मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: सामाजिक जन चेतना

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    ठगी का नया दौर !

    सामाजिक जन चेतना – 8

    जहाँ भारत को जिस तेजी के साथ विश्व की भावी आर्थिक शक्ति माना जाने लगा है, उससे भी तीव्र गति से देश में सक्रिय कुछ देशी, विदेशी अंतर्राष्ट्रीय तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनके एजेंटों की अनैतिक गति विधियों के द्वारा लोगों की जेबों में दिन – दिहाड़े डाका भी डाला जा रहा है l

    यह कंपनियां और उनके एजेंट पहले गाँव-गाँव और शहर-शहर में जाकर, लोगों को बहला-फुसलाकर अपना जाल बिछाते हैं l उन्हें सब्ज-बाग दिखाते हैं l वे उनके साथ मीठी-मीठी बातें करके उन्हें अपनी आकर्षक परियोजनाओं के माध्यम से ढेरों पैसे कमाने के ऊँचे-ऊँचे सपने दिखाते हैं l इस तरह धीरे-धीरे वह बड़ी चतुराई के साथ, अल्पाब्धि में ही उनसे लाखों, करोड़ों रूपये इकठ्ठा करके रातों-रात अरब-खरब पति बनकर अपना बोरी-विस्तर भी समेट लेते हैं l आये दिन देश भर में देशी, विदेशी अंतर्राष्ट्रीय तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनके एजेंटों की अनैतिक गतिविधियां बढ़ रही हैं l इनसे लोगों के दिनों का चैन खो गया है और रातों की नींद उड़ गई है फिर भी हमारी सरकारें कुम्भकर्ण की नींद सो रही हैं l

    भारत के राज्यों में पंजीकृत कंपनियों की शृंखला में, मलटी लेवल मार्केटिंग के आधार पर, चेनेई, तमिलनाडु में पंजीकृत और बंगलौर से संचालित होने वाली विजर्व पावर्ड वाई युनि पे 2 यू टीऍम कम्पनी ने, अपनी आकर्षक प्रयोजनानुसार देश भर में स्वयं से संबंधित हर व्यक्ति को दस महीने के पश्चात्, अधिक से अधिक लाभांश सहित, उसकी पूरी राशि लौटानी थी पर उसने अक्तूबर 2010 से अप्रैल 2011 तक लोगों का कोई भी भुगतान नहीं किया है l

    केंद्र और प्रान्तों के सरकारी विभागों में कार्यरत ऐसे कई अधिकारी और कर्मचारी भी हैं जो कंपनी के लिए एजेंट का काम कर रहे हैं l उन्होंने अपने-अपने विभागों और आसपास के जाने-पहचाने लोगों से लाखों, करोड़ों रूपये इकट्ठे कर लिए हैं l पर लोगों को अब तक उनका अपना पैसा न मिलने के कारण, उन्हें संदेह है कि वह पैसा एजेंटों के द्वारा कम्पनी के खाते में डाला भी गया है कि नहीं ! इस पर एजेंटों का कहना है कि लोगों का पैसा इंटर नैट द्वारा कंपनी के खाते में जमा हो चुका है l वह जल्दी ही, अधिक धन राशि सहित उनके अपने-अपने बैंक खातों में आ जायेगा l वे निराश लोगों को रोजाना इंटर नैट पर कंपनी की कार्रवाई देखने को कहते हैं और कंपनी इंटर नैट पर प्रतिदिन मात्र झूठे संदेश और आश्वासन देकर उनका पेट भरने का असफल प्रयास कर रही है l लोगों को उसके संदेशों और आश्वासनों की नहीं, धन की आवश्यकता है जो उन्होंने अपने खून पसीने की कमाई का एक बड़ा भाग, भाविष्य निधि निकलवाकर और बैंक से ऋण लेकर उन एजेंटों के माध्यम द्वारा, कंपनी में लगाया हुआ है – उनका क्या होगा ! एजेंट तो कमीशन लेकर अपनी लाखों की चल-अचल संपत्ति बना चुके हैं l उन्होंने अब पीड़ितों से और क्या लेना है ?

    अगर देशवासी अल्पाब्धि में ही समृद्ध होने या अधिक लाभांश पाने हेतु, लोभ और स्वार्थ की दलदल में धंसते रहेंगे तो इससे अवैध और काला धन जो अनैतिक गतिविधियों द्वारा निजी सुख हेतु इकठ्ठा कर लिया जाता है या फिर उसे चोरी-छिपे विदेशी बैंकों में पहुंचा दिया जाता है, को ही बढ़ावा मिलेगा l क्या उससे राष्ट्र का निर्माण हो सकेगा ? क्या उससे कभी भारतीय समाज को सुख-शांति मिल पायेगी, उसका विकास हो पायेगा ?

     भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों के द्वारा अपने यहाँ सर्व प्रथम उन सभी कंपनियों की भली प्रकार से जाँच-परख कर लेनी चाहिए, तद्पश्चात पंजीकृत विभिन्न कंपनियों और उनके वैद्य-अवैद्य एजेंटों की पल-पल की गति विधियों पर कड़ी नजर रखने के लिए, राष्ट्रहित में “नागरिक आर्थिक सतर्कता” समितियों का गठन करना चाहिए l इससे किसी अवैद्य कंपनी अथवा उसके अपराधिक एजेंटों के द्वारा, भविष्य में देश के अमुक क्षेत्र का, कोई व्यक्ति अथवा उसका परिवार पुनः पीड़ित नहीं हो सकेगा l

    प्रकाशित मातृवंदना सितंबर 2011


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    जनहित विरोधी मानसिकता

    सामाजिक जन चेतना – 7    

    “भारत देश महान” जैसी बातें अब नीरस और खोखली लगने लगी हैं l मन्दिर समान पवित्र घर और विद्यालयों में जहाँ कभी ज्ञान, श्रद्धा, प्रेम-भक्ति और विश्वास पाया जाता था, वहां पर अज्ञान, अश्रद्धा, अवज्ञा, अविश्वास होने के साथ-साथ अवैध संबंध, भ्रूण हत्याएं, बात-बात पर वाद-विवाद, मार-पीट, मन-मुटाव, अपमान, घृणा, द्वेष, आत्म तिरस्कार और आत्म हत्याएं होती हैं l  

    अध्यात्म प्रिय होने के कारण देश के अधिकांश परिवार प्रकृति प्रेमी होते थे l परन्तु वह भौतिकवादी हो जाने से जीवन देने वाले पर्यावरण के भी शत्रु बन गए हैं l इस कारण भौतिकवाद की अंधी दौड़ में वन-संपदा, प्राकृतिक सौन्दर्य और समस्त जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ लुप्तप्रायः होती जा रही हैं l मात्र मनुष्य जाति की भीड़ और उसका कंकरीट का जंगल ही बढ़ रहा है l पेयजल और कृषि योग्य भूमि का अस्तित्व संकट में है और प्राद्योगिकी प्रदूषण के साथ-साथ धरती का ताप भी बढ़ रहा है जिससे हिमनद और ग्लेशियर तेजी से पिघलते जा रहे हैं l

    धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति के लिए लगनशील, उद्यमी युवा-वर्ग में बल, बुद्धि, विद्या, वीर्य, सद्गुणों का सृजन, संवर्धन और संरक्षण करने के स्थान पर नशा-धुम्रपान करने, क्लब, वैश्यालय एवम् नृत्यशालाओं में जाने का प्रचलन बढ़ गया है l अध्यात्मिक उपेक्षा करने से वह एड्स जैसे भयानक रोगों का शिकार हो रहा है l 

    समाज में अज्ञानता, अपराध, अपहरण, यौन शोषण, बलात्कार, अन्याय, बाल-श्रम, बंधुआ मजदूरी, मानव तस्करी, अत्याचार, हत्यायें, अग्निकांड, उग्रवाद, अशांति, अराजकता होती है l स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र में जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र के नाम पर वाद-विवाद खड़ा करके आपसी फुट डाली जाती है और उन्हें स्वार्थ सिद्धि के लिए आपस में भी बांटा जाता है l 

    देश के सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों में आर्थिक भ्रष्टाचार, गबन, घोटाले होकर वे अग्निकांड के द्वारा अग्नि की भेंट चढ़ जाते हैं l न्यायिक प्रणाली अधिक महंगी, दीर्घ प्रक्रियाओं में से निकलने वाली, दूरस्थ, दैनिक वेतन भोगी, कम वेतन मान पाने वाले एवं निर्धनों की पहुँच से दूर, आमिर-गरीब में असमानता रखने वाली और मात्र किताबी कानून तक अव्यवहारिक होने के कारण – राष्ट्रीय न्यायलयों से जन साधारण का विश्वास दिन-प्रतिदिन उठता जा रहा है l इस प्रकार परिवार, विद्यालय, समाज और राष्ट्र के प्रति जन साधारण में आस्था, विश्वास, प्रेम और जनहित का आभाव दिखाई देने लगा है जो एक विचारणीय विषय है l हमें इस ज्वलंत समस्या का समाधान निकालने के लिए ध्यान देने के साथ-साथ विचार अवश्य करना चाहिए l

    प्रकाशित 25 अगस्त 2007 दैनिक जागरण


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    कर्तव्य विमुखता का काला साया

    सामाजिक जन चेतना – 4

    आज बुराई का प्रतिरोध करने वाला हमारे बीच समाज में कोई एक भी साहसी, वीर, पराक्रमी, बेटा, जन नायक, योद्धा अथवा सिंहनाद करने वाला शेर नौजवान दिखाई नहीं दे रहा  है l मानों जननियों ने ऐसे शेरों को पैदा करना छोड़ दिया है l गुरुजन योद्धाओं को तैयार करना भूल गये हैं अथवा वे समाज विरोधी तत्वों के भय से भयभीत हैं l

    उचित शिक्षा के आभाव में आज समस्त भारत भूमि भावी वीरों से विहीन हो रही है l उद्दमी युवा जो एक वार समाज में कहीं किसी के साथ अन्याय, शोषण अथवा अत्याचार होते देख लेता था, अपराधी को सन्मार्ग पर लाने के लिए उसका गर्म खून खौल उठता था, उसका साहस पस्त हो गया है l यही कारण है कि जहाँ भी दृष्टि जाती है, मात्र भय, निराशा अशांति और अराजकता का तांडव-नृत्य होता हुआ दिखाई देता है l धर्माचार्यों के उपदेशों का बाल-युवा वर्ग पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ रहा है l

    बड़ी कठिनाई से पांच% युवाओं को छोड़कर आज का शेष भारतीय नौजवान वर्ग भले ही बाहर से अपने शरीर, धन, और सौन्दर्य से ही सही अपना यश और नाम कमाने के लिए बढ़-चढ़कर लोक प्रदर्शन करता हो परन्तु वह भीतर से आत्म रक्षा-सुरक्षा की दृष्टि से तो है विवश और असमर्थ ही l उचित शिक्षा के आभाव में वह सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्य क्षेत्र में कोरा होने के साथ-साथ वह अधीर भी है l वह सन्मार्ग भूलकर स्वार्थी, लोभी, घमंडी और आत्म विमुख होता जा रहा है l उसमें सन्मार्ग पर चलने की इच्छा शक्ति भी तो शेष नहीं बची है l वह भूल गया है कि वह स्वयं कौन है और क्या कर सकता है ?

    आज का कोई भी विद्यार्थी, स्नातक, बे-रोजगार नौजवान मानसिक तनाव के कारण आत्म विमुख ही नहीं हताश-निराश भी हो रहा है जिससे वह जाने-अनजाने में आत्म हत्या अथवा आत्मदाह तक कर लेता है l प्राचीन काल की भांति क्या माता-पिता बच्चों में आज अच्छे संस्कारों का सृजन कर पाते हैं ? क्या गुरुजन विद्यार्थी वर्ग में विद्यमान उनके अच्छे गुण व संस्कारों का भली प्रकार पालन-पोषण, संरक्षण और संवर्धन करते हैं ? वर्तमान शिक्षा से क्या विद्यार्थी संस्कारवान बनते हैं ? नहीं तो ऐसा क्या है जिससे कि हम अभिभावक और गुरुजन अपना कर्तव्य भूल रहे हैं ? हम अपना कर्तव्य पालन नहीं कर रहे ?

    प्रकाशित 6 सितंबर 2007 दैनिक जागरण


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    आदर्श समाज की कल्पना

    सामाजिक जन चेतना– 2

    आओ हम ऊँच-नीच का भेद मिटायें,

    सब समान हैं, चहुँ ओर संदेश फैलायें l

    भारतीय समाज में कोई जाति से बड़ा है तो कोई धर्म से, कोई पद से ऊँचा है तो कोई धनबल से l प्रश्न उठता है कि क्या ऐसा पहले भी होता था ? हाँ, होता था पर अब उसमें अंतर आ गया है l पहले हमारी सोच विकसित थी, हम हृदय से विशाल थे, हम निजहित से अधिक संसार का हित चाहते थे परन्तु वर्तमान में हमारी सोच बदल गई है l हमारा हृदय बदल गया है, हम मात्र निजहित चाहने लगे हैं l इसका मुख्य कारण यह है कि हम अध्यात्मिक जीवन त्यागकर निरंतर संसारिक भोग विलास की ओर अग्रसर हुए हैं l हमने योग मूल्य भूला दिए हैं जिनसे हमें सुख के स्थान पर दुःख ही दुःख प्राप्त हो रहे हैं l

    देखा जाए तो यह बड़प्पन या ऊँचापन मिथ्या है l पर जो लोग इसे सच मानते हैं अगर उनमें से किसी एक बड़े को उसके माता-पिता के सामने ले जाकर यह पूछा जाये कि वह कितना बड़ा बन गया है तो उनसे हमें यही उत्तर मिलेगा – वह हमारे लिए अब भी बच्चा ही है और सदा बच्चा ही रहेगा l उसके जीवनानुभवों की उसके माता-पिता के जीवनानुभवों से कभी तुलना नहीं की जा सकती l माता-पिता की निष्काम भावना की तरह उसकी सोच का भी जन कल्याणकारी होना अति आवश्यक है l अगर वह ऐसा नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में उसे बड़ा या ऊँचा स्थान कदाचित नहीं मिल सकता l

    हमारा समाज मिथ्याचारी, बड़प्पन और ऊँचेपन की दलदल में धंसा हुआ है l वह तरह-तरह के कुपोषण, अत्याचार, जातिवाद, छुआछूत, अमीर-गरीब और बाहुबली व्यक्तियों के द्वारा बल के दुरूपयोग से पीड़ित है, जो अत्याधिक चिंता का विषय है l

    वास्तविकता तो यह है कि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं, उसका दिव्यांश हैं l वह कण-कण में समाया हुआ है l प्राणियों में मानव हमारी जाति है l भले ही हमारे कार्य विभिन्न हैं पर हमारा धर्म “सनातन धर्म” है l इसलिए वैश्विक भोग्य सम्पदा पर हम सबका अपनी-अपनी योग्यता एवं गुणों के अनुसार अधिकार होना चाहिए l किसान और मजदूर खेतों में कार्य करते हैं तो विद्वान् लोग उनका मार्ग दर्शन भी करते हैं l

    जिस व्यक्ति का जितना ऊँचा स्थान होता है उसके अनुसार उसकी उतनी बड़ी जिम्मेदारी भी होती है l उसे पूरा करना उसका कर्तव्य होता है l उससे वह भ्रष्टाचार, किसी का कुपोषण, किसी पर अत्याचार, करने हेतु कभी स्वतंत्र नहीं होता है l बलशाली मनुष्य द्वारा उसके बल–पराक्रम का वहीँ प्रयोग करना उचित है जहाँ समाज विरोधी तत्व सक्रिय हों या वे अनियंत्रित हों l

    मनुष्य का बड़प्पन या उन्चापन उसके कार्य से दीखता है न कि उसके जन्म या वंश से l मनुष्य को चाहिए कि वह मानव जाति के नाते सब प्राणियों के साथ मनुष्यता का ही व्यवहार करे l उससे न तो किसी का कुपोषण होता है न किसी से अन्याय, न किसी पर अत्याचार होता है और न किसी का अपमान l सबमें बिना भेदभाव के समानता बनी रहती है l वैश्विक सम्पदा पर यथायोग्यता अनुसार स्वतः अधिकार बना रहता है l प्रशासनिक व्यवस्था सबके अनुकूल होती है l लोग उसका आदर करते हैं l इससे लोक संस्कृति की संरचना, संरक्षण, और संवर्धन होता है l

    मनुष्य जाति में पाया जाने वाला अंतर मात्र मनुष्य द्वारा किये जाने वाले कर्मों व उसके गुणों के अनुसार होता है l सद्गुण किसी में कम तो किसी में अधिक होते हैं l वे सब आपस में कभी एक समान नहीं होते हैं l इसलिए हमें सदा एक दुसरे का सम्मान करना चाहिए l

    इससे हम छुआछूत, सामाजिक, आर्थिक, एवं न्यायिक असमानता को बड़ी सुगमता से दूर कर सकते हैं l हमारा हर कदम राम-राज्य की ओर बढ़ता हुआ एक आदर्श समाज की कल्पना को साकार कर सकता है l

    प्रकाशित 6 सितम्बर 2009  दैनिक कश्मीर टाइम्स


  • युवा पीढ़ि और उसका दायित्व
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    युवा पीढ़ि और उसका दायित्व

    ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्माण्ड बड़ा विचित्र है। सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का द्योतक है कि समस्त ब्रह्माण्ड में कोेेई भी अमुक वस्तु किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है।
    युवाओं को जीवन के महान् उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण-संस्कार जीवन उद्देश्यों  के अनुकूल होते हैं। प्रतिकूल गुण -संस्कारों से किसी भी महान् उद्देश्य  की प्राप्ति नहीं होती है। बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है। जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात  उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण-संस्कार युक्त युवाओं के कर्माें की छाप भी सम्पूर्ण जनमानस पटल परअवश्य अंकित होती है जो युग-युगांतरों तक उसके द्वारा भुलाए नहीं भुलाई जाती है। अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है। यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति के स्वामी हैं।
    बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय नीति के आधार पर भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए। उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना। जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लगन, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराश  कर उसे मन चाही एक सुन्दर आकृति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार प्रयत्नशील युवाओं को स्वयं में छुपी हुई प्रभावी विद्या, कला के रूप में दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में, आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो। उन्हें सफलता अवश्य  मिलेगी। देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुरूप देश – कार्य क्षेत्र, काल – समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्गदर्शक अवश्य  मिल जाते हैं। उनसे उनका काम सहज होना निश्चित  हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है।
    किसी प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान् उद्देश्य  की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक  है जितना फूलों में सुगन्ध होना। सुगन्धित फूलों से मुग्ध होकर, फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण से प्रभावित होकर उनका अनुसरण करने के लिए, उनके अनुयायी भी बनते हैं। इसलिए वे उनके साथ रह कर, वह अच्छा बनने के लिए अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं।
    उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है। वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है। एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान  समझता है, दुराचार के कार्य करता है। इसलिए दोनों की प्रकृतियां आपस में कभी एक समान हो नहीं सकतीं। वह एक दिशा सूचकयंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा  में रहती हैं। उन दोनों में द्वंद् भी  होते हैं।
    कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार सदाचार को असहनीय कष्ट  और पीड़ा ही पहुंचाता है। जब यह दोनों प्रकृतियां सुसंगठित होकर धर्म, अधर्म के दो बड़े अलग-अलग समूहों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद् न रहकर, युद्ध होते हैं जिनसे उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है।
    समर्थ युवा वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थया एवं शक्ति रखता है। तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक  है। वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं। इसलिए युवा-शक्ति जन-शक्ति के रूप में लोक-शक्ति बन जाती है। अतः कहा जा सकता है कि –
    एकता और शक्ति का मूल आधार,
    जन, जन के उच्च गुण संस्कार।
    जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोक कर, बांध बना लिया जाता है, उसी प्रकार युवाओं में कुछ कर सकने की जो अपार तीव्र इच्छाशक्ति होती है, उसे ठहराव दे कर दिशा  देना अति आवश्यक  है। इससे युवाओं की तरुण-शक्ति को नई दिशा  मिल सकती है। उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं।
    अक्तूबर 2013
    मातृवन्दना