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    2. कला – साधना जीवनोपयोगी है

    आलेख – मातृवन्दना जुलाई अगस्त 2020 

    जीना भी एक कला है l जो व्यक्ति भली प्रकार जीना सीख जाता है, वह मानों उसके लिए सोने पर सुहागा l भली प्रकार जीने के लिए व्यक्ति का किसी न किसी कला के साथ जुड़े रहना अति आवश्यक है भी l मनुष्य को मांस-मदिर और धुम्रपान से सदैव दूर रहना चाहिए l सनातन धर्म इन्हें सेवन करने की किसी को आज्ञा नहीं देता है अपितु सावधान करता है l जिन्दगी से कला जोड़ो, नशा नहीं l कला से प्रेम करो, नशे से नहीं l नशे का त्याग करो, जिन्दगी का नहीं l नशे से नाता तोड़ो, जिन्दगी से नहीं l कला प्रेम से जिन्दगी संवरती है, नशे से नहीं l अतः कला प्रेमी को नशा नहीं करना चाहिए l

    मानव शरीर उस मशीन के समान है जिसमें पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, मैं का भाव, मन और बुद्धि होती है l मुंह, उपस्थ गुदा, हाथ और पैर उसकी कर्मेन्द्रियाँ कर्म करती हैं जबकि जिह्वा, आँखें, नाक, कान, त्वचा ज्ञानेन्द्रियाँ उसके लिए ज्ञानार्जित करती हैं l यह सब कार्य एक इंटरनैट की तरह मात्र बुद्धि के नियंत्रण में होते हैं l

    प्राचीन काल से ही भारत की गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित सर्वश्रेष्ठ विश्वसनीय कला-सृजन करने वाली वैदिक शिक्षा-प्रणाली अंग्रेजी साम्राज्य तक प्रभावी रही थी l इतिहास में श्रीकृष्ण–बलराम जी के गुरु का संदीपनी, श्रीराम-लक्ष्मण के गुरु का विश्वामित्र, लव-कुश के गुरु वाल्मीकि के आश्रम जैसे अनेकों आश्रमों का उल्लेख मिलता है l स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बोट बैंक और दलगत राजनीति के कारण उसे भारी हानि पहुंची है l गुरुओं में पहला गुरु माता, दूसरा पिता और तीसरा विद्यालय के गुरु एवं अध्यापक माने जाते हैं l जीवन निर्माण में इनकी महान भूमिका रहती है l माँ-बाप तो मात्र बच्चे को जन्म देते हैं जबकि जीवन में उसे गुरु ही योग्य पात्र बनाते हैं l माँ के गर्व में विकसित हो रहा शिशु जन्म लेने से पूर्व अपने कानों से दूसरों की बातें श्रवण करना आरम्भ कर देता है l महाभारत के पात्र वीर अभिमन्यु इसका जीता-जागता उदाहरण है l उन्होंने जन्म लेने से पूर्व ही अपने पिता अर्जुन से माता सुभद्रा को सुनाई गई गाथा के माध्यम से चक्रव्यूह बेधने की कला सीख ली थी और उससे महाभारत में द्रोणाचार्य द्वारा रचाया गया चक्रव्यूह भी बेध डाला था l माँ के द्वारा प्रसंग पूरा न सुन पाने के कारण वे चक्रव्यूह बेधना/उससे बाहर निकलना नहीं जान सके थे l उनकी माँ गाथा सुनते-सुनते बीच में सो गई थी l अतः वे वीरगति को प्राप्त हुए थे l इसलिए कहा जाता है कि किसी भी गर्ववति महिला/स्त्री को ज्ञान-रस, वीर-रस की गाथाएँ सुनाने के साथ-साथ उससे धार्मिक और सदाचार ही की बातें करनी चाहियें l उसके शयन-कक्ष में धार्मिक और महान पुरुषों के चित्र लगाने चाहिए l इससे अच्छा और संस्कारवान बच्चा पैदा होता है l

    जन्म लेने के पश्चात् बच्चा धीरे-धीरे अपने गुरु माता–पिता से खाना-पीना, बोलना, खड़े होना, चलना, दौड़ना सब कुछ सीख लेता है l ज्यों-ज्यों बच्चा बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों वह बालक या बालिका के रूप में तीन-चार वर्ष की आयु में पाठशाला जाना आरम्भ कर देता है l वहां वह लिखना, पढ़ना, बोलना संवाद करना, नाचना, गाना, अनुशासन व शिष्टाचार इत्यादि अन्य कलाएं भी सीखता है l यही नहीं, परंपरागत गुरुकुलों में तो आत्म-रक्षा हेतु छात्र-छात्राओं को युद्ध कला भी सिखाई जाती थी l कोई भी कला साधना आत्म साक्षात्कार करने का संसाधन है, साध्य नहीं l वही कला तब तक जीवित रहती है, जब तक उसका किसी के द्वारा एकलव्य की भांति सृजन, पोषण, और वर्धन हेतु अभ्यास किया जाता है l वही व्यक्ति कला का सफलता पूर्वक सृजन, पोषण और वर्धन हेतु अभ्यास कर सकता है जिसके पास कला के प्रति आत्म समर्पण की भावना, धैर्य, एकाग्रता और आत्म विश्वास होता है l जीवन में सफलता की ऊँचाइयाँ छूने और कला में प्रवीणता पाने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति का होना अति आवश्यक है l कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l

    कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग से व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है l लोकहित में कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग, सुख और यश प्राप्त होता है l कला-संस्कृति से ही किसी व्यक्ति, परिवार, समाज, क्षेत्र, प्रान्त और देश की पहचान होती है l कला संस्कृति को जीवित रखने का एक मात्र सरल उपाय यह है कि गुरु की उपस्थिति में प्रशिक्षित प्रशिक्षु के द्वारा नये प्रशिक्षु को शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जाये l उनके द्वारा समय-समय पर कला-अभ्यास हो और निश्चित स्थान पर उनकी कला-प्रदर्शन का आयोजन भी किया जाये l किसी कला का सम्मान कलाप्रेमी ही करते हैं, कोई बाजार नहीं l कला का सम्मान करने से ही किसी कलकार का वास्तविक सम्मान होता है l जिस स्थान पर कला का सम्मान न हो, वहां आयोजक को भूलकर भी किसी कलाकार से उसकी कला का प्रदर्शन नहीं करवाना चाहिए और न ही किसी कलाकार को उसमें भाग लेना चाहिए l कला-प्रेमियों के हृदय में कहीं न कहीं कला के प्रति सम्मान अवश्य होता है जिस कारण वे उससे संबंधित कलामंच की ओर आकर्षित होते हैं l किसी भी कला को जीवंत बनाये रखने के लिए दर्शकों, कला प्रेमियों को उस कला का सम्मान अवश्य करना चाहिए l

    समय-समय पर नालंदा, तक्षशिला, विश्वविद्यालयों और उनकी शाखाओं व उप-शाखाओं की तरह वर्तमान सरकारी अथवा गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं द्वारा अपने विभिन्न कलाकार छात्र-छात्राओं का उत्साह बढ़ाने के लिए उससे संबंधित मंचों का आयोजन करवाकर उन्हें सम्मानित भी करना चाहिए l जो युवाजन अपने जीवन में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियों का विकास करना चाहते हैं, उन्हें स्वयं में छिपी हुई किसी न किसी कला (वादक-यंत्र वादन, नृत्य, संगीत, अभिनय, भाषण, साहित्य लेखन, जैसी अन्य कला) से प्रेम अवश्य करना चाहिये l जीवन निर्वहन करने के साथ-साथ उनके पास अपना मानव जीवन संवारने के लिए इससे बढ़िया अन्य और संसाधन क्या हो सकता है !



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    1. डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में समरसता

    आलेख – धर्म संस्कृति मातृवन्दना मार्च अप्रैल 2020  

    ऋषि-मुनि, सिद्ध, सन्यासी, साधु-सन्त, महात्मा और परमात्मा के साथ जुड़े माणिकों एवं अलंकारों से सुशोभित, भारत माता के सरताज, देव और वीरभूमि हिमाचल प्रदेश की तराई में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है जिला कांगड़ा, का प्रवेश द्वार नूरपुर, के उत्तर में सहादराबान से सर्पाकार एवं घुमावदार सड़क द्वारा लेतरी, खज्जन, हिंदोरा-घराट, सदवां से घने निर्जन चीड़ के जंगल पार, गांव सिम्बली से होते हुए नूरपुर से लगभग चोदह किलोमीटर के अंतराल पर स्थित है - सुल्याली गांव।

    अपनी हरियाली की अपार सुंदरता एवं स्वच्छता के कारण भारत की देव भूमि हिमाचल प्रदेश विश्व विख्यात है। यहां पर स्थित विभिन्न प्रसिद्ध धार्मिक स्थल देश व विदेश में अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। प्रदेश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में सुल्याली गांव का डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर अथवा प्राकृतिक शिवाला डिह्बकेश्वर धाम अत्यंत सुंदर, शांत तथा रमणीय स्थल है।


    यह प्राकृतिक शिवाला अपने अस्तित्व में कब आया? कोई नहीं जानता है। परंतु यहां विराजित साक्षात देवों के देव महादेव परिवार की गांव सुल्याली में वसने वाले लोगों पर असीम कृपा अवश्य है। लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम व सदभावना कूटकूट कर भरी हुई है।


    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर के स्नानों में स्नान सोमवार की अमावसया, वैसाखी की अमावसया, बुध पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, पितर तर्पण, सावन मास के सोमवारों के स्नान होते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी, शीतला पूजन के साथ-साथ यहां शिवरात्रि हर वर्ष बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है जिसमें हर वर्ण के लोग यथाशक्ति बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।


    यहां पर गृह शांति हेतु हवन करवाये जाते हैं। बच्चों के मुंडन संस्कार होते हैं। यहां मास के हर रविवार को लंगर लगवाने की व्यवस्था भी है जिसमें कोई भी गृहस्थी अपनी इच्छा से यहां की व्यवस्था के अनुसार हवन, संकीर्तन करवाने के साथ-साथ लंगर भी लगवा सकता है।


    भरमौर निवासी गद्दी समुदाय के लोग अंधेरा होने पर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में शिव विवाह जिसे वे अपनी स्थानीय भाषा में नवाला कहते हैं, का हर वर्ष जनवरी मास में आयोजन करते हैं। वे शिव पूजन करके लोक-नृत्य सहित शिव विवाह के भजन गाते हैं। जो देखने योग्य होता है। इसे देखने हेतु यहां पर दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे यहां आए हुए श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते है जिसे लोग सप्रेमपूर्वक प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।


    स्व0 मास्टर गिरीपाल शर्मा जी ने अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नी की याद में पादुका स्थित सुल्याली गांव में शिवरात्रि के दिन इस यज्ञ का शुभारम्भ किया था। जो वहां हर वर्ष किया जाता था। इसे बाद में बंद कर दिया गया और फिर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में आरम्भ कर दिया गया। स्व0 मास्टर हंस राज शर्मा, जी ने सन् 1967.68 ई0 से शिवरात्रि पर्व से लोगों को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। यज्ञ में दाल, चावल, खट्टा, मीठा, मह्दरा आदि बनना आरम्भ हो गया। इससे पूर्व यहां आषाढ़ मास की संक्रांति को चपाती, आम की लाहस तथा माश की दाल बना कर सहभोज करने की प्रथा प्रचलित थी। जिसे ग्रहण करके सभी लोग आनन्द उठाते थे।
    यहां हर वर्ष शिवरात्रि से दो - तीन दिन पूर्व ही उसकी तैयारी होना आरम्भ हो जाती है। शिवरात्रि से एक दिन पूर्व यहां हवन-यज्ञ किया जाता है। रात को भजन कीर्तन होता है और दूसरे दिन सहभोज-भण्डारा किया जाता है जिसका आयोजन एवं समापन बिना किसी भेदभाव से संपूर्ण होता है। इन दिनों डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में बहुत ज्यादा चहल-पहल रहती है। यहां स्थानीय लोग ही नहीं दिल्ली, पंजाब और जम्मू-कश्मीर राज्यों के दूर-दूर से आए हुए श्रद्धालू-भक्त जन भी अपनी-अपनी यथाशक्ति से अन्न, तन, मन और धन द्वारा सेवा कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।


    यहां आने वाले आस्थावान भक्तों पर भोलेनाथ सदा दयावान रहते हैं। जन धारणा के अनुसार शिवरात्रि को शिवभोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजमान रहते हैं तथा यहां पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद भी देते हैं। स्थानीय लोगों की धारणा है कि शिवरात्रि के पश्चात् शिव भोले नाथ सपरिवार, मणिमहेश कैलाश की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।


    शिव भोले नाथ के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाले भक्तजन बारह मास - सर्दी, गर्मी और बरसात में शिव दर्शन और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वे शिवलिंगों को दूध लस्सी से नहलाते हैं तथा उन पर बिल्व-पत्री चढ़ा कर उनकी धूप-दीप, नैवेद्यादि से पूजा अर्चना करके, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।


    साहिल ग्रुप पठानकोट, के सदस्य मिलकर यहां हर वर्ष दिन में पहले सुल्याली बाजार से होते हुए डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर तक संगीत सहित शिवविवाह की मनोरम झांकियां निकालते हैं और फिर देर रात तक शिव विवाह से संबंधित धर्म-सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता रहता है जिसे देखने हेतु दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे वहां आने वाले श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते हैं। लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।


    सुल्याली गांव के आसपास के क्षेत्र से अनेकों महिलाएं डिह्बकेश्वर महादेव परिसर में आकर सोमवार की अमावसया, वैसाखी की बड़ी सोमी अमावसया को पीपल वृक्ष का पूजन करती हैं। इस पूजन में पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमायें की जाती हैं जिसके अंतर्गत फल, चावल व दाल के दाने, द्रब, दक्षिणा, कच्चा सू़त्र की लड़ियां और जोतें सभी गिनती में 108-108 एक समान नग होते हैं। इसके अतिरिक्त सुहागी, वर्तन और कपड़ा भी होता है जो दान किया जाता है। कच्चा सू़त्र की लड़ियों को पीपल वृक्ष के चारों ओर परिक्रमा करके लपेटा जाता है जो देखने योग्य होता है। इस तरह डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में अध्यात्मिकता देखने को मिलती है जो समरसता से परिपूर्ण होती है।

    चेतन कौशल “नूरपुरी”


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    3. जल संग्रहण और उसकी उपयोगिता

    जनवरी 2020 मातृवंदना पर्यावरण चेतना  - 4 

    हर स्थान पर नहरें व समयानुकूल वर्षा न होने से एकमात्र नलकूप ही खेतों की सिंचाई करने के संसाधन होते हैं l खेतों की सिंचाई करने हेतु नलकूपों की आवश्यकता पड़ती है l उनसे सिंचाई की जाती है l आवश्यक है, भूजल दोहन नियमित और फसल की आवश्यकता अनुसार ही हो l ऐसा न होने पर भूजल का किया गया अधिक दोहन व्यर्थ हो जाता है l इस कारण वह आज एक बड़ी चिंता का विषय बन गया है l

    वर्तमान में गाँव और शहरों के मकान, गलियां, सड़क, इत्यादि सब बड़ी तेजी से सिंमेंट पोश होते जा रहे हैं l स्थानीय संस्थाएं, संगठन, न्यास ही नहीं, देश का जन साधारण भी कुआँ, तालाब, पोखर-जोहड़ों की उपयोगिता भूल गया है l इससे स्थानीय कुओं, तालाबों, पोखर-जोहड़ों की संख्या में काफी कमी आई है l लोगों के सामने हर वर्ष देखते ही देखते वर्षाकालीन का समस्त वर्षा जल गाँव और शहरों की नालियों के माध्यम से नाला मार्ग द्वारा बाढ़ का भयानक रूप धारण करके उनसे दूर बहुत दूर यों ही व्यर्थ में बह जाता है l इस तरह धरती पर अपार वर्षाजल उपलब्ध होने पर भी धरती हर वर्ष प्यासी की प्यासी रह जाती है l इससे भूजल पुनर्भरण की प्राचीन संस्कृति को अघात पहुंचा है l देशभर में वर्षाकालीन भूजल पुनर्भरण व्यवस्था ठीक न होने के कारण गाँव और शहरों में भूजल पुनर्भरण प्रणाली संकट ग्रस्त है l भूजल, पेयजल पर संकट गहराता जा रहा है l

    घर मकान, सड़क, पुल, इंडस्ट्रियों, कारखानों तथा डैमों की वृद्धि और लोगों का निरंतर पलायन होने से उपजाऊ धरती और जंगलों का असीम क्षेत्र फल निरंतर सिकुड़ता जा रहा है l सिंचाई के जल संसाधनों में चैक डैम, नहरें, कुंएं तालाब, पोखर-जोहड़ जैसे वर्षा जल के कृत्रिम जल भंडार जो प्राचीन काल से ही परंपरागत सिंचाई के माध्यम रहे हैंSa & उन्हें गाँव और शहरों में स्थानीय लोगों द्वारा वर्षा जल चक्रीय प्रणाली के अधीन सक्रिय रखा जाता था l उनसे कृत्रिम भूजल पुनर्भरण भी होता था l जनश्रुति के अनुसार जिला कांगड़ा के अकेले शहर नूरपुर में ही कभी 365 कुंएं और तालाब तथा बावड़ियाँ अलग सक्रिय हुआ करती थीं जो अब गिनती के रह गई हैं l  

    यह समय की विडंबना ही है कि विकास की अंधी दौड़ के अंतर्गत देश के समस्त गाँव और शहरों में जन साधारण द्वारा परंपरागत कृत्रिम जल संसाधनों का तेजी से अंत किया जा रहा है l उनकी उपयोगिता को तिलांजली दी जा रही है l उन्हें समतल करके उनके स्थान पर आलिशान मकान, भवन ही नहीं, देवालय तक बनाये जा रहे हैं और कृत्रिम भूजल पुनर्भरण की संस्कृति दिन–प्रतिदिन विलुप्त होती जा रही है l  

    भविष्य में वर्षा जल संग्रहण प्रणाली से लंबे समय तक भूजल पुनर्भरण की परंपरा स्थिर रखी जा सकती है जो वन्य संपदा, जलचर, थलचर, नभचर तथा समस्त जीव जन्तुओं के लिए अत्याधिक आवश्यक है भी l इसके लिए हम मात्र कृत्रिम भूजल पुनर्भरण के संसाधनों का उपयोग करके गिरते हुए भूजल स्तर को पुनः ऊपर ला सकते हैं l

    किसी घर या भवन की छत से धरती पर गिरने वाले वर्षाजल को यों ही व्यर्थ में न बहने देना, उसे घर या भवन के निकट धरातल के नीचे बनाया गया गड्ढा जो 5फुट लंबा 5फुट चौड़ा और 10फुट गहरा या उपलब्ध स्थान अथवा आवश्यकता अनुसार छोटा या बड़ा हो और जिससे कृत्रिम भूजल पुनर्भरण भी सुलभ हो, में वर्षाजल एकत्रित किया जा सकता है l

    गाँव व शहर की गलियों तथा सड़कों के दोनों ओर जल बहाबदार नालियों में 4 फुट लंबाई, 3 फुट चौड़ाई और 3 फुट गहराई के गड्ढे जो भूजल पुनर्भरण में समर्थ हों, आवश्यकता अनुसार कम या अधिक दूरी पर बनाये जा सकते हैं l इनसे कृत्रिम भूजल पुनर्भरण सुलभ हो सकता है l 

    खेतों में जिस ओर वर्षाजल का स्थाई बहाव हो, उस जल बहाव को रोकने हेतु सामने की उंचाई वाले किनारे से खेत की मिट्टी उखाड़कर, ढलान वाले किनारे पर डालकर ऊँचा किया जा सकता है और वहां पर फलदार, पशुचारा vkSj आवश्यकतानुसार जीवनोपयोगी पेड़-पौधे लगाकर भु-क्षरण रोका जा सकता है l इस प्रकार दूसरी ओर नव निर्मित गहराई के कारण जल अवरोध उत्पन्न होगा l वहां वर्षाजल एकत्रित होने से कृत्रिम भूजल पुनर्भरण प्रभावी हो सकता है l

    खेतों के उन भागों पर जहाँ वर्षाजल एकत्रित होता हो, वहां छोटे छोटे कुएं बनाकर उनमें वर्षाजल का संग्रहण किया जा सकता है l इससे कृत्रिम भूजल पुनर्भरण में सहायता मिल सकती है l

    खेतों में जिस ओर वर्षाजल का बहाव हो, से भू-क्षरण रोकने के लिए जल बहाव वाले स्थान पर आवश्यकता अनुसार छोटे-छोटे कुएं बनाये जा सकते हैं l इनसे वर्षाजल के बहाव  को रोकने में सहायता मिलेगी और उनमें संग्रहित जल से भूजल पुनर्भरण भी होगा l

    चैक डैम का निर्माण कार्य ऐसे स्थान पर किया जाना उचित है जहाँ आवश्यकता अनुसार जल संचयन हो सके l उससे उपजाऊ धरती सुरक्षित रहे और संचित जल से स्थानीय फसल की आवश्यकता अनुसार जल सिंचाई भी की जा सके l यह छोटे छोटे चैक डैम सदाबहार नालों पर बनाये जा सकते हैं l इनसे बिजली पैदा करके स्थानीय बिजली की आपूर्ति करने के साथ-साथ वहां पनचक्कियां भी लगाकर उनसे आटा पिसाई की जा सकती है l इससे भविष्य में बड़े-बड़े डैमों पर हमारी निर्भरता कम होगी l एक दिन हमें इनकी आवश्यकता भी नहीं रहेगी l बरसात के दिनों में डैमों से नियंत्रित जल छोड़ने से नदियों में भयानक बाढ़ आने का भय/संकट उत्पन्न नहीं होगा और उससे हर वर्ष होने वाली जान-माल की तबाही भी नहीं होगी l

    प्रायः देखा गया है कि नहरों के दोनों किनारे समतल होने के कारण उनका सारा जल निश्चित क्षेत्र तक तो पहुँच जाता है पर मार्ग में पड़ने वाले समस्त क्षेत्र नहरों में जल होते हुए भी प्यासे रह जाते हैं l नहरों का निर्माण करते समय उनके दोनों किनारों की दीवारों में कुछ दूरी का अंतर रखकर जल रिसाव के लिए खाली स्थान रखा जा सकता है l इससे भूजल पुनर्भरण में सहायता मिलेगी और भूजल स्तर को गिरने से भी बचाया जा सकता है l

    देशभर में भूजल पुनर्भरण को प्रभावी बनाने हेतु गाँव व शहरी स्तर पर आवश्यकता अनुसार गहरे, तल के कच्चे जोहड़-पोखर और तालाबों का अधिक से अधिक नव निर्माण और पुराने जल स्रोतों का सुधार भी किया जाना अति आवश्यक है l उनमें वर्षाजल भराव के लिए, उन्हें कच्चे तल वाली छोटी नहरों अथवा नालियों द्वारा आपस में जोड़कर सदैव जल आवक-जावक प्रणाली अपनाई जा सकती है l इस माध्यम से वर्षा जल का कृत्रिम जल भंडारों में जल संचयन और उनसे भू-जल पुनर्भरण होना निश्चित है l नदियों की बहती जलधारा सबको प्रिय लगती है l उन्हें स्थाई रूप से कभी अवरुद्ध नहीं करना चाहिए l नदियों का सदा निरंतर बहते रहना अति आवश्यक है l वह सबकी जीवन दायनी है l

    देशभर में एक व्यापक राष्ट्रीय कृत्रिम भूजल पुनर्भरण नीति होनी चाहिए जिसके अंतर्गत स्थानीय जन साधारण से लेकर उनसे संबंधित विभिन्न सरकारी व  गैर सरकारी तथा धार्मिक संस्थाओं, संगठनों और नियासों को एक राष्ट्रीय अभियान बनाकर कार्य करना चाहिए l इससे देश में हरित, श्वेत और जल क्रान्ति लाने में सहायता मिलेगी l 

    जल संग्रहण किया जाना उस एटीएम के समान है जिसमें पहले धनराशि डालना अति आवश्यक है l अगर हम एटीएम से बार-बार मात्र पैसे निकलते जायेंगे, उसमें कभी धनराशि डालेंगे नहीं तो----? तो वह एक दिन खाली भी हो जायेगा l उससे हमें कुछ भी नहीं मिलेंगा l इसलिए भविष्य में भूजल दोहन करने हेतु हम सबको आज ही से भूजल पुनर्भरण के प्रति अधिक से अधिक सजग रहना चाहिए l हमें कृत्रिम भूजल भंडारों में जल संचयन और उनसे भूजल पुनर्भरण संबंधी निश्चित हर कार्य प्राथमिकता के आधार पर वर्षाकाल आरंभ होने से पूर्व समयबद्ध पूरा कर लेना चाहिए l

    प्रकाशित जनवरी 2020 मातृवंदना

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    7. गुरु का महत्व

    आलेख – शिक्षा दर्पण मातृवंदना नवंबर 2019

    भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोपरी है l घर पर माता-पिता और विद्यालय में गुरु को उच्च स्थान प्राप्त है l शास्त्रों में इन तीनों को गुरु कहा गया है l “मातृदेवो भवः, पितृ देवो भवः, गुरु देवो भवः l गुरु माता को सर्व प्रथम स्थान प्राप्त है क्योंकि वह बच्चे को नव मास तक अपनी खोक में रखे उसका पालन-पोषण करती है l जन्म के पश्चात ज्यों-ज्यों शिशु बड़ा होता जाता है त्यों-त्यों वह उसे आहार लेने तथा बात करना सिखाने के साथ-साथ उठने, बैठने, और चलने के योग्य भी बनाती है l गुरु पिता परिवार के पालन-पोषण हेतु घरेलू सुख-सुविधायें जुटाने का कार्य करता है और परिवार को अच्छे संस्कार देने का भी ध्यान रखता है l विद्यालय में गुरुजन विद्यार्थी में पनप रहे अच्छे संस्कारों की रक्षा करने के साथ-साथ उसे धीरे-धीरे बल भी प्रदान करते हैं ताकि वह भविष्य में आने वाली जीवन की हर चुनौती का डटकर सामना कर सके l

    गुरु भले ही घर का हो या विद्यालय का, वह राष्ट्र के प्रति समर्पित भाव वाला होता है l उसके द्वारा किये जाने वाले किसी भी कार्य में राष्ट्रीय भावना का दर्शन होता है जिससे देश-प्रेम छलकता है l गुरु के मन, वचन और कर्म में सदैव निर्भीकता हिलोरे लेती रहती है l वह जनहित में निष्कपट भाव से सोचने, बोलने और कार्य करने वाला होता है l गुरु को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होता है l एक तत्व ज्ञानी या गुरु ही किसी विद्यार्थी को उसकी आवश्यकता अनुसार उचित शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उसे सफल स्नातक और अच्छा नागरिक बनाता है l


    गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः गुरु साक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नमः l शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा ,विष्णु, और महेश देवों के तुल्य माना गया है l जिनमें सामाजिक संरचना, पालना और बुराईयों का नाश करने की अपार क्षमता होती है l गुरु आत्मोत्थान करता हुआ अपने विभिन्न अनुभवों के आधार पर विद्यार्थी को उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण देकर समर्थ बनाता है l


    आदिकाल से सनातनी व्यवस्था अनुसार सनातन समाज में दो गुरु माने गए हैं – धर्मगुरु और राजगुरु l
    धर्मगुरु समाज को धर्म की दीक्षा देते थे जबकि राजगुरु राज्य व्यवस्था को सुचारू बनाये रखने हेतु राजा का उचित मार्गदर्शन करते थे l


    धर्मगुरु एक हाथ में वेद और दूसरे हाथ में शस्त्रास्त्र धारण करते थे ताकि आवश्यकता पड़ने पर उनसे सर्वजन, जीव-जंतुओं और समाज के शत्रुओं से रक्षा की जा सके l
    वे धर्मात्मा होने के साथ-साथ शूरवीर भी कहलाते थे l वे भक्ति और शक्ति दोनों के स्वामी अर्थात धर्म-योद्धा होते थे l


    वे गुरुकुल में विद्यार्थियों के संग वेद का पठन-पाठन करते थे और ब्रह्मज्ञान देने के साथ-साथ कला शिक्षण-प्रशिक्षण अभ्यास और प्रतियोगिताएं भी करवाते थे l इससे उनका सर्वांगीण विकास होता था l वहां से स्नातक बनने के पश्चात् विद्यार्थी बदले में गुरु को गुरु-दक्षिणा भी देते थे l
    शांति काल में गुरु एकांत में रहकर भजन, आत्मचिंतन-मनन, लेखन कार्य किया करते थे और संकट कल में वे स्वयं शस्त्रास्त्र भी धारण करते थे l


    समाज या देश पर आंतरिक या बाह्य संकट काल का सामना करने के लिए वे पूर्वत ही स्वयं और राजा को सेना सहित तैयार रखते थे l संकट पड़ने पर वे युद्ध जीतने के उद्देश्य से राजा को सेना सहित युद्ध नीति अनुसार शस्त्रास्त्रों का भरपूर उपयोग करते और करवाते थे l सिख गुरु परंपरा में सनातन संस्कृति की रक्षा करने हेतु त्याग और बलिदान की अनेकों अद्भुत घटनाएँ इतिहास में विद्यमान हैं l


    तत्कालीन मुस्लिम शासकों द्वारा भारतं के लोगों पर घोर अत्याचार किये जा रहे थे, जब गुरु सहवान उनका विरोध करते तब उन्हें भी असहनीय कष्ट भोगने पड़ते थे l दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह जी का तीन पीढ़ियों का अतुलनीय इतिहास रहा है l



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    6. ख़ुशी का पर्व – दीपावली

    अक्तूबर 2019 मातृवन्दना

    भारत वर्ष विभिन्न – वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर ऋतुओं का देश है l वर्षा ऋतु के अंत में जैसे ही शरद ऋतु का आरम्भ होता है उसके साथ ही नवरात्रि – दुर्गा पूजन और राम लीला मंचन भी एक साथ आरम्भ हो जाते हैं l दुर्गा पूजन एवं राम लीला मंचन का नववें दिन समाप्त हो जाने के पश्चात्, दसवें दिन विजय दसवीं को दशहरा मनाया जाता है l भारतीय परंपरा के अनुसार विजय दसवीं का पर्व लंकापति रावण (बुराई) पर भगवान श्रीराम (अच्छाई) के द्वारा विजय का प्रतीक माना जाता है l यह पर्व श्रीराम का रावण पर विजय पाने के पश्चात् अयोध्या आगमन की ख़ुशी में उनका हर घर में दीपमाला जलाकर स्वागत किया जाता है l 

    धर्म परायण, ईश्वर भक्त और अपने कर्तव्यों के प्रति सदैव जागरूक रहने वाला मनुष्य अपने जीवन में दीपावली को सार्थक कर सकता है l

    सार्थक दीपावली

    नगर देखो ! सबने दीप जलाये हैं

    द्वार-द्वार पर, घर आने की तेरी ख़ुशी में मेरे राम !

    अँधेरा मिटाने, मेरे राम !

    आशा और तृष्णा ने घेरा है मुझको]

    स्वार्थ और घृणा ने दबोचा है मुझको,

    सीता को मुक्ति दिलाने वाले राम !

    विकारों की पाश काटने वाले राम !

    दीप बनकर मैं जलना चाहुँ,

    दीप तो तुम प्रकाशित करोगे, मेरे राम !

    अँधेरा खुद व खुद दूर हो जायेगा,

    हृदय दीप जला दो मेरे राम !

    सार्थक दीपावली हो मेरे मन की,

    घर-घर ऐसे दीप जलें, मेरे राम !

    रहे न कोई अँधेरे में संगी – साथी,

    दुनियां में सबके हो तुम उजागर, मेरे राम !

    प्रकाशित अक्तूबर 2019 मातृवन्दना