच्छा करना है और क्या बुरा नहीं ?
    यही कारण है कि जब बालक बचपन छोड़कर किशोरावस्था में प्रवेश करता है तो वह अपने घर के लिए अच्छे या बुर कार्यों को भली प्रकार समझने लगता है l वह जान जाता है कि घर की संपत्ति पूरे परिवार की संपत्ति होती है l वह तब ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता है जिससे उसका अपना या अपने घर का कोई अहित हो l
    जब वह रोजगार हेतु सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हो जाता है तब वह अपने घर में मिली उस बहुमूल्य शिक्षा को भूल जाता है कि जिस प्रकार माँ-बाप द्वारा बनाई गई सारी संपत्ति पूरे परिवार की अपनी संपत्ति होती है उसी प्रकार सरकारी या गैर सरकारी संस्थान की भी पूरे समाज या राष्ट्र की अपनी संपत्ति होती है तथा वह स्वयं उस संपत्ति का रक्षक होता है l

    इसका कारण यह है कि उसे मिली शिक्षा अभी अधूरी है क्योंकि कभी-कभी वह अपने कार्य क्षेत्र में तरह-तरह के फेरबदल, हेराफेरी और गबन इतिआदि कार्य करने से ही नहीं हिचकचाता या डरता बल्कि अपने से नीचे कार्यरत कर्मचारियों का तन, मन, धन संबंधी शोषण और उन पर तरह-तरह के अत्याचार भी करता है, मानों वे उसके गुलाम हों l लालच उसकी नश-नश में भरा हुआ होता है l
    मनुष्य की आवश्यकता है – संपूर्ण जीवन विकास l जीवन का विकास मात्र ब्रह्म विद्या कर सकती है l वह सिखाती है कि निष्काम भाव से कार्य कैसे करें और अपनी अभिलाषाएं कैसे कम करें ? जब हमारी इच्छायें कम होंगी तब हम और हमारा समाज सुखी अवश्य होगा l
    वन्य संपदा में पेड़-पौधे, जंगल दिन प्रतिदिन कम हो रहे हैं l उनकी कमी होने से जंगली पशु-पक्षियों व जड़ी-बूटियों का आभाव हो रहा है l भूमि कटाव बढ़ रहा है l बाढ़ का प्रकोप सूरसा माई की तरह अपना मुंह निरंतर फैलाये जा रही है l वन्य संपदा के आभाव, धरती कटाव और बाढ़ रोकने के लिए आवश्यक है जंगलों का संरक्षण किया जाना l वन्य पशु-पक्षियों को मारने पर प्रतिबंध लगाना l जड़ी-बूटियों को चोरी से उखाड़ने वालों से कड़ाई से निपटा जाना l यह सब रचनात्मक कार्य ग्राम जन शक्ति से किये जा सकते हैं l
    वर्तमान समय में विभिन्न राष्ट्रों के आपसी राजनैतिक मतभेद और संघर्षों के कारण हर राष्ट्र और राष्ट्रवादी दुखी व निराश है l जब भी युद्ध होते हैं, निर्दोष जीव व प्राणी मारे जाते हैं l राष्ट्रों का आपसी विरोध व शत्रुता कम होने के स्थान पर और अधिक बढ़ जाती है l ऐसे संघर्ष रोकने के लिए सारी धरती गोपाल की, भावना का विस्तार करना आवश्यक है l अगर हममें आपसी भाईचारा व बन्धुत्व भाव होगा तो हम अपना दुःख-सुख आपस में बाँटकर कम कर सकते हैं l
    संसार में जहाँ प्रतिदिन, प्रतिक्षण के हिसाब से लाखों में जनसंख्या बढ़ रही है तो पौष्टिक पदार्थों के कम होने के साथ-साथ धरती भी सिकुड़ती जा रही है l कारखाने, सड़क, बाँध, भवन बनते जा रहे हैं l युवावर्ग में शारीरिक दुर्बलता, विषय-वासनाओं के प्रति मानसिक दासता बढ़ रही है l हमें चाहिए कि सयंम रहित जनन क्रिया को सामाजिक समस्या समझा जाये l समाज की समस्या परिवार की और परिवार की समस्या अपनी समस्या होती है या वह समस्या बन जाती है l इसलिए परिवार का सीमित होना अति आवश्यक है l
    कोई भी रोग किसी को हो सकता है l उसकी दवाई होती है या दवाई बना ली जाती है l रोगोपचार के लिए रोगी को दवाई दी जाती है l उसका उपचार किया जाता है और वह एक दिन रोग-मुक्त भी हो जाता है l विशाल समाज ऐसे विभिन्न रोगों से रोगग्रस्त हो गया है l सब रोगों की एक ही दवाई है ब्रह्म विद्या, जो मात्र सरस्वती विद्या मंदिरों के माध्यम से संस्कारों के रूप में. रोग निदान हेतु वितरित की जा सकती है l आइये ! हम विस्तृत समाज में ब्रह्म विद्या के सरस्वती विद्या मंदिरों की स्थापना करके इस पुनीत कार्य को संपूर्ण करें l



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    क्या हमारा जीवन त्रुटिपूर्ण है ?

    17 नवम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स मानव जीवन दर्शन  

    प्रगति करने वाला विवेकशील मनुष्य अपने जीवन को सदैव त्रुटिपूर्ण मानता है l वह उन त्रुटियों के होने की कभी चिंता नहीं करता है बल्कि उनको दूर करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है l

    आधुनिक काल में हर स्थान पर हड़तालें, बंद, घेराव, संप्रदायक दंगे, हिंसा पत्थराव, तोड़फोड़, अग्निकांड, लाठी प्रहार और आंसूगैस की ही घटनाएँ देखने, पढ़ने और सुनने को मिलती हैं l बात-बात पर उनकी आवश्यकता समझी जाती है l क्या ऐसा करने से आजतक समाज की कहीं भलाई हो सकी है ?

    हमारा भारत एक संघीय देश है जिसमें छोटे-बड़े क्षेत्रों को मिलाकर कई राज्य बनाये गए हैं l समय-समय पर जनता मतदान द्वारा विधान सभा तथा लोक सभा हेतु अपने प्रतिनिधियों का चयन करती है जिनसे राज्य तथा केंद्र सरकारों का निर्माण होता है l भारत और उसके राज्यों में सरकारी तथा गैर सरकारी श्रमिक संगठन भी होते हैं जो समय-समय पर अपनी-अपनी मांगें सरकार द्वारा मनवाने का प्रयत्न करते रहते हैं l कभी-कभी वह अपने प्रयासों को ऐसे सक्रिय आंदोलनों के रूप में ढाल लेते हैं, जिन्हें अपने हित के आगे देशहित भी नजर नहीं आता है l वे उपद्रव करना आरम्भ कर देते हैं जिनसे देशहित नहीं होता है l उन्हें यह भी ज्ञान नहीं रहता है कि उनके उपद्रवों से किसका हित अथवा किसका अहित हो रहा है l तब कानून व्यवस्था बनाये रखने वाली पुलिस उन पर अपनी कार्रवाही करती है l उसे तो संवैधानिक कानून व्यवस्था और शान्ति बनाये र खनी होती है l

    सदियों से संसार में भांति-भांति के अनेकों प्रकार के आन्दोलन तो होते रहे हैं लेकिन उनमें और आज के आंदोलनों में यह अंतर आ गया है कि पहले वाले आंदोलनों का आधार कारण सहित प्रमानित और ठोस होता था l क्रांतिकारी जैसा आन्दोलन करना चाहते थे वे उसके अनुरूप साधनयुक्त भी होते थे जिससे कि वे जी-जान लगाकर अपने अधिकार के लिए लड़ा करते थे l भारतीय इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार से किया जाने वाला कोई भी शांतिपूर्वक स्वतंत्रता आन्दोलन विफल नहीं, सफल ही रहा है l उसकी सफलता से पूर्व जब कभी उस जैसे अन्य आंदोलनों में कोई कमी रह भी जाती थी तो आन्दोलनकारी अपना-अपना हृदय मंथन करके उनमें पाई जाने वाली कमियों को ही ढूंढते थे, उन्हें दूर किया करते  थे l ताकि फिर वह कभी उनके मार्ग में कोई खलल या विघन न डाल सके l परन्तु आज गुरु विहीन और दिशाहीन क्रांतिकारी ऐसा कुछ भी रचनात्मक कार्य नहीं करते हैं बल्कि दूसरों की कमियां देखते हैं l स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को निम्न समझते हैं l जिससे उनमें सहयोग की भावना के स्थान पर टकराव ही की प्रवृति को बढ़ावा मिलता है l  

    हमें सर्व प्रथम अपनी कमियों को अपने समक्ष रखकर उनसे सीख लेनी चाहिए l ताकि हम वह गलती फिर जीवन प्रयन्त न दुहरायें l हमें उन्हें अपने जीवन का प्रेरणा स्रोत मानकर कार्य करना चाहिये l तभी हम अपने कार्य में सफल हो सकते हैं, आगे बढ़ सकते हैं l

    भले ही किसी मनुष्य की जिह्वा, आखें और कान अपना-अपना कार्य करने में सक्षम हों और उसका विवेक सोया हुआ हो तो उस महानुभाव को जगा हुआ नहीं कहा जा सकता l आज का मनुष्य हृदय शुद्धि करने के लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च धार्मिक स्थलों पर और सभाओं में अवश्य जाता है, सत्संग करता है पर फिर भी उसके मन में दुर्भावना पनपती रहती है l उसके मन के बंद कपाट नहीं खुलते हैं l ऐसे भक्त की वहां जाने से पूर्व सम्भवतः यह भावना रहती होगी कि वह देव या गुरु शरण जाकर मात्र प्रार्थना करके अपने मन का सब कूड़ा-कचरा धो लेगा और मन से भी पवित्र हो जायेगा l पर उसकी ऐसी धारणा गलत होती है l प्रमाणित हो चुका है कि आजकल के ऐसे कई धार्मिक स्थल और संस्थाओं में भांति-भांति के ऐसे लाखों कार्य किये जाते हैं जो नैसर्गिकता, नैतिकता, राष्ट्रीयता, सभ्यता, संस्कृति, दर्शन तथा साहित्य की मान-मर्यादाओं के विरुद्ध होते हैं l उन्हें देख किसी भी भद्र नर-नारी का माथा मारे शर्म के स्वयं ही नीचे झुक जाता है l ऐसी संगत करने से क्या लाभ ? धर्म तो व्यक्तिगत विषय है, सम्प्रदायक नहीं l लोग कहते हैं कि धार्मिक स्थान उन्हें शांति प्रदान करते हैं, पर वह शांति देवालय, मठ, गुरुद्वारा, मस्जिद, चर्च, धार्मिक स्थान, सभाएं या सम्मेलन नहीं देते हैं l उन्हें उनकी सुसंगत, अध्ययन चिंतन और मनन से ही शांति प्राप्त होती है l नींबू का रस खट्टा होता है, मीठा या फीका नहीं l मनुष्य अपूर्ण है, मात्र ईश्वर पूर्ण है, सत्य है l सुबह से शाम तक मनुष्य, मनुष्य को ही देखता है, ईश्वर को नहीं l मनुष्य और मनुष्य द्वारा बनाई गई हर वस्तु अपूर्ण है l इसलिए अपूर्ण को पूर्ण, सत्य का सहारा लेना अनिवार्य है l वह कण-कण में विराजित है l मनुष्य के हृदय में भी विराजित है l वहीँ से छुपा हुआ वह पूर्णता का स्वामी अपूर्ण मनुष्य की हर दिनचर्या को निहारता है l इसलिए हमें सर्वप्रथम अपने हृदय के बंद कपाट खोलने चाहियें ताकि हमें ईश्वर के दर्शन कर सकें l इसके लिए हमें स्वयं में बदलाव लाने की महती आवश्यकता है  - “हमें सत्संग अथवा प्रभु-नाम स्मरण करना चाहिए, सत्संग से मन में पवित्र भावना उत्पन्न होती है l पवित्र भावना से विचार शुद्ध होते हैं l उन विचारों से अच्छे कर्म होते हैं और अच्छे कर्मों से मिलने वाला फल भी अच्छा ही होता है l” क्या वर्तमान काल में इस सत्य अनुभवी कथन का संबंध हर व्यक्ति के साथ है ? अगर नहीं तो क्यों ?

    आज आवश्यकता है – स्थिर निर्णायक बौद्धिक क्षमता की जो अच्छाई में से बुराई को निकाल दे, बुराई में से अच्छाई ढूंढ ले और फिर साथ ही साथ वह अच्छाई मनुष्य के द्वारा उसके जीवन में चरित्रार्थ भी हो l परन्तु हम ऐसा नहीं करते हैं, डरते हैं, जाने क्यों ! 

    महान पुरुषों का तो यही अनुभव रहा है कि जब तक हम अपने मन के बंद कपाटों को स्वयं नहीं खोलते हैं, हमें आत्म-ज्ञान नहीं हो सकता l हमें दिया जाने वाला बाह्य सहयोग या ज्ञान का कोई भी महत्व नहीं – सब निरर्थक है l जैसे खाना हमारी थाली में हो – जब तक हम स्वयं ग्रास उठाकर अपने मुंह में नहीं डालते हैं, तब तक वह न तो हमारी थाली से उठता है और न हमारे मुंह में ही जाता है l इस कारण किसी व्यक्ति का सुधार या उसे आत्म-ज्ञान न तो किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा हुआ है  और न ही हो सकता है l मात्र उसकी श्रद्धा, जिज्ञासा, विश्वास और सतत साधना से ही सब कुछ  जाना जा सकता है और अपने आप की पहचान भी हो सकती है l 

    जब हमें यह ज्ञान हो जाता है कि वह कोई भी होने वाला कार्य अपने लिए अच्छा है तभी वह दूसरों के लिए अवश्य अच्छा होगा l हमें दूसरों के लिए वैसा ही कार्य करना चाहिए जैसा हम स्वयं के लिए करते हैं l यही जन जागृति है l जन जागृति से जन-शक्ति बनती है, लोक-शक्ति बढ़ती है l समाज का सुधार होता है l कोई भी जागृत महानुभाव अनुचित कार्य नहीं करता है l वह समाज को जागृति की शिक्षा देता है और स्वयं का ध्यान रखता है कि कहीं वह सो तो नहीं गया – उसके द्वारा अनुचित कार्य तो नहीं होने लगा ! इस प्रकार वह सकल समाज के लिए एक महात्मा या सद्गुरु ही होता है l हम एक सद्गुरु के अनुयायी बन सकते हैं l हमारे साथ-साथ संपूर्ण समाज जागृत हो सकता है l

    इस सृष्टि में किसी भी प्रकार की अच्छाई या बुराई का प्रारम्भ मात्र स्वयं ही से होता है l जैसे जब कभी हम किसी ढोल पर चोट करते हैं तो ढम-ढम की आवाज आती है – चोट करना क्रिया है तो बदले में सुनाई देने वाला शब्द उसकी प्रतिक्रिया l इस प्रकार किसी भी तरह के कार्य से निकलने वाला अच्छा या बुरा परिणाम इसी बात पर निर्भर करता है l

     जिस कार्य का प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है वह बाहर के होने वाले ही कार्य की प्रतिक्रिया होती है l अगर वह कार्य द्वद्वात्मक हो तो बदले में मन में भी द्वद्व ही पैदा होता है l अच्छा कार्य सदैव द्वद्व रहित तथा शांति प्रदाता होता है जो हमारे मन पर अच्छा प्रभाव डालता है l वह हमारी अंतरात्मा को भी मान्य होता है l 

     इसी तरह शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध की अनुभूतियाँ हमारी इन्द्रियों की भोज्य हैं और काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार हमारे मन की कुवृतियां l ऐसे कोई भी कुवृति तब पैदा होती है जब हमारी अपनी बुद्धि सम्मोहित मन और उसकी विभिन्न प्रकार की गतिविधियों से निकलने वाले अच्छे या बुरे परिणामों का सही विश्लेष्ण नहीं कर पाती l किसी प्रकार का निर्णय न कर पाना ही हमारी बुद्धि की क्षीणता है l यही कारण है कि आधुनिक काल में प्रकाशित की जाने वाली विभिन्न पुस्तकों, समाचार पत्रों में घटिया श्रेणी की सामग्री पढ़ने और देखने को मिलती है l वह देश, काल और पात्र अनुकूल नहीं होती है l कितना अच्छा होता कि उन्हें सभ्य जागरूक समाज द्वारा कोसा जाता l   

    भारत के प्राचीनकाल में ही नहीं आधुनिक काल में भी उसके विद्वानों, विचारकों के अपने-अपने विचित्र अनुभव रहे हैं –“मनुष्य को वास्तविक सुख तथा शांति पाने के लिए अपनी इन्द्रियों की कुचेष्टाओं का मन के द्वारा दमन करना तथा मन के विकारों का बुद्धि द्वारा निग्रह करके अपनी बुद्धि को आत्मा में लीन करना, आत्मा को परमात्मा में मिला देना, हमारे जीवन का परम उद्देश्य होना चाहिए l ”यह सब आदिकाल से होता आया है, अब हो रहा है और आगे भी होगा l यही भारत की अध्यात्मिकता है l 

     क्या उपरोक्त ऋषि-मुनियों के विचित्र अनुभवों से हमारा आत्म सुधार हो सकता है ? क्या समाज में होने वाले अपराधों को रोका जा सकता है ? हमारा समाज तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक हमारी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक उन्नति नहीं होती है l हमें अपने समाज का विकास करना है तो पहले स्वयं का विकास करना होगा l स्वयं की उन्नति तब होगी जब हमारा मन, आचरण, आहार और व्यवहार भी शुद्ध होगा l इनसे हमारे जीवन की गाथा बनती है l हमारी जीवन गाथा दूसरों के लिए प्रेरक तभी बन सकती है, जब हमारे जीवन की नींव-उसका आधार सुदृढ़ होगा l ऐसा करने के लिए हमें सर्व प्रथम स्वयं को देखना होगा कि हम क्या कर रहे हैं ? वह ठीक भी है कि नहीं ? आओ ! हम सब इकट्ठे बैठकर विचार करें कि हमारे त्रुटिपूर्ण जीवन का सुधार कैसे हो और हमसे उसे महत्वपूर्ण जीवन किस प्रकार बनाया जा सकता है ? मानव जीवन अपूर्ण है इसलिए अपूर्ण को पूर्ण संग मिलाना ही श्रेयस्कर है l

    प्रकाशित 17 नवम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स


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    सुख – शान्ति कैसे प्राप्त करें

    14 नवम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स

    हमारा जीवन जितना अल्पायु का है उससे कई गुणा बढ़कर कामनाओं की उसमें अधिकता रहती है l हमारा मन किसी न किसी इच्छा का शिकार बना रहता है l भले ही वह कोई नर हो या नारी उनके जीवन में कोई न कोई रोग, शोक या व्याधि देखने को अवश्य मिल जाती है l मनुष्य की अपनी समस्त इच्छाएं अपनी विविधताओं के कारण कभी पूरी नहीं होती हैं l उनके फल विभिन्न हैं l
    प्राचीन आचार्यों के अनुसार – सुखी मानव जीवन के मुख्यतः चार फल हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष l इनसे मानव जीवन का गहरा संबंध है l भले ही यह सब मानव जाति का भला करने में सक्षम हैं पर आज के युग में वे नीरस और उपेक्षित हो गये हैं l कारण है – अज्ञानता, और भ्रष्टाचार की सर्वव्यापकता l धर्मयापन में बाधा साम्प्रदायिकता, गुटबंदी है तो अर्थ उपार्जन में बे - इमानी, काम में अविवेक है तो मोक्ष में मैं, मैंने की भावना l
     सब नर – नारी सुख चाहते हैं l वह शांति पाना चाहते हैं l वे चाहते हैं कि उन्हें मिलने वाला सुख तथा शांति एक ही बार एक साथ मिल जाये l पर यह एक ऐसी अनहोनी अपूर्ण इच्छा और कामना भी है कि जिसे पूरा करने के लिए उनका जीवन बहुत छोटा पड़ जाता है l अनुचित ढंग से आयु भर प्रयत्न करने पर भी वह जो कुछ उन्हें प्राप्त होता है – वे कभी उससे तृप्त और संतुष्ट नहीं हो पाते हैं l उन्हें सदा अशांति और निराशा ही देखने को मिलती है l 
    परन्तु सृष्टि में कुछ ऐसे भी विवेकशील महानुभाव विद्यमान हैं, जिन्होंने सुख तथा शान्ति पाने के परम उद्देश्य की दृष्टि से प्रकृति को मुख्यता दो भागों - जड़ तथा चेतन में विभक्त कर दिया है l जड़ प्रकृति में भौतिक शरीर और चेतन प्रकृति में अमर आत्मा विद्यमान है l 
    जड़ प्रकृति में धरती, आकाश, जल, वायु, अग्नि, बुद्धि और मैं या मैंने का भाव आते हैं जो प्रायः नश्वर हैं l इस प्रकृति में रोग, हर्ष, शोक, पीड़ा, भूख, प्यास, दुःख-सुख, लाभ और हानि जैसे अनेकों प्रकार के कष्ट पाये जाते हैं l अज्ञानी, भोगी, आलसी और निराशावादी ही नर-नारी इस प्रकृति से प्रभावित होते हैं l 
    परन्तु विवेकशील आशावादी नर-नारी अपने कठोर शरीर-श्रम, सन्तुलित भोजन, खेलकूद, भ्रमण, उचित लोक व्यवहार, स्वाध्याय, व्यायाम, योगाभ्यास, समय सदुपयोग, नियमित कार्य, ऋतू अनुसार वस्तु प्रयोग, कर्तव्य पालना, अनुशासन, सयंम और सादगी भरे सुव्यवस्थित जीवन से जड़ प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेते हैं l जड़ प्रकृति में होने वाली किसी भी घटना का उनके मन पर दुष्प्रभाव  नहीं पड़ता है l उनकी ज्ञान ज्योति निरंतर अचल और दीप्तमान बनी रहती है
    मानव शरीर में चेतन तत्व का अस्तित्व है जिससे वह सजीव या प्राण वाला होता है तथा चलता-फिरता, देखता-सुनता, खाता-पीता और बातें भी करता है l चेतन तत्व सर्व सुखदायक और दैवी गुण सम्पन्न है जिनका वही नर-नारी साक्षात् कर सकते हैं जो वास्तविक सुख तथा शांति की खोज में साधनारत रहने का दृढ़ निश्चय किये हुए हैं l साधनारत रहने से साधक के मन से संसारिक विषयक वस्तुओं के प्रति भोग-सुख की इच्छा, चिंता समाप्त हो जाती है और उसका आत्मा परमात्मा से दूध में घी समान मिलने के लिए तड़प उठता है और उसकी समाधि भी लग जाती है l 
    जब मनुष्य में चेतना जागृत हो जाती है तो शरीर से आलस्य स्वयं ही भाग जाता है l उसमें एक अद्भुत सी स्फूर्ति आ जाती है l ऐसे महान पुरुषों का प्रत्येक कार्य दूसरों के लिए प्रेरणादायक बन जाता है l भोगी पुरुष उसे अवतारी पुरुष भी कहते हैं जो उनकी मंद बुद्धि और अज्ञानता की उपज होती है l सत्य तो यह है कि कोई भी साहसी और कर्मवीर पुरुष मात्र पुरुषार्थ करके वैसा बन सकता है l
    समय या असमय पर इन्द्रियां, मन और बुद्धि भी संसारिक पदार्थों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहती हैं जिन्हें भ्रष्ट-पथ से सन्मार्ग पर लाने के लिए मनुष्य को अभ्यास या वैराग्य के द्वारा आत्मशान्ति या वास्तविक सुख का मार्ग अपनाना होता है l उसे निरंतर साधना करनी होती है l इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि का संसारिक विषयों में आसक्त हो जाने पर कोई भी आत्मा जड़ प्रकृति के अधीन कैदी के रूप में रहता है जो उसके अपने स्वभाव के विपरीत होता है l वह उस पराधीनता से मुक्त होने के लिए निरंतर सटपटाता रहता है l उसकी मुक्ति मात्र विवेकशील, कर्मनिष्ठ मनुष्य की निरंतर साधना और निराभिमान से संभव होती है l भोगी और आलसी तो हर प्रकार से क्षीण होकर संसारिक नश्वर शरीर में बार-बार जन्म और मृत्यु को ही प्राप्त होता है और कष्ट पाता है l 
    सृष्टि में बार-बार आवागमन को प्राप्त होना बुद्धिमानों का कार्य नहीं है और न ही यह उन्हें शोभा ही देता है l बुद्धिमान और साहसी तो वह है जिसकी इन्द्रियों में शक्ति है, मन पवित्र है, बुद्धि  विलक्षण है और आत्मा भी उदार है l
    कर्मशील, कर्मयोगी पुरुष के लिए ज्ञान युक्त जड़ प्रकृति संसार से ज्ञान प्राप्त करके अपने मन द्वारा उसका त्याग करना अति आवश्यक है l जो नर-नारी जड़ प्रकृति का त्याग नहीं करते हैं, उसमें लिप्त रहते हैं, वास्तव में वह सुख व शान्ति पाने से विमुख रह जाते हैं l इसके पीछे उनके मन की संसार के प्रति बनी आसक्ति होती है l अगर इस स्थान पर वह संसारिक विषयक पदार्थों का भोग किये बिना मुक्ति-पथ पर चलना आरम्भ कर देते हैं तब भी उनकी यात्रा संदेहास्पद की रहती है l उसमें इस का भय बना रहता है कि कहीं कभी अचानक उनके मन में संसारिक पदार्थों के सुख के प्रति भोग की इच्छा न पैदा हो जाये l जब कभी इस त्रुटि पूर्ण जीवन को लिए हुए, कोई भी नर-नारी मुक्ति–मार्ग पर चलते हुए संसारिक पदार्थों के रसास्वादन हेतु लालायत हो जाते हैं l तभी वह विषयासक्त ढोंगी कहे जाते हैं l इसलिए आवश्यक है कि संसार की हर वस्तु का आयु और समयानुसार भोग करना तथा अनुभवी होकर पवित्र मन द्वारा अध्यात्मिक पुरुष हो जाना l इससे कोई भी साधक अपनी डगर से विचलित नहीं होगा l क्योंकि मानसिक लालसा–इच्छा का त्याग ही सब प्रकार के किये जाने वाले त्यागों में सर्व श्रेष्ठ त्याग है l
    जड़-चेतन दो प्रकृतियों को मिलाने से एक नदी बनती है तो संसारिक तथा ईश्वरीय सुख उस नदी के दो किनारे भी हैं जिनके बीच में त्याग रूपी तीव्र धारा बहती है l आप एक समय में जिज्ञासु अथवा भोगी के नाते मात्र संसारिक सुख पा सकते हैं या मोक्ष ही प्राप्त कर सकते हैं संसारिक भोग करते हुए आप मोक्ष के बारे में मात्र सोच ही सकते हैं l आपके द्वारा उसे प्राप्त किया जाना तो तभी संभव हो सकता है जब आप अपने प्राणों की भी चिंता न करते हुए नाव रूपी निश्चय से नदी की त्याग रूपी तेज धारा में देह-मोह छोडकर कूद न जाये l अगर इस नाजुक समय में आपके हृदय में तनिक सी भी विषयासक्ति रह जाती है तो आप अपने कार्य में सफल नहीं हो सकते l
    वास्तव में ऐसे ही समय पर किसी मनुष्य के विवेक और सयंम की कड़ी परीक्षा होती है l इसलिए आवश्यक है कि वह पहले ही पूर्ण आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय के साथ उस परीक्षा में बैठे और उतीर्ण भी हो l
    इन जड़ और चेतन प्रकृतियों में मनुष्य को दो स्वरूप देखने को मिलते हैं – नामधारी और निराकार l नामधारियों में राम, शाम, शीला, गीता आदि किसी देहधारी का नाम होता है जबकि निराकार स्वयं ज्योति स्वरूप आत्मा या परमात्मा ही होता है l 
    वास्तविक सुख तथा शांति के उद्देश्य को मद्द्ये नजर रखते हुए जड़ प्रकृति देह का सदुपयोग करना अति आवश्यक है l जिससे कि वह प्राकृतिक कष्टों, विपदाओं, वाधाओं ओर जीवन चुनौतियों से भयभीत न हो बल्कि उनसे डटकर सामना कर सकने की शक्ति संपन्न बने l इस कार्य को करने में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष साधन मात्र हैं l 
    विशेष प्रकार की क्रियाओं, साधनों, सदाचार पालन के द्वारा अपनी इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि का भी सयंमन करने के साथ-साथ आत्मा पर भी पूर्ण नियंत्रण करके स्वयं को ईश्वरीय तत्व में लीन करने की सारी क्रियाएं, धार्मिक हैं l धर्म व्यक्तिगत विषय है जो स्वयं को सुखी करने के साथ-साथ दूसरों को भी सुख प्रदान करता है l इससे इहलोक और परलोक दोनों का सुधार होता है l 
    ब्रह्मचर्य व्रत पालन के साथ-साथ संपूर्ण विद्या प्राप्त कर लेने के पश्चात् शुद्ध अर्थ उपार्जित करते हुए गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके उतनी ही संतान उत्पन्न करना जिससे कि पारिवारिक, वंश, समाज, और राष्ट्र की रक्षा हो सके, शांति भंग न हो, सन्तान का भली प्रकार से लालन-पालन होने के साथ-साथ उसे उच्च शिक्षा भी मिले – वास्तविक अर्थों में “काम” है l
    योग प्राणायाम से आत्म संयमन करते हुए संसारिक मोह ममता, भोग इच्छा, धन संग्रह या लोभ की भावना से रहित ईश्वरीय तत्व का ध्यान करते हुए, लोक मार्गदर्शन करना और बिना कष्ट के अपने प्राणों का समाधि ही में त्याग करना उत्तम मोक्ष है l
    यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सही अर्थ समझ लें और उसके अनुकूल अपना जीवन यापन करें तो निःसंदेह हम वास्तविक सुख तथा शांति प्राप्त कर सकते हैं l

    प्रकाशित 14 नवम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स


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    क्या स्वराज ही लोकराज की इकाई है ?

    आलेख - कश्मीर टाइम्स  8.11.1996

    जब कभी हम एकाकी जीवन में निराशा अनुभव करते हैं तब उस समय हमारी ऐसी भी भावना पैदा हो जाती है कि चलो कहीं किसी सज्जन के पास हो आयें या कहीं किसी रमणीय स्थल पर घूम आयें l यही नहीं हम थोड़ी देर पश्चात् वहां चल भी देते हैं l ऐसा क्यों होता है ? यहाँ पहले हम इसी बात पर विचार करेंगे l

    जब हम अपने घर से बाहर निकलते हैं तो उससे कुछ समय पूर्व जहाँ हमने जाना होता है, उस स्थान का दृश्य हमारे मानस पटल पर उभरता है l


    वह कोई गाँव होता है या शहर, व्यक्ति होता है या जन सभा l सिनेमा घर होता है या कोई अन्य स्थान l उसका हमारे साथ अपना कोई पुराना संबंध होता है या हमने उससे नया ही संबंध बनाना होता है l वह हमारा पुराना संबंध हो या नया, पुराने के साथ पुरातन और नये साथ नवीनतम संबंध के आकर्षण का ही समावेश होता है l भावना के अनुसार किसी वाधा के कारण जब कभी ऐसा न हो सके तो हमें अशांति का ही मुंह देखना पड़ता है l


    जब हममें से कोई व्यक्ति किसी दूरस्थ महानुभाव से मिलता है तो वह उससे उसकी दो बातें सुनता है जबकि अपनी चार सुनाता भी है l ऐसा मात्र ख़ुशी के समय में या विचार विमर्श के समय में ज्ञान के आधार पर होता है l परन्तु जब वहां रोगी होता है तो उस समय आगंतुक अपनी कोई बात न करके मात्र रोगी की द्वा-दारु, सेवा-श्रुषा या उसके स्वास्थ्य से संबंधित बातें करता है l इस प्रकार किन्हीं दो प्रेमियों में उनका प्रेम ही नहीं बनता है बल्कि बढ़ता भी है l वह एक दुसरे से बात कह, सुनकर अपना दुःख-सुख आपस में बाँट लेते हैं l


    नेता के रूप में जब कभी हम में से किसी व्यक्ति को किसी जन सभा में बोलने का सुअवसर मिलता है तो वह तब तक बोलता है जब तक सुनने वालों का झुकाव उसके भाषण की ओर रहता है l वह भाषण का आनंद लेते हैं l सिनेमा या रमणीय स्थलों को देखने वाला कोई भी प्रेमी महानुभाव तो उसे देखता ही रहता है l जब वह उन्हें देखकर लौटता है तब राह में या उसके घर में मिलने वालों के साथ वह अपनी पसंद के दृश्यों के बारे में बातें करता है कि उसे वहां क्या अच्छा लगा और क्यों ? तब उसे मिलने वाले उसकी बात का अनुमोदन करते हैं या कोई तर्क देकर ही उसे समझाते हैं l


    बाढ़, सुखा, आकाल, अग्निकांड, भूकंप जैसे दुखद समय में आस-पड़ोस, गाँव, शहर और राष्ट्र की यही एक भावना होती है कि किसी तरह पीड़ा ग्रस्त लोगों का दुःख दूर हो l वे यथा शक्ति तन, मन से धन, विस्तर, वस्त्र का दान देकर उनकी सहायता करते हैं l


    युद्ध काल में किसी राष्ट्र, समाज के हर व्यक्ति की यही एक भावना होती है कि किसी तरह शत्रु पक्ष हार जाये और उसके अपने ही पक्ष की जीत हो l


    विश्व में हर महानुभाव का मन उसका अपना मन होता है l इस कारण विभिन्न मन के स्वामियों की आपनी-अपनी आस्थायें होती हैं l वह आस्थायें सुख के समय भले ही अलग-अलग हों पर दुःख के समय पर वे सब एक समान हो जाती हैं l उस समय ऐसा भी लगने लगता है मानों चारों ओर से ऐसा सुनाई दे रहा हो कि हमें इसी समानता को सदैव स्थिर बनाये रखना है l इसलिए कि हम किसी का दुःख बाँट सकें l दुखिया भी दुःख से राहत अनुभव कर सके l दुखियों तक सुख-सुविधाएँ पहुँच सकें l वे भी सुख का आनंद ले सकें l वे यह जान सकें कि उन्हें दुखी ही नहीं रहना है, वह भी सुखी हो सकते हैं l यह सत्य है कि अगर हम ऐसा कुछ करते हैं तो हमें अपने राष्ट्र, समाज और परिवार का सदस्य कहलाने का अधिकार स्वयं ही प्राप्त हो जाता है l


    मन के अधीन रहना हर मानव का अपना स्वभाव है l मन का स्वामी बनने के लिए उसे अभ्यास या वैराग्य की शरण लेनी होती है, कड़ी मेहनत करनी पड़ती है l अपनी पवित्र भावना, सद्गुण और संस्कारों के विपरीत अन्य कार्य किया जाना उचित नहीं है l इसी बात को ध्यान में रखकर जिन-जिन महानुभावों के द्वारा पवित्र लोकतंत्र की कल्पना और उसकी पुनर्स्थापना की गई है, उसका संबंध स्वराज ही से है जिसका नियंत्रण अंतरात्मा से होता है l


    स्वराज्य का अर्थ है – अपने शरीर पर अपना राज्य l यह कार्य अपनी सजगता, सतर्कता, तत्परता और अपनी सुव्यवस्था द्वारा संचालित होता है l स्व तथा राज्य इन दोनों शब्दों के आपसी मेल से तो अर्थ स्पष्ट है ही पर इसे यहाँ और स्पष्ट करने की नितांत आवश्यकता है l


    बुद्धि के द्वारा मन को अपनी दस इन्द्रियों के विषयों से बचाना जिनसे कि मन अपने पांच अश्व रूपी विकारों पर चढ़कर पल-पल में पथ-भ्रष्ट होता रहता है, बुद्धि को भी भ्रमित कर देता है – इन्द्रिय दमन कहलाता है यह क्रिया मन को इन्द्रियों के विषयों में भागीदार न बनाने से होती है l बुद्धि द्वारा मन की बहुत सी इच्छाओं पर नियंत्रण करके या उनका त्याग करके किसी एक अति बलशाली इच्छा को ही पूर्ण करने का योगाभ्यास करने से मनोनिग्रह होता है l इससे मन की भटकन समाप्त होती है l उसे कोई एक कार्य करने के लिए असीमित बल मिल जाता है जिसमें वह मग्न रहता है और उसे सफलता भी मिलती है l


    अंत में हमें अपनी बुद्धि का भी जो कभी-कभी मन के विकारों में फंसकर चंचल हो जाती है, उसे स्थितप्रज्ञ बनाये रखने के लिए अपनी आत्मा का ही सहारा लेना चाहिए l उसे आत्म-चिंतन के रूप में मग्न रखना आवश्यक है l अन्यथा विषयों और विकारों का बुद्धि द्वारा चिंतन होने से स्वराज्य या आत्मा का अपना प्रशासन भ्रष्ट होने लगता है l उसकी सुव्यवस्था और सुरक्षा के लिए स्थिर बुद्धि ही की आवश्यकता पड़ती है l हमें अपनी बुद्धि को स्थिर बनाये रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए l इसके लिए हमें सत्संग अर्थात जो सत्य है – उसकी संगत करना अनिवार्य है l सत्संग करने से सत्य की भावना, सत्य की भावना से सत्य विचार, सत्य विचारों से सत्कर्म और सत्कर्मों से निकलने वाला परिणाम भी सत्य ही होता है l इससे नैतिक शक्ति को बल मिलता है l


    वर्तमान काल में स्वराज्य के साथ – साथ लोकराज को भी जोड़ दिया गया है अर्थात आत्म सयंम द्वारा संचालित समाज की भलाई l स्वराज्य में कोई भी व्यक्ति स्वयं का निर्माता, पालक और संहारक भी होता है l उसे अपने लिए करना क्या है ? यह निर्णय पर पाना उसकी अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है l लोकराज तो बहुत लोगों का जनसमूह है जिसमें विभिन्न अंतरात्माओं के द्वारा सर्वसम्मत भिन्न-भिन्न कार्य करने की व्यवस्था होती है जो मात्र स्वतन्त्रता पर आधारित होती है l


    अगर कभी किसी प्रकार की कोई त्रुटि लोकराज्य में आ जाती है तो हमें स्वराज्य ही का निरीक्षण करना चाहिए l अगर स्वराज्य दोषपूर्ण है तो लोकराज में दोष का आना स्वभाविक ही है l लोकतंत्र को दोषमुक्त बनाये रखने के लिए स्वराज्य या आत्म नियंत्रित प्रशासन व्यवस्था पर कड़ी दृष्टि रखना आवश्यक है l ऐसा किये बिना न तो स्वराज्य और न ही लोकतंत्र की सुरक्षा सुनिश्चित रह सकती है l भ्रष्टाचार फ़ैलने और अव्यवस्था होने का मात्र यही एक कारण है l यह सब व्यक्ति और समाज की व्यवहारिक बातें हैं जिनका उन्हें ध्यान रखना अनिवार्य है l