मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



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    2. छोटी – छोटी असावधानियों से भूजल स्तर जाएगा पाताल !

    मातृवंदना अगस्त 2015 पर्यावरण चेतना 

    हमारी अनेकों समस्याएं हैं, वह थमने का नाम नहीं ले रही हैं। उन समस्याओं में गहरा होता जा रहा भूजल का गिरता स्तर, वर्तमान में राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गया है। हम हर क्षण राष्ट्र के अधिकांश भूजल संसाधनों का कदम-कदम पर दुरुपयोग कर रहे हैं, परिणाम स्वरूप भूजल स्तर नीचे जा रहा है।

    हम दैनिक उपयोग में अपनी आवश्यकता से कहीं अधिक भूजल दोहन करते हैं। हम रसोई में खाद्य पदार्थों की धुलाई एवं वर्तनों की सफाई के समय नल खुला रखते है। व्यर्थ और गंदा जल क्यारी में न डालकर, नाली में गिरा देते हैं। आइस ट्रे से बर्फ छुड़वाने के लिए हम खुले नल का प्रयोग करते हैं।

    हम भूमिगत जल टंकी भरने के लिए उसमें टोंटी नहीं लगाते हैं। टोंटी लगी हो तो उसे खोल देते हैं या ढीली छोड़ देते हैं।

    छत पर 500 या 1000 लीटर वाली पानी की टंकी भरने के लिए हम नल से सीधे जल उठाऊ मोटर का प्रयोग करते हैं। पानी से भर जाने के पष्चात् जल की टंकी से व्यर्थ में पानी बाहर बहता रहता है या उसमें दिन-रात जल का रिसाव होता रहता है।

    घर अथवा सार्वजनिक स्नानगृह में हम खुले नल या शावर के नीचे लम्बे समय तक स्नान करते रहते हैं। खुले नल के आगे कपड़े धोते हैं, दंत-मंजन करते हैं, दाढ़ी बनाते हैं।

    घर अथवा सार्वजनिक शौचालयों में नल का पानी बहता हुआ छोड़ देते हैं, बहता हुआ दिखे तो भी हम उसे बंद नहीं करते ।

    नल से रबर पाइप लगाकर हम घर, पशुशाला ही की नहीं गाड़ी की भी सफाई करते हैं। रबड़  पाइप से जगह-जगह जल रिसाव भी होता रहता है।

    नल से रबड़ पाइप लगाकर हम क्यारी व पौधों की सिंचाई करते हैं। खेत में सिंचाई हेतु यूं ही पटवन करते रहते हैं, उसे उचित समयक्रम से नहीं करते हैं। लान को बार-बार पाटते हैं। नलकूप द्वारा आवश्यकता से कहीं अधिक दोहन करते हैं। हम जलवायु के आधार पर परंपरागत खेती करना, फल, चारा व इमारती लकड़ी प्राप्त करने के लिए नई पौध लगाना, दिन प्रतिदिन भूलते जा रहे हैं। सिंचाई की पाइप के जोड़ों/कपलिंगों से जल रिसाव होता रहता है।

    इस तरह थोड़ा-थोडा करके हम भूजल भंडार का कई हजार लीटर पानी यूं ही व्यर्थ में नष्ट कर देते हैं। जल को अमूल्य संसाधन समझने पर भी हम आज यह नहीं सोचते कि पानी न होगा तो कल क्या होगा?

    वर्षाकाल में अपने मकान की छतों से गिरने वाले पानी के संग्रह की हमे व्यवस्था कर लेनी चाहिए। सदाबहार बहते नाले में चैकडैम बनवाकर जल संग्रहण करना चाहिए। पुराने तालाब, पोखर, कुंओं का पुनरोद्वार करना चाहिए।

    परिवार नियोजन की उपेक्षा में जनसंख्या बढ़ने, प्रौद्योगिकी के विस्तार और शहरीकरण होने के कारण प्रतिदिन भूजल की मांग में अत्याधिक वृद्धि हुई है जबकि भूजल पुनर्भरण की प्रतिशत मात्रा कम रही है। नव निर्माण कार्यों में हम भूजल का बहुत ज्यादा प्रयोग करते हैं। अगर हम समय रहते स्वयं जागरूक नहीं हुए, स्वेच्छा और आवश्यकता से अधिक भूजल का युं ही दोहन एवं दुरुपयोग करते रहे तो वह दिन दूर नहीं कि भूजल स्तर पाताल गमन अवश्य करेगा। ऐसी स्थिति में क्या हम उसे रोकने के लिए प्रयासरत हैं ? क्या हम उसे सहजता से रोकने में सफल हो पाएंगे?

    प्रकाशित मातृवंदना अगस्त 2015

                          


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    1. शोषण पर आधारित विकास सहन नहीं करती प्रकृति

    10 अगस्त 2015 पंजाब केसरी पर्यावरण चेतना  

    सेवा के नाम पर मानव जहाँ एक ओर समाज का विकास करता है, तो दूसरी ओर जाने-अनजाने में उससे तरह-तरह प्राकृतिक एवं सामाजिक अपराध व शोषण भी हो जाते हैं l देखने, पढ़ने और सुनने में समस्या गंभीर है पर जटिल नहीं l समाज का विकास होना आवश्यक है l ध्यान रहे ! वह विकास पोषण पर आधारित हो, शोषण पर नहीं l हमारी प्रकृति शोषण पर आधारित किसी मूल्य पर होने वाले विकास को कभी सहन नहीं करती है l ऐसा विकास प्राकृतिक आपदा बनकर अपना रौद्र रूप अवश्य दिखाता है l
    स्थापना, उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, न्यूनता और विनाश प्राकृतिक नियम हैं l इन्हें सदा स्मरण रखना चाहिए l
    वन, फूल-फल, पत्तियां, वनस्पतियाँ, लताएँ, कंद-मूल और जड़ी-बूटियों से प्राकृतिक सौन्दर्य में निखार आता है l इन्हें सुरक्षित रखने से ही समस्त जीवों के प्राणों की रक्षा, इनकी सन्तति एवं वृद्धि  होती है l इन्हें नष्ट करना अथवा इनका शोषण करना इनके प्रति अन्याय है l
    धन, सम्पदा, जंगल, वन्य जीव-जन्तु एवं कीट-पतंगे प्राकृतिक जल भंडार, कृषि योग्य भूमि, गौ – धन, चारागाह तथा जीवनोपयोगी पशु-पक्षियों से मानव की विभिन्न आवश्यकताएं पूर्ण होती हैं l इन्हें नष्ट करना दानवता है, अपराध है l   
    मनुष्य को जलवायु अनुकूल उपयोगी वस्त्र, श्रृंगार, एवं सजावट संबंधी सामग्री प्रकृति से प्राप्त होती है l उसके पोषण का ध्यान रखते हुए उसका दोहन किया जाना सर्व हितकारी है जब कि उसका शोषण विनाश को आमंत्रित करता है l गाँव व शहर का परिवेश/पर्यावरण वहां के लोगों के आपसी सहयोग द्वारा स्वच्छ रहता है l  
    दूर संचार एवं प्रचार-प्रसारण सामग्री का सदुपयोग करने एवं उनका उचित रख-रखाव का ध्यान रखने से जन, समाज और राष्ट्र की भलाई होती है l
    नैतिक शिक्षा, व्यवसायिक शिक्षा, अध्यात्मिक शिक्षा, तथा कलात्मक शिक्षा विद्यार्थी के गुण, संस्कार और स्वभाव के अनुकूल सत्य पर आधारित दी जाती है l इससे उनकी योग्यता में निखार आता है l उससे समाज व राष्ट्र को योग्य नेता, योग्य अधिकारी तथा योग्य कर्मचारी मिलते हैं l
    रुचिकर व्यवसाय में युवा, नौजवान की प्रतिभा के दर्शन होते हैं l ईश्वरीय तत्व ज्ञान का सृजन ज्ञानवीर ब्राह्मण करते हैं l तत्वज्ञानी बनकर विश्व कल्याणकारी कार्य किया जाता है l जल, जंगल, जमीन, जन और जीव-जंतुओं का रक्षण शूरवीर क्षत्रिय करते हैं l पराक्रम दिखाकर सबके साथ न्याय और सबका रक्षण किया जाता है l पर्यावरण – जल, जंगल, पेड़, बाग-बगीचे, फुलवारियां, जमीन, जन और जीव-जन्तुओं का संरक्षण, पोषण और संवर्धन धर्मवीर वैश्य करते हैं l व्यक्तिगत या जनसमूह में कर्तव्य समझकर विश्व कल्याणकारी सृजनात्मक, रचनात्मक और सकारात्मक कार्य किया जाता है l अभिरुचि अनुसार कार्य कर्मवीर शूद्र करते हैं l विश्व कल्याणकारी सृजनात्मक, रचनात्मक और सकारात्मक पुरुषार्थ किया जाता है l ज्ञानवीर ब्राह्मण, शूरवीर क्षत्रिय, धर्मवीर वैश्य और कर्मवीर शूद्र एक दूसरे के पूरक हैं l
    नदी, तालाब, पोखर-जोहड़, चैकडैम, नहरें वर्षाजल के कृत्रिम जल संग्रह सिंचाई के उचित माध्यम हैं l इन्हें जल चक्रीय-प्रणाली से सक्रिय रखने से कृत्रिम भूजल पुनर्भरण होता है l
    कुआँ, बावड़ी, चश्मा, हैण्ड पंप तथा नलकूप परंपरागत पेयजल स्रोत हैं l इनका आवश्यकता अनुसार दोहन करना तथा इन्हें सुरक्षित बनाये रखना हम सबके हित में है l 
    सुख-सुविधा संपन्न स्वच्छ मकान, संतुलित, स्वादिष्ट, पौष्टिक भोजन, सस्ती बिजली, त्वरित उपयुक्त चिकित्सा, श्मशान घाट, विद्यालय, खेल व योग प्राणायाम करने का उचित स्थान, देवालय एवं सत्संग भवन, पशु चिकित्सालय, प्रदूषण मुक्त आवागमन के संसाधन, बारात घर, समुदायक भवन, पुस्तकालय, ग्राम पंचायत घर, बाजार तथा अनाज व सब्जी-मंडी, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और ग्रामीण बैंक, एटीएम इतियादि किसी गाँव या शहर की अपनी मूल आवश्यकताएं हैं l इन्हें क्षेत्रीय स्तर की सरकारी व गैर सरकारी सामाजिक तथा धार्मिक संस्थाओं द्वारा जल्द से जल्द पूरा कर देना चाहिए l
    खुले आकाश में स्वच्छन्द उड़ते हुए खग दिन भर खेतों में दाना चुगते हैं, वे जंगल में फल भी खाते हैं l उन्हें निज नीड़ की दिशा और आकृति हर समय स्मरण रहती है l वह शाम को अपने नीड़ में सकुशल वापिस आ जाते हैं और सुबह होने पर फिर दाना चुगने उड़ जाते हैं l उनके इस व्यवहार से प्रकृति का निरंतर संतुलन बना रहता है l
    स्थानीय लोग विकास चाहते हैं l विकास करने के साथ-साथ उनके द्वारा लंबे समय तक प्राकृतिक संतुलन बनाये रखना भी अति आवश्यक है l उसके लिए अपेक्षित प्राकृतिक पोषण के आधार पर अंतराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रांतीय और क्षेत्रीय स्तर की सरकारी व गैर सरकारी सामाजिक तथा धार्मिक संस्थाओं और उनकी सहयोगी स्थानीय शाखाओं के सहयोग, श्रद्धालुओं की श्रद्धा और भक्तों की सेवा-भक्ति भावना द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है l
    आइये ! हम सब मिलकर इस पुनीत कार्य में तन, मन, धन से सहयोग देकर इसे सफल बनायें l 

    प्रकाशित 10 अगस्त 2015 पंजाब केसरी

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    1. सनातन धर्म एवं संस्कृति 


    अप्रैल मई 2015 मातृवंदना


    सभी कष्ट दूर हो जाते हैं l कोई समस्या शेष नहीं रहती है l विपदाओं का भी शमन हो जाता है l इसके लिए मनुष्य को सत्सनातन-धर्म का अनुसरण करना पड़ता है l वह धर्म मुख्यतः तीन बातों पर आधारित है – सत्य, सनातन और धर्म l 

    परम पिता परमात्मा विशाल दिव्य ऊर्जा पुंज सर्व आत्माओं का स्वामी होने के नाते स्वयं एक सत्य है l वह अजर, अमर, सर्वज्ञ, सर्व व्यापक, अन्तर्यामी, होने के कारण जैसा पहले था, आज है और आगे भी रहेगा l इस कारण वह सनातन है l धर्म का अर्थ है जीने की कला, जिसका जीवन में आचरण किया जाता है l धर्म मुक्ति का मार्ग प्रसस्त करता है और उसकी प्रभावशाली जीवन शैली से मानव धर्म, परिभाषित होता है l विश्व में जब-जब मानव धर्म की हानि होती है तब-तब मात्र मानव जीवन शैली में विसंगति पाई जाती है l

    मानव चाहे किसी उच्च गुण, संस्कार सम्पन्न देश, काल और पात्र का ही सहारा क्यों न लेता हो या वह अच्छी से अच्छी जीवन शैली पर ही अमल क्यों न करे – पर मन चंचल होने के कारण उसमें विसंगतियों के आगमन हेतु प्रवेश द्वार भी हर समय खुला रहता है l इसके लिए अनिवार्य है सजगता, सतर्कता और सावधानी से व्यक्तिगत अथवा समुदायक जीवन शैली को उसकी विसंगतियों से निरंतर सुरक्षित बनाये रखना l

    इन बातों का ध्यान रखते हुए प्राचीनकाल में भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को मुख्यतः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास चार आश्रमों में विभक्त किया हुआ था और सर्वहित में कार्यान्वयन हेतु प्रत्येक आश्रम को उसका अपना कार्यभार सौंप रखा था जिसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी था l 

    ब्रह्मचर्य जीवन में शिक्षण-प्रशिक्षण, गृहस्थ जीवन में सांसारिक, वानप्रस्थ जीवन में आत्मचिंतन-मनन व सुधार तथा सन्यास जीवन में देश-विदेश का भ्रमण करते हुए आत्मज्ञान तथा सयंम से जन चेतना का कार्य किया जाता था l 

    प्राचीन संत-मुनि जन यह भली प्रकार जानते थे कि जहाँ जीवन से संबंधित कार्य होते हैं, वहां विसंगतियां भी अवश्य आती हैं l वह मनुष्य को कदम-कदम पर प्रभावित करती हैं l उनसे महिलाएं, बच्चे, वृद्ध कोई भी सुरक्षित नहीं रह पाता है l उन्हें आये दिन अपहरण, शोषण और बलात्कार जैसे अपराधों का सामना करना पड़ता है l इसी कारण समाज में भांति-भांति के अपराधों में निरंतर वृद्धि होती है l वह धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय अपराधों से पीड़ित होता है l  मानव मन में नित नये-नये सुख भोगों की लालसा उत्पन्न होती है और वह निरंतर उनकी खोज में रहता है l उससे समाज सुखी होने के स्थान पर दिन-प्रतिदिन दुखी होता है, उसके दुःख घटने के स्थान पर और बढ़ते हैं, वे घटने का नाम ही नहीं लेते है l भारतीय मनीषियों ने दुःख निवारण का सरल, सुंदर एवं अचूक उपाय बताया है l     

    सत्संग करो :– सत्संग उचित स्थान और उपयुक्त समय पर किया जाता है l उसमें प्रायः ब्रह्मज्ञान की बातें होती हैं l ब्रह्मज्ञान से समस्त समस्याओं का हल निकलता है l सत्संग में जटिल बातें सरलता से समझी ओर समझाई जाती हैं, उनका समाधान निकाला जाता है जिन्हें मानव जीवन में चरितार्थ किया जाता है l     

    सद्भावना रखो :- सद्भावना वृद्धि हेतु मनुष्य द्वारा विद्वानों के प्रति सम्मान की भावना का विशेष ध्यान रखा जाता है l अगर मनुष्य में उनसे कुछ सीखने की भावना न हो तो उसका विद्वानों के बीच में जाना तो दूर, उनके बारे में सोचना भी निरर्थक होता है l पर जब वह सीखने की भावना से उनके पास जाता है तो उसका कर्तव्य बन जाता है कि उन पर विश्वास करे, उनके द्वारा बताये गए मार्ग पर चले, वह समाज में सबके साथ प्रेम से रहे, मानवता और दीन-दुखियों के लिये सेवा-भक्ति भाव से कार्य भी करे l    

    शुद्ध विचार अपनाओ :– मनुष्य द्वारा दूसरों के साथ शांत, मृदु, प्रिय और सत्य बोलना हितकारी होता है l शुद्ध लेखन कार्य द्वारा उसका प्रकाशन और प्रचार-प्रसार करना मानवता ही की सेवा है l

    सत्कर्म करो :– मनुष्य के द्वारा किया जाने वाला प्रत्येक कार्य सबको अच्छा लगे, उससे दूसरों को कोई पीड़ा या कष्ट न हो, कार्य व्यवहार में लाना श्रेष्ठ है l सत्संग से प्राप्त जीवनोपयोगी बातों का अपने जीवन में अनुसरण करते हुए सबके लिए न्याय एवम् समानता हेतु प्रयास करना सर्वोत्तम है l सर्वहितकारी शुद्ध कर्म करना मानवता हित के लिए रामवाण समान है l

    भारतीय संत-महात्माओं का चिंतन-मनन कार्य – सूर्य के समान दीप्तमान, प्रभावशाली और सर्वव्यापक रहा है l उन्होंने मानव जीवन विकास को न केवल एक नई दिशा दी थी बल्कि कर्म के आधार पर मानव समाज हित में वर्ण व्यवस्था का सृजन, पोषण और वर्धन भी किया था l वह व्यवस्था किसी जाति, धर्म, वर्ग भेदभाव और विशेषकर निजहित तक ही सीमित नहीं थी l उससे निष्पक्ष सबका कल्याण होता था l उसकी कुंजी जब तक चरित्रवान एवम् सदाचारी लोगों के हाथों में रही, उसका सर्वहित में सदुपयोग होता रहा पर ज्यों ही वह उनके हाथों से फिसलकर पतित एवम् दूराचारी लोगों के हाथों में गई, उसका मात्र निजहित में दुरूपयोग होने लगा है l उसी का परिणाम है कि आज संपूर्ण मानव जाति की परंपरागत जीवन शैली ही नहीं सामाजिक व्यवस्था ही विकृत हो गई है l उसका स्वरूप हम सबके सम्मुख है l इसका उत्तरदायी मैं, आप और हम सभी हैं l हम सब उसी समाज में रहते हैं जिसे हमने विकृत किया है l अब उसे सुंदर व सुव्यस्थित भी हमने ही करना है l यह हमारा दायित्व है l  

    वैदिक परंपरा के अनुसार विश्व एक परिवार है l हम सब उसके सदस्य हैं l “सबका कल्याण हो l” इस परंपरागत धारणा से हमारा दायित्व बन जाता है कि हम समग्र संसार हित के लिए उसके अनुकूल चिंतन-मनन करें l स्वयं कुछ करें और दुसरों को कार्य करना भी सिखाएं ताकि हमारे बच्चे योग्य बन सकें l वह अपने मन, वचन एवम् कर्म से अपने आगे होने वाले बच्चों के लिए प्रेरक बन सकें l

        प्रकाशित अप्रैल मई 2015 मातृवंदना

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    2. राम-राज्य कैसे हो साकार?

    राष्ट्रीय भावना मातृवन्दना मार्च-अप्रैल 2014

    प्राचीन काल से ही भारत भूमि ऋषि-मुनियों की तपो भूमि रही है। यह सब उन्हीं के तप का प्रतिफल है कि भारतवर्ष विश्व के मानचित्र पर आर्यवर्त के नाम से सर्व विख्यात हुआ। समय की मांग के अनुसार उसमें वेद, भाष्य, ऋचाएं, रामायण और गीता जैसे अन्य अनेकों धर्म-ग्रंथों की संरचनाएं हुईं और उनका शृंखलावद्ध प्रचार-प्रसार भी हुआ।

    भारत में अगर न्यायप्रिय राम-राज्य की स्थापना हुई थी तो उससे पूर्व राक्षस प्रवृत्ति एवं अन्याय के विरुद्ध राम का रावण के साथ भयंकर युद्ध भी हुआ था। कहते हैं रावण के यहां एक लाख पूत और सवा लाख नाती थे, पर अंतिम समय में, उसके घर दीपक जलाने वाला कोई भी शेष नहीं रहा था। कितना भयावह होता है, युद्ध-परिणाम! 

    जो राम-राज्य किसी ने देखा नहीं, वह हमें अब भी घर-घर में उपलब्ध जीवंत रामायण रूप में पढ़ने व विचार करने हेतु अवश्य मिल जाता है। रामावतार हुए युग बीत चुके हैं परन्तु श्रीराम जी के प्रति हमारी दृढ़ आस्था आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है, वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे। उन्होंने अपने जीवन काल में, हर कदम पर मर्यादाएं सुनिश्चित की थीं, जिनके अंतर्गत उनसे हमें प्रेरणा मिलती है। वह हमारे जन मानस पटल पर अंकित हैं।

    आज भारतवर्ष में राम-राज्य नहीं है, इसलिए उसकी पुनस्र्थापना हेतु हम सभी को आज ही से अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में सक्रिय हो कर कुछ प्रयास अवश्य करने होंगे।

    महऋषि मनु ने अपनी समृति में-

    धृतिक्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

    धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।

    धर्म के दस लक्षण बताए हैं। भगवान श्रीराम ने अपने जीवन काल में इन सभी का अनुपालन किया। महऋषि  वाल्मीकि के अनुसार वे धैर्य में हिमालय के समान और क्षमा में पृथ्वी के समान थे। सत्य भषण में उनका वंश प्रसिद्ध ही था। रघुकुल रीति सदा चली आई। प्रान जाहि वरु वचन न जाई। उन्होंने विमाता की इच्छापूर्ति हेतु राज्य तक का त्याग कर दिया। उन्हें लेशमात्र लोभ नहीं था। वह इंद्रियों को अपने वश में किए हुए थे। व्यवहार में शुचिता थी। वे यज्ञों के रक्षक और स्वयं यज्ञ कत्र्ता थे। महऋषि विश्वामित्र जी के यज्ञ रक्षणार्थ राक्षसों से संघर्ष किया। भगवान श्रीराम ने धर्म के सभी लक्षणों का पालन करते हुए रामराज्य की स्थापना की। श्रीराम और राजगुरु महऋषि वशिष्ठ में एक लम्बा वार्तालाप हुआ था जिसका संपूर्ण वृतांत संस्कृत में निवद्ध ग्रंथ “योग-वशिष्ठ” में उपलब्ध है। उसमें योग वैराग्य की बहुत सी बातें हैं किंतु साथ ही “एक राजा का क्या कर्तव्य होना चाहिए?” इसका भी विशेष रूपेण उसमें उल्लेख किया गया है। राजा के उन्हीं कर्तव्यों का पालन करते हुए श्रीराम ने रामराज्य स्थापित किया। किंतु आज हम अपनी जड़ों से कट चुके हैं “योग-वशिष्ठ”, विदुर-नीति, अर्थ शास्त्र, दास बोध जैसे ग्रंथों का अध्ययन-मनन कौन करे? हमारे नैतिक पतन का कारण अगर है तो वह है धर्मविहीन राजनीति। आज देश की दुरावस्था देखिए, देशभर में आंतरिक और वाह्य संकटों के बादल मंडरा रहे हैं। देश के दुश्मन राष्ट्र को खंडित करने के लिए साम, दाम, दंड और भेद से कृत संकल्प हैं। राष्ट्र को कदम-कदम पर भारी अपमान और विपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। भारतवर्ष आज अंग्रेज शासित नहीं है, फिर भी सतासठ वर्ष बीत जाने के पश्चात् वह आज भी उनकी नीतियों, व्यवस्थाओं और प्रावधानों का बंधक बना हुआ है। देश की जनता जाति, धर्म, ऊंच-नीच, आपसी फूट, लिंगादि भेद-भावों से ग्रस्त है। संपूर्ण देश महंगाई, भ्रष्टाचार और नारी अपमान की ज्वलंत घटनाओं से प्रभावित हुआ है। परंतु भारतीय युवा वर्ग की अपनी लगन और कड़ी मेहनत से प्रायः सुप्त पड़ी तरुणाई फिर से अंगड़ाई लेने लगी है। उसमें ज्ञान, प्रेम, समर्पण, न्याय और धैर्य जैसे सद्गुणों का प्रादुर्भाव होने लगा है। समय आ गया है, अब बुराई के रावण का, युवा-वर्ग संहार अवश्य करेगा।

    आइए! हम सब मिलकर जन, परिवार, गांव और राष्ट्रहित के कार्य करके देश में सक्षम नेतृत्व का चयन कर राम-राज्य की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करें।


  • 1. समाज एवं राष्ट्र की सुरक्षा के मानदंड
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    1. समाज एवं राष्ट्र की सुरक्षा के मानदंड

    जनवरी 2014 मातृवन्दना

    व्यक्तिगत और पारिवारिक सुरक्षा से बड़ी सामाजिक सुरक्षा है और सामाजिक सुरक्षा से अधिक महत्वपूर्ण राष्ट्र  की सुरक्षा है। अतएव देश  के भविष्य  हेतु हमारे युवाओं को कुछ मानदंड स्थापित करने होंगे जिनके लिए उन्हें निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना होगा
    1  मानव समाज सदैव वीरों की पूजा करता है, कायरों की नहीं।
    2 समाज में वीरों को उनके कार्य कौशल, तत्वज्ञान, पराक्रम और कर्तव्य  परायणता से जाना जाता है।
    3  गीदड़ों के झुण्ड में शेर की दहाड़ अलग ही सुनाई देती है।
    4  व्यक्ति, समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र का अहित एवं अनिष्ट करने वाले भ्रमित, अहंकारी एवं स्वार्थी लोग क्रोध व हिंसा को जन्म देते हैं।
    5  अगर समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र  में मंहगाई, अभाव, जमा व मुनाफाखोरी और आर्थिक संकट-घोटाला के साथ-साथ अन्य समस्याएं पैदा हों तो समझो वहां अव्यवस्था, दुराचार, अनीति और अधर्म विद्यमान है।
    6  स्पष्ट रूप से परिभाषित  किए हुए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुशासित जनांदोलन के प्रयास से लोगों को अपने उद्देश्य  में सफलता अवश्य  मिलती है।
    7  लोगों का शांत और मर्यादित सत्यग्रह सोए हुए प्रशासन को जगाने का अचूक रामबाण है।
    8  इतिहास साक्षी है कि कर्फ्यू , आंसू गैस लाठी और गोली प्रहार से जनांदोलन कुचलने वाले स्वार्थी एवं अहंकारी शासको की सदा हार हुई है।
    9  सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगंधित बनता है।
    10  लोक परंपराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है।
    11  स्थानीय लोक सेवी संस्थाओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का समय मिलता है।
    12  तन, मन और धन से समाज की सेवा करने से प्रशंसकों और मित्रों की वृद्धि होती है।
    13  कमजोर युवाओं से समाज कभी सुरक्षित नहीं रहता है।
    राष्ट्रीय  सुरक्षा
    14  क्षेत्र, भाषा , जाति, धर्म, रंग, लिंग, मत भेदभाव पूर्ण बातों को साम्प्रदायिक रंग देने वाला व्यक्ति या दल राष्ट्रीय  एकता, अखण्डता और सद्भावना का दुश्मन  होता है।
    15 राष्ट्रीय  एकता एवं अखण्डता प्रदर्शित करने वाले नारों से जनता में देश प्रेम की उर्जा का संचार होता है।
    16 राष्ट्रीय  सुख-समृद्धि की रक्षा हेतु समाज विरोधी अधर्म, दुराचार, असत्य और अन्याय के विरुद्ध उचित कार्रवाई करने वाला प्रशासन सर्वहितकारी होता है।
    17  बंद, चक्काजाम, और हड़ताल के आह्वान पर आवेश  में आकर यह कभी मत भूलो कि उपद्रव करने से जन साधारण, समाज, क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र  की कितनी हानि होती है।
    18  कर्मवीर अपने कर्म से, ज्ञानवीर ज्ञान से, रणवीर पराक्रम से और धर्मवीर कर्तव्य  पालन करके आसामाजिक तत्वों का मुंहतोड़ उत्तर देते हैं।
    19  कठिन परिस्थितियों में भी वीर घबराते नहीं हैं बल्कि संगठित रहकर उनका डटकर सामना करते हैं।
    20  सच्चे वीरों का गर्म खून और शीतल मस्तिष्क  सदैव सर्वहितकारी एवं धार्मिक कार्यो में सक्रिय और तत्पर रहता है।
    21  राष्ट्रहित  में - सच्चे वीर रणक्षेत्र में अपना रण.कौशल दिखाते हुए दिग्विजयी होते हैं या फिर युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करते हैं।
    22  संयुक्त रूप से राष्ट्रीय  पर्व मनाने से राष्ट्र  की एकता एवं अखंडता प्रदर्शित होती है।
    23  जनहित एवं सद्भावना से प्रेरित बातों के समक्ष अलगाव की भावना निष्प्राण  हो जाती है।
    24  वही विवेकशील नौजवान अपने समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र  को सुरक्षित रखते हैं जो स्वयं अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहते हैं।
    25  वही युवा पीढ़ी राष्ट्र की रीढ़ है जो सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्य कुशल है।
    26  वास्तव में वीरों की परीक्षा रणक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र, कार्यक्षेत्र और धर्मक्षेत्र में होती है।

    जनवरी 2014 मातृवन्दना