नवम्बर 2009 मातृवन्दना
यह बात सर्व विदित है कि भारत ऋषि मुनियों का देश रहा है। मनीषियों ने मानव जीवन को मुख्यता चार आश्रमों में विभक्त किया था। उनमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासाश्रमों के अपने विशेष सिद्धांत थे।, उच्च आदर्श थे। उनके अनुसार मनुष्य अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता हुआ अपार शक्तियों का स्वामी बन जाता था। भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी। जब मैकाले ने ऐसा भारत में देखा और जाना तो वह ईर्ष्यावश तिलमिला उठा। उसने भारत की इस उच्चस्तरीय जीवन पद्धति को हर प्रकार से नष्ट -भ्रष्ट करने तथा उसके स्थान पर निम्नतम स्तरीय शैली स्थापित करने का मन बना लिया। उसने ब्रिटिश संसद में जाकर एक वक्तव्य दिया जो भारत विरुद्ध महाशड्यंत्र था। वही वक्तव्य आगे चलकर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को लम्बे समय तक हरा-भरा बनाए रखने तथा उसका विस्तार करने हेतु भारत की नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शक्तियों का हृास करने वाला ब्रिटिश शासकों का सहायक नीतिशास्त्र बना।
मैकाले का उद्देश्य भारत को हर प्रकार से क्षीण-हीन, अपंग और निःसहाय बना कर उसमें ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को मजबूत करना था। समय-समय पर भारतीय संत-महात्माओं, समाज सुधारकों, नवयुवाओं, धार्मिक व राजनेताओं ने मैकाले की भारत विरोधी नीतियों का डट कर विरोध किया और अनेकों बलिदान दिए। उनके द्वारा लम्बे समय तक अथक प्रयासों और त्याग से ही बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय तथा हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई ताकि भारतीय संस्कृति की अखंड पहचान बनी रहे। उसका भली प्रकार विस्तार भी हो सके।
इस प्रकार 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश भर में सरकारी, गैर सरकारीविद्यालयों महाद्यिालयों और विश्वविद्यलयों से हमें जो दिव्य प्रकाश मिलने की आशा बनी थी वह एक बार फिर धूमिल हो गई। सरकार द्वारा इस ओर कोई प्रयास नहीं हुआ बल्कि उन अंग्रेजी फैक्टरियों व कारखानों से पहले की तरह निरंतर सस्ते बाबू और काले अंग्रेज बन कर निकलते रहे जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य की अवश्यकता मानी जाती थी।
इससे स्पष्ट होता है कि हम जिस गरिमा के साथ स्वतंत्रता को अंगिकार करने आगे बढ़े थे, वह गरिमा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् और अधिक तीव्र होने के स्थान पर लुप्तप्रायः हो गई है। स्वदेशी सस्कारों के स्थान पर पाश्चात्य संस्कार हमारी रग-रग में समा रहे हैं। अगर इस बढ़ती प्रवृत्ति को अतिशीघ्र रोका न गया तो भारत का एक बार फिर पराधीन होना निश्चित है। मत भूलो कि राष्ट्रीय सांस्कृतिक सदभावना, सहकार, प्रेम और एकता ही अखंड भारत के प्राण हैं।
वर्तमान में बहुत से कार्य मशीनों से किए जाते हैं। कार्य में असफल होने बाली मशीनों को कार्यशालाओं में ले जाकर मिस्त्री से ठीक भी करवा लिया जाता है, पर हमें देश भर में कहीं कोई ऐसी कार्यशाला दिखाई नहीं देती है जहां हमारी संस्कृति की त्रुटियों का अवलोकन व सुधार करके उसे पुष्ट भी किया जाता हो। हां पाश्चात्य संस्कृति बड़ी तेजी के साथ किसी बाधा के बिना भारतीय संस्कृति पर अवश्य छा रही है।
राष्ट्रीय संस्कृति के पोषक रह चुके गुरुकुलों के देश में -- विद्यालयों से लेकर विश्व विद्यालयों तक भारतीय संस्कृति की उपेक्षा होने के कारण पाश्चात्य संस्कृति के भरण पोषण को ही निर्विवाद रूप में बढ़ावा मिल रहा है। रही सही कसर वर्तमान सरकार द्वारा पूरी की जा रही है। इसके द्वारा विदेशियों का शिक्षा में प्रवेष के लिए अब रंगमंच तैयार किया जा चुका है। क्या इस तरह हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर पाएंगे? क्या हमारी संस्कृति दूसरों के लिए पुनः आदर्श बन पाएगी?
उपरोक्त बातों से स्पष्ट होता है कि एक ओर जहां आज भारत को मजबूत सीमाओं की आवश्यकता है तो दूसरी ओर उसके भीतर सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्यकुशल नवयुवाओं की भी आवश्यकता है जो भारतीय संस्कृति के संवाहक रूप में उसका पुनरुत्थान करने में पूर्णत्या सक्षम और समर्पित हों।
नवम्बर 2009 मातृवन्दना
श्रेणी: आलेख
-
1. भारतीय संस्कृति का संरक्षण आवश्यक
-
8. आदर्श समाज की कल्पना
6 सितम्बर 2009 दैनिक कश्मीर टाइम्स सामाजिक जन चेतना
आओ हम ऊँच-नीच का भेद मिटायें,
सब समान हैं, चहुँ ओर संदेश फैलायें l
भारतीय समाज में कोई जाति से बड़ा है तो कोई धर्म से, कोई पद से ऊँचा है तो कोई धनबल से l प्रश्न उठता है कि क्या ऐसा पहले भी होता था ? हाँ, होता था पर अब उसमें अंतर आ गया है l पहले हमारी सोच विकसित थी, हम हृदय से विशाल थे, हम निजहित से अधिक संसार का हित चाहते थे परन्तु वर्तमान में हमारी सोच बदल गई है l हमारा हृदय बदल गया है, हम मात्र निजहित चाहने लगे हैं l इसका मुख्य कारण यह है कि हम अध्यात्मिक जीवन त्यागकर निरंतर संसारिक भोग विलास की ओर अग्रसर हुए हैं l हमने योग मूल्य भूला दिए हैं जिनसे हमें सुख के स्थान पर दुःख ही दुःख प्राप्त हो रहे हैं l
देखा जाए तो यह बड़प्पन या ऊँचापन मिथ्या है l पर जो लोग इसे सच मानते हैं अगर उनमें से किसी एक बड़े को उसके माता-पिता के सामने ले जाकर यह पूछा जाये कि वह कितना बड़ा बन गया है तो उनसे हमें यही उत्तर मिलेगा – वह हमारे लिए अब भी बच्चा ही है और सदा बच्चा ही रहेगा l उसके जीवनानुभवों की उसके माता-पिता के जीवनानुभवों से कभी तुलना नहीं की जा सकती l माता-पिता की निष्काम भावना की तरह उसकी सोच का भी जन कल्याणकारी होना अति आवश्यक है l अगर वह ऐसा नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में उसे बड़ा या ऊँचा स्थान कदाचित नहीं मिल सकता l
हमारा समाज मिथ्याचारी, बड़प्पन और ऊँचेपन की दलदल में धंसा हुआ है l वह तरह-तरह के कुपोषण, अत्याचार, जातिवाद, छुआछूत, अमीर-गरीब और बाहुबली व्यक्तियों के द्वारा बल के दुरूपयोग से पीड़ित है, जो अत्याधिक चिंता का विषय है l
वास्तविकता तो यह है कि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं, उसका दिव्यांश हैं l वह कण-कण में समाया हुआ है l प्राणियों में मानव हमारी जाति है l भले ही हमारे कार्य विभिन्न हैं पर हमारा धर्म “सनातन धर्म” है l इसलिए वैश्विक भोग्य सम्पदा पर हम सबका अपनी-अपनी योग्यता एवं गुणों के अनुसार अधिकार होना चाहिए l किसान और मजदूर खेतों में कार्य करते हैं तो विद्वान् लोग उनका मार्ग दर्शन भी करते हैं l
जिस व्यक्ति का जितना ऊँचा स्थान होता है उसके अनुसार उसकी उतनी बड़ी जिम्मेदारी भी होती है l उसे पूरा करना उसका कर्तव्य होता है l उससे वह भ्रष्टाचार, किसी का कुपोषण, किसी पर अत्याचार, करने हेतु कभी स्वतंत्र नहीं होता है l बलशाली मनुष्य द्वारा उसके बल–पराक्रम का वहीँ प्रयोग करना उचित है जहाँ समाज विरोधी तत्व सक्रिय हों या वे अनियंत्रित हों l
मनुष्य का बड़प्पन या उन्चापन उसके कार्य से दीखता है न कि उसके जन्म या वंश से l मनुष्य को चाहिए कि वह मानव जाति के नाते सब प्राणियों के साथ मनुष्यता का ही व्यवहार करे l उससे न तो किसी का कुपोषण होता है न किसी से अन्याय, न किसी पर अत्याचार होता है और न किसी का अपमान l सबमें बिना भेदभाव के समानता बनी रहती है l वैश्विक सम्पदा पर यथायोग्यता अनुसार स्वतः अधिकार बना रहता है l प्रशासनिक व्यवस्था सबके अनुकूल होती है l लोग उसका आदर करते हैं l इससे लोक संस्कृति की संरचना, संरक्षण, और संवर्धन होता है l
मनुष्य जाति में पाया जाने वाला अंतर मात्र मनुष्य द्वारा किये जाने वाले कर्मों व उसके गुणों के अनुसार होता है l सद्गुण किसी में कम तो किसी में अधिक होते हैं l वे सब आपस में कभी एक समान नहीं होते हैं l इसलिए हमें सदा एक दुसरे का सम्मान करना चाहिए l
इससे हम छुआछूत, सामाजिक, आर्थिक, एवं न्यायिक असमानता को बड़ी सुगमता से दूर कर सकते हैं l हमारा हर कदम राम-राज्य की ओर बढ़ता हुआ एक आदर्श समाज की कल्पना को साकार कर सकता है l
प्रकाशित 6 सितम्बर 2009 दैनिक कश्मीर टाइम्स
-
7. पालीथीन प्रतिबंधित हुआ, परन्तु —
12 जुलाई 2009 कश्मीर टाइम्स पर्यावरण चेतना
हिमाचल सरकार पालीथीन पर प्रतिबंध लगा चुकी है l जम्मू कश्मीर सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया है l इन प्रांतीय सरकारों का यह कार्य प्रयास चहुँ ओर प्रशंसनीय रहा है l अब इन प्रान्तों के शहर व गाँव की गलियों व नालियों पालीथीन लिफ़ाफ़े तो कम अवश्य हुए हैं पर वह अभी समाप्त नहीं हुए हैं l उन पर मात्र प्रतिबंध लगा है l सरकार द्वारा लगाया गया यह प्रतिबन्ध, पूर्ण प्रतिबन्ध सार्थक तब होगा जब पालीथीन परिवार के अन्य हानिकारक उत्पादों का जन साधारण द्वारा विरोध किया जायेगा l पालीथीन का उत्पादन एवम प्रयोग होना बंद हो जायेगा l
देखने में आ रहा है कि अनाज, दालें, तिलहन, दूध, दही, पनीर, मक्खन, घी, सब्जी, टाफी, तथा श्रृंगार का सामान मोमी पारदर्शी लिफाफों, प्लास्टिक की बोतलों में सिले सिलाये वस्त्र प्रिंटिंग मोमी थैलों और डिब्बों में पैक करके बाजार में ग्राहकों को बेचे जाते हैं जो पर्यावरण हित में नहीं है l
गंदे पालीथीन, मोमी पारदर्शी लिफ़ाफों को खाकर पशु मर जाते हैं l नालियां गंदगी से अवरुद्ध हो जाती हैं l स्वाइन फ्लू जैसे भयानक जानलेवा घातक रोग पैदा होते हैं l गंदा पानी रिसकर पेयजल स्रोतों की उपयोगिता नष्ट करता है l पालीथीन, मोमी लिफ़ाफों से पेयजल स्रोत अवरुद्ध हो जाते हैं l वे अपना या तो जल प्रवाह की दिशा बदल लेते हैं, या नष्ट हो जाते हैं l
पालीथीन, मोमी लिफ़ाफे लम्बे समय तक नष्ट नहीं होते हैं l उनसे खेतों की उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाती है l खेत बंजर हो जाते हैं l बरसात के दिनों में जगह-जगह पर गंदे पालीथीन, मोमी पारदर्शी लिफ़ाफों से गंदगी फ़ैल जाने से सफाई कर पाना अति कठिन हो जाता है l इसका यह अर्थ हुआ कि हम सफाई पससंड नहीं करते हैं l हम दूसरों का सफाई का कार्यभार कम करने की अपेक्षा उसे और अधिक बढ़ा देते हैं l
बात स्पष्ट है कि पालीथीन, मोमी लिफ़ाफे, प्लास्टिक की बोतलें व पैकिंग का सामान बनाने की वर्तमान वैज्ञानिक तकनीक पर्यावरण विरुद्ध है l वह पर्यावरण मित्र न होकर, शत्रु बन चुकी है l वैज्ञानिकों के द्वारा अब नई एक ऐसी तकनीक विकसित करनी होगी जो पर्यावरण की अविलम्ब निर्विघ्न सुरक्षा कर सके जिससे पर्यावरण विरोधी उत्पादों की वृद्धि न हो बल्कि पर्यावरण स्वच्छ एवं संतुलित बन सके l
पर्यावरण में बढ़ता हुआ तापमान और निरंतर पिघलते हुए ग्लेशियर इस बात का प्रमाण हैं कि हमारा भविष्य सुरक्षित नहीं है l हमें भविष्य में कल-कल करती नदिया, झर-झर करते झरने, मीठे-मीठे जल के चश्मे और मनमोहक झीलें कहीं दिखाई नहीं देंगी l शुद्ध पेयजल स्रोत सुरक्षित न रहने के कारण हम रोग मुक्त एवं सुरक्षित नहीं रहेंगे, ऐसा जानते हुए भी हम पर्यावरण विरुद्ध कार्य कर रहे हैं l
सावधान ! हमें पर्यावरण विरुद्ध किये जाने वाले ऐसे सभी कार्य तत्काल बंद कर देने होंगे और एक ऐसी तकनीक विकसित करनी होगी जिससे मानव जाति में पर्यावरण प्रेम जागृत हो l वह निजहित की चार दीवारी से बाहर निकलकर जनहित एवं समाज कल्याण के कार्य करे l उससे किसी जानमाल की हानि न हो l हर तरफ हर कोई सुख शांति से जी सके l
सरकार द्वारा पर्यावरण सुरक्षा बनाये रखने हेतु ऐसा विधेयक पारित किया जाना चाहिए जिससे उत्पादकों को विशेष निर्देश दिया गया हो कि वे अपने यहाँ उत्पादित उपयोगी पालीथीन, मोमी लिफ़ाफे, प्लास्टिक की बोतलें व पैकिंग के सामान पर वैधानिक चेतावनी लिखने के साथ-साथ उन्हें अनुपयोगी हो जाने पर, जल्द नष्ट करने या रिसाईकलिंग करने की विधि भी सुनिश्चित करें जिससे पर्यावरण असंतुलन और प्रदूषण रोकने में सरकार को जन साधारण का सहयोग मिल सके l
अतः पालीथीन तो अभी प्रतिबंधित हुआ है l उस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना शेष है l आइये ! हम सब वैज्ञानिक, उत्पादक, भंडार पाल, व्यापारी, दुकानदार, ग्राहक और गृहणिया सरकार द्वारा पालीथीन विरुद्ध लगाये गए प्रतिबंध को पूर्ण प्रतिबंध में परिणत करने हेतु रचनात्मक एवं सकारात्मक कार्य करें और उन सब वस्तुओं को सदा के भूल जायें जिनसे पर्यावरण असंतुलन और प्रदूषण बढ़ता और फैलता है l इन्हें भूल जाने में ही हमारी सबकी समझदारी और भलाई है l
प्रकाशित 12 जुलाई 2009 कश्मीर टाइम्स
-
6. भारतीय शिक्षा-प्रणाली
28 जून 2009 कश्मीर टाइम्स
प्रिय होने के नाते आदि काल से ही भारतवर्ष महान पुरुषों का देश रहा है। उनमें श्री राम, श्री कृष्ण , गुरु नानक देव, आदि गुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द जी का नाम सर्वोपरि है।
इन महान पुरुषों के जीवन चरित्रों का अध्ययन, चिन्तन-मनन करने से हमें अनेकों ऐसे दीप्त ज्ञान-स्तंभ दिखाई देते हैं जिनके प्रकाश में समग्र मानव जाति का कल्याण होना निश्चित है।
इस समय आवश्यकता इस बात की है कि पहले हम स्वयं उन दिव्य ज्ञान-स्तंभों की भली भांति पहचान कर लें और फिर उनके बारे में दूसरों को भी बताएं। अतः स्थानीय गुरु के सानिध्य में, गुरु व शिष्य के मध्य मानवीय, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, धार्मिक, साहित्यिक, ज्ञान-विज्ञान और कला-सांस्कृतिक विषयों के बारे में कुछ सीखने-सिखाने की प्रकिया ही का दूसरा नाम शिक्षा है। इसके बारे में स्वामी जी रामतीर्थ का कथन है - ‘‘वास्तविक शिक्षा का आदर्श यह है कि हम अपने भीतर से कितनी विद्या बाहर निकाल चुके हैं, यह नहीं कि बाहर से कितनी अन्दर डाल चुके हैं। सच्चा ज्ञान वही है जो सृष्टि के कल्याण के लिए उपयोगी हो।
आज के भारत को किस प्रकार की शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता है? आइए! हम इस गहन-गम्भीर प्रश्न का उत्तर पाने के लिए भारतीय महान पुरुषों के द्वारा स्थापित किए गए उन दिव्य ज्ञान-स्तम्भों का अवलोकन करें जो वर्तमान राजनैतिक इच्छा-शक्ति न होने पर भी हमारा पग-पग पर मार्ग-दर्शन कर रहे हैं।
आध्यात्मवादी शिक्षा
1 भेद-भाव रहित सबके लिए एक समान आध्यात्मिक शिक्षा ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, छूत-अछूत, छोटा-बड़ा, गोरा या काला की दीवारों और लिंग-भेद आदि से स्वयं सदैव अनभिज्ञ रहती है। आध्यात्मिक शिक्षा से समग्र मानव जाति का एक समान कल्याण होता है। इससे मानवात्माओं का परमात्मा से मिलन होता है। छात्र-छात्राओं के द्वारा गुरुजनों के सानिध्य में रह कर योग, ध्यान, प्राणायाम, संबंधी पुरुषार्थ करने पर आत्म शांति का मार्ग प्रप्रशस्त होता है।
2 यथार्थवादी शिक्षा सत्य-असत्य में ज्ञान-अज्ञान का भाव रखती है। गुण-अवगुण में लाभ-हानि का अन्तर समझाती है।?
भौतिक वादी शिक्षा
1 स्थानीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति उत्तरदायी शिक्षा मानव जाति, मानव के खान-पान, रहन-सहन, आचार-व्यवहार और परिवार के साथ-साथ स्थानीय भाषा , पहनावा, रीति-रिवाज तथा कला-संस्कृति की स्पष्ट झलक दर्शाने वाली है।
2 मानवीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा सदगुणों को बढ़ावा देती है। छोटों में बड़ों के प्रति श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास जगाती है। बड़ों में छोटों के प्रति सुस्नेह का वर्धन करती है। समर्थवानों में दुखियों के प्रति करुणा, दया, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना उपजाती है।
3 कलात्मक एवं व्यावसायिक शिक्षा से शिक्षार्थी कला अथवा व्यवसाय का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करता है जिससे वह अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करता है। इसी से वह समाज की यथा संभव तथा यथा शक्ति सेवा करता है।
4 नैतिक एवं व्यावहारिक शिक्षा से छात्र-छात्राओं को स्वयं जीने और समाज में रहने की कलाओं का ज्ञान होता है। वे सीखते हैं कि समाज में उन्हें स्वयं कैसे रहना है? उन्हें दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना है?
5 महिला संबंधी जीवनोपयोगी शिक्षा से छात्राओं को अपने जीवन की उपयोगिता का ज्ञान होता है। इससे उन्हें अपने कर्तव्यों और अधिकारों की पहचान होती है। इससे वे आत्म-रक्षा करना सीखती हैं। शादी के पश्चात ज्ञान के आधार पर ही वे अपने परिवार में, अपने बच्चों का भली-भांति पालन-पोषण करती हैं और समाज के प्रति सजग भी रहती हैं।
6 सहशिक्षा या छात्र-छात्राओं की संयुक्त शिक्षा से छात्र-छात्राओं को आपस में एक दूसरे से वार्तालाप करने और एक दूसरे को समझने का सुअवसर मिलता है। इससे उनका मानसिक, कार्मिक तथा वाचिक विकास तो होता है, साथ ही साथ उनमें विद्यमान संकोच की भावना भी नष्ट हो जाती है। छात्र मित्र की भांति छात्रा मित्र भी लक्ष्य प्राप्ति में अधिक विश्वास पात्र सिद्ध हो सकती है अगर वे दोनों अपने-अपने लक्ष्यों के प्रति जागरुक हों। वे दिव्य-पथ से भटक न पाएं इसलिए उनमें अपने-अपने लक्ष्य-वेधन के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति, शुद्ध भावना और कड़ी मेहनत के साथ-साथ ब्रहमचर्य जीवन का महत्व समझना तथा व्यावहारिक जीवन अपनाना अति आवश्यक है। इस प्रकार वे विशेष जीवनोपयोगी उर्जा संचित करते हुए पूर्ण स्नातक बनते हैं । इसी बल पर वे अपने होने वाले भावी गृहस्थ जीवन को सुखी बनाते हैं।
7 मितव्ययी उच्चशिक्षा कभी किसी को कहीं मिलती नहीं है बल्कि उसकी व्यवस्था करनी पड़ती है। इसके लिए सजग अभिभावकों, गुरुजनों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों को मिल कर एक मंच बनाना होता है और उसके लिए उन्हें समर्पित भाव से कार्य करना पड़ता है ताकि देश का कोई गरीब से गरीब होनहार प्रतिभाशाली अपने जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करने से कभी वंचित न रह सके।
8 स्वदेशी शिक्षा किसी स्वदेशी या विदेशी प्रशासक के द्वारा स्वदेशी शिक्षार्थी पर थोपी या लादी जाने वाली वस्तु नहीं है बल्कि स्वदेशी शिक्षक की अन्तरात्मा द्वारा उद्घोशित तथा आत्म स्वीकृत प्रतिभा का विषय है जिसे एक अनुभवी प्रतिभावान स्वदेशी शिक्षक ही उचित समय पर नवोदयी प्रतिभाशाली शिक्षार्थी को अपना क्षणिक मात्र सहारा दे सकता है। वह प्रतिभाशील उसका सहारा पा कर स्वयं प्रकाशित हो जाता है।
9 सशक्त एवं समर्थ शिक्षा शिक्षार्थी जीवन को समर्थ बनाती है। इससे राष्ट्र सशक्त एवं समर्थवान बनता है।
10 प्रदूषण मुक्त शैक्षिक वातावरण से मन, कर्म, वाणी के आचार-व्यवहार में शुद्धता आती है। व्यक्तित्व में निखार आता है और इससे प्रकृति एवं पर्यावरण को भी चार चांद लग जाते हैं।
11 आदर्श शिक्षा-प्रणाली की अपनी पहचान होती है। आदर्श शिक्षा-प्रणाली संसार में जन कल्याणकारी, रचनात्मक एवं व्यावहारिक ज्ञान का प्रकाश फैलाती है। इससे मानसिक, कार्मिक, तथा वाचिक अज्ञान नष्ट होता है।
12 विकासशील राष्ट्रीय प्रमाणिक पाठयक्रम पर आधारित शिक्षा से युवावर्ग की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियों का विकास होता है। इसी से राष्ट्र की अपनी पहचान और उसकी शक्ति का संवर्धन होता है। युवा वर्ग राष्ट्र के प्रति सेवा एवं भक्ति भाव वाला होता है।
13 राजनैतिक हस्तक्षेप मुक्त शैक्षिक प्रशासनिक और प्रबंधन से शिक्षा-तन्त्र ठोस, सुरक्षित, गतिशील रहता है। शैक्षिक प्रशासन और प्रबंधन से सतर्कता, तत्परता, पारदर्शिता और कार्यकुशलता का होना अति आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति सर्वदा राजनैतिक हस्तक्षेप मुक्त वरिष्ट शिक्षाविदों के संरक्षण में मात्र स्वशासित राष्ट्रीय शैक्षनिक अनुसन्धान एवं[प्रशिक्षण संस्थान ही कर सकती है।
14 योग्य शिक्षक योग्य शिक्षार्थी का निर्माता होता है इसलिए शिक्षक का योग्य होना अनिवार्य है।
15 योग्य शिक्षार्थी ही राष्ट्र का योग्य नागरिक बनता है अतः शिक्षार्थी का योग्य होना अति आवश्यक है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत की आध्यात्मिक एवं भौतिकवादी संयुक्त शिक्षा-प्रणाली ही भारत का अपना मूल दर्पण है। अगर किसी जिज्ञासु को भारत-दर्शन करना है तो उसे मार्ग-दर्शन पाने हेतु पहले गुरुजनों के द्वारा संरक्षित भारत की गुरुकुल प्रधान भारतीय शिक्षा-प्रणाली का एक बार अवलोकनअवश्य कर लेना चाहिए।
28 जून 2009 कश्मीर टाइम्स
-
5. दिल प्रीतम का घर है
19 अप्रैल 2009 दैनिक कश्मीर टाइम्स
महात्मा गांधी जी का कथन है कि जिस तरह हमें अपना शरीर कायम रखने के लिए भोजन जरूरी है, आत्मा की भलाई के लिए प्रार्थना कहीं उससे भी ज्यादा जरूरी है। प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं वरन हृदय से होता है। इसलिए गूंगे , तुतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। जीभ पर अमृत - राम नाम हो और हृदय में हलाहल - दुर्भावना तो जीभ का अमृत किस काम का?
उपरोक्त विचारों से स्पष्ट है कि प्रार्थना या भजन हृदय से किया जाता है जिससे मनुष्य का हृदय शुद्ध होता है। ऐसा करने के लिए उसे वाह्य संसाधनों अथवा संयत्रों की कभी आवश्यकता नहीं होती है बल्कि उसे आत्मावलोकन एवं स्वाध्य करना होता है आत्म शुद्धि करनी होती है। जिस मनुष्य के हृदय में दुर्भावना एवं अज्ञान होता है वह समाज का न तो हित चाहता है और न कभी भलाई के कार्य ही करता है।
इसी कारण आज देश का प्रत्येक व्यक्ति, परिवार गांव और शहर पलपल ध्वनि प्रदूषण का शिकार हो रहा है। उसकी दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। उससे समस्त जन जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। ध्वनि प्रदूषण के कारण समाज में बहरापन रोग भी बढ़ रहा है। इसका उत्तरदायी कौन है?
वर्तमान में विवाह, पार्टी, घर व दुकानों में रेडियो दूरदर्शन, टेपरिकार्डर, डैक एवं मंदिर, गुरुद्वारा मस्जिद पर टंगे बड़े-बड़े स्पीकर तथा जगराता पार्टियां बे रोक-टोक ध्वनि प्रदूषण फैला रहे हैं।
बच्चों के पढ़ने व रोगी के आराम करने के समय पर संयत्रों के उच्च स्वर सुनाई देते हैं। उनसे मनचाहा उच्च स्वरोच्चारण होता है। शायद ऐसा करने वाले भक्तजन व विद्वान लोगों को भजन कीर्तन सुनना कम और सुनाना ज्यादा अच्छा लगता होगा। क्या उससे बच्चे पढ़ाई कर पाते है? क्या इससे किसी दुःखी, पीड़ित या रोगी को पूरा आराम मिल पाता है?
स्मरण रहे कि प्रार्थना या भजन स्पीकरों या डैक से नहीं मानसिक या धीमी आवाज में ही करना श्रेष्ठ व हितकारी है। उससे किसी को दुःख या कष्ट नहीं होता है। इसी कारण बहुत से लोग आत्मचिंतन करते हैं तथा मानसिक नाम का जाप करते हैं। उन्हें किसी को सुनाने की आवश्यकता नहीं होती है।
रोगी, दुखियों को कष्ट पहुंचाना और विद्यार्थियों की पढ़ाई में बाधा डालना इंसान का नहीं शैतान का कार्य है। अगर हम मनुष्य हैं तो हमें मनुष्यता धारण कर मनुष्य के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार आवश्य करना चाहिए, शैतान सा नहीं।
प्रार्थना या भजन करना हो तो हृदय से करो, वह जीवनामृत है। शैतान और अज्ञानी होकर विभिन्न संयत्रों से उच्च स्वर बढ़ाकर उसे समाज के लिए विष मत बनाओ।
समाज में ध्वनि प्रदूषण न फैल सके, इसके लिए प्रशासन के द्वारा ध्वनि विस्तार रोधक कानून से अंकुश लगाया जाना आवश्यक है। हम सबको इस कार्य में योगदान करना चाहिए। किसी ने ठीक ही कहा है कि दिल एक मंदिर है। प्यार की जिसमें होती है पूजा, वह प्रीतम का घर है।
19 अप्रैल 2009 दैनिक कश्मीर टाइम्स