ब्रह्मभाव में स्थिर रहकर, ब्रह्मतत्व का विश्वकल्याण हेतु प्रचार-प्रसार करने वाला ब्रह्मज्ञानी, ज्ञानवीर होता है।
क्षत्रियभाव में स्थिर रहकर, जन, समाज और राष्ट्र हित में जान-माल की रक्षा करने वाला, शूरवीर होता है।
वैश्यभाव में स्थिर रहकर, गौसेवा, कृषि और व्यापर से जन, समाज और राष्ट्र हित में कार्य करने वाला, धर्मवीर होता है।
शुद्रभाव में स्थिर रहकर, हस्त-ललित कला, लघु एवं कुटीर उद्दोग धंधों से जन, समाज और राष्ट्र हित में कार्य करने वाला, कर्मवीर होता है।
ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर और कर्मवीर एक दूसरे के पूरक हैं।
श्रेणी: राष्ट्रीय भावना
-
श्रेणी:राष्ट्रीय भावना
सशक्त जनसेवक
-
श्रेणी:राष्ट्रीय भावना
समाज एवं राष्ट्र की सुरक्षा के मानदंड
व्यक्तिगत और पारिवारिक सुरक्षा से बड़ी सामाजिक सुरक्षा है और सामाजिक सुरक्षा से अधिक महत्वपूर्ण राष्ट्र की सुरक्षा है। अतएव देश के भविष्य हेतु हमारे युवाओं को कुछ मानदंड स्थापित करने होंगे जिनके लिए उन्हें निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना होगा
1 मानव समाज सदैव वीरों की पूजा करता है, कायरों की नहीं।
2 समाज में वीरों को उनके कार्य कौशल, तत्वज्ञान, पराक्रम और कर्तव्य परायणता से जाना जाता है।
3 गीदड़ों के झुण्ड में शेर की दहाड़ अलग ही सुनाई देती है।
4 व्यक्ति, समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र का अहित एवं अनिष्ट करने वाले भ्रमित, अहंकारी एवं स्वार्थी लोग क्रोध व हिंसा को जन्म देते हैं।
5 अगर समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र में मंहगाई, अभाव, जमा व मुनाफाखोरी और आर्थिक संकट-घोटाला के साथ-साथ अन्य समस्याएं पैदा हों तो समझो वहां अव्यवस्था, दुराचार, अनीति और अधर्म विद्यमान है।
6 स्पष्ट रूप से परिभाषित किए हुए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुशासित जनांदोलन के प्रयास से लोगों को अपने उद्देश्य में सफलता अवश्य मिलती है।
7 लोगों का शांत और मर्यादित सत्यग्रह सोए हुए प्रशासन को जगाने का अचूक रामबाण है।
8 इतिहास साक्षी है कि कर्फ्यू , आंसू गैस लाठी और गोली प्रहार से जनांदोलन कुचलने वाले स्वार्थी एवं अहंकारी शासको की सदा हार हुई है।
9 सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगंधित बनता है।
10 लोक परंपराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है।
11 स्थानीय लोक सेवी संस्थाओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का समय मिलता है।
12 तन, मन और धन से समाज की सेवा करने से प्रशंसकों और मित्रों की वृद्धि होती है।
13 कमजोर युवाओं से समाज कभी सुरक्षित नहीं रहता है।
राष्ट्रीय सुरक्षा
14 क्षेत्र, भाषा , जाति, धर्म, रंग, लिंग, मत भेदभाव पूर्ण बातों को साम्प्रदायिक रंग देने वाला व्यक्ति या दल राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और सद्भावना का दुश्मन होता है।
15 राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता प्रदर्शित करने वाले नारों से जनता में देश प्रेम की उर्जा का संचार होता है।
16 राष्ट्रीय सुख-समृद्धि की रक्षा हेतु समाज विरोधी अधर्म, दुराचार, असत्य और अन्याय के विरुद्ध उचित कार्रवाई करने वाला प्रशासन सर्वहितकारी होता है।
17 बंद, चक्काजाम, और हड़ताल के आह्वान पर आवेश में आकर यह कभी मत भूलो कि उपद्रव करने से जन साधारण, समाज, क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र की कितनी हानि होती है।
18 कर्मवीर अपने कर्म से, ज्ञानवीर ज्ञान से, रणवीर पराक्रम से और धर्मवीर कर्तव्य पालन करके आसामाजिक तत्वों का मुंहतोड़ उत्तर देते हैं।
19 कठिन परिस्थितियों में भी वीर घबराते नहीं हैं बल्कि संगठित रहकर उनका डटकर सामना करते हैं।
20 सच्चे वीरों का गर्म खून और शीतल मस्तिष्क सदैव सर्वहितकारी एवं धार्मिक कार्यो में सक्रिय और तत्पर रहता है।
21 राष्ट्रहित में – सच्चे वीर रणक्षेत्र में अपना रण.कौशल दिखाते हुए दिग्विजयी होते हैं या फिर युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करते हैं।
22 संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पर्व मनाने से राष्ट्र की एकता एवं अखंडता प्रदर्शित होती है।
23 जनहित एवं सद्भावना से प्रेरित बातों के समक्ष अलगाव की भावना निष्प्राण हो जाती है।
24 वही विवेकशील नौजवान अपने समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र को सुरक्षित रखते हैं जो स्वयं अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहते हैं।
25 वही युवा पीढ़ी राष्ट्र की रीढ़ है जो सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्य कुशल है।
26 वास्तव में वीरों की परीक्षा रणक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र, कार्यक्षेत्र और धर्मक्षेत्र में होती है।जनवरी 2014
मातृवन्दना
-
श्रेणी:राष्ट्रीय भावना
समृद्ध भारत और उसकी गरिमा
विश्व में भारत आर्यवर्त के नाम से जाना जाता था। उसे समृद्धि के उच्चासन पर सुशोभित करने का श्रेय देश के उन वीर व वीरांगनाओं को जाता है जो भारत के इतिहास में नक्षत्रों की भांति दीप्यमान हैं। उन्होंने अपने समस्त सुखभोगों का परहित के लिए त्याग कर दिया था। उन्हें राष्ट्र, समाज और जन हित के कार्य अपने प्राणों से भी बढ़कर प्रिय थे। अधर्म, अज्ञानता, अकर्मण्यता, अन्याय और शोषण उनके शत्रु थे। इन सबको सफलतापूर्वक परास्त करने हेतु उनके पास धर्म परायणता, ज्ञाननिष्ठा, कला-कौशल, शौर्यता एवं पराक्रम जैसे अचूक संसाधन भी उपलब्ध थे। इनका उन्होंने अपनी क्षमता, आवश्यकता और परिस्थितियों के अनुसार समय-समय पर उचित प्रयोग करके कई बार नई सफलताएं अर्जित की थीं। उनकी प्रत्येक सफलता के पीछे जिस महान प्रेरक शक्ति का योगदान रहा है, वह शक्ति थी – उनके उच्च संस्कार जो उन्हें मिलते थे – पूर्व जन्म से, परिवार से, समाज से और गुरुकुल शिक्षा से। भारत में ऐसी व्यवस्था व्यवस्थित थी।
संत-महापुरुषों का कथन है कि जीवन में किसी बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मानव जीवन छोटा होने के कारण वह सदैव बड़ी-बड़ी चुनौतियों से घिरा रहता है। मृत्यु होने के पश्चात्य पुनर्जन्म होने पर मनुष्य उस कार्य को वहीं से आरम्भ करता है जहां पर उसने उसे पूर्व जन्म में अधूरा छोड़ा होता है। अथवा मृत्यु के समय उसका जिस कार्य में ध्यान रह जाता है। इस प्रकार उस प्राणी के जन्म-मृत्यु का चक्र तब तक चलता रहता है जब तक वह उस कार्य को अपनी ओर से सम्पन्न नहीं कर लेता है।
परिवार में बड़ों के द्वारा बच्चे को जैसी शिक्षा मिलती है, वे उसके सामने जैसा आचरण करते हैं, बच्चा उन्हें जैसा आचरण करते हुए देखता है, वह उनका वैसा ही अनुसरण करता है। भले ही आरम्भ में बच्चे को अच्छे या बुरे कार्य का ज्ञान न हो पर उनका प्रभाव संस्कारों के रूप में उसके मन और मस्तिष्क पर अवश्य पड़ता है। विकसित अच्छे संस्कार उसके जीवन का उत्थान करते हैं जबकि बुरे संस्कार अवनति के गहन गर्त में धकेल देते हैं। इसलिए शिक्षक माता-पिता और गुरु को शास्त्र-नीति सावधान करते हुए कहती है कि बच्चों को अच्छी शिक्षा दो। उनके सामने अच्छा आचरण करो और स्वयं को सर्वदा बुरे आचरण से बचाओ। अन्यथा बच्चों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा और उनका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। यह आपका दायित्व है।
शास्त्र -नीति आगे कहती है कि परिवार की भान्ति समाज भी बच्चों के जीवन का उत्थान और पतन करने में सहायक होता है। यह बात उस समाज की संगति पर निर्भर करती है कि वह कितनी सुसंस्कृत और सभ्य है? एक सभ्य एवं सदाचारी समाज की संगति से बच्चे के जीवन का विकास होता है जबकि दुराचारी और असभ्य समाज की संगति उसे पथ-भ्रष्ट कर देती है।
भारत के गुरुकुल उच्च संस्कारों के संरक्षक, पोषक , संवर्धक होने के साथ-साथ कार्यशालाओं के रूप में नव जीवन निर्माता भी थे। नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला और उनके सहायक विद्यालय तथा महाविद्यालयों से भारतीय कला-सस्ंकृति न केवल भली प्रकार से फूली-फली थी बल्कि उससे जनित उसकी समृद्धि की महक विदेशों तक भी पहुंची थी। यहां के किसी गुरुकुल से कोई भी विद्यार्थी जब पूर्ण विद्या प्राप्त करके या स्नातक युवा होकर प्रस्थान करता था तो वह उस गुरुकुल की यह प्रेरणा भी अपने साथ लेकर जाता था कि उसका व्यक्तित्व संस्कारित है और सार्वजनिक जीवन की नींव का ठोस पत्थर भी। वह नवयुवक अपने जीवन मेें कभी ऐसा कोई भी कार्य नहीं करेगा जिससे किसी को किसी प्रकार का कोई कष्ट हो। वह वह सदैव देश और समाज का हित चाहने, देखने, सुनने, बोलने और कार्य करने वाला है। वह अपने दिव्यपथ से कभी विचलित नहीं होगा, भले ही उसके मार्ग में लाखों बाधाएं आएं। वह हर समय, हर स्थान पर, हर परिस्थिति में और हर संकट से दो-दो हाथ करने में समर्थ होने के कारण उनसे लोहा लेने हेतु सदैव तैयार रहेगा। यह उसका कर्तव्य है।
सोने की चिड़िया भारत वर्ष को अति निकटता से निहारने, समझने और उससे अपने विभिन्न उद्द्रेश्यों की पूर्ति के लिए विदेशी लोग भारत आए और उचित समय पाकर उसके शासक भी बनें। उनमें मुट्ठी भर गोरे अंगे्रजों ने ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने हेतु भारत में फूट डालो, राज करो नीति का अनुसरण किया और जी भर कर आतंक फैलाया।
आईये! हम सब संगठित होकर भारतीय सस्ंकृति की रक्षा-सुरक्षा और उसके पोशण के लिए गुरुकुलों के नैतिक मूल्यों की पुर्नस्थापना करने का दृढ़ संकल्प लें। उनके लिए धरती उपलब्ध करवाएं ताकि बच्चों को चरित्रवान बनाया जा सके। भारत को फिर से नई पहचान और उसकी अपनी उपेक्षित गरिमा प्राप्त हो सके।दिसम्बर 2010
मातृन्दना
-
श्रेणी:राष्ट्रीय भावना
भूतपूर्व सैनिकों के बुलंद हौंसले
अभी कुछ समय पूर्व इंगलिश व हिंदी समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचार भूतपूर्व सैनिकों की आगामी लोकसभा के लिए कांगड़ा क्षेत्र से चुनाव में उतरने की तैयारी से उनके हौंसले बुलंद दिखाई दे रहे हैं जो सैनिक सेवा निवृत्ति के पश्चात भी कम नहीं हुए हैं बल्कि और अधिक बढ़े हैं। उनके द्वारा लिया गया यह निर्णय एक उचित कदम इसलिए है कि युद्ध की समाप्ति के पश्चात हमारा समाज उन सैनिकों की सेवाओं और कुर्बानियों को पूरी तरह भुल जाता है। वह उनकी विधवाओं की पीड़ा व उनके माता पिता के दुख में शामिल होकर उन्हें दिलासा देने तक खानापूर्ति तो करता है पर इससे आगे उनके जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की हर स्थान पर उपेक्षा होती है।
सैनिक जब सेवा निवृत्त होकर निजघर पहुंचते हैं तब उनके पास जिंदगी गुजारने के लिए मात्रा उनकी पेंशन के अतिरिक्त कोई अन्य आय का स्रोत नहीं होता है जिससे कि वह अपने परिवार और रिश्ते -नाते के सुख-दुख में को समान रूप से भागीदार हो सके। वह उससे अपने बच्चों को उच्च शिक्षा नहीं दिला पाते हैं। उन्हें सैनिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध होते हुए भी वह उनका उपयोग नहीं कर पाते हैं क्योंकि वह गांव से बहुत दूर होती हैं। जान-माल की रक्षा करने वाले व सुरक्षा रखने वाले उनके कठोर हाथ असंगठित होने के कारण कुछ नहीं कर पाते हैं। भले ही उनका कठोर अनुशासन राष्ट्र की उन्नति करने व उसकी एकता एवं अखंडता बनाए रखने में सहायक भी क्यों न हो। इसलिए उचित यही था के वह किसी राजनैतिक दल में शामिल हो जाते या वे अपना कोई अलग से संगठन बना लेते। उन्होंने अब संगठित होकर लोकसभा चुनाव लड़ने और अपनी अवाज को लोकसभा में पहुंचाने का निर्णय कर लिया है जो चहुं ओर स्वागत करने योग्य है और हिमाचल के पड़ोसी राज्यों को प्रेरणा दायक भी है।
सेवानिवृत्त सैनिकों के बुलंद हौंसले कह रहे हैं कि –
सेना से सेवानिवृत्त हो गए तो क्या हुआ,
जिंदगी गुजारना अभी बाकी है,
देश सेवा करना अभी बाकी है।1 फरवरी 2009
दैनिक कष्मीर टाइम्स
-
श्रेणी:राष्ट्रीय भावना
हम वही हैं जो……..
हिमाचल की दैनिक पँजाब केसरी 2 फरवरी 2008 में प्रकाशित समाचार लार्ड मैकाले ने कहा था –”भाजपा नेता केदारनाथ साहनी को अमरिका में बसे अडप्पा प्रसाद से मिला पत्र – उन्होंने लार्ड मैकाले द्वारा 1835 में ब्रिटिश संसद में दिए गए वक्तव्य की नकल भेजी है जिसके अनुसार लार्ड मैकाले ने 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हुए कहा था -”उन्होंने भारत में लम्बी यात्रा की तथा उनको इस दौरान देश में न तो कोई भिखारी मिला और न ही कोई चोर। उन्होंने देश में अपार धन सम्पदा देखी है। लोगों के उच्च नैतिक चरित्र हैं तथा वे बड़े कार्यकुशल हैं। इसलिए सोचते हैं कि क्या वे ऐसे देश को कभी जीत पाएंगे?“ लार्ड मैकाले ने यह भी व्यान दिया था – ”जब तक हम इस राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी जो कि उसकी अध्यात्मिक व सांस्कृतिक विरासत है, को तोड़ नहीं देते तब तक हम कामयाब नहीं होंगे।“ उन्होंने ब्रिटिश संसद को सुझाव दिया था कि -”हमें भारत की पुरानी व परम्परागत शिक्षा प्रणाली को बदलना होगा, उसकी संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिशें करनी होंगी। इस तरह भारतवासी अपनी संस्कृति भूल जाएंगे तथा वे वैसा बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं।“
उपरोक्त विचारों से स्पष्ट है कि ब्रिटिश सरकार के अधिकारी लार्ड मैकाले के मन मेें भारत के प्रति दुर्भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्हें हमारे देश की सुख-शांति, समृद्धि और दिव्य ज्ञान फूटि कौड़ी नहीं सुहाया था। उनका भारत-भ्रमण संबंधि उद्देश्य मात्र ब्रिटिश सरकार के हित में भारतीय कमजोरियां ही ढूंढना और जुटाना था जो उनके हाथ नहीं लगीं। इसके विपरीत न चाहते हुए भी उन्हें भारत की प्रशंसा करनी पड़ी थी। यही नहीं, वह जो उस समय भारत में घुसपैठ, आतंक के जनक और आयोजक थे, अपनी वास्तविकता को भी अधिक देर तक नहीं छुपा सके। उन्होंने सुखी-समृद्ध भारतीय उप-महाद्वीप को हर प्रकार से लूटने, क्षीण-हीन और धनाभाव ग्रस्त करने का संकल्प ले लिया और उसे साकार करने हेतु साम, दाम, दण्ड, भेद नीतियों का भरपूर उपयोग भी किया। इससे भारतीय श्रमिकों के हाथों का कार्य छीन लिया गया। देश का विदेशी व्यापार-ढांचा तहस-नहस हो गया। इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्य की खुशहाली के लिए जो एक वार लहर चली तो वह फिर नहीं रुकी। भारतीय जनता जो अपने निजी जीवन, परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व हित की कामना करती थी, को असुरक्षित, असहाय तथा ज्ञान हीन करने के पश्चात उसे पहले तरह-तरह से आतंकित किया गया फिर उससे ब्रिटिश साम्राज्य हित की सेवाएं ली जाने लगीं। जो ऐसा नहीं करते थे या उसका विरोध करते थे, उन्हें देश का गद्दार घोषित करके फांसी पर लटका दिया जाता था या फिर गोलियों से भून दिया जाता था। यही नहीं उन्होंने देश की परम्परागत प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली ही बदल दी जिससे कि भारत का कर्मठ, सदाचारी, संस्कारवान और साहसी युवावर्ग तैयार होता था, बदले में पाश्चात्य संस्कृति पर आधारित नाम मात्र के काले अंग्रेज तैयार होने लगे। सस्ते बाबू प्राप्त करना उनकी आवश्यकता थी, पूरी होने लगी। इन अंग्रेजों का अब भारत में एक बहुत बड़ा समुदाय बन चुका है जो न तो पूर्ण रूप से भारतीय रह गया है और न अंग्रेज ही बन सका है। हां, वे दिन प्रति दिन अपने आचार- व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान, भाषा , पहनावा और यहां तक कि निजी संस्कारों को भूलता जा रहा है। वह अभागा बन रहा है – अव्यवसायी, निर्धन, चरित्रहीन और असंस्कारी।
भारत को स्वाधीन हुए साठ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परन्तु देश में लौह पुरुष के अभाव में आज तक भारत, भारतीय समाज, उसके परिवार और कोई जन साधारण लार्ड मैकाले के ठोस संकल्प की पाश से मुक्त नहीं हो सका है। उससे मुक्ति दिलाने वाला हमारे बीच में आज कोई लौह पुरुष नहीं है। भारत को आज फिर से श्रमशील, सदाचारी, संस्कारवान और समर्थ युवावर्ग की महती आवश्यकता है। यह कार्य परम्परागत भारतीय शिक्षा प्रणाली ही कर सकती है, लार्ड मैकाले द्वारा प्रदत पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली कदाचित नहीं।
भारत की प्रांतीय सरकारों को केन्द्रीय सरकार से मिलकर एक सशक्त राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की संरचना करनी चाहिए जो पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय एकता और अखण्डता सुनिश्चित कर सके। क्या हमारा अपना, अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति यह भी कर्तव्य नहीं है? है तो सावधान देशवासियो! संगठित हो जाओ और काट डालो पापाश्चात्य शिक्षा प्रणाली की उन समस्त बेड़ियों को जिन्होंने हमें सदियों से बंधक बना रखा है। लार्ड मैकाले द्वारा प्रदत शिक्षा प्रणाली हम सबको परोस रही है अव्यवसाय, निर्धनता, चरित्र हीनता और असंस्कार। मत भूलो! लार्ड मैकाले ने सत्य ही कहा था -”भारत में उन्हें कोई भी भिखारी या चोर नहीं मिला है।“ आओ हम आगे बढ़ें और अपनी खोई हुई परम्परागत भारतीय शिक्षा प्रणाली का अनुसरण करके भारत को सुखी और समृद्ध बनाएं। इस पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली में ऐसा कोई दम नही है कि वह हमारी हस्ति मिटा दे या वह हमें अपने सत्य मार्ग से विचलित कर सके। स्मरण रहे कि –
जो हमें मिटाने आए थे कभी,
मिटाते मिट गए हैं निशान उनके ही
पर हमारी नहीं मिटी है हस्ति
हम हैं वही जो थे कभी
और रहेंगे कल भी14 दिसम्बर 2008
कश्मीर टाइम्स