23 नवंबर 2008 कश्मीर टाइम्स
वह समाज और राष्ट्र गूंगा है जिसकी न तो कोई अपनी भाषा है और न लिपि। अगर भाषा आत्मा है तो यह कहना आतिशयोक्ति नहीं होगी कि भाषा से किसी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र की अभिव्यक्ति होती हैं।
विश्व में व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र का भौतिक विकास और आध्यात्मिक उन्नति के लिए स्थानीय, क्षेत्रीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय भाषाओं का सम्मान तथा उनसे प्राप्त ज्ञान की सतत वृद्धि करने में ही सबका हित है।
राष्ट्र की विभिन्न भाषाओ का सम्मान करने से राष्ट्रीय भाषा का सूर्य स्वयं ही दीप्तमान हो जाता है। राष्ट्रीय भाषा स्वच्छन्द विचरने वाली वह सुगंध युक्त पवन है जिसे आज तक किसी चार दीवारी में कैद करने का कोई भी महत्वाकांक्षी प्रयास सफल नहीं हुआ है।
स्थानीय, क्षेत्रीय, प्रांतीय भाषाओँ के नाम पर भेद-भाव, वाद-विवाद और टकराव की मनोवृत्तियां महत्वाकांक्षा की जनक रहीं हैं जिससे कभी राष्ट्र हित नहीं हुआ है। विभिन्न मनोवृत्तियां महत्वाकांक्षा उत्पन्न होने से पैदा होती हैं और उसके मिटते ही वह स्वयं नष्ट हो जाती हैं।
संस्कृत व हिन्दी भाषाओं ने सदाचार, सत्य, न्याय, नीति, सदव्यवहार और सुसंस्कार संवर्धन करने के हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कई सदियां बीत जाने के पश्चात ही कोई एक भाषा राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा और फिर वह राष्ट्र की सर्व सम्मानित राजभाषा बन पाती है। भारत में कभी सर्वसुलभ बोली और समझी जाने वाली संस्कृत भाषा देश की वैदिक भाषा थी जिसमें अनेकों महान ग्रंथों की रचनाएं हुई हैं। संस्कृत भाषा को कई भाषाओं की जननी माना जाता है। इस समय हिन्दी भारत की राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा होने के साथ-साथ राजभाषा भी है। हमें उस पर गर्व है। भारत में हिन्दी भाषा अति सरल बोली, लिखी, पढ़ी, समझी और समझाई जा सकने वाली मृदु भाषा है। आशा है कि इसे एक न एक दिन संयुक्त राष्ट्र मंच पर उचित सम्मान अवश्य मिलेगा। भारत के भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपयी जी, संयुक्त राष्ट्र मंच पर अपने सर्वप्रथम भाषण में हिन्दी का प्रयोग करके इसका शुभारम्भ कर चुके हैं। वे राष्ट्र के महान सपूत हैं।
हिन्दी के प्रोत्साहन हेतु देश भर में अब तक हिन्दी दिवस/सप्ताह/पखवाड़ा/आयोजन के सरकारी अथवा गैर सरकारी अनेकों सराहनीय एवं प्रसंशनीय प्रयास हुए हैं। इससे आगे हमें हिन्दी दिवस/सप्ताह/पखवाड़ा/ आयोजनांे के स्थान पर हिन्दी मासिक/तिमाही/छःमाही और वार्षिक आयोजनों का आयोजन करना होगा। हिन्दी भाषा को अधिकाधिक प्रोत्साहित करने हेतु सरल सुबोध हिन्दी शब्द कोष कारगर सिद्ध हो सकते हैं जिन्हें प्रतियोगियों का साहस बढ़ाने हेतु पुरस्कार रूप में प्रदान किया जा सकता है और पुस्तकालयों में पाठकों की ज्ञानसाधनार्थ उपलब्ध करवाया जा सकता है।
सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थांओं के कार्यालयों में फाइलों व रजिस्टरों के नाम हिन्दी भाषा में लिखे जा सकते हैं। कार्यालयों की सब टिप्पणियां/आदेश/अनुदेश हिन्दी भाषी जारी किए जा सकते हैं। कार्यालयों में अधिकारी व कर्मचारी नाम पट्टिकाएं तथा उनके परिचय पत्र हिन्दी भाषी बनाए जा सकते हैं। कार्यालय संबंधी पत्र व्यवहार/बैठकें/संगोष्ठीयां/विचार विमर्श इत्यादि कार्य अधिक से अधिक हिन्दी भाषा में हो सकते हैं।
जन-जन की सम्पर्क भाषा हिन्दी को राजभाषा में भली प्रकार विकसित करने का प्रयास सरकारी या स्वयं सेवी संस्थांओं द्वारा मात्र खानापूर्ति के आयोजनों तक ही सीमित होकर न रह जाए। इसके लिए प्रांतीय, शहरी और ग्रामीण स्तर के बाजारों में तथा सार्वजनिक स्थलों पर जैसे स्वयं सेवी संस्थाओ, दुकानों, पाठशालाओं, विद्यालयों, विश्व विद्यालयों रेलवे स्टेशनों और वाहनों आदि के नाम, परिचय, सूचना पट्ट इत्यादि हिन्दीभाषा में लिखकर यह अवश्य ही सुनिश्चित किया जा सकता है कि भारत देश की राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा हिन्दी है और हिन्दी ही उसकी अपनी राजभाषा है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक और असम से सौराष्ट्र तक भारत एक अखण्ड देश है। हिन्दी भाषा अपने आप में हिन्द देश को सुसंगठित एवं अखण्डित बनाए रखने में पूर्ण सक्षम है। वह विश्व में अंग्रेजी के समकक्ष होने में हर प्रकार से समर्थ है।
23 नवंबर 2008 कश्मीर टाइम्स
श्रेणी: आलेख
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8. राष्ट्रीय समर्थ भाषा
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7. ज्ञान चालीसा
आलेख - कश्मीर टाइम्स 16.11.2008
योग्य गुरु एवंम योग्य विद्यार्थी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त विद्या से विद्यार्थी का हृदय और मस्तिष्क प्रकाशित होता है l अगर विद्या प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील द्वारा बार-बार प्रयत्न करने पर भी असफलता मिले तो उसे कभी जल्दी हार नहीं मान लेनी चाहिए बल्कि ज्ञान संचयन हेतु पूर्ण लगनता के साथ और अधिक श्रम करना चाहिए ताकि उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न रह जाये l
1. लोक भ्रमण करने से विषय वस्तु को भली प्रकार समझा जाता है l
2. साहित्य एवंम सदग्रंथ पड़ने से विषय वस्तु का बोध होता है l
3. सुसंगत करने से विषयक ज्ञान-विज्ञान का पता चलता है l
4. अधिक से अधिक जिज्ञासा रखने से ज्ञान-विज्ञान जाना जाता है l
5. बड़ों का उचित सम्मान और उनसे शिष्ट व्यवहार करने से उचित मार्गदर्शन मिलता है l
6. आत्म चिंतन करने से आत्मबोध होता है l
7. सत्य निष्ठ रहने से संसार का ज्ञान होता है l
8. लेखन-अभ्यास करने से आत्मदर्शन होता है l
9. अध्यात्मिक दृष्टि अपनाने से समस्त संसार एक परिवार दिखाई देता है l
10. प्राकृतिक दर्शन करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है l
11. सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगन्धित बनता है l
12. शैक्षणिक वातावरण बनाने से ज्ञान विज्ञान का विस्तार होता है l
13. कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l
14. कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग लेने से आत्मविश्वास बढ़ता है l
15. दैनिक लोक घटित घटनाओं पर दृष्टि रखने से स्वयं को जागृत किया जाता है l
16. समय का सदुपयोग करने से भविष्य प्रकाशमान हो जाता है l
17. कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l
18. उच्च विचार अपनाने से जीवन में सुधार होता है l
19. आत्मविश्वास युक्त कठोर श्रम करने से जीवन विकास होता है l
20. मानवी ऊर्जा ब्रह्मचर्य का महत्व समझ लेने और उसे व्यवहार में लाने से कार्य क्षमता बढ़ती है l
21. मन में शुद्धभाव रखने से आत्म विश्वास बढ़ता है l
22. कर्मनिष्ठ रहने से अनुभव एवंम कार्य कुशलता बढ़ती है l
23. दृढ निश्चय करने से मन में उत्साह भरता है l
24. लोक परम्पराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है l
25. स्थानीय लोक सेवी संस्थाओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का अवसर मिलता है l
26. संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पर्व मनाने से राष्ट्र की एकता एवंम अखंडता प्रदर्शित होती है l
27. स्वधर्म निभाने से संसार में अपनी पहचान बनती है l
28. प्रिय नीतिवान एवंम न्याय प्रिय बनने से सबको न्याय मिलता है l
29. स्वभाव से विनम्र एवंम शांत मगर शूरवीर बनने से जीवन चुनौतिओं का सामना किया जाता है l
30. निडर और धैर्यशील रहने से जीवन का हर संकट दूर होता है l
31. दुःख में प्रसन्न रहना ही शौर्यता है l वीर पुरुष दुःख में भी प्रसन्न रहते है l
32. निरंतर प्रयत्नशील रहने से कार्य में सफलता मिलती है l
33. परंपरागत पैत्रिक व्ययवसाय अपनाने से घर पर ही रोजगार मिल जाता है l
34. तर्क संगत वाद-विवाद करने से एक दूसरे की विचारधारा जानी जाती है l
35. तन, मन, और धन लगाकर कार्य करने से प्रशंसकों और मित्रों की वृद्धि होती है l
36. किसी भी प्रकार अभिमान न करने से लोकप्रियता बढ़ती है l
37. सदा सत्य परन्तु प्रिय बोलने से लोक सम्मान प्राप्त होता है l
38. अनुशासित जीवन यापन करने से भोग सुख का अधिकार मिलता है l
39. कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग सुख और यश प्राप्त होता है l
40. निःस्वार्थ भाव से सेवा करने से वास्तविक सुख व आनंद मिलता है l
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6. कब तक होती रहेगी राजभाषा की अनदेखी
आलेख – संस्मरण कश्मीर टाइम्स 9.11.2008
क्या हिंदी “हिन्द की राजभाषा” को व्यवहारिक रूप में जन साधारण तक पहुँचाने में कोई बाधा आ रही है ? अगर हाँ तो हम उसे दूर करने में क्या प्रयास कर रहे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना ज्यादा जरूरी है l
मुझे भली प्रकार याद है, दिनाक 29 फरवरी 2008 का दिन था l मैं अपार जन समूह में लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में बैठा हुआ अति प्रसन्न था l मुझे वहां पहली वार बैठने का अवसर मिला था l हम सब वहां पर आयोजित केन्द्रीय भूजल बोर्ड व सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य विभाग (हि०प्र०) के अधिकारियों/कर्मचारियों की संयुक्त बैठक में भाग लेने गए हुए थे जिसकी अध्यक्षता सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य मंत्री ने की थी l
सभागार में हर कोई खामोश, कार्रवाई प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था l राज्य के सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य मंत्री माननीय रविन्द्र रवि जी और चिन्मय स्वामी आश्रम संस्था की निदेशिका डा० क्षमा मैत्रय जी, के आने के पश्चात् सभागार की कार्रवाई शुरू हुई और हमारे कान खड़े हो गए l आरम्भ में, सिंचाई एवंम जन स्वास्थ्य मंत्री माननीय रविन्द्र रवि जी और चिन्मय स्वामी आश्रम संस्था की निदेशिका डा० क्षमा मैत्रय जी, के संभाषण से भारतीयता की झलक अवश्य दिखाई दी l दोनों के संबोधन/भाषण हिंदी भाषा में हुए जिनमें देश के गौरव की महक आ रही थी l
मुझे पूर्ण आशा थी कि भावी कार्रवाई भी इसी तरह चलेगी परन्तु विलायती हवा के तीव्र झोंके से रुख बदल गया और देखते ही देखते सभागार से हिंदी भाषा सूखे पीपल के पत्ते की भान्ति उड़कर अमुक दिशा में न जाने कहाँ खो गई l जिसका वहां किसी ने पुनः स्मरण तक नहीं किया – जो भी बोला, जिस किसी ने किसी से पूछा या जिसने कहा, मात्र अंग्रेजी भाषा में ही था l
उस समय मुझे ऐसा लगा मानों हम सब लधु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद में बैठे हुए कार्रवाई देख रहे हों, अंतर मात्र इतना था कि हमारे सामने गोरे अंग्रेज नहीं बल्कि काले अंग्रेज – स्वदेशी अपने ही भाई थे l वो समाज को बताना चाहते थे कि वे गोरे अंग्रेजों से कहीं अधिक बढ़िया अंग्रेजी भाषा बोल और समझ सकते हैं l उनकी अंग्रेजी भाषा, हिंदी भाषा से ज्यादा प्रभावशाली है l अंग्रेजी भाषा में उनका ज्ञान देश की आम जनता आसानी से समझ सकती है l मुझे तो वहां अंग्रेजी साम्राज्य की बू आ रही थी – भले ही वह भारत में कब का समाप्त हो चुका था l
अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना कोई बुरी बात नहीं है l उसे बोलने से पूर्व देश, स्थान और श्रोता का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी है l वह लघु सचिवालय अपना थल वहां बठे सभी लोग अपने थे फिर भी वहां सबके सामने राजभाषा हिंदी की अवहेलना और अनदेखी हुई l बोलने वाले लोग हिंदी भूल गए, जग जान गया की सचिवालय में राजभाषा हिंदी का कितना प्रयोग होता है और उसे कितना सम्मान दिया जाता है !
ऐसा लगा मानों सचिवालय में मात्र दो महानुभावों को छोड़कर अन्य किसी को हिंदी या स्थानीय भाषा आती ही नहीं है l हाँ, वे सब पाश्चात्य शिक्षा की भट्टी में तपे हुए अंग्रेजी भाषा के अच्छे प्रवक्ता अवश्य थे l वे अंग्रेजी भाषा भूलने वाले नहीं थे क्योंकि उन्होंने गोरे अंग्रेजों द्वारा विरासत में प्रदत भाषा का परित्याग करके उसका अपमान नहीं करना है l वे हिंदी भाषा बोल सकते थे पर उन्होंने सचिवालय में राजभाषा हिंदी का प्रयोग करके उसे सम्मानित नहीं किया, कहीं उनसे गोरे अंग्रेज नाराज हो जाते तो ---!
भारत या उसके किसी राज्य का चाहे कोई लघु सचिवालय हो या बड़ा, राज्य सभा हो या लोकसभा अथवा न्यायपालिका वहां पर होने वाली सम्मानित राजभाषा हिंदी में किसी भी जनहित कार्रवाई, बातचीत अथवा संभाषण के अपरिवर्तित मुख्य अंश मात्र उससे संबंधित विभागीय कार्यालय या अधिकारी तक सीमित न होकर ससम्मान राष्ट्र की विभिन्न स्थानीय भाषाओँ में, उचित माध्यमों द्वारा जन साधारण वर्ग तक पहुँचाने अति आवश्यक हैं l उनमें पारदर्शिता हो ताकि जन साधारण वर्ग भी उनमें सहभागीदार बन सके और सम्मान सहित जी सके l उसके द्वारा प्रदत योगदान से क्या राष्ट्र का नवनिर्माण नहीं हो सकता ? उसका लोकतंत्र में सक्रिय योगदान सुनिश्चित होना चाहिए जो उसका अपना अधिकार है l इससे वह दुनियां को बता सकता है कि भारत उसका भी अपना देश है l वह उसकी रक्षा करने में कभी किसी से पीछे रहने वाला नहीं है l
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5. हमारी हिन्दी भाषा
12 अक्तूबर 2008 कश्मीर टाइम्स
यह सत्य है कि हमारे देश के लोग, उनका रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार, राष्टीय भौगोलिक स्थिति, जलवायु और उत्पादन से देश की सभ्यता और संस्कृति को बल मिलता है। उससे भारत की पहचान होती है। अगर कभी इसमें विद्यमान गुण व दोषों को समाज के सम्मुख अलिखित रूप में व्यक्त करना पड़े तो हम उस माध्यम को भाषा का नाम दे सकते हैं।
सर्वसुलभ भाषा का यथार्थ ज्ञान हमारी राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति का संसाधन हो सकता है, चाहे वह हिन्दी ही क्यों न हो? उसका देश के प्रत्येक बच्चे से लेकर अभिभावक, गुरु, प्रशासक और राजनेता तक को भली प्रकार ज्ञान होना अति आवश्यक हैं।
समय की मांग के अनुसार भारत के विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने के लिए सरकारी या स्वयं सेवी संगठनों द्वारा जो प्रयास हो रहे हैं उनमें हिन्दी सप्ताह या हिन्दी पखवाड़ा सर्वोपरि रहा है। इससे लोगों में हिन्दी के प्रति नव चेतना जागृत हुई है। निरन्तर प्रयास जारी रखने की महती आवश्यक है।
हिन्दी भाषा, अंतर्राष्ट्रीय भाषा में परिणत हो कर अंग्रेजी भाषा के कद तुल्य बने, इसमें भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटलबिहारी वाजपयी का योगदान सराहनीय रहा है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के सभा मंच पर हिन्दी में भाषण देकर विश्व में हिन्दी का मान बढ़ाया है। इसे और प्रभावी बनाने के लिए अनिवार्य है कि देश के सरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-ज्ञान का समुचित विकास हो। लोगों में शुद्ध हिन्दी लेखन-अभ्यास रुके बिना जारी रहे। लोग आपस में प्रिय हिन्दी भाषी संबोधनों का निःसंकोच प्रयोग करें और वे जब भी आपस में वार्तालाप करें, शुद्ध हिन्दी भाषा का उच्चारण करें।
हिन्दी भाषा को राजभाषा का ससम्मान स्थान दिलाने की कल्पना वर्षों पूर्व हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने की थी। उनका सपना तभी साकार हो सकता है जब हम अपने बच्चों को अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी माध्यम की पाठशालाओं में भी प्रविष्ठ करेंगे। वहां से उन्हें हिन्दी का ज्ञान दिलाएंगे। वे शुद्ध हिन्दी लिखना, पढ़ना और उच्चारण करना सीखेंगे। वे पारिवारिक रिस्तों में मिठास घोलने वाले प्रिय हिन्दी भाषी संबोधनों से जैसे माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहन, भाभी-भाई, बहन-जीजा, चाची-चाचा, तायी-ताया, मामी-मामा, मौसी-मौसा कह कर पुकार सकेंगे और समाज में उनसे मिलने-जुलने वाले प्रिय बन्धुओं से भी उन्हीं जैसा व्यवहार करेंगे। क्या हम प्राचीनकाल की भांति आज भी समर्थ हैं? इस ओर हम क्या प्रयास कर रहे हैं?
भारत की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति से प्रेरित होकर आज का कोई भी नौजवान सहर्ष कह सकता है कि हम हिन्दीभाषी लोग विभिन्न भाषी क्षेत्रों के लोगों का इसलिए सम्मान करते हैं कि हम उन्हें अधिक से अधिक जान-पहचान सकें और हमारी राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता पहले से कई गुणा अधिक सुदृढ़ बन सके।
12 अक्तूबर 2008 कश्मीर टाइम्स
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4. और लम्बी होंगी बेरोजगार की शृंखलाएं
आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दना सितम्बर 2008
भारत में औद्योगिक क्रांति आने के पश्चात्, कल-कारखानों और मशीनों के बढ़ते साम्राज्य से असंख्य स्नातक, बेरोजगार की श्रृंखलाओं में खड़े नजर आने लगे हैं l उनके हाथों का कार्य कल-कारखाने और मशीनें ले चुकीं हैं l वह कठोर शरीर-श्रम करने के स्थान पर भौतिक सुख व आराम की तलाश में कल-कारखानों तथा मशीनों की आढ़ में बेरोजगार हो रहे हैं lभारत में वह भी समय था, जब हर व्यक्ति के हाथ में कोई न कोई काम होता था l लोग कठिन से कठिन कार्य करके अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण किया करते थे l कोई कहीं चोरी नहीं करता था l वे भीख मांगने से पूर्व मर जाना श्रेष्ठ समझते थे l कोई भीख नहीं मांगता था l इस प्रकार देश की चारों दिशाओं में मात्र नैतिकता का साम्राज्य था, सुख-शांति थी l मैकाले ने भारत का भ्रमण करने के पश्चात् 2 अक्तूबर 1835 में ब्रिटिश सरकार को अपना गोपनीय प्रतिवेदन सौंपते हुए इस बात को स्वीकारा था l
वर्तमान काल भले ही विकासोन्मुख हुआ है, पर विकासशील समाज सयंम, शांति, संतोष, विनम्रता आदर सम्मान, सत्य, पवित्रता, निश्छलता एवं सेवा-भक्ति भाव जैसे मानवीय गुणों की परिभाषा और आचार-व्यवहार भूल ही नहीं रहा है बल्कि वह विपरीत गुणों का दास बनकर उनका भरपूर उपयोग भी कर रहा है l वह ऐसा करना श्रेष्ठ समझता है क्योंकि मानवीय गुणों से युक्त किये गए कार्यों से मिलने वाला फल उसे देर से और विपरीत गुणों से प्रेरित कर्मफल जल्दी प्राप्त होता है l इस समय समाज को महती आवश्यकता है दिशोन्मुख कुशल नेतृत्व और उसका सही मार्गदर्शन करने की l
भारत में औद्योगिक क्रांति का आना बुरा नहीं है, बुरा तो उसका आवश्यकता से अधिक किया जाने वाला उपयोग है l हम दिन प्रतिदिन पूर्णतया कल-कारखानों और मशीनों पर आश्रित हो रहे हैं l यही हमारी मानसिकता बेकारी की जनक है l इजरायल जैसे किसी देश को ऐसी राष्ट्रीय नीति अवश्य अपनानी चाहिए जहाँ जनसंख्या कम हो l पर्याप्त जनसंख्या वाले भारत देश में कल-कारखानों और मशीनों से कम और स्नातक-युवाओं से अधिक कार्य लेना चाहिए l ऐसा करने से उन्हें रोजगार मिलेगा व बेरोजगारी की समस्या भी दूर होगी l स्नातक-युवा वर्ग को स्वयं शरीर-श्रम करना चाहिए जो उसे स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है l कल-कारखाने और मशीने भोग-विलास संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले संसाधन मात्र हैं, शारीरिक बल देने वाले नहीं l वह तो कृषि–बागवानी, पशु–पालन, स्वच्छ जलवायु और शुद्ध पर्यावरण से उत्पन्न पौष्टिक खाद्य पदार्थों का सेवन करने से प्राप्त होता है l
हमें स्वस्थ रहने के लिए मशीनों द्वारा बनाये गए खाद्य पदार्थों के स्थान पर, स्वयं हाथ द्वारा बनाये हुए ताजा खाद्य पदार्थों का अपनी आवश्यकता अनुसार सेवन करने की आदत बनानी चाहिए l
भारत सरकार व राज्य सरकारों को ऐसा वातावरण बनाने में पहल करनी होगी l उन्हें अपनी नीतियां बदलनी होंगी जो विदेशी हवा पर आधारित न होकर स्वदेशी जलवायु तथा वातावरण और संस्कृति के अनुकूल हो ताकि ग्रामाद्योग, हस्तकला उद्योग तथा पैतृक व्यवसायों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन मिल सके l उनके द्वारा बनाये गये सामान को उचित बाजार मिल सके और बेरोजगारी की बढ़ती समस्या पर नियंत्रण पाया जा सके l देश में कहीं पेयजल, कृषि भूमि और प्राणवायु की कमी न रहे l इसी में हमारे देश, समाज, परिवार और उसके हर जन साधारण का अपना हित है l