मई 2012 मातृवन्दना
भारत ऋषि -मुनियों का देश है। भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को 100 वर्ष तक मुख्यतः चार आश्रमों में विभक्त किया था। उनमें प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य, 25 से 50 वर्ष गृहस्थ, 50 से 75 वर्ष वानप्रस्थ और 75 से 100 वर्ष तक सन्यास आश्रम प्रमुख थे। उनके अपने विशेष सिद्धांत थे, उच्च आदर्श थे जिनके अनुसार मनुष्य अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता था। इससे वह दैहिक, दैविक और भौतिक शक्तियों का स्वामी बनता था। भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान् थी।
प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या ग्रहण, 25 से 50 वर्ष गृहस्थाश्रम में सांसारिक कार्य, 50 से 75 वर्ष वानप्रस्थाश्रम में आत्म चिन्तन-मनन करते हुए आत्म साक्षात्कार और 75 से 100 वर्ष तक सन्यासाश्रम में जनकल्याण करने का सुनियोजित कार्य किया जाता था। इनके अंतर्गत सनातन समाज को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और धार्मिक दृष्टि से विश्व भर में सर्वोन्नत श्रेणी में सम्पन्न ही नहीं गिना जाने लगा था बल्कि विश्व ने उसकी आर्थिक सम्पन्नता देखते हुए उसे सोने की चिड़िया के नाम से भी विभूषित किया था।
सनातन समाज की इस आर्थिक सम्पन्नता और उन्नति के पीछे जिस महान् शक्ति का योगदान रहा है, वह शक्ति थी, योगियोें की योगसाधना और कर्मयोग। श्रीकृष्ण जी उनके महान् आदर्श रहे हैं । उन्होंने संसार में रहते हुए भी कभी संसार से प्रेम नहीं किया। उन्होंने पल भर के लिए भी योग को स्वयं से कभी अलग नहीं किया। वे संसार में कभी लिप्त नहीं हुए। यही कारण है कि हम आज भी उन्हें अपना नायक, निराकार, सनातन, सत्पुरुष मानते हैं और वे हमारे सबके हृदयों में विराजमान रहते हैं।
यह तो सत्य है कि प्राचीन काल में 1/3 % को छोड़कर 3/4 % सनातन समाज भौतिक सुख सुविधाओं से अभाव ग्रस्त था और उस समय प्राकृतिक शोषण न के समान हुआ था। इसका मुख्य कारण यह रहा है कि पहले सनातन समाज सादगी पसंद अध्यात्म प्रिय और प्राकृतिक प्रेमी था जबकि आज वही समाज वैसा होने का मात्र ढोंग कर रहा है। वह प्रकृति के विरुद्ध अनेकों कार्य करते हुए, उससे शत्रुता बढ़ा रहा है। इस तरह वह कल आने वाली महाप्रलय को, आज ही आमन्त्रित कर रहा है।
प्रकृति की परिवर्तनशीलता के प्रभाव से सनातन समाज के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और धार्मिक क्षेत्रों में परिवर्तन होना निश्चित था, परिवर्तन हुआ। यह समस्त भूखण्ड जिस पर कभी मात्र आर्य लोगों का "सुधैव-कुटुम्बकम" दृष्टि से अपना अधिपत्य था, वह धीरे-धीरे कई राष्ट्रों के रूप में परिणत हो गया। उस भूखण्ड पर अनेकों देश जिनमें वर्तमान भारतवर्ष भी है, वह अपने अस्तित्व में आने से पूर्व कई छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त लेकिन उन्नत एवं समृद्ध भी था। वह विदेशी व्यापारी कम्पनियों, अक्रांता एवं लुटेरों की कुदृष्टि से बच न सका। जहां भारत के सम्राट साहसी और परम वीर थे, वहां वे अहंकार में चूर और विलासी भी, कम नहीं थे। परिणाम स्वरूप वे विदेशी व्यापारी कम्पनियों, अक्रांता एवं लुटेरों की छल विद्या एवं बांटो और राज करो, नीति को समझ न सके। अतः उन्हें उनसे हर स्थान पर मुंह की खानी पड़ी।
आज भारतीय समाज में, उसका हर मार्गदर्षक, अभिभावक, गुरु, नेता प्रशासक, सेवक और नौजवान योगसाधना से विमुख हो गया है और होता जा रहा है, जो एक बड़ी चिन्ता का विषय है। उन्हें पाश्चात्य देशों की तरह मात्र अच्छा खाना, गाड़ी, बंगला, अपार धन और सर्व सुख-सुविधाएं ही चाहिएं, भले ही वह घोटाला करके, चोरी से, रिश्वत -घूस लेकर या फर्जीबाड़े से ही क्यों न जुटाई गई हों, जुटानी पड़े। इसमें उनकी धन लोलुपता अत्यंत घातक सिद्ध हुई है और बढ़ती जा रही है। उन्हें राष्ट्रहित से कुछ भी नहीं है, लेना देना।
वह भारतीय दिव्य ब्रह्मज्ञान जो विदेशों तक कभी अज्ञान का अंधेरा दूर किया करता था, वह उत्पादन और हस्तकला कौशल का जीवट जादू जो उनके सिर पर चढ़ कर बोला करता था, को ग्रहण लग गया है। भारत आर्थिक शक्ति बनने के स्थान पर, भीतर ही भीतर खोखला होता जा रहा है। देश के सामने आर्थिक चुनौती उभर आई है। उसमें आए दिन नए-नए घोटाले हो रहे हैं। लोगों का सफेद धन बे-रोक टोक, तेजी से कालाधन बन कर, विदेशी बैंकों की तिजोरियों में समाए जा रहा है फिर भी सरकारों के द्वारा राष्ट्रीय विकास का ढोल पीटा जा रहा है और वह उस विकास की पोल भी खोल रहा है। चोरी करना घूस और रिष्वत लेने-देने का प्रचलन जोरों पर है। भ्रष्टाचार की सदाबहार बेल निर्भय होकर हर तरफ विष उगल रही है।
ब्रह्मचर्य जीवन में ज्ञानार्जित करना, गृहस्थ जीवन में सांसारिक कार्य करना सुख सुविधाएं जुटाना और उनका भोग करना, वानप्रस्थ जीवन में आत्म चिंतन, आत्म साक्षात्कार करना तथा सन्यास जीवन में समाज का मार्गदर्शन करना मानव जीवन का परम उद्देष्य रहा है। उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना अनिवार्य था। इसलिए भारतीय मनीषियों ने जीवन के चार आश्रमों की कल्पना को कार्यान्वित किया था।
"वीर भोग्य वसुंधरा" अर्थात वीर पुरुष ही धरती का सुख भोगते हैं। वीर वे हैं जो अपने अदम्य साहस के साथ जीवन की हर चुनौती का सामना करते हुए अपने परम जीवनोद्देश्य को सफलता पूर्वक पूरा करते हैं। इसी आधार पर गृहस्थाश्रम में सांसारिक सुख भोग किया जाता था। शेष तीनों आश्रमवासी गृहस्थाश्रम पर निर्भर रह कर अपने विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अपना-अपना कार्य किया करते थे।
विद्यार्थी गुरुकुल में रह कर विद्या अर्जित करते थे। पराक्रमी राजा वन गमन - एकांत वास करनेे, वानप्रस्थी बनने से पूर्व, स्वेच्छा से भोग्य वस्तुओं को अपने योग्य उत्तराधिकारी को सौंप देते थे और सन्यासी बहते जल की तरह कभी एक स्थान पर निवास नहीं करते थे। वे भ्रमण करते हुए लोक मार्गदर्शन करते थे। इस प्रकार भोग-सुख की सभी सुख सुविधाएं मात्र गृहस्थाश्रम वासियों की सम्पदा होती थी। यही भारतीय संस्कृति है। इसी कारण भारत में संग्रहित अपार सम्पदा, विदेशियों के लिए आकर्षण, सोेने की चिड़िया, उनकी आंख की किरकिरी बनी और उन्होंने उसे पाने और हथियाने के लिए साम, दाम, दंड और भेद नीतियों का भरपूर प्रयोग किया।
हमारी इसी अपार धन सम्पदा को पहले विदेशियों ने लूटा था और अब उसे अपने ही लोग अपने दोनों हाथों से दिन-रात लूट रहे हैं। इस तरह न जाने कब थमेेगा, लूटने का यह सिलसिला! हम चाहें तोे इस लूट को नियंत्रित कर सकते हैं। यह कार्य भारतीय सनातन जीवन पद्धति पर आधारित मानव जीवन आश्रम व्यवस्था अपनाने से सम्भव हो सकता है। इस भयाबह आर्थिक चुनौती के विरुद्ध, समाज हित मेें, हम सबकी सकारात्मक एवं रचनात्मक इच्छा शक्ति और कार्य क्षमता अवश्य होनी चाहिए।
मई 2012 मातृवन्दना
श्रेणी: आलेख
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2. सनातन जीवन में धन की उपयोगिता
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1. मैकाले की सोच और भारतीय शिक्षा
आलेख - शिक्षा दर्पण ज्ञानवार्ता छमाही 2011
हिमाचल की मासिक पत्रिका “मातृवन्दना” अगस्त 2010 में पृष्ठ संख्या 19 पर प्रकाशित आलेख “मैकाले की सोच-1835 ई० में" के अनुसार यह एक वास्तविक लेख है l इसकी प्रति मद्रास हाईकोर्ट के अभिलेखों से प्राप्त हुई है l ब्रिटिश पार्लियामेंट के रिकार्ड में सुरक्षित है l लार्ड मैकाले को भारत में तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड विलियम वेंटिंग की कौंसिल का सदस्य नामजद कर भारत भेजा गया था l अपने भारत-भ्रमण के अनुभवों एवंम अध्ययन के पश्चात् उसने ब्रिटिश पार्लियामेंट को यह रिपोर्ट भेजी थी -
“मैंने पूरे भारत की एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा की है पर मुझे एक भी भिखारी नहीं मिला, जो चोर हो l ऐसे धनी देश के अपने ऊँचे सामाजिक मूल्य हैं l यहाँ लोगों के पास बड़ी दृढ़शक्ति है l इस देश को हम कभी जीतने की सोच भी नहीं सकते l हम इसे तब तक नहीं जीत सकते, जब तक हम इसकी, विरासत इस देश की रीढ़, आध्यात्मिकता और संस्कृति को तोड़ नहीं देते l इसलिए मैं इसकी प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षा-पद्धति को हटाने का सुझाव देता हूँ l जब भारतीय सोचने लगेंगे कि विदेशी चीजें और अंग्रेजी भाषा अपने से अच्छी है, तब वे अपना आत्मसम्मान और अपनी संस्कृति को भी खो देंगे l उसे भूल जाएँगे और तब वे वैसा बन जाएँगे जैसा अधिपत्य राष्ट्र हम चाहते हैं” l
यह उसका एक ऐसा सुझाव था जो आगे चलकर भारतीय सभ्यता-संस्कृति, धर्म संस्कार और परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के लिए महाघातक सिद्ध हुआ l मैकाले के उपरोक्त सुझाव के आधार पर अंग्रेजों ने 1840 ई० में कानून बनाकर भारत की जनोपयोगी गुरुकुल प्रधान शिक्षा-प्रणाली को हटा दिया, जो भारतीय छात्र-छात्राओं एवं साधकों में वैदिक धर्म, ज्ञान, कर्मनिष्ठा, शौर्यता और वीरता जैसे संस्कारों का संचार करने के कारण राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के रूप में उसकी रीढ़ थी l उसके स्थान पर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक अंग्रेजी भाषी शिक्षा-प्रणाली लागू की, जो भविष्य में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने में अत्यंत कारगर सिद्ध हुई l
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सत्तासीन राजनेताओं को यह भी ध्यान नहीं रहा कि उन्होंने सशक्त भारत का निर्माण करना है और इसके लिए उन्हें जनप्रिय स्थानीय भाषा, हिंदी अथवा संस्कृत के आधार पर गुरुकुलों की भी स्थापना करनी है l देखने में आ रहा है कि निहित स्वार्थ में डूबे हुए, देश को भीतर ही भीतर खोखला एवंम खंड-खंड करने के कार्य में सक्रिय आमुक देशद्रोही, अंग्रेजी पिट्ठू प्रशासकों के द्वारा देश के गाँव-गाँव और शहर-शहर में मात्र मैकाले की सोच के आधार पर अंग्रेजी भाषी पाठशालाएं, विद्यालय एवंम महाविद्यालय ही खोले जा रहे हैं l उनके द्वारा राष्ट्रीय जनहित–अहित का विचार किये बिना उन्हें धड़ाधड़ सरकारी मान्यताएं भी दी जा रही हैं l जबकि वे न कभी भारतीय सभ्यता एवंम संस्कृति के अनुकूल रहे और न कभी हुए l उनमें गुरुकुलों जैसी कहीं कोई गरिमा भी नहीं दिखाई देती l
युगों से सोने की चिड़िया–भारत की पहचान बनाये रखने में समर्थ रह चुके गुरुकुल उच्च संस्कारों के संरक्षक, पोषक, संवर्धक होने के साथ-साथ मानव जीवन की कार्यशालाओं के रूप में छात्र – छात्राओं एवं साधकों के नव जीवन निर्माता भी थे l नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला और उनके सहायक विद्यालय तथा महा विद्यालयों से भारतीय सभ्यता-संस्कृति, धर्म-संस्कार और शिक्षा न केवल भली प्रकार से फूली-फली थी बल्कि उनसे जनित उसकी सुख-समृद्धि की महक विदेशों तक भी पहुंची थी l इस बात को कौन नहीं जानता है कि आतंक फैलाकर आपार धन सम्पदा लूटना, भारतीय सभ्यता संस्कृति नष्ट करना और फूट डालकर संपूर्ण भारत वर्ष पर ब्रिटिश साम्राज्य का अधिपत्य स्थापित करना ही आक्रान्ता ईष्ट इण्डिया कंपनी का मूल उद्देश्य था l
आज भारतीय राजनीतिज्ञ भारतीय संस्कृति की सुगंध की कामना तो करते हैं पर उनके पास उसकी जननी गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली उपलब्ध नहीं है l इसलिए हम सब जागरूक अभिभावकों, गुरुजनों, प्रशासकों और राजनेताओं को एक मंच पर एकत्रित होकर होनहार बच्चों, छात्र – छात्राओं एवं साधकों के संग अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली के स्थान पर जनोपयोगी एवंम परंपरागत भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की पुनर्स्थापना करके उसे अपने जीवन में समझना और जांचना होगा क्योंकि बच्चों और शिक्षार्थियों के जीवन का नव निर्माण राजनीति, भाषण, या उससे जुड़े ऐसे किसी आन्दोलन से कभी नहीं हुआ है और न हो ही सकता है बल्कि एक सशक्त शिक्षा-प्रणाली के द्वारा ज्ञानार्जित करने से ही ऐसा होता रहा है और आगे होगा भी l इसकी पूर्ति करने में भारतीय परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली पूर्णतया सक्षम और समर्थ रही है l इसका भारतीय इतिहास साक्षी है जिसे पढ़कर जाना जा सकता है l
अगर मैकाले 1840 ई० में अपने संकल्प से भारत में परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली समाप्त करवाकर अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली जारी करवा सकता था तो हम भी सब मिलकर राष्ट्रीय जनहित में न्यायलय तक अपनी संयुक्त आवाज पहुंचा सकते हैं l वहां से अध्यादेश पारित करवाकर भारतीय आशाओं के विपरीत अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली को निरस्त करवा सकते हैं l क्या हम इस योग्य भी नहीं रहे कि हम उसके स्थान पर फिर से भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को लागू करवा सकें ? अतीत में हम सब सार्वजनिक रूप से जागरूक और सुसंगठित रहे हैं – अब हैं और भविष्य में भी रहेंगे l विश्व में कोई भी शक्ति भारत को विश्वगुरु बनने से नहीं रोक सकती l ऐसा हमारा दृढ विशवास है l
आइये ! हम सब मिलकर प्रण करें और इस पुनीत कार्य को सफल करने का प्रयास करें l यह तो सत्य है कि बबूल के बीज से कभी आम के पेड़ की आशा नहीं की जा सकती l हम पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली के बल पर भारत के पुरातन गौरव एवंम सुख –समृद्धि की मनोकामना कैसे कर सकते हैं ?......................
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4. ठगी का नया दौर !
मातृवंदना सितंबर 2011 सामाजिक जन चेतना
जहाँ भारत को जिस तेजी के साथ विश्व की भावी आर्थिक शक्ति माना जाने लगा है, उससे भी तीव्र गति से देश में सक्रिय कुछ देशी, विदेशी अंतर्राष्ट्रीय तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनके एजेंटों की अनैतिक गति विधियों के द्वारा लोगों की जेबों में दिन – दिहाड़े डाका भी डाला जा रहा है l
यह कंपनियां और उनके एजेंट पहले गाँव-गाँव और शहर-शहर में जाकर, लोगों को बहला-फुसलाकर अपना जाल बिछाते हैं l उन्हें सब्ज-बाग दिखाते हैं l वे उनके साथ मीठी-मीठी बातें करके उन्हें अपनी आकर्षक परियोजनाओं के माध्यम से ढेरों पैसे कमाने के ऊँचे-ऊँचे सपने दिखाते हैं l इस तरह धीरे-धीरे वह बड़ी चतुराई के साथ, अल्पाब्धि में ही उनसे लाखों, करोड़ों रूपये इकठ्ठा करके रातों-रात अरब-खरब पति बनकर अपना बोरी-विस्तर भी समेट लेते हैं l आये दिन देश भर में देशी, विदेशी अंतर्राष्ट्रीय तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनके एजेंटों की अनैतिक गतिविधियां बढ़ रही हैं l इनसे लोगों के दिनों का चैन खो गया है और रातों की नींद उड़ गई है फिर भी हमारी सरकारें कुम्भकर्ण की नींद सो रही हैं l
भारत के राज्यों में पंजीकृत कंपनियों की शृंखला में, मलटी लेवल मार्केटिंग के आधार पर, चेनेई, तमिलनाडु में पंजीकृत और बंगलौर से संचालित होने वाली विजर्व पावर्ड वाई युनि पे 2 यू टीऍम कम्पनी ने, अपनी आकर्षक प्रयोजनानुसार देश भर में स्वयं से संबंधित हर व्यक्ति को दस महीने के पश्चात्, अधिक से अधिक लाभांश सहित, उसकी पूरी राशि लौटानी थी पर उसने अक्तूबर 2010 से अप्रैल 2011 तक लोगों का कोई भी भुगतान नहीं किया है l
केंद्र और प्रान्तों के सरकारी विभागों में कार्यरत ऐसे कई अधिकारी और कर्मचारी भी हैं जो कंपनी के लिए एजेंट का काम कर रहे हैं l उन्होंने अपने-अपने विभागों और आसपास के जाने-पहचाने लोगों से लाखों, करोड़ों रूपये इकट्ठे कर लिए हैं l पर लोगों को अब तक उनका अपना पैसा न मिलने के कारण, उन्हें संदेह है कि वह पैसा एजेंटों के द्वारा कम्पनी के खाते में डाला भी गया है कि नहीं ! इस पर एजेंटों का कहना है कि लोगों का पैसा इंटर नैट द्वारा कंपनी के खाते में जमा हो चुका है l वह जल्दी ही, अधिक धन राशि सहित उनके अपने-अपने बैंक खातों में आ जायेगा l वे निराश लोगों को रोजाना इंटर नैट पर कंपनी की कार्रवाई देखने को कहते हैं और कंपनी इंटर नैट पर प्रतिदिन मात्र झूठे संदेश और आश्वासन देकर उनका पेट भरने का असफल प्रयास कर रही है l लोगों को उसके संदेशों और आश्वासनों की नहीं, धन की आवश्यकता है जो उन्होंने अपने खून पसीने की कमाई का एक बड़ा भाग, भाविष्य निधि निकलवाकर और बैंक से ऋण लेकर उन एजेंटों के माध्यम द्वारा, कंपनी में लगाया हुआ है – उनका क्या होगा ! एजेंट तो कमीशन लेकर अपनी लाखों की चल-अचल संपत्ति बना चुके हैं l उन्होंने अब पीड़ितों से और क्या लेना है ?
अगर देशवासी अल्पाब्धि में ही समृद्ध होने या अधिक लाभांश पाने हेतु, लोभ और स्वार्थ की दलदल में धंसते रहेंगे तो इससे अवैध और काला धन जो अनैतिक गतिविधियों द्वारा निजी सुख हेतु इकठ्ठा कर लिया जाता है या फिर उसे चोरी-छिपे विदेशी बैंकों में पहुंचा दिया जाता है, को ही बढ़ावा मिलेगा l क्या उससे राष्ट्र का निर्माण हो सकेगा ? क्या उससे कभी भारतीय समाज को सुख-शांति मिल पायेगी, उसका विकास हो पायेगा ?
भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों के द्वारा अपने यहाँ सर्व प्रथम उन सभी कंपनियों की भली प्रकार से जाँच-परख कर लेनी चाहिए, तद्पश्चात पंजीकृत विभिन्न कंपनियों और उनके वैद्य-अवैद्य एजेंटों की पल-पल की गति विधियों पर कड़ी नजर रखने के लिए, राष्ट्रहित में “नागरिक आर्थिक सतर्कता” समितियों का गठन करना चाहिए l इससे किसी अवैद्य कंपनी अथवा उसके अपराधिक एजेंटों के द्वारा, भविष्य में देश के अमुक क्षेत्र का, कोई व्यक्ति अथवा उसका परिवार पुनः पीड़ित नहीं हो सकेगा l
प्रकाशित मातृवंदना सितंबर 2011
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3. मैकाले की सोच और भारतीय शिक्षा – प्रणाली
जुलाई 2011 मातृवंदना
हिमाचल की मासिक पत्रिका मातृवंदना अगस्त 2010 में पृष्ठ संख्या 19 पर प्रकाशित लेख "मैकाले की सोच-1835 ई0 में" के अनुसार यह एक वास्तविक लेख है। इसकी प्रति मद्रास हाईकोर्ट के अभिलेखों से प्राप्त हुई है। ब्रिटिश पार्लियामेंट के रिकाॅर्ड में सुरक्षित है। लाॅर्ड मैकाले को भारत में तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल लाॅर्ड विलियम वेंटिंग की कौंसिल का सदस्य नामजद कर भारत भेजा गया था। अपने भारत-भ्रमण के अनुभवों एवं अध्ययन के पश्चात उसने ब्रिटिश पार्लियामेंट को यह रिपोर्ट भेजी थी-
"मैने पूरे भारत की एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा की है पर मुझे एक भी भिखारी नहीं मिला, जो चोर हो। ऐसे धनी देश के अपने ऊँचे सामाजिक मूल्य हैं। यहां लोगों के पास बड़ी दृढ़ शक्ति है। इस देश को हम कभी जीतने की सोच भी नहीं सकते। हम इसे तब तक नहीं जीत सकते, जब तक हम विरासत इस देश की रीढ, आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक को नहीं तोड़ देते। इसलिए मै इसकी प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षा पद्धति को हटाने का सुझाव देता हूंँ। जब भारतीय सोचने लगेंगे कि विदेशि चीजें और अंग्रेजी भाषा अपने से अच्छी हैं, तब वे अपना आत्मसम्मान और अपनी संस्कृति को खो देंगे। उसे भूल जाएंगे और तब वे वैसे बन जाएंगे जैसा अधिपत्य राष्ट्र हम चाहते हैं।
यह उसका एक ऐसा सुझाव था जो आगे चल कर भारतीय सभ्यता- सास्कृति, धर्म-संस्कार और परम्परागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के लिए महाघातक सिद्ध हुआ। मैकाले के उपरोक्त सुझाव के आधार पर अंग्रेजों ने सन् 1840 ई0 में कानून बनाकर भारत की जनोपयोगी गुरुकुल प्रधान शिक्षा-प्रणाली को हटा दिया, जो भारतीय छात्र-छात्राओं एवं साधकों में वैदिक धर्म, ज्ञान, कर्मनिष्ठां, शौर्यता और वीरता जैसे संस्कारों का संचार करने के कारण राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के रूप में उसकी रीढ़ थी। उसके स्थान पर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक अंग्रेजीभाषी शिक्षा-प्रणाली लागू की, जो भविष्य में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने में अत्यन्त कारगर सिद्ध हुई।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात सत्तासीन राजनेताओं को यह भी ध्यान नहीं रहा कि उन्होंने सशक्त भारत का निर्माण करना है और इसके लिए उन्हें जनप्रिय स्थानीय भाषा , हिंदी, अथवा संस्कृत के आधार पर गुरुकुलों की भी स्थापना करनी है। देखने में आ रहा है कि निहित स्वार्थ में डूबे हुए, देश को भीतर ही भीतर खोखला एवं खण्ड-खण्ड करने के कार्य में सक्रिय अमुक देशद्रोही, अंग्रेजी पिट्ठू प्रशासकों के द्वारा देश के गांव-गांव और शहर-शहर में मात्र मैकाले की सोच के आधार पर अंगे्रजीभाषी पाठशालाएँ, विद्यालय एवं महाविद्यालय ही खोले जा रहे हैं। उनके द्वारा राष्ट्रीय जनहित-अहित का विचार किए बिना उन्हें धड़ाधड़ सरकारी मान्यताएँ भी दी जा रही हैं । जबकि वे न कभी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के अनुकूल रहे और न कभी हुए। उनमें गुरुकुलों जैसी कहीं कोई गरिमा भी नहीं दिखाई देती।
युगों से सोने की चिड़िया - भारत की पहचान बनाए रखने में समर्थ रह चुके गुरुकुल उच्च संस्कारों के संरक्षक, पोषक, संवर्द्धक होने के साथ-साथ मानव जीवन की कार्यशालाओं के रूप में छात्र-छात्राओं एवं साधकों के नव जीवन निर्माता भी थे। नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला और उनके सहायक विद्यालय तथा महाविद्यालयों से भारतीय सभ्यता-संस्कृति, धर्म-संस्कार और शिक्षा न केवल भली प्रकार से फूली-फली थी बल्कि उनसे जनित उसकी सुख-समृद्धि की महक विदेशों तक भी पहुंची थी। इस बात को कौन नहीं जानता है कि आतंक फैला कर आपार धन-संपदा लूटना, भारतीय सभ्यता-संस्कृति नष्ट करना और फूट डालकर सम्पूर्ण भारतवर्ष पर ब्रिटिश साम्राज्य का अधिपत्य स्थापित करना ही अक्रांता ईस्ट-इंडिया कम्पनी का मूल उद्देश्य था।
आज भारतीय राजनीतिज्ञ भारतीय संस्कृति की सुगन्ध की कामना तो करते हैं पर उनके पास उसकी जननी गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली उपलब्ध नहीं है। इसलिए हम सब जागरूक अभिभावकों, गुरुजनों, प्रशासकों और राजनेताओं को एक मंच पर एकत्र होकर होनहार बच्चों, छात्र-छात्राओं एवं साधकों के संग अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली के स्थान पर जनोपयोगी एवं परंपरागत भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की पुनस्र्थापना करके उसे अपने जीवन में समझना और जांचना होगा क्योंकि बच्चों और शिक्षार्थियों के जीवन का नव निर्माण राजनीति, भाषण या उससे जुड़े ऐसे किसी अंदोलन से कभी नहीं हुआ है और न हो ही सकता है बल्कि एक सशक्त शिक्षा-प्रणाली के द्वारा ज्ञानार्जित करने से ही ऐसा होता रहा है और आगे होगा भी। इसकी पूर्ति करने में भारतीय परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली पूर्णत्या सक्षम और समर्थ रही है। इसका भारतीय इतिहास साक्षी है जिसे पढ़ कर जाना जा सकता है।
अगर मैकाले सन् 1840 ई0 में अपने संकल्प से भारत में परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली समाप्त करवा कर अंगे्रजी शिक्षा-प्रणाली जारी करवा सकता था तो हम भी सब मिलकर राष्ट्रीय जनहित न्यायालय तक अपनी संयुक्त आवाज पहुंचा सकते हैं। वहां से अध्यादेश पारित करवा कर भारतीय आशाओं के विपरीत अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली को निरस्त करवा सकते हैं। क्या हम इस योग्य भी नहीं रहे कि हम उसके स्थान पर फिर से भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को लागू करवा सकें? अतीत में हम सब सार्वजनिक रूप से सुसंगठित और जागरूक रहे हैं - अब हैं और भविष्य में भी रहेंगे। विश्व में कोई भी शक्ति भारत को विश्वगुरु बनने से नहीं रोक सकती। ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।
आइए! हम सब मिलकर प्रण करें और इस पुनीत कार्य को सफल करने का प्रयास करें। यह तो सत्य है कि बबूल के बीज से कभी आम के पेड़ की आशा नहीं की जा सकती। हम पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली के बल पर भारत के पुरातन गौरव एवं सुख-समृद्धि की मनोकामना कैसे कर सकते हैं?......
अगस्त 2010 मातृवंदना
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2. विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति
फरवरी 2011 मातृवंदना
प्राचीन भारत वर्ष विश्व मानचित्र पर आर्यावर्त देश रहा है l आर्य वेदों को मानते थे l वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते थे l वेद जो देव वाणी पर आधारित है, उन्हें ऋषि मुनियों द्वारा श्रव्य एवम् लिपिवद्ध किया हुआ माना जाता है l वेदों में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्वेद प्रमुख हैं l वे सब सनातन हैं, वे पुरातन होते हुए भी सदैव नवीन हैं l उनमें परिवर्तन नहीं होता है l वे कभी पुराने नहीं होते हैं l
समय परिवर्तनशील है जिसके साथ-साथ नश्वर संसार की हर वस्तु बदल जाती है l नहीं बदलता है तो वह मात्र सत्य है l सत्य सनातन है l वेद सत्य पर आधारित होने के कारण सदा नवीन, अपरिवर्तनशील और सनातन हैं l वेदों के अनुगामी और हमारे पूर्वज आर्य सत्यप्रिय, कर्मनिष्ठ, धार्मिक और शूरवीर थे l सत्यप्रियता, कर्मनिष्ठा, धार्मिकता और शूरवीरता ही वेदों का आधार है, उनका सार है l यही हमारी पुरातन संस्कृति तथा अध्यात्मिक धरोहर है जिसे विश्व ने माना है l
सत्य ही ब्रह्म है, वह ब्रह्म जिसका किसी के द्वारा कभी कोई विघटन नहीं किया जा सकता l वह सदैव अबेध्य, अकाट्य और अखंडित है l ब्रह्म-ज्ञान और विषयक तात्विक ज्ञान प्राप्त करना ही विवेकशील पुरुष का परम कर्तव्य है जो उन्हें भली प्रकार समझ लेता है, जान जाता है, उसे सत्य-असत्य में भेद अथवा अंतर कर पाना सहज हो जाता है l कोई कहे कि रात बड़ी काली होती है, रात को हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है l यह पहला सत्य है l अगर काली रात में कोई एक दीपक प्रज्ज्वलित कर लिया जाये तो घोर अंधकार भी दिन के उजाले की तरह प्रकाश में बदल जाता है और तब हमें सब कुछ दिखाई देने लगता है l यह दूसरा सत्य है l इसी तरह मन, कर्म तथा वाणी से ब्रह्ममय हो जाने से मनुष्य सत्यवादी हो जाता है l तदोपरांत उसमें सत्य प्रियता, सत्य निष्ठा जैसे अनेकों दैवी गुण स्वाभाविक ही पैदा हो जाते हैं l
ब्रह्मज्ञान से मनुष्य की अपनी पहचान होती है l वह जान जाता है कि उसमें क्या कर सकने की क्षमताएं विद्यमान हैं ? वह स्वयं क्या-क्या कार्य कर सकता है ? उनके संसाधन क्या हैं ? अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य बेंधने हेतु उन्हें धारण और प्रयोग कैसे किया जाता है ? उन क्षमताओं के द्वारा जीवन में उन्नति कैसे की जा सकती है ? जब वह ऐसा सब कुछ जान जाता है, तब वह अपने गुण व संस्कार और स्वभाव से वही कार्य करता है जो उसे आरम्भ में कर लेना होता है l देर से ही सही, वह वैसा करके अपने कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है l उसे कार्य कौशल प्राप्त हो जाता है जो उसकी अपनी आवश्यकता होती है l
ब्रह्मज्ञान से मनुष्य को उचित-अनुचित और निषिद्ध कार्यों का ज्ञान होता है l जनहित में उचित कार्य करना वह अपना कर्तव्य समझता है l वह नैतिक, व्यवहारिक कार्य करता हुआ सदाचार का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है l इस प्रकार उसके गुण-संस्कारों से दूसरों को प्रेरणा मिलती है l दूसरों के लिए वह एक आदर्श बन जाता है l वे उसका अनुसरण करते हैं और अपना जीवन सफल बनाते हैं l
ब्रह्मज्ञान से ही मनुष्य जागरूक होता है l उसका हृदय एवम् मष्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है l जब वह इस स्थिति पर पहुँच जाता है तब वह स्वयं के शौर्य और पराक्रम को भी पहचान लेता है l वह समाज को संगठित करके/एक नई दिशा देकर उसमें नवजीवन का संचार करता है जिससे समाज और उसकी धन-संपदा की रक्षा एवं सुरक्षा सुनिश्चित होती है l
ब्रह्मज्ञान मनुष्य जीवन को पुष्ट करता है l उसे अजेयी शक्ति प्रदान करता है l शायद इन पंक्तियों में इसी प्रकार के भाव भरे हैं :-
सुगंध बिना पुष्प का क्या करें ?
तृप्ति बिना प्राप्ति का क्या करें ?
ध्येय बिना कर्म निरर्थक है,
प्रसन्नता बिना जीवन व्यर्थ है l
प्रश्न पैदा होता है कि ऐसे गुण-संस्कारों के प्रेरणा स्रोत क्या हैं ? यह गुण-संस्कार जन साधारण तक कैसे पहुंचाए जा सकते हैं ? इसका उत्तर आर्यों ने सहज ही युगों पूर्व गुरुकुलों की स्थापना करके दे दिया है जिसे भारत, भारतीय समाज ही नहीं, संपूर्ण विश्व भली प्रकार जानता है l
प्रकाशित 2011 मातृवंदना