मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: कवितायें

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    3. भूजल भंडार करे उद्धार

    दिव्य हिमाचल 23 दिसम्बर 2004

    नभ से बूंदाबांदी होती टिप टिप टिप
    धरा पर इधर उधर गिरती पड़ती टिप टिप टिप
    सांए सांए करती जलधारा बन कर
    नाली नाला नदी रूप बन कर
    पहाड़ से जंगल और मैदान की ओर
    जलधारा बढ़ती जलाश्य की ओर
    उसे बहना है वह बहती जाती है
    पहाड़ से चलती सागर से मिल जाती है
    वर्षा जल आता आंधी बन कर
    बढ़ जाता आगे तूफान बन कर
    भूजल धरती को नहीं मिल पाता है
    कष्ट सहती धरती ज्यादा नहीं सहा जाता है
    गर्म सीना धरती का जलता जा रहा
    भूमि का जल स्तर घटता जा रहा
    मनवा प्यासी धरती करे पुकार
    सुरक्षित भूजल भंडार सबका करे उद्धार



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    2. जल संकट नहीं होने देंगे

    दिव्य हिमाचल 7 दिसम्बर 2004

    जल की हर बूंद है अनमोल
    जल से जीवन का है मोल
    बूंदबूंद से भर जाता है घड़ा
    पगपग पर जल करना है खड़ा
    बावड़ी बना कर कूप बना कर
    तालाब बना कर जलाशय बना कर
    बावड़ी यहां पर कूप वहां पर
    तालाब यहां पर जलाशय वहां पर
    भूजल का स्तर बढ़ाना है
    नमीदार पेड़ जंगल उगाना है
    नदियों को स्वच्छ बनाना है
    पर्यावरण का प्रदूषण हटाना है
    मनवा अब हम कोई बूंद व्यर्थ नही होने देंगे
    यहां वहां कल का जल संकट नही होने देंगे



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    1. शुद्ध भूजल जीवन आधार

    23 सितम्बर 2004 दिव्य हिमाचल

    वर्षा जल छत पर आए
    टिप-टिप-टिप,
    जल परनाला कूप पर ले जाए
    टिप-टिप-टिप,
    शुद्ध जल सबने पीना है,
    भूजल से सबने जीना है,
    चेतन यह भूजल है
    जीवन का आधार,
    मात्र शुद्ध भूजल है,
    जीवन का आधार,




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    6. दानवता का अहसास

     7 दिसम्बर 1996 कश्मीर टाइम्स

    हिंसा करता मैं धर्म के नाम पर,
    धर्म पशुता में अंतर रहा क्या?
    इंसान हूँ कहलाता मैं मगर
    बन गया पशु, अर्थ रहा क्या?
    बस एक इंसान हूँ मैं मगर
    भेड़िये की खाल में रहता क्यों?
    बातें धर्म की करता मैं मगर
    लहू बेगुनाहों का बहाता क्यों?
    हिंसा है धर्म दानव का,
    सबको मरने की रह दिखाई है,
    हिंसा करना है काम हिंसक पशु का
    फिर ऐसी राह मैंने क्यों पाई है?
    बुरा सोचूं मैं किसी के लिये
    भला मेरा भी होगा क्या?
    खाई खोदूं मैं किसी के लिए
    पहले कुंआं मेरे लिए न बना होगा क्या?
    काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार
    सारे मात्र हैं नरक ही के द्वार,
    इधर बोल रहे सद्ग्रन्थ प्यारे,
    उधर गुर बता रहे हैं सद्गुरु के द्वार,




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    5. देख सके मन से देख

     
    29 जून 1996 दैनिक कश्मीर टाइम्स
    स्वामी सबका ईश्वर है,
    प्राणी हैं अनेक,
    जीवन सबका समान है,
    देख सके तो मन से देख,
    नारी सबकी जननी है,
    माताएं हैं अनेक,
    बच्चे सबके समान हैं
    देख सके तो मन से देख,
    ज्ञान जननी बुद्धि है,
    मस्तिष्क हैं अनेक,
    आत्म - ज्ञान समान है,
    देख सके तो मन से देख,
    खून सबका लाल है,
    विचार हैं अनेक,
    प्रेम से सब समान हैं,
    देख सके तो मन से देख,
    जाति सबकी मानव है,
    नर – नारी हैं अनेक,
    जन्म से सब समान हैं,
    देख सके तो मन से देख,
    धर्म सबका मानवता है,
    संप्रदाय हैं अनेक,
    अपने – पराय सब समान है,
    देख सके तो मन से देख,
    धरती सबकी सांझी है,
    परंपरायें हैं अनेक,
    मिलकर सब समान हैं,
    देख सके तो मन से देख,