मातृवंदना नवंबर 2022
1 जागरूक मतदाता :-
जो मतदाता भारत का नागरिक हो l जो आचार संहिता लगने तक संपूर्ण 18 वर्ष का हो गया हो l जो उस निर्वाचन क्षेत्र का निवासी हो जहाँ उसका पहली बार नाम अंकित होना हो, मतदान की योग्यता रखता है l लोक तांत्रिक देश भारत में 18 वर्ष से ऊपर के हर किशोर/युवा को संवैधानिक रूप से अपना मतदान करने का अधिकार प्राप्त है l निर्वाचन काल में वह मतदाता बनकर अपने मतदान से अपनी पसंद के प्रत्याशी की हो रही हार को भी अपने एक मत से उसकी जीत में परिवर्तित कर सकता है, ऐसी अपार क्षमता रखने वाले उसके मत को बहुमूल्य कहा जाता है l 1996 में माननीय अटल विहारी वाजपेयी जी की केन्द्रीय सरकार थी जिसे मात्र एक मत कम मिलने के कारण हार का सामना करना पड़ा था l हर लोकतान्त्रिक देश में किसी नेता, दल या दल की विचारधारा को लेकर उसके बारे में मतदाता की जो अपनी राय या मत होता है, उसे उसका मतदान के समय उपयोग अवश्य करना होता है l मतदाता जागरुक होना चाहिए ताकि जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए मजबूत लोकतंत्र की स्थापना को बल मिल सके l
2 मताधिकार का प्रयोग :-
छब्बीस जनवरी 1950 के दिन भारत में भारत के संविधान को स्वीकृति मिली थी l उसे पूर्ण रूप से लागु किया गया था l तब से लेकर अब तक मतदाता के द्वारा मतदान करने का अपना बहुत बड़ा महत्व है l मतदाता मतदान करके अपने पसंद का प्रत्याशी चुनता है l उसके द्वारा चुना हुआ प्रत्याशी अन्य क्षेत्रों से चुने गये प्रत्याशियों के साथ आगे चलकर स्थानीय निकाएं – ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, नगर पालिका, जिला परिषद् का ही नहीं, विधान सभा और लोक सभा का भी गठन में भी साह्भागी बनता है और सरकार बनाता है l
इस व्यवस्था की प्रक्रिया से सरकार द्वारा जो योजनायें बनाई जाती हैं, उन्हें साकार करने हेतु प्रारंभ किये गये जनहित विकास कार्यों का लाभ व सुविधाएँ जन-जन तक पहुंचाई जाती हैं l इसलिए मतदाता को अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करना चाहिए - क्योंकि यह केवल अधिकार ही नहीं, उसका कर्तव्य भी है l
3 गोपनीयता :-
देश में राजनीति से संबंधित वर्तमान में अनेकों विचार धाराएँ विद्यमान हैं l देखा जाये तो सभी विचार धाराओं के अपने-अपने दल और उनके विभिन्न उद्देश्य हैं l पर उनमें कुछ एक नेता निजहित, परिवार हित, दलहित की दलदल की राजनीति में ही धंसे हुए हैं l उन्हें जनहित, क्षेत्रहित, प्रांतहित, राष्ट्रहित और मानवता की भलाई कुछ भी दिखाई नहीं देती है l या तो उन्हें राजनीति की दलदल से बाहर निकलने का कोई मार्ग/सहारा नहीं मिलता है, या फिर वे उससे बाहर ही निकलना नहीं चाहते हैं l इस दौरान उन्हें जो मार्ग/सहारा मिलता भी है तो वह मार्ग पहले ही दलदल से भरा हुआ होता है या सहारा उस दलदल में धंसा हुआ मिलता है, जो उसे बाहर निकलने/निकालने में असमर्थ होता है l
निर्वाचन की व्यार चलते समय भारतीय राजनेता/राजनीतिक दल जनता को अपनी ओर आकर्षित करने हेतु मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त धन - मदिरा-मास, मासिक युवा बे-रोजगारी भत्ता, रोजगार देने, गरीबी दूर करने, सुशासन देने जैसे लुभावने तरह-तरह के प्रलोभन दिखाते हैं, उन्हें तो मात्र किसी तरह सत्ता की प्राप्ती करनी होती है, जनहित, देशहित किसने, कब देखा है ? निर्वाचन काल में उनके द्वारा किये जाने वाली घोषनाएँ /वायदे अथवा किये जाने वाले कार्य मात्र जनता को प्रलोभन दिखाकर मुर्ख बनाना होता है l
मतदान के दो प्रकार :- मतदान का पहला प्रकार सबसे अच्छा चुनाव वह होता है जो निर्विरोध एवं सर्व सम्मति से सम्पन्न होता है l इसमें प्रति स्पर्धा के लिए कोई स्थान नहीं होता है और दूसरा जो मतपेटी में प्रत्याशी के समर्थन में उसके चुनाव चिन्ह पर अपनी ओर से चिन्हित की गई पर्ची डालकर या ईवीएम मशीन से किसी मनचाहे प्रत्याशी के पक्ष में, चुनाव चिन्ह का बटन दबाकर अपना समर्थन प्रकट किया जाता है, मतदान कहलाता है l लेकिन प्रतिस्पर्धा मात्र पक्ष-विपक्ष दो ही प्रत्याशी प्रतिद्वद्वियों में अच्छी होती है जिसमे अधिक अंक लेने वाले की जीत और कम अंक लेने वाले की हार निश्चित होती है l
समय या असमय देखा गया है कि विधायक चुनी हुई सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेते हैं परिणाम स्वरूप सरकार गिर जाती है l अगर विधायक को अपना समर्थन वापस लेने का अधिकार है तो मतदाताओं को भी उस विधायक से अपना मत वापस लेने का अधिकार होना चाहिए ताकि वो कभी बिकने का दुस्साहस न कर सके l मतदाता के द्वारा सदैव बिना किसी भय, बिना किसी दबाव, बिना किसी लोभ, अपनी इच्छा और पसंद के, सर्व कल्याणकारी विचार धारा को मध्यनजर रखते हुए, बिना किसी व्यक्ति को बताये अपना गुप्त मतदान करना चाहिए l मतदाता के पास अपना बहुमूल्य मत होता है जिससे वह समाज विरोधी विचारधारा को हराकर, राष्ट्रवादी विचारधारा को विजय दिला सकता है l आगे भेज सकता है और उससे एक अच्छी सरकार की आशा भी कर सकता है l अन्यथा उस बेचारे मतदाता को पांच वर्ष तक अधर्म, अन्याय, अनीति और असत्य का सामना करना पड़ता है l
4 शत प्रतिशत मतदान :-
“मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं लहर नहीं, पहले व्यक्ति देखूंगा l मैं प्रचार नहीं, छवि देखूंगा l मैं धर्म नहीं, विजन देखूंगा l मैं दावे नहीं, समझ देखूंगा l मैं नाम नहीं, नियत देखूंगा l मैं प्रत्याशी की प्रतिभा देखूंगा l मैं पार्टी को नहीं, प्रत्याशी को देखूंगा l मैं किसी प्रलोभन में नहीं आऊंगा l” इस तरह मतदाता का स्वयं जागरूक होना या दूसरों को जागरूक करना परम आवश्यक है और स्वभाविक भी l
इसी माह 12 नवंबर को प्रदेश में लोक सभा के चुनाव होने हैं l सभी नर-नारी, युवा और वृद्ध शत-प्रतिशत लोक-सभा मतदान करने की प्रतिज्ञा करें l कोई भी 18 वर्ष की आयु से ऊपर वाला युवा जो वैधानिक दृष्टि से मतदान करने का अधिकारी बन चुका है, मतदान से वंचित नहीं रहना चाहिए l
श्रेणी: 7 स्व रचित रचनाएँ
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8. मतदान के प्रति मतदाता की जागरूकता
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7. विद्या मंदिर और उसकी भूमिका
अगस्त 2022 मातृवंदना शिक्षा दर्पण
माँ-बाप का सान्निध्य घर/परिवार बच्चे के लिए संस्कार, संस्कृति और सभ्यता निर्माण करने की पहली पाठशाला है l
गुरु का सान्निध्य पाठशाला, विद्या मंदिर विद्यार्थी के लिए देश, सनातन धर्म-संस्कृति के प्रति जागरूक एवं सेवा हेतु तैयार करने वाली दूसरी पाठशाला है l
शिक्षा नीति :–
कोई भी भाषा सीखना बुरा नहीं है, जितना बुरा अन्य भाषा सीखकर मातृभाषा/राष्ट्रीय भाषा भूल जाना है l
भारत एक राष्ट्र है l देशभर में एक शिक्षा नीति, एक पाठ्यक्रम और विभिन्न पुस्तकों का हर स्थान पर एक समान मूल्य निर्धारित करना अति आवश्यक है l
मुफ्त में किसी को कुछ भी नहीं देना चाहिए l प्रत्येक विद्यार्थी को इस योग्य शिक्षा मिलनी चाहिए कि वो अपने गुण, ज्ञान स्वभावानुसार स्वयं के पैरों पर खड़ा होकर अपने घर/परिवार का उचित पालन–पोषण और रक्षा कर सके l
चर्च के स्कूलों में अंग्रेजी, मस्जिदों के मदरसों में उर्दू पढ़ाया जा सकता है तो मंदिरों के गुरुकुलों में संस्कृत भी पढ़ाई जा सकती है l
विद्या तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मरण शक्ति, तत्परता और कार्यशीलता यह छ: गुण जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है l
जिन अभिभावकों ने कान्वेंट स्कूल/मदरसे में शिक्षा पाई है, विशेषकर उनके बच्चों को देश, सनातन धर्म-संस्कृति की शिक्षा अवश्य मिलनी चाहिए l
धर्म क्या है ? रामायण से, धर्म की रक्षा कैसे की जाती है ? महाभारत से, दोनों को जानने हेतु उन्हें विद्यार्थियों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किया जाना चाहिए l
रामायण चरित्र निर्माण करती है, गीता उचित कार्य करना सिखाती है – मानव जीवन में दोनों संस्कार अपेक्षित हैं, हर विद्यार्थी को मिलने चाहियें l
शिक्षण-प्रशिक्षण :–
गुरु-शिष्य का वह संयुक्त प्रयास जिससे शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का विकास हो, उनमें दिव्य शक्तियों का संचार हो, शिक्षण-प्रशिक्षण कहलाता है l
गुरुजन व्यक्ति/परिवार/समाज और विश्व हित में विद्यार्थियों को शास्त्र और देश हित में शस्त्र विद्याओं का शिक्षण-प्रशिक्षण देते थे, उन्हें ज्ञात था – आने वाले समय में विधर्मी किसी को चैन से नहीं जीने देंगे l
हमें अपने बच्चों को ऐसे विद्यालय में प्रवेश अवश्य करवाना चाहिए जहाँ उन्हें प्राचीन व आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ देश, सनातन धर्म-संस्कृति से प्रेम का भी शिक्षण-प्रशिक्षण मिल सके l
विद्यालय में विद्यार्थियों को योग, आयुर्वेद, अध्यात्मिक शिक्षा, संस्कार तथा भारतीय इतिहास का शिक्षण-प्रशिक्षण अवश्य मिलना चाहिए l
कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण देने से विद्यार्थी की योग्यता में निखार आता है l जीवन में निखार आ जाए तो उस कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण को चार चाँद लग सकते हैं l
विद्यार्थी जीवन में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक शक्तियों का विकास करने के लिए उसे स्वयं में छिपी हुई किसी न किसी कला (पाक विद्या, बागवानी, सिलाई, बुनाई, कढाई, वादक-यंत्र वादन, नृत्य, संगीत, अभिनय, भाषण, साहित्य लेखन जैसी अन्य जो अनेकों कलाएँ हैं l) से प्रेम अवश्य करना चाहिए l विद्यार्थी के पास जीवन निर्वहन करने के साथ-साथ अपना जीवन संवारने हेतु इससे बढ़िया अन्य और संसाधन क्या हो सकता है !
अगर वर्तमान में वामपंथी/इस्लामी और सेक्युलर सोच या कट्टरता के विरुद्ध समय रहते बच्चों और विद्यार्थियों को शास्त्र-शस्त्र विद्याओं का शिक्षण-प्रशिक्षण नहीं मिला तो बहुत देर हो जाएगी l
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4. निःस्वार्थ सेवा हेतु सद्भावना की आवश्यकता !
आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दन फरवरी 2022
साधू भूखा भाव का धन का भुखा नाहीं, धन का भूखा जो फिरे वो तो साधू नाहीं ll संत कवीर जी के इस कथनानुसार सज्जन या सत्पुरुष वही होता है जिसे किसी प्रकार का कोई लोभ न हो l लोभी पुरुष कभी साधू नहीं हो सकता l अगर लघु मार्ग द्वारा धन संग्रह करने के उद्देश्य से कोई व्यक्ति सेवक का चोला धारण करके जनसेवा के पथपर चलता है तो उससे जनसेवा नहीं, निज की सेवा होती है जैसे कमीशन का जुगाड़ करना, रिश्वत लेना, घूस खाना और गवन करना l क्योंकि जन सेवा हेतु सीमित दृष्टिकोण या संकीर्ण विचारधारा की नहीं बल्कि विशाल हृदय, शांत मस्तिष्क और मात्र राष्ट्र एवम् जनहित के कार्य करने की आवश्यकता होती है l यह सब गुण सज्जन एवम् सत्पुरुषों में विद्द्यमान होते हैं l
जिस व्यक्ति का मन परहित के लिए दिन-रात तड़पता हो, बुद्धि परहित का चिंतन करती हो और हाथ परहित के कार्य करने हेतु सदैव तत्पर रहते हों – उसके लिए यह सारा संसार अपना और वह स्वयं सारे संसार का अपना होता है l इस प्रकार एक दिन वह व्यक्ति श्रीराम, या श्रीकृष्ण जी के समान भी गुणवान बन सकता है l परन्तु जो व्यक्ति मात्र दिखावे का सेवक बनकर मन से नित निजहित के लिए परेशान रहता हो, बुद्धि से निजहित सोचता हो और जिसके हाथ निजहित के कार्य करने हेतु व्याकुल रहते हों – उसके लिए जनसेवा का कोई अर्थ नहीं होता है l वह विश्व में किसी का अपना नहीं होता है और जो उसके अपने होते हैं वो भी दुःख में उसे अकेला छोड़ने वाले होते हैं l
राष्ट्रहित, समाजहित और जनहित के लिए वह मुद्दे जो भारत के समक्ष उसकी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय उजागर हुए थे, वह आज भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं l वह हमसे टस से मस इसलिए नहीं हो पाए हैं क्योंकि हमने उन्हें समाज या जन का सेवक बनकर कम और निज सेवक होकर अधिक निहारा है l सौभाग्य वश हमारा भारत लोकतान्त्रिक देश है जिसमें जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए सरकार बनाने का हमें संवैधानिक अधिकार प्राप्त है l हम अपने मतदान द्वारा अपना मनचाहा प्रतिनिधि चुनकर विधानसभा या लोकसभा तक भेज सकते हैं l अगर हम उसके माध्यम से अपनी आवाज संसद भवन तक नहीं पहुंचाते हैं तो हमें किसीको दोष नहीं देना चाहिए l
वर्तमान राष्ट्रहित में देश की एक ऐसी सशक्त एवम् सकारात्मक राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली होनी चाहिए जिसमें कलात्मक कृषि-बागवानी एवम् रोजगार प्रशिक्षण, व्यवहारिक आत्मरक्षा एवम् जन सुरक्षा प्रशिक्षण, सृजनात्मक पठन-पाठन और रचनात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था हो l इससे भारत की दूषित शिक्षा-प्रणाली से जन साधारण को अवश्य ही राहत मिल सकती है l जनहित में जन साधारण को विश्वसनीय स्थानीय जन स्वास्थ्य सेवा मिलनी चाहिए l इसके लिए सुविधा सम्पन्न चिकित्सालय, सर्वसुलभ प्रसूति-गृह, उचित चिकित्सा सुविधाएँ, पर्याप्त औषध भंडार, योग्य डाक्टर व रोग विशेषज्ञ, रोगी की उचित देखभाल, स्वास्थ्य कर्मचारी वर्ग और त्वरित चिकित्सा-वाहन सेवा का होना अनिवार्य है l वह इसलिए कि त्रुटिपूर्ण और अभावग्रस्त जन स्वास्थ्य सेवा समाप्त हो सके l
जनहित देखते हुए आज बारह मासी स्थानीय व्यवसायिक व्यवस्था की महती आवश्यकता है l इसके लिए सहकारीता आन्दोलन को पुनः जीवित किया जा सकता है जिसके अंतर्गत पशुधन, पौष्टिक खाद, पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ, जल, जंगल, जमीन का सरंक्षण सहकारी वाणिज्य-व्यापार, स्वरोजगार, सहकारी ग्रामाद्द्योग तथा सहकारी सम्पदा का संवर्धन हो ताकि सहकारी खेती को बढ़ावा मिल सके l जन साधारण को मात्र 100, 200 दिनों तक का नहीं बल्कि पुरे 365 दिनों का व्यवसाय मिल सके l
जन-जन हित में स्थानीय जानमाल की रक्षा-सुरक्षा को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए जरूरी है पीने का स्वच्छ पानी, पौष्टिक खाद्द्य वस्तुएं व पेय पदार्थ, रसोई गैस, मिटटी का तेल, विद्दुत ऊर्जा, स्थानीय नागरिकता की विश्वसनीय पहचान और स्थानीय जानमाल की रक्षा-सुरक्षा समितियों का गठन किया जाना ताकि जन साधारण की जीवन रक्षक आवश्यकताएँ पूर्ण हो सकें और उसे आतंकवाद, उग्रवाद जिहाद, अपहरण, धर्मांतरण, बलात्कार तथा हिंसा से अभय प्राप्त हो सके l इस प्रकार राष्ट्रीय जनहित में आवश्यक है – सशक्त एवम् सकारात्मक राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली, विश्वसनीय जन स्वास्थ्य सेवा, बारह मासी स्थानीय व्यवसायिक व्यवस्था और जानमाल रक्षा-सुरक्षा की सुनिश्चितता l ऐसा कार्य मात्र परहित चाहने वाले न्याय प्रिय, दूरदर्शी राजनीतिज्ञ, नीतिवान और धर्मात्मा लोग ही कर सकते हैं l अगर हम परहित करना चाहते हैं तो हमें सत्पुरुषों और परमार्थियों को ही अपना प्रतिनिधि बनाना होगा l उन्हें उनके क्षेत्र से विजयी करवाने हेतु अपनी ओर से उनकी हर संभव सहायता करनी होगी l अन्यथा निजहित चाहने वालों के मायाजाल से हमें कभी मुक्ति नहीं मिलेगी l बस हमें मिलती रहेगी मात्र दूषित शिक्षा, त्रुटिपूर्ण व अभावग्रस्त जन स्वास्थ्य सेवा, 100, 150 और 200 दिनों का व्यवसाय की लालीपाप l
देशवासियों ! यदि सोये हुए हो तो जाग जाओ और स्वयं जागने के साथ-साथ दूसरों को भी जगा लो l निजहित चाहने वाले बेचारे अपनी आदत से बड़े मजबूर हैं l बे मजबूर ही रहेंगे क्योंकि उन्होंने निजहित में कमीशन जुटाना है, रिश्वत लेनी है, घूस खानी है, राष्ट्र तथा समाज की सम्पदा डकारनी है तथा भ्रष्टाचार ही फैलाना है l आप उनसे राष्ट्रहित, जनहित और समाजहित की चाहना रखना छोड़ दो l यह आपकी आशा पूर्ण होने वाली नहीं है l उनके पास अतिरिक्त कार्य करने का समय नहीं है l इसका निर्णय अब आपने मतदान करके करना है l निडर होकर मतदान कीजिये और अपनी पसंद के उम्मीदवार को विजयी बनाइए l देखना कहीं आपसे चूक न हो जाये l
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2. कर्तव्य – सेवा ज्ञान का महत्व
आलेख – मातृवंदना 2022 फरवरी
ईश्वर अजर, अमर, अविकारी, सर्वव्यापक और निराकार है l वह निर्जीव में भी है और सजीव में भी l वह सबके भीतर भी है और बाहर भी l अर्थात वह कण-कण में विद्यमान है l जीव ईश्वर का अंश है l मानव शरीर की आकृति का प्रादुर्भाव परिवर्तनशील प्रकृति जल, वायु, मिट्टी, अग्नि और आकाश से होता है l मनुष्य के जन्म का पहला साँस और मृत्यु के अंतिम साँस का मध्यकाल, उसका जीवन काल होता है l हर प्राणी की मृत्यु होना निश्चित है, मृत्यु अवश्य होती है, प्रकृति नाशवान है l
ऋषियों ने मानव जीवन काल को चार अवस्थाएं प्रदान की हैं – ब्रह्मचर्य जीवन, गृहस्थ जीवन, वानप्रस्थ जीवन, और सन्यास जीवन l इनके सबके अपने -अपने दायित्व हैं l ब्रह्मचर्य जीवन में ज्ञान अर्जित करना, गृहस्थ जीवन में संतानोत्पत्ति करना, वानप्रस्थ जीवन में यम नियमों का पालन करते हुए शरीर, मन, बुद्धि का शुद्धिकरण करना एवंम सत्सनातन तत्व जानना और सन्यास जीवन में सत्सनातन तत्वका मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार करना दायित्व है l मानव जीवन का उद्देश्य-जीवन में चार फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति करना है l
जीव को मानव शरीर में इन्द्रियां, मन, बुद्धि अज्ञान वश अपने अधीन करके रखती हैं, उनसे मनुष्य द्वारा जीव को सहज में मुक्त नहीं किया जा सकता, उसकी मुक्ति के लिए मनुष्य को वेद विधि-विधानानुसार यत्न करना पड़ता है l ऋषियों का मानना है कि परिवर्तनशील प्रकृति तीन सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों से युक्त है l नाशवान प्रकृति में रहते हुए जीव समय-समय पर इन त्रिगुणों से प्रभावित होता रहता है l
त्रिगुण संपन्न प्रकृति से मनुष्य जाति के गुण, संस्कार और स्वभाव में समय-असमय पर बदलाव होते रहते हैं l अपनी मनोवृत्ति अनुसार मनुष्य कभी सात्विक ,कभी राजसिक और कभी तामसिक संगत करता है l ऐसी किसी संगत के ही अनुसार उसकी वैसी भावना उत्पन्न होती है l उस भावना अनुसार उस का वैसा विचार उत्पन्न होता है, अपने विचार के अनुसार वह वैसा कर्म करता है और फिर अंत में उसके द्वारा किये हुए कर्मानुसार ही उसे वैसा फल भी मिलता है l यही प्रकृति का अटूट नियम और उसका कटु सत्य हैl
सृष्टि में हर पहलु के अपने दो पक्ष होते हैं – अच्छा और बुरा l अच्छे कार्य का जनमानस पर अच्छा प्रभाव होता है l इसलिए समाज में उसकी हर स्थान पर प्रसंशा होती है और बुरे का बुरा प्रभाव होता है जिस कारण उसकी सर्वत्र निंदा होती है l अतः मनुष्य जाति का सदैव पहले वाले पक्ष का साथ देने और दूसरे का विरोध करना चाहिए l
घर परिवार के आपसी व्यवहार में वाणी बहुत महत्वपूर्ण होती है l बोलचाल के ढंग ने जहाँ कई घरों को जोड़ा है, वहां अनेकों को तोड़ा भी है l रिश्ते निभाने में शब्द अमृत भी बन जाते हैं और जहर भी l शब्दों में आत्मीयता होनी चाहिए जिसमें भावनाएं भरी हों l हृदय से बोले और हृदय से सुने गए शब्द ही अमृत समान होते हैं l घर परिवार में एक दूसरे के प्रति विश्वास होना चाहिए l नहीं तो यह वो भूकंप है जो मधुर रिश्तों में दरार पैदा कर देता है और एक दिन उन्हें समाप्त भी कर देता है l सदा मीठा नहीं खाया जा सकता पर कुछ खट्टा, कुछ मीठा दोनों के स्वाद से हम अपनी परिवार रूपी बगिया को अवश्य महका सकते हैं l
प्रेम, त्याग, समर्पण, सहयोग, सहभागिता और सेवा की भावना परिवार के मुख्य गुण है, परिवार को संगठित और सशक्त करते हैं l जिस परिवार में ऐसे गुण विद्यमान होते हैं, उस परिवार के किसी भी व्यक्ति को अन्यत्र स्वर्ग ढूंढने की आवश्यकता नहीं होती है l सशक्त परिवार अर्थात माता-पिता ही बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकते हैं, उन्हें सशक्त बना सकते हैं l
माँ के गर्भ में पोषित होने से लेकर, बच्चे का जन्म लेने के पश्चात् पाठशाला जाने तक पहला और दूसरा गुरु माता-पिता ही होते हैं l माता-पिता बच्चों को संस्कार देते हैं l तीसरा गुरु विद्यालय में गुरुजन होते हैं जो उन्हें तात्विक या विषयक शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उनका भविष्य निर्माण करते हैं l तीनों गुरु पूजनीय हैं l माता-पिता के रहते हुए घर और गुरु के रहते हुए विद्यालय दोनों विद्या मंदिर होते हैं l घर में माता-पिता के सान्निध्य में रहकर बच्चे संस्कारवान बनते हैं जबकि विद्यालय में गुरु के सान्निध्य में रहने से शिष्य अपने विषय में पारंगत, समर्थ, सशक्त युवा बनते हैं l सशक्त युवाओं के कन्धों पर ही भारत का भविष्य टिका हुआ है l
सशक्त युवाओं को उनके गुण, संस्कार और स्वभाव से जाना जाता है l सशक्त युवाओं से सशक्त परिवार बनता है l सशक्त परिवार सशक्त गाँव का निर्माण करते हैं l सशक्त गाँवों से सशक्त राज्य बनते हैं l सशक्त राज्यों से देश सशक्त होता है l सशक्त देश से सशक्त विश्व की आशा की जा सकती है l यह बात किसी को नहीं भूलनी चाहिए कि मनुष्य को उसके कर्मों से जाना जाता है, उसके परिवार से नहीं l
ब्रह्म भाव में स्थिर रहकर ब्रह्मतत्व का विश्व कल्याण हेतु प्रचार-प्रसार करने वाला कोई भी युवा ब्रह्मज्ञानी ज्ञानवीर हो सकता है l क्षत्रिय भाव में स्थिर रहकर जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा शूरवीर हो सकता है l वैश्य भाव में स्थिर रहकर गौ-सेवा, कृषि और व्यापार से जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा धर्मवीर हो सकता है l शूद्र्भाव में स्थिर रहकर हस्त-ललित कला, लघु एवंम कुटीर उद्योग से जन, समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाला कोई भी युवा कर्मवीर हो सकता है l
संसार में हर युवा को उसके गुण, स्वभाव और संस्कार से जाना जाता है l इसी कारण ज्ञानवीर की तत्वज्ञान से, रणवीर की पराक्रम से, धर्मवीर की कर्तव्य परायणता से और कर्मवीर की कर्मशीलता से पहचान होती है l वह अपने गुण, संस्कार और स्वभाव के अनुसार अपने माता-पिता, गुरु, समाज, राष्ट्र और संसार की सेवा/कल्याणकारी कार्य करता है और बदले में उसे धन, बल व यश की प्राप्ति होती है l
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4. संतुलित विकास की आवश्यकता
मातृवंदना अक्तूबर 2021 पर्यावरण चेतना - 10
जैसे-जैसे पृथ्वी पर जनसंख्या बढ़ रही है – धरती पर प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों के अनवरत दोहन में भी वृद्धि हो रही है l इस प्रकार प्राकृतिक असंतुलन बढ़ने के कारण वो दिन दूर नहीं जब मनुष्य को पृथ्वी पर पीने हेतु जल और रहने का स्थान शेष नहीं रहेगा l इसलिए आवश्यक है सही समय पर सभी लोग जाग जाएँ, वे अपनी जिम्मेदारियां समझें और पृथ्वी के प्रति अपना कर्तव्य निभाएं l
युगों से पृथ्वी पर मात्र मनुष्य ही नहीं रहता आया है बल्कि अन्य जीव-जन्तु जलचर, थलचर और नभचर भी रह रहे हैं l इन सबका जीवन एक दूसरे पर निर्भर करता है l हर बड़ा जीव अपनी क्षुधा शांत करने हेतु दुसरे जीव को मारता और उसे खाता है l महत्वाकांक्षी मनुष्य तो इतना व्याकुल रहता है कि वह अपनी सुख-सुविधाएँ पाने के लिए प्रकृति ही को भूल गया है l वह भूल गया है कि जननी जन्म देती है मगर उसका पालन-पोषण तो प्रकृति ही करती है l
समस्त सुख–सुविधा सम्पन्न स्वच्छ मकान, संतुलित पौष्टिक भोजन, सस्ती बिजली, त्वरित उपयुक्त चिकित्सा, श्मशान घाट, विद्यालय, खेल व योग-प्राणायाम करने का उचित स्थान, देवालय एवम् सत्संग भवन, पशु चिकित्सालय, प्रदूषण मुक्त आवागमन के संसाधन, बारातघर, समुदायक भवन, पुस्तकालय, ग्राम पंचायतघर, बाजार तथा अनाज व सब्जी मंडी, बैंक तथा एटीएम इतियादि किसी गाँव या शहर की अपनी मूल आवश्यकताएं होती हैं l समाज का विकास होना आवश्यक है l वह विकास पोषण पर आधारित हो, शोषण पर नहीं l प्रकृति शोषण पर आधारित किसी भी मूल्य पर होने वाले विकास को कभी सहन नहीं करती है l ऐसा विकास प्राकृतिक आपदा बनकर अपना रौद्र रूप अवश्य दिखाती है l
फिर भी मनुष्य वन कटान, अवैध खनन और अवैध निर्माण कार्य करता हुआ कथित विकास की ओर अग्रसर है मगर विनाश भी उसके साथ गतिशील है l परिणाम स्वरूप जहाँ-तहां वर्षा कम या ज्यादा होने से बाढ़ आती है, अनावश्यक जलभराव होता है, भूस्खलन हो रहे हैं, प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं मनुष्य के लिए एक ओर विकास है तो दूसरी ओर विनाश l वह एक आपदा से जूझकर निवृत होता है तो दूसरी आपदा मुंह वाय उसके सम्मुख खड़ी मिलती है l
इस समस्या से निपटने के लिए जरूरी है जब भी कोई सरकारी या गैर सरकारी विकास योजना बनाई जाए तो उसमें दूरदर्शिता का समावेस अवश्य होना चाहिए l उससे प्रकृति पर कम से कम दुष्प्रभाव पड़ना चाहिए l जल स्रोत, जंगल वृत्त और कृषि भूमि सुनिश्चित होनी चाहिए l हर आवश्यक वृत्त वन कटान, अवैध भू-खनन और अवैध निर्माण कार्य मुक्त होना चाहिए l
स्थानीय लोगों को विकास के साथ जोड़ना चाहिए l संतुलित विकास करने के साथ-साथ उनके द्वारा लम्बे समय तक प्राकृतिक संतुलन बनाए रखना अति आवश्यक है l उसके लिए अपेक्षित प्राकृतिक पोषण के आधार पर अंतराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रांतीय और क्षेत्रीय स्तर की सरकारी व गैर सरकारी सामाजिक तथा धार्मिक संस्थाओं और उनकी सहयोगी स्थानीय शाखाओं के सहयोग, श्रद्धा और सेवा-भक्ति की भावना द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है l
प्रकाशित मातृवंदना अक्तूबर 2021