मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: मानव जीवन दर्शन

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    अपने प्रति अपनी सजगता  

    मानव जीवन दर्शन – 1

    मानव का मन जो उसे नीच कर्म करने से रोकता है, विपदा आने से पूर्व सावधान भी करता है, वह स्वयं बड़े रहस्यमयी ढंग से एक ऐसे आवरण में छुपा रहता है जिसके चारों ओर विषय वासना और विकार रूपी एक के पश्चात् एक पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी परत के पश्चात् परत चढ़ी रहती है l जब मनुष्य अपनी निरंतर साधना, अभ्यास और वैराग्य के बल से उन सभी आवरणों को हटा देता है, आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है, उसे पहचान लेता है और यह जान लेता है कि वह स्वयं कौन है ? क्यों है ? तो वह समाज का सेवक बन जाता है l उसकी मानसिक स्थिति एक साधारण मनुष्य से भिन्न होती है l  

    मनुष्य का मन उस जल के समान है जिसका अपना कोई रंग-रूप या आकर नहीं होता है l कोई उसे जब चाहे जैसे बर्तन में डाले वह अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं को उसमें व्यवस्थित कर लेता है l ठीक यही स्थिति मनुष्य के मन की है l चाहे वह उसे अज्ञान के गहरे गर्त में धकेल दे या ज्ञानता के उच्च शिखर पर ले जाये l यह उसके अधीन है l उसका मन दोनों कार्य कर सकता है, करने में सक्षम है l  इनमें अंतर मात्र ये है कि एक मार्ग से उसका पतन होता है और दुसरे से उत्थान l इन्हें मात्र सत्य पर आधारित शिक्षा से जाना जा सकता है l  

    संसार में भोग और योग दो ऐसी सीढ़ियाँ हैं जिन पर चढ़कर मनुष्य को भौतिक एवम् अध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती हैं l ये तो उसके द्वारा विचार करने योग्य विषय है कि उसे किस सीढ़ि पर चढ़ना है और किस सीढ़ि पर चढ़कर उसे दुःख मिलता है और किससे सुख l 

    महानुभावों का अपने जीवन में यह भली प्रकार विचार युक्त जाना पहचाना दिव्य अनुभव रहा है कि बुराई संगत करने योग्य वस्तु नहीं है l बुरी संगत करने से बुरी भावना, बुरी भावना से बुरे विचार, बुरे विचारों से बुरे कर्म पैदा होते हैं जिनसे निकलने वाला फल भी बुरा ही होता है l

    कुसंगत से दूर रहो, इसलिए नहीं की आप उससे भयभीत हो l वह इसलिए कि दूर रहकर आप उससे संघर्ष करने का अपना साहस बढ़ा सको l मन को बलशाली बना सको l इन्द्रियों को अनुशासित कर सको l फिर देखो, बुराई से संघर्ष करके l उससे निकलने वाले परिणाम से, आपको ही नहीं आपके परिवार, गाँव, शहर, समाज और राष्ट्र के साथ-साथ विश्व का भी कल्याण होगा l वास्तविक मानव जीवन यही है l  

    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना सम्भवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l ये उसकी अपनी दुर्बलता है l जब तक वह अपने मन को बलशाली नहीं बना लेता, तब तक वह स्वयं ही बुराई का शिकार नहीं होगा बल्कि उससे उसका कोई अपना हितैषी बन्धु भी चैन की नींद नहीं सो सकता l  

    मनुष्य भोग बिना योग और योग बिना भोग सुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे भोग में योग और योग में भोग सुख का व्यवहारिक अनुभव होना नितांत आवश्यक है l वह चाहे पढ़ाई से जाना गया हो या क्रिया-अभ्यास से ही सिद्ध किया गया हो l अगर जीवन में इन दोनों का मिला-जुला अनुभव हो जाये तो वह एक अति श्रेष्ठ अनुभव होगा l इसके लिए कोरी पढ़ाई जो आचरण में न लाई जाये, नीरस है और कोरा क्रिया-अभ्यास जिसका पढ़ाई किये बिना, आचरण किया गया हो – आनंद रहित है l जिस प्रकार साज और आवाज के मेल से किसी नर्तकी के पैर न चाहते हुए भी अपने आप थिरकने आरम्भ हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार अध्यन के साथ-साथ उसका आचरण करने से मनुष्य जीवन भी स्वयं ही सभी सुखों से परिपूर्ण हो जाता है l

    प्राचीनकाल में ही क्यों आज भी हमारे बीच में ऐसे कई महानुभाव विद्यमान हैं जो आजीवन अविवाहित रहने का प्रण किये हुए हैं और दूसरे गृहस्थ जीवन से निवृत होकर उच्च सन्यासी हो गये हैं या जिन्होंने तन, मन, और धन से वैराग्य ले लिया है l उनका ध्येय स्थितप्रज्ञा की प्राप्ति अथवा आत्म-शांति प्राप्त करने के साथ-साथ सबका कल्याण करना होता है l इनके रास्ते भले ही अलग-अलग हों पर मंजिल एक ही है l  

    वह ब्रह्मचारी या सन्यासी जिसकी बुद्धि किसी इच्छा या वासना के तूफ़ान में कभी अडिग न रह सके,  वह न तो ब्रह्मचारी हो सकता है और न ही सन्यासी l उसे ढोंगी कहा जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा – क्योंकि ब्रह्मचारी किसी रूप को देखकर कभी मोहित नहीं होता है और सन्यासी किसी का अहित अथवा नीच बात नहीं सोच सकता जिससे उसका या दूसरे का कोई अहित हो l इनमें एक अपने सयम का पक्का होता है और दूसरा अपने प्रण का l

    अपमानित तो वह लोग होते हैं जो इन दोनों बातों से अनभिज्ञ रहते हैं या वे उनकी उपेक्षा करते हैं l इसलिए समाज में कुछ करने के लिए आवश्यक है अपने प्रति अपनी निरंतर सजगता बनाये रखना और ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे जीवन आत्मोन्मुखी बन सके

    प्रकाशित 1 अक्तूबर 1996 कश्मीर टाइम्स


  • सनातन जीवन में धन की उपयोगिता
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    सनातन जीवन में धन की उपयोगिता

    भारत ऋषि -मुनियों का देश  है। भारतीय मनीषियों  ने मानव जीवन को 100 वर्ष  तक मुख्यतः चार आश्रमों में विभक्त किया था। उनमें प्रथम 25 वर्ष  ब्रह्मचर्य, 25 से 50 वर्ष  गृहस्थ, 50 से 75 वर्ष  वानप्रस्थ और 75 से 100 वर्ष  तक सन्यास आश्रम प्रमुख थे। उनके अपने विशेष  सिद्धांत थे, उच्च आदर्श  थे जिनके अनुसार मनुष्य  अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता था। इससे वह दैहिक, दैविक और भौतिक शक्तियों का स्वामी बनता था। भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान् थी।
    प्रथम 25 वर्ष  ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या ग्रहण, 25 से 50 वर्ष  गृहस्थाश्रम में  सांसारिक कार्य, 50 से 75 वर्ष  वानप्रस्थाश्रम में आत्म चिन्तन-मनन करते हुए आत्म साक्षात्कार और 75 से 100 वर्ष  तक सन्यासाश्रम में जनकल्याण करने का सुनियोजित कार्य किया जाता था। इनके अंतर्गत सनातन समाज को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और धार्मिक दृष्टि  से विश्व  भर में सर्वोन्नत श्रेणी में सम्पन्न ही नहीं गिना जाने लगा था बल्कि विश्व  ने उसकी आर्थिक सम्पन्नता देखते हुए उसे सोने की चिड़िया के नाम से भी विभूषित  किया था।
    सनातन समाज की इस आर्थिक सम्पन्नता और उन्नति के पीछे जिस महान् शक्ति का योगदान रहा है, वह शक्ति थी, योगियोें की योगसाधना और कर्मयोग। श्रीकृष्ण  जी उनके महान् आदर्श  रहे हैं । उन्होंने संसार में रहते हुए भी कभी संसार से प्रेम नहीं किया। उन्होंने पल भर के लिए भी योग को स्वयं से कभी अलग नहीं किया। वे संसार में  कभी लिप्त नहीं हुए। यही कारण है कि हम आज भी उन्हें अपना नायक, निराकार, सनातन, सत्पुरुष  मानते हैं और वे हमारे सबके हृदयों में विराजमान रहते हैं।
    यह तो सत्य है कि प्राचीन काल में 1/3 % को छोड़कर 3/4 % सनातन समाज भौतिक सुख सुविधाओं से अभाव ग्रस्त था और उस समय प्राकृतिक शोषण  न के समान हुआ था। इसका मुख्य कारण यह रहा है कि पहले सनातन समाज सादगी पसंद अध्यात्म प्रिय और प्राकृतिक प्रेमी था जबकि आज वही समाज वैसा होने का मात्र ढोंग कर रहा है। वह प्रकृति के विरुद्ध अनेकों कार्य करते हुए, उससे शत्रुता बढ़ा रहा है। इस तरह वह कल आने वाली महाप्रलय को, आज ही आमन्त्रित कर रहा है।
    प्रकृति की परिवर्तनशीलता के प्रभाव से सनातन समाज के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और धार्मिक क्षेत्रों में परिवर्तन होना निश्चित  था, परिवर्तन हुआ। यह समस्त भूखण्ड जिस पर कभी मात्र आर्य लोगों का “सुधैव-कुटुम्बकम”  दृष्टि  से अपना अधिपत्य था, वह धीरे-धीरे कई राष्ट्रों  के रूप में परिणत हो गया। उस भूखण्ड पर अनेकों देश  जिनमें वर्तमान भारतवर्ष  भी है, वह अपने अस्तित्व में आने से पूर्व कई छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त लेकिन उन्नत एवं समृद्ध भी था। वह विदेशी  व्यापारी कम्पनियों, अक्रांता एवं लुटेरों की कुदृष्टि  से बच न सका। जहां भारत के सम्राट साहसी और परम वीर थे, वहां वे अहंकार में चूर और विलासी भी, कम नहीं थे। परिणाम स्वरूप वे विदेशी  व्यापारी कम्पनियों, अक्रांता एवं लुटेरों की छल विद्या एवं बांटो और राज करो, नीति को समझ न सके। अतः उन्हें उनसे हर स्थान पर मुंह की खानी पड़ी।
    आज भारतीय समाज में, उसका हर मार्गदर्षक, अभिभावक, गुरु, नेता प्रशासक, सेवक और नौजवान योगसाधना से विमुख हो गया है और होता जा रहा है, जो एक बड़ी चिन्ता का विषय  है। उन्हें पाश्चात्य  देशों  की तरह मात्र अच्छा खाना, गाड़ी, बंगला, अपार धन और सर्व सुख-सुविधाएं ही चाहिएं, भले ही वह घोटाला करके, चोरी से, रिश्वत -घूस लेकर या फर्जीबाड़े से ही क्यों न जुटाई गई हों, जुटानी पड़े। इसमें उनकी धन लोलुपता अत्यंत घातक सिद्ध हुई है और बढ़ती जा रही है। उन्हें राष्ट्रहित से कुछ भी नहीं है, लेना देना।
    वह भारतीय दिव्य ब्रह्मज्ञान जो विदेशों  तक कभी अज्ञान का अंधेरा दूर किया करता था, वह उत्पादन और हस्तकला कौशल का जीवट जादू जो उनके सिर पर चढ़ कर बोला करता था, को ग्रहण लग गया है। भारत आर्थिक शक्ति बनने के स्थान पर, भीतर ही भीतर खोखला होता जा रहा है। देश  के सामने आर्थिक चुनौती उभर आई है। उसमें आए दिन नए-नए घोटाले हो रहे हैं। लोगों  का सफेद धन बे-रोक टोक, तेजी से कालाधन बन कर, विदेशी  बैंकों की तिजोरियों में समाए जा रहा है फिर भी सरकारों के द्वारा राष्ट्रीय  विकास का ढोल पीटा जा रहा है और वह उस विकास की पोल भी खोल रहा है। चोरी करना घूस और रिष्वत लेने-देने का प्रचलन जोरों पर है। भ्रष्टाचार की सदाबहार बेल निर्भय होकर हर तरफ विष  उगल रही है।
    ब्रह्मचर्य जीवन में ज्ञानार्जित करना, गृहस्थ जीवन में सांसारिक कार्य करना सुख सुविधाएं जुटाना और उनका भोग करना, वानप्रस्थ जीवन में आत्म चिंतन, आत्म साक्षात्कार करना तथा सन्यास जीवन में समाज का मार्गदर्शन करना मानव जीवन का परम उद्देष्य रहा है। उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना अनिवार्य था। इसलिए भारतीय मनीषियों  ने जीवन के चार आश्रमों की कल्पना को कार्यान्वित किया था।
    “वीर भोग्य वसुंधरा” अर्थात वीर पुरुष  ही धरती का सुख भोगते हैं। वीर वे हैं  जो अपने अदम्य साहस के साथ जीवन की हर चुनौती का सामना करते हुए अपने परम जीवनोद्देश्य  को सफलता पूर्वक पूरा करते हैं। इसी आधार पर गृहस्थाश्रम में  सांसारिक सुख भोग किया जाता था। शेष  तीनों आश्रमवासी गृहस्थाश्रम पर निर्भर रह कर अपने विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अपना-अपना कार्य किया करते थे।
    विद्यार्थी गुरुकुल में रह कर विद्या अर्जित करते थे। पराक्रमी राजा वन गमन – एकांत वास करनेे, वानप्रस्थी बनने से पूर्व, स्वेच्छा से भोग्य वस्तुओं को अपने योग्य उत्तराधिकारी को सौंप देते थे और सन्यासी बहते जल की तरह कभी एक स्थान पर निवास नहीं करते थे। वे भ्रमण करते हुए लोक मार्गदर्शन करते थे। इस प्रकार भोग-सुख की सभी सुख सुविधाएं मात्र गृहस्थाश्रम वासियों की सम्पदा होती थी। यही भारतीय संस्कृति है। इसी कारण भारत में संग्रहित अपार सम्पदा, विदेशियों के लिए आकर्षण, सोेने की चिड़िया, उनकी आंख की किरकिरी बनी और उन्होंने उसे पाने और हथियाने के लिए साम, दाम, दंड और भेद नीतियों का भरपूर प्रयोग किया।
    हमारी इसी अपार धन सम्पदा को पहले विदेशियों  ने लूटा था और अब उसे अपने ही लोग अपने दोनों हाथों से दिन-रात लूट रहे हैं। इस तरह न जाने कब थमेेगा, लूटने का यह सिलसिला! हम चाहें तोे इस लूट को नियंत्रित कर सकते हैं। यह कार्य भारतीय सनातन जीवन पद्धति पर आधारित मानव जीवन आश्रम व्यवस्था अपनाने से सम्भव हो सकता है। इस भयाबह आर्थिक चुनौती के विरुद्ध, समाज हित मेें, हम सबकी सकारात्मक एवं रचनात्मक इच्छा शक्ति और कार्य क्षमता अवश्य  होनी चाहिए।
    मई 2012
    मातृवन्दना

  • बोलने की अपेक्षा
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    बोलने की अपेक्षा

    धर्म की जय हो। अधर्म का नाश  हो। प्राणियों में सद्भावना हो। विश्व  का कल्याण हो। गौ माता की जय हो। यह उद्घोष देश  के गांव-गांव व शहर-शहर के मंदिरों में सुबह-शाम सुनाई देते हैं। यहां यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि हम वहां कौन सा उदघोष  कितने जोर से उच्चस्वर में करते हैं बल्कि वह यह है कि हम उसे आत्मसात् भी करते हैं कि नहीं?
    हम धर्म की जय के लिए क्या कर रहे हैं? हमसे कहीं अधर्म तो नहीं हो रहा? प्राणियों में सद्भाना कहां से आएगी? विश्व  का कल्याण कौन करेगा? गौ माता की जय करने के लिए हमारे अपने क्या-क्या प्रयास हो रहे हैं?
    धर्म और अधर्म दोनों एक दूसरे के विपरीतार्थक शब्द  हैं। जहां धर्म होता है वहां अधर्म किसी न किसी रूप में अपना अस्तित्व जमाने का प्रयास अवश्य करता है पर जहां अधर्म होता है वहां धर्म तभी साकार होता है जब वहां के लोग स्वयं जागृत नहीं होते हैं। लोगों की जागृति के बिना अधर्म पर विजय कर पाना कठिन है। धर्म दूसरों को सुख-शांति  प्रदान करता हैं। उनका दुःख-कष्ट  हरता है जबकि अधर्म सबको दुःख, अशांति  और पीड़ा ही पहुंचता  है।
    सद्भावना सत्संग करने से आती है। सत्संग का अर्थ यह नहीं है कि भजन, कीर्तन, और प्रवचन करने के लिए बड़े-बड़े पंडाल लगा लिए जाएं। लोगों की भारी भीड़ इकट्ठी कर ली जाए। स्पीकरों व डैकों से उच्च स्वर में सप्ताह या पंद्रह दिनों तक खूब बोल लिया और फिर उसे भूल गए। सत्संग अर्थात सत्य का संग या उसका आचरण करना जो हमारे हर कार्य, बात और व्यवहार में दिखाई दिया जाना अनिवार्य है। जहां सत्संग होता है वहां सद्भावना अपने आप उत्पन्न हो जाती है।
    इस प्रकार जहां सद्भावना होेती है वहां दूसरों की भलाई के कार्य होना आरम्भ हो जाते हैं। इसी विस्तृत कार्य प्रणाली को परोपकार कहा गया है। जिस व्यक्ति में परोपकार की भावना होती है और वह परोपकार भी करता है, उससे उसका परिवार, समाज, राष्ट्र  और विश्व प्रभावित अवश्य  होता है। परोपकार से विश्व  का कल्याण होना निश्चित  है।
    गौ माता की जय करने के लिए गाय के आहार हेतु चारा पीने के लिए पानी के साथ-साथ रहने के लिए गौशाला और उसकी उचित देखभाल भी करना जरूरी है। उसे बूचड़खाना और कसाई से बचाना धर्म है। जो व्यक्ति और समाज ऐसा करता है उसे उद्घोषणा करने की कभी आवश्यकता  नहीं पड़ती है बल्कि वह उसे अपने कार्य प्रणाली से प्रमाणित करके दिखाता है।
    वास्तव में धर्म की जय, अधर्म का नाश , प्राणियों में सद्भावना, विश्व  का कल्याण और गौ माता की जय तभी होगी जब हम सब सकारात्मक एवं रचनात्मक कार्य करेंगे। यदि विश्व  में मात्र बोलने से सब कार्य हो जाते तो यहां हर कोई बोलने बाला होता, कार्य करने वाला नहीं किसी को कोई कार्य करने की आवश्यकता  न पड़ती।
    28 जून 2009
    कष्मीर टाइम्स

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    अपने प्रति अपनी सजगता

    आलेख - कश्मीर टाइम्स 21.10.1996 
    मानव मन जो उसे नीच कर्म करने से रोकता है, विपदा आने से पूर्व सावधान भी करता है, वह स्वयं बड़े रहस्यमय ढंग से एक ऐसे आवरण में छुपा रहता है जिसके चारों ओर विषय, वासना और विकार रूपी एक के पश्चात् एक पहली, दूसरी तीसरी और चौथी परत के पश्चात् परत चढ़ी रहती है l जब मनुष्य अपनी निरंतर साधना, अभ्यास और वैराग्य के बल से उन सभी आवरणों को हटा देता है , आत्मा का साक्षात् कर लेता है उसे पहचान लेता है और ये जान लेता है कि वह स्वयं कौन है ? क्यों है ? तो वह समाज का सेवक बन जाता है l उसकी मानसिक स्थिति एक साधारण मनुष्य से भिन्न हो जाती है l 
    मनुष्य का मन उस जल के समान है जिसका अपना कोई रंग-रूप या आकार नहीं है l कोई उसे जब चाहे जैसे वर्तन में डाले, वह अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं को उसमें व्यवस्थित कर लेता है l ठीक यही स्थिति मनुष्य के मन की है l चाहे वह उसे अज्ञानता के गहरे गर्त में धकेल दे या ज्ञानता के उच्च शिखर पर ले जाये, ये उसके अधीन है l उसका मन दोनों कार्य कर सकता है, सक्षम है l इनमें अंतर मात्र ये है कि एक मार्ग से उसका पतन होता है और दूसरे से उत्थान l इन्हें मात्र सत्य पर आधारित शिक्षा से जाना जा सकता है l
    संसार में भोग और योग दो ऐसी सीढियाँ हैं जिन पर चढ़कर मनुष्य को भौतिक एवंम अध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है l यह तो उसके द्वारा विचार करने योग्य बात है कि उसे किस सीढ़ी पर चढ़ना है और किस सीढ़ी पर चढ़कर उसे दुःख मिलता है और किससे सुख ?
    महानुभावों का अपने जीवन में यह भली प्रकार विचार युक्त जाना-पहचाना दिव्य अनुभव रहा है कि बुराई संगत करने योग्य वस्तु नहीं है l भोग-चिंतन कुसंगति का बुलावा है l भोग-चितन करने से मनुष्य बुरी संगत में पड़ता है l बुरी संगत करने से बुरी भावना, बुरी भावना से बुरे विचार, बुरे विचारों से बुरे कर्म पैदा होते हैं जिनसे निकलने वाला फल भी बुरा ही होता है l
    बुराई से दूर रहो ! इसलिए नहीं कि आप उससे भयभीत हो l वह इसलिए कि दूर रहकर आप उससे संघर्ष करने का अपना सहस बढ़ा सको l मन को बलशाली बना सको l इन्द्रियों को अनुशासित कर सको l फिर देखो, बुराई से संघर्ष करके l इससे निकलने वाले परिणाम से आपको ही नहीं आपके परिवार, गाँव, शहर,समाज और राष्ट्र के साथ-साथ विश्व का भी कल्याण होगा l वास्तविक मानव जीवन यही है l
    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना सम्भवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l
    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना संभवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l ये उसकी अपनी दुर्बलता है l जब तक वह अपने आप को बलशाली नहीं बना लेता, तब तक वह स्वयं ही बुराई का शिकार नहीं होगा बल्कि उससे उसका कोई अपना हितैषी बन्धु भी चैन की नींद नहीं सो सकता l
    मनुष्य भोग बिना योग और योग बिना भोग सुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे भोग में योग और योग में भोग का व्यवहारिक अनुभव होना नितांत आवश्यक है l वह चाहे पढ़ाई से जाना गया हो या क्रिया अभ्यास से ही सिद्ध किया गया हो l अगर जीवन में इन दोनों का मिला-जुला अनुभव हो जाये तो वह एक अति श्रेष्ठ अनुभव होगा l इसके लिए कोरी पढ़ाई जो आचरण में न लाई जाये, नीरस है और कोरा क्रिया अभ्यास जिसका पढ़ाई किये बिना आचरण किया गया हो - आनंद रहित है l
    जिस प्रकार साज और आवाज के मेल से किसी नर्तकी के पैर न चाहते हुए भी अपने आप थिरकने आरम्भ हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार अध्यन के साथ-साथ उसका आचरण करने से मनुष्य जीवन भी स्वयं ही सस्भी सुखों से परिपूर्ण होता जाता है l
    प्राचीन काल में ही क्यों आज भी हमारे बीच में ऐसे कई महानुभाव विद्यमान हैं जो आजीवन अविवाहित रहने का प्रण किये हुए हैं और दूसरे गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर उच्च सन्यासी हो गए हैं या जिन्होंने तन, मन और धन से वैराग्य ले लिया है l उनका ध्येय स्थित प्रज्ञ की प्राप्ति अथवा आत्मशांति प्राप्त करने के साथ-साथ सबका कल्याण करना होता है l इनके मार्ग भले ही अलग-अलग हों पर मंजिल एक ही है l
    वह ब्रहमचारी या सन्यासी जिसकी बुद्धि किसी इच्छा या वासना के तूफान में कभी अडिग न रह सके, वह न तो ब्रह्मचारी हो सकता है और न ही सन्यासी l उसे ढोंगी कहा जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा – क्योंकि ब्रहमचारी किसी रूप को देखकर कभी मोहित नहीं होता है और सन्यासी किसी का अहित अथवा नीच बात नहीं सोच सकता जिससे उसका या दूसरे का कोई अहित हो l इनमें एक अपने सयंम का पक्का होता है और दूसरा अपने पर्ण का l अपमानित तो वाही होते हैं जो इन दोनों बातों से अनभिज्ञ रहते हैं या वे उनकी उपेक्षा करते हैं l इसलिए समाज में कुछ करने के लिए आवश्यक है अपने प्रति अपनी निरंतर सजगता बनाये रखना और ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे जीवन आत्मोन्मुखी बना रहे l